भ्रम के तीन प्रकार

३०
२०१२
जुलाई
बैंगलुरु आश्रम, भारत

प्रश्न : प्रिय गुरुदेवजब हम ध्यान करते हैहमे कितना आनंद मिलता हैहम कैसे वह स्थिति कायम रखे, ध्यान के साथ या उसके बिना भी
श्री श्री रविशंकर : ज्ञान और वैराग्य से| जब हम पूरी दुनिया को एक सपने की तरह देखतें हैं, तब कार्यरत रहतें हुए भी वह ध्यान की स्थिति रख सकतें हैं| किन्तु उसकी मनोस्थिति पैदा न करें, आप इसकी मनोदशा न बनायें| सहजता से जीवन जियें, जैसे और लोग भी जीतें हैं, सरलता से, सहजता से|इसमें से मनोस्थिति पैदा न करें, ठीक है! और शान्ति के लिए भी निर्भर न कीजिये| और यदि हम शान्ति पर निर्भरता रखते हैं तो ज्यादा परेशानी होती है
कोई बात नहींजब तक आप यह जानते है की यह दुनिया का स्वभाव है|
कन्नडा भाषा में एक सुन्दर दोहा हैं, "आप उसे क्या कह सकते हैं जो समंदर के किनारे घर बनाता है और लहरों से डरता हैं| आप उसे क्या कह सकते हो जो जंगल में घर बनाता है और पशुओं से डरता हैं| उसे आप क्या कह सकते हो जो शहर के बींच में में घर बनाता है और ध्वनि प्रदुषण से डरता हैं| बाज़ार के बीच में उन्होंने घर बनाया हैं और शोर से प्रत्युर्जतिक हैं| आप उन्हें क्या कह सकते हैं?" उसी तरह से हम इस पृथ्वी ग्रह पर हैं, इस दुनिया में, सुखद बातें होती हैं और अप्रिय/दुखद बातें भी होतीं हैं| लोग आपकी प्रशंशा करतें हैं और अकारण आपकी निंदा भी करतें हैं| आप को बस उन्हें लेकर आगे बढ़ना चाहियें| क्या यह बहुत अच्छी सलाह नहीं है?

प्रश्न : प्रिय गुरुदेव, बायबल में कहाँ गया है की एक अमीर व्यक्ती का इश्वर के राज्य में प्रवेश करना मुश्किल हैं लेकिन उसकी तुलना में ऊंट के लिए सुई की आख से निकलना आसान हैंक्या इसका मतलब यह है की एक अमीर व्यक्ति को नरक में बर्बाद होना पड़ेगा सिर्फ इसलिए क्योंकि वह अमीर हैं?
श्री श्री रविशंकर : नहीं! यह संतों और भविष्यवक्तयाओं की वाणी अलग अलग समय पर अलग अलग लोगों को दी गयी थी| इशु ख्रिस्त ने कहा था की मैं यहाँ पर शान्ति बनाने नहीं आया हूँ| मैं आया हूँ एक पुत्री को माता के खिलाफ करने और एक पुत्र को पिता के खिलाफ करने| इसका यह मतलब नहीं की उन्हें परिवार पसंद नहीं थे या वह परिवारों का विभाजन करने आये थे|
तो जो कहा गया था वह एक उदहारण के तौर पर था ताकि लोगों में करुना जग सकें| जब चारों ओर  गरीबी है और कोई (व्यक्ति) बहुत ज्यादा मजे कर रहा हैं, कोई सेवा कियें बिना, पूरा सौ प्रतिशत अपने ऊपर खर्च करता हैं या करती हैं, तो उस व्यक्ति का ह्रदय कठोर हैं, एक पत्थर की तरह| जब कोई एक पत्थर की तरह होता हैं और भीतर कोई कोमलता नहीं हैं तो स्वर्ग काफी दूर हैं| यह उसका सार हैं| अभी अभी मुझे ख्याल आया; हमें कुछ ५० लाख के मूल्य की दवाई अस्सम में भेजनी चाहियेंहमें ५० लाख के मूल्य की कुछ आयुर्वेदिक औषधियां खरीदनी चाहियें| तो हर कोई थोड़ा बहुत योगदान करे और हम वहाँ के लोगों को दे सकते हैं| मैं जल्द ही अस्सम की मुलाकात करने की सोच रहां हूँ, देखते हैं| पहले कदम के तौर पर उन्हें औषधियों की जरुरत पड़ सकती हैं|हम सभी कुछ करेंगे| हम कितने सारे लोग हैं, यदि हम सभी ५०० रुपये प्रति व्यक्ति दे सके तो हम काफी कुछ कर सकते हैं| हम उन्हें औषधियां भेज सकते हैं| और कुछ आयुर्वेदिक तबिबों को भी यहाँ से अस्सम में जाना चाहियेंहम उन्हें अस्सम भेजेंगे

