प्रेम हो जाता है!!!

०४
२०१२
अगस्त
बैंगलुरु आश्रम, भारत
प्रश्न : प्रिय गुरुदेव, प्रेम, आदर और मोह, ये तीनों किस प्रकार सम्बंधित हैं? रिश्तों में इन तीनों को संतुलित कैसे रखें?
श्री श्री रविशंकर : मुझे लगता है कि आपके पास बहुत खाली समय है| आपको व्यस्त हो जाना चाहिये| सिर्फ बैठ कर चिंता मत करिये| प्रेम, आदर, ये सभी भावनाएं आपके भीतर रहती हैं| जब आपका मन और हृदय निर्मल रहते हैं, तब सही समय पर सही भावनायें आती हैं| प्रेम, आदर; ये सब कुछ होते हैं| आप इन्हें पैदा नहीं कर सकते आप अपने अंदर आदर को कहीं से ला नहीं सकते| यदि आप प्रेम और आदर को महसूस करने का प्रयास करेंगे तो आप सफल नहीं हो पाएंगे| इसलिए, आप सिर्फ इतना ही कर सकते हैं, कि स्वयं को तनाव से मुक्त कर सकते हैं, और मन में ज्ञान ला सकते हैं| पूरी दुनिया को एक विशाल दृष्टिकोण से देखना ही ज्ञान है|
यह देखिये, कि क्या स्थायी है, और क्या नश्वर| लोगों की राय हमेशा नश्वर होती है| वे आती हैं और जाती हैं| ये आपको हमेशा याद रखना चाहिये| आदर प्राप्त करने की लालसा मत रखो| कुछ लोग सम्मान देते हैं, कुछ नहीं, कोई बात नहीं| ये उनकी इच्छा पर है| लेकिन अगर आपका जीवन सिर्फ इसी बात पर निर्भर है कि दूसरे आपका कितना सम्मान करते हैं, तो इसका मतलब कि आप एक कमज़ोर व्यक्ति हैं| आप और अधिक कमज़ोर महसूस करते जायेंगे, और जब आप कमज़ोर होते हैं, तभी आप दुखी हो जाते हैं|
आपको ये जानना चाहिये, कि आपको बिल्कुल ज़रूरत नहीं है, कि कोई आपका सम्मान करे| मेरा सम्मान मेरा अपना है, मैं नहीं चाहता कि कोई और मेरा सम्मान करे’| बस इतना ही|
तो आज जब आप यहाँ से वापस जाए, तो ऐसा मत करियेगा, कि दूसरे लोगों का अपमान करें| आप दूसरों का सम्मान करिए, लेकिन खुद सम्मान की अपेक्षा मत रखिये|
कभी कभी लोग ऐसे होते हैं, कि वे थोड़ा सा भी आदर नहीं करते| वे ऐसे ही हैं, कोई बात नहीं| अगर दूसरे आपको सम्मान नहीं देते, कोई बात नहीं| वह उनकी सभ्यता दर्शाता है, उनका विकास दिखाता है|
अगर आप बहुत विकसित हैं, तो आप सभी का सम्मान करेंगे| चाहे वे समझदार हैं, या पागल हैं, आप फिर भी उनका सम्मान करेंगे| तब आप पागल लोगों का भी सम्मान करेंगे, क्योंकि वह आपका स्वभाव है| आप उन्हें इस सृष्टि का अंग मानते हैं| वे इस सृष्टि के हैं, वे ईश्वर के हैं|
इसलिए, अगर आप किसी का सम्मान करते हैं, तो उससे ये पता चलता है, कि आप कितने ज्ञानी हैं|
लेकिन सम्मान की अपेक्षा करना, आपकी कमजोरी को दर्शाता है और दूसरों को सम्मान देना, फिर चाहे वे कैसे भी हों, या उनका ओहदा कैसा भी हो यह बात आपके ज्ञान को दर्शाती है|
प्रेम इस सृष्टि का मूल आधार है| वह कभी विलुप्त नहीं हो सकता| यह हमेशा रहता है| मैं फिर से कहता हूँ, कि प्यार दीजिए, और वह करोड़ों गुणा होकर आप तक वापस आएगा|

प्रश्न : अनन्तता स्वयं को छुपा कर क्यों रखती है?
श्री श्री रविशंकर : ताकि आप उसे खोज सकें|
जब आप उसे पाने की उत्कंठा रखते हैं, तभी आप उसे खोजते हैं| और यह खोज अपने आप में कितनी सुन्दर है|
ईश्वर के प्रति तृष्णा, सर्वश्रेष्ठ के लिए प्यास, - यह अपने आप में ही बहुत सुन्दर है| इसीलिये तृष्णा को राधा कहते हैं| राधा माने तड़प, तृष्णा, और श्याम मतलब प्रेम| ईश्वर के लिए तड़प और प्रेम दोनों साथ साथ चलते हैं| अगर तड़प नहीं है, तो प्रेम भी नहीं है| और अगर प्रेम है, तो तडप का होना भी ज़रूरी है| ये साथ में चलते हैं|