प्रश्न : प्रिय गुरुदेव, किसी विद्वान् ने कहा हैं कि यदि कोई आपको एक गाल पर थप्पड़ मारे तो आपको दूसरा गाल भी आगे करना चाहियें| मुझे इस सौदेबाजी में दो बार थप्पड़ खानी पड़ी| क्या करें, क्या यह मेरी अज्ञानता हैं?
श्री श्री रविशंकर : क्या आपको थप्पड़ एक ही व्यक्ति से पड़ी या अलग अलग लोगों से पड़ी? यह उस चीज़ पर निर्भर करता हैं| आपको पता हैं, आप अलग अलग लोगों को अपना गाल धर सकते हैं और वे लोग आपको केवल एक ही बार थप्पड़ मारेंगे, यह आपकी बुद्धिमानी की निशानी नहीं हैं, ठीक हैं! आपको देखना चाहियें की जो व्यक्ति आपको एक गाल पर थप्पड़ मारता हैं, यदि वह व्यक्ति संवेदनशील और सुसंकृत हैं तो आप अपना दूसरा गाल दे सकते हैं, बेशक| लेकिन यदि वह व्यक्ति असंवेदनशील हैं तो फिट तीसरी बार नहीं, क्योंकि आपके पास केवल दो ही गाल हैं, ठीक हैं!

 प्रश्न : गुरुदेव, मितव्ययिता क्या हैं? सादा सीधा कैसे बन सकें?
श्री श्री रविशंकर : न्यूनतम आवश्यकताओं के साथ जीना; अपनी आवश्यकताओं को कम करना|मुझे यह चाहिए, वह चाहिए नहीं! जो कुछ भी आपके पास हैं, उससे संतुष्ट रहे| आपके लिए एक वाहन यह काफी हैं| आपको यह कहने की आवश्यकता नहीं हैं की आपको ऐसा वाहन चाहियें जो ५० लाख या १५ लाख या २० लाख की कीमत का हो, नहीं| एक सादा अच्छा वाहन सफ़र करने के लियें काफी हैं| अच्छे कपडे पहनने के लिए अच्छा भोजन खाने के लिए यह काफी हैं| मितव्ययिता का मतलब यह नहीं है की आप अपने को यातना दे| आप जितना खा सकते हैं, उससे आधा ही खाएं, ऐसा नहीं हैं| मितव्ययिता का मतलब सरलता, बस केवल न्यूनतम होना| जो भी आपको चाहियें वह न्यूनतम मात्रा में हो, और उसके साथ खुश रहना|

प्रश्न : प्रिय गुरुदेव, भगवद गीता में, कृष्ण कहतें हैं, "योगक्षेमं वहाम्यहम" जो मुझे मिल रहा हैं वह इश्वर से ही मिल रहां हैं, लेकिन मेरी समझ में यह नहीं आता की इश्वर वापस कैसे ले लेता हैं?
श्री श्री रविशंकर : खैर, सोचते रहिये| पूरी दुनिया आपको मिली हैं और एक दिन पुरी दुनिया आपसे वापस ले ली जायेगी|तो यह निर्माण का एक हिस्सा हैं| ऐसा नहीं है की यह सब इश्वर कहीं ऊपर बैठकर कर रहा हैं|पूरी दुनिया पूरा ब्रह्माण्ड एक प्रकिया हैं|यह हर समय होता रहता हैं|

प्रश्न : प्रिय गुरुदेव, अपने आप पर शक करना कैसे दूर कर सकते हैं, जैसे की अपनी क्षमताओं और हमारा गुरु पर विश्वास?
श्री श्री रविशंकर : केवल प्राण शक्ति को बढ़ाएं|जब प्राण शक्ति कम हो जाती हैं, स्वयं के ऊपर शक होने लगता हैं|जब स्वयं के ऊपर शक होता है तो कुदरती है की वही शक अपने गुरु के ऊपर भी होता है और फिर सभी लोगों पर, आपके दोस्तों और परिवार पर| पूरी दुनिया पर यह अंकित हो जाता हैं|तो ज्यादा प्राण, ज्यादा जीवन्तता, भीतर से ज्यादा शक्ति, यह विश्वास पर अनुपातिक हैं

प्रश्न : अहंकार, घमंड और आत्मसम्मान के बीच में क्या अंतर हैं?
श्री श्री रविशंकर : अहंकार और घमंड के बींच कोई अंतर नहीं हैं, " मैं हूँ" यह अहंकार हैं| "केवल मैं ही अच्छा हूँ, बाकी कोई भी अच्छा नहीं हैं," यह घमंड हैं|अलग अलग प्रकार के घमंड होते हैं| आत्मसम्मान कुछ ऐसा हैं जो आप कभी नहीं खो सकते हैं|एक बार आप स्वयं को जानते हैं तो स्वयं के बारे में सम्मान जगता हैं और यह आत्मसम्मान होता हैं|यदि कोई आपका अपमान कर रहा हो तो आपको वहा से हट जाना चाहिए|यदि आप अपशब्दों को सुनते रहेंगे और भीतर लेते रहेंगे, वह आत्मा को दर्द देता हैं| आत्मा को दुःख होता है और आपकी उर्जा कम हो जाती हैं|तो कभी भी कोई आपका अपमान कर रहा हो या कोई आपको गाली दे रहा हो, उसे न सुनें| यह एक नयी चीज़ सीखी आज हमने!

प्रश्न : ऐसा कहा जाता हैं की अहंकार के बिना, स्वयं प्रयास नहीं होता और ऐसा भी कहा जाता है की अहंकार नहीं होना चाहिए|
श्री श्री रविशंकर : हाँ, दोनों ही सहीं हैं! आपको "इंटिमेट नोट टू ध सिंसिअर सीकर" यह किताब पढनी चाहिए| मैंने यह सब उसमे विस्तारपूर्वक कहा हैं|

प्रश्न : प्रिय गुरूजी, माया क्या है और इसके कितने प्रकार हैं, इस पर कृपया रौशनी डालिए|
श्री श्री रविशंकर : तीन प्रकार की माया होती हैं|
पहली है मोह माया| जब कोई धन या संतान से इतना जुड़ जाता है कि वह उसे अंधा कर दे, तो उसे मोह माया कहते हैं|
बहुत से लोग हैं जो बस धन, धन, धन के पीछे लगे रहते हैं| वे अपने बीवी, बच्चों, माता-पिता, दोस्तों, रिश्तों की कोई परवाह नहीं करते| केवल धन महत्वपूर्ण होता है| और धन के लिए वे किसी पर भी कानूनी मुकद्दमे भी करने को तैयार रहते हैं| वे अपनी माँ पर मुकद्दमा कर देंगे, उनको मानसिक रूप से अस्थिर सिद्ध कर देंगे, अपने पिता को मानसिक रूप से अस्थिर सिद्ध कर देंगे और सबके साथ धन के लिए लड़ेंगे| किसी की ह्त्या करने की सीमा तक भी जा सकते हैं यह मोह माया है| इसी प्रकार कुछ लोग हैं जो अपने बच्चों के लिए रोते रहते हैं| वे बस अपने बच्चों को चौबीस घंटे अपने पास चाहते हैं; वे यह भी नहीं समझते कि बच्चे के लिए क्या भला है| ऐसा कर के वे बच्चे का जीवन भी खराब कर देते हैं, और स्वयं भी जीवन भर उदास रहते हैं यह मोह माया है|
क्या है यह? वह जिसके होने से आपको अत्यधिक हर्ष नहीं होता पर जिसके ना होने से आपको दुःख होता है वह मोह माया है|
फिर है महा माया| महा माया सृष्टि से उत्पन्न होती है| यह हमें इस प्रकार से ढक देती है कि हम कुछ भी स्पष्ट नहीं देख पाते| हम अटक जाते हैं और उसकी निष्क्रियता में बंध जाते हैं| हम संवेदना और भावनाओं से रिक्त हो जाते हैं, पत्थर की तरह|
फिर है योग माया| योग में भी माया है| यह बहुत दिलचस्प है| आपने हाल ही में निर्मल बाबा का किस्सा देखा होगा| (भारत के एक आध्यात्मिक गुरु जिन पर दोष लगा है छल और गैर कानूनी गतिविधियों का, आध्यात्म के नाम पर|) वे लोगो को आशीर्वाद देते रहे पर लोग उन्हें ढोंगी और धोखेबाज़ कहते हैं| ऐसा नहीं है| वे निर्दोष और भले व्यक्ति हैं, पर वे योग माया में फंसे हैं|
कभी कभी, योग और साधना (आध्यात्मिक अभ्यास) के निरंतर अभ्यास से कुछ दिव्य शक्तियां स्वयं में जागृत हो जाती हैं| जब ऐसा होता है, तो आप पूर्वानुमान लगा सकते हैं कि भविष्य में क्या होने वाला है| आपको अंतर्बोध हो जाता है भविष्य की घटनाओं के बारे में| अब यदि आप अंदर से पूर्ण रूप से खाली और खोखले नहीं हैं, यदि आप में कुछ भी तृष्णा है, तो वह बाधा डालती है आपके अंतर्बोध में| और फिर अंतर्बोध १०० प्रतिशत सत्य नहीं होगा| ५०-६० प्रतिशत सत्य होगा और बाकी झूठा निकलेगा|
इसी प्रकार मैं एक महिला को जानता हूँ जो योग माया में फँस गयी थीं| उन्होंने २५-३० वर्ष तक कठोर साधना की और कुछ सिद्धियाँ प्राप्त कीं| वह देवी माता की उपस्थिति का आभास करने लगीं और उन्हें लगा कि देवी माता उनको मार्ग दिखा रही हैं, उन्हें यह या वह करने को कह रही हैं| यह महिला अपने पति के साथ थीं और उन्हें लगा देवी माँ उन्हें कह रही हैं कि अपने पति को मधुमेह की दवाईयां ना दें| वह रोगमुक्त हो जायेंगे, तुम बस उनको आशीर्वाद देती रहो, उन्हें यही सुनाई दिया| तो वह आशीर्वाद देती गयीं अपने पति को| वह अपने पति से कहतीं, माँ स्वयं मेरे पास आयीं और बोलीं तुम्हें  मधुमेह की दवाइयां ना दूं| उन्होंने अपने पति को कोई दवाई नहीं दी और उनके पति की दोनों आँखों की रौशनी चली गयी|
जब वह और लोगों से बात करतीं तो उन सबको बहुत अच्छा लगता| उनका कहा हुआ बहुत कुछ सच भी होता था| पर इस घटना के बाद वह अत्यधिक विचलित हो गयीं  और मेरे पास आ कर पूछने लगीं, गुरूजी, मेरे साथ ऐसा क्यों हुआ? मेरे पति अंधे क्यों हो गए?
मैंने कहा, आप योग माया में फँसी हैं|
यही निर्मल बाबा के साथ हुआ था|
देखो, कुछ बातें आप समझ सकते हैं, कुछ नहीं| आप अवश्य लोगों को आशीर्वाद दे सकते हैं| जब कुंडालिनी शक्ति भीतर से उठती है, आप में आशीर्वाद देने की शक्ति आती है| और आशीर्वाद अच्छे, और लोगों के लिए लाभदायक होते हैं| पर जब ये आशीर्वाद भीतरी तृष्णाओं, जैसे उत्तम भोजन, से फ़ीके हो जाते हैं, तो ये तृष्णाएं अंतर्बोध में खलल डालती हैं| और जो सन्देश और आशिर्वाद लोगों को दिए गए वे भी इसी प्रकार के थे| तो यह कुछ दिन तक चलता रहा पर जल्दी ही सब ढह गया| वे योग माया में फँस गए और कोई नहीं था जो उन्हें यह समझा पाता| वे स्वयं भी नहीं समझ पाए|
जब व्यक्ति इसे समझ लेता है, तो वह सिद्धियों में उलझता नहीं है| तब व्यक्ति स्थिर रहता है अपने आप में और ज्ञान में केंद्रित रहता है| तब आशीर्वाद स्वतः बहने लगते हैं|
हमारे पास कितने सारे आशीर्वाद देने वाले हैं| कितने लोग यहाँ पर आशीर्वाद देते हैं? अपने हाथ उठाइए| क्या आपके आशीर्वाद सार्थक नहीं होते? (सभा में हाँ का उंचा स्वर उठता है)| देखा, आप भी आशीर्वाद दे सकते हैं|
जब आप भक्ति में होते हैं, और अपने योग या अभ्यास में कायम होते हैं, तब आप लोगों को आशीर्वाद देने कि शक्ति प्राप्त करते हैं, और लोग रोगमुक्त होते हैं, उनकी इच्छाएं और प्रार्थनाएं पूरी होती हैं| ऐसी सिद्धि निश्चित ही योग और आध्यात्मिक अभ्यास से आती है| 
पर यदि हम इसे झूठ और अंधविश्वासों से जोड़ दें; जैसे गुमराह करना किसी को कि उन पर कृपा तभी होगी जब वे दस भूखे लोगों को भोजन कराएँगे, या किसी कुत्ते को रोटी खिलायेंगे, इत्यादि, तो यह सही नहीं है|
कृपा कारण विहीन है, बिना योग्यता के अहेतु की कृपा| यह किसी कारण या योग्यता से नहीं पाई जाती| कृपा बिना शर्तों के मिलती है| ऐसा नहीं है कि कुछ करने के उपरान्त ही आपको कृपा प्राप्त होगी; तब वो कृपा नहीं, व्यवसाय है| आपको कृपा का आशीर्वाद ऐसे ही मिलता है बिना किसी भी शर्त के| कृपा सदैव रहती है| बस इसके प्रति जागरूक रहिये और जानिये कि आप पर कृपा की वर्षा हो रही है|
जितना हम शुक्रगुजार होते हैं, उतनी ही हम पर कृपा रहती है| जो मन हमेशा शिकायत करता रहता है वह कृपा