प्रश्न : प्रिय गुरूजी, कृपया असंघोहम का अर्थ बताएं|
श्री श्री रविशंकर : मैं ये नहीं हूँ यह असंगोहम का अर्थ है| उदाहरण के लिए, मैंने ये कपड़ा पहना है, लेकिन मैं ये कपड़ा नहीं हूँ|
ये शरीर मेरा है, लेकिन मैं ये शरीर नहीं हूँ| मैं विचार नहीं हूँ, मैं मन नहीं हूँ| इस तरह, आप एक एक करके, अपनी पहचान के सभी स्तरों को ठुकराते जाईये| और अंत में, जब आप पूछते हैं, मैं कौन हूँ?, आप कुछ नहीं पायेंगे!
मैं कुछ नहीं हूँ, मैं सिर्फ आकाश हूँ|’ यही असंगोहम है|
संगोहम मतलब उसके साथ एक हो जाना| अगर मैं सोचता हूँ, कि मैं मेरे कपड़े हूँ, तो फिर ये एक परेशानी है| मैं अपनी पहचान की इन सभी परतों के परे हूँ|
अगर मैं ये सोचता हूँ, कि मैं मेरे विचार हूँ, या मेरी भावनाएँ हूँ, मेरी संवेदनाएं हूँ; तब मैं अपनी विशाल प्रकृति की सुध खो देता हूँ| इसलिए, अपनी विशालता के अनुभव तक पहुँचने के लिए, हम कहते हैं, मैं ये नहीं हूँ, मैं ये नहीं हूँ; बार बार कहते हैं|
(गुरुदेव गाते हैं)
मनो बुध्यहंकार चित्तानी नाहं, न च श्रोत्र जिह्वे न च घराना नेत्रे
न च व्योम भुमिर न तेजो न वयुह, चिदानंद रूपः शिवोहम, शिवोहम|
मैं मन नहीं हूँ, मैं बुद्धि नहीं हूँ, मैं स्मृति नहीं हूँ, मैं अहंकार नहीं हूँ| मैं ये नहीं हूँ, ये नहीं हूँ, ये भी नहीं हूँ|
यही तरीका है, कि आप एक एक कर ठुकराते जाएँ, जब तक खाली और खोखले आकाश में न पहुँच जाएँ| वास्तव में यह शिव तत्व ही मैं हूँ| यह अनुभव ही ध्यान है, समाधि है|

प्रश्न : प्रिय गुरुदेव, कुछ दिनों पहले आपने गायत्री मन्त्र के बारे में बोला था| कृपया क्या आप बता सकते हैं, कि गायत्री मन्त्र के पहले जो दीक्षा संस्कार होता है, उसका क्या महत्व है?
श्री श्री रविशंकर : हाँ, मन्त्र के पहले दीक्षा संस्कार ज़रूरी है| सिर्फ तभी उस मन्त्र में शक्ति आती है| आप केवल एक किताब में से पढकर मन्त्र का जाप नहीं कर सकते| इसे किसी ऐसे व्यक्ति से प्राप्त करना ज़रूर है, जो इस जप का निरंतर जाप करता हो|

प्रश्न : गुरुदेव, आपके लिए जो प्रेम है, उससे उत्पन्न होने वाले असहनीय दर्द का क्या निवारण है?
श्री श्री रविशंकर : (हँसते हुए) लिखना शुरू कर दीजिए; कुछ कवितायेँ आ सकती हैं| कुछ प्रोजेक्ट पर काम करना शुरू कर दीजिए| सेवा करिये, टीच करिये, और ज्ञान में डूब जाईये| ये सब आपके भीतर की तड़प में से रचनात्मकता को बाहर लाएगी|

प्रश्न : मेरे प्यारे गुरुदेव, मैं जब भी अपने दिल में झांकता हूँ, आपको पाता हूँ| आपने मुझे बाँध लिया है, माप लिया है, और पका दिया है| क्या आप मुझे बता सकते हैं, कि आप मुझसे क्या पकवान बना रहें हैं?
श्री श्री रविशंकर : (हँसते हुए) सुनिए! आप बहुत बढ़िया हैं, आप इतने पूर्ण हैं, और इसीलिये आप इतने गहरे भाव को महसूस कर सकते हैं|
जिसके अंदर भाव नहीं है, वह आनंद का भी मज़ा नहीं ले सकता, और शान्ति का भी मज़ा नहीं ले सकता| अगर कोई बुद्धि में अटका हुआ है, तो उनका जीवन नीरस ही रहता है| न तो उनके जीवन में कोई शान्ति है, न प्रेम और न ही आनंद| जब आनंद ही नहीं है, तब इच्छाएं और लालसायें इन्सान  को घेर लेती हैं| इसलिए, बहुत अच्छा है, कि ये दोनों हों|
भगवद्गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं, नास्ति बुद्धिर अयुक्तास्य न चायुक्तस्य भावना, न चाभावयतः शान्तिर अशांतास्य कुतः सुखम
जो अपनी आत्मा से जुड़ा नहीं है, उसके न तो बुद्धि है, न ही कोई तीव्र भाव है| और अगर आपके अंदर तीव्र भाव नहीं है, तब न तो आपके लिए शान्ति है, न ही आनंद है| ये कितना सच है|
इसलिए, मुझे यकीन है, कि जब आप अच्छे से पक रहें हैं, तब आप दुनिया के लिए एक हीरा बन कर निकलेगें| आप सबके लिए एक उपहार होंगे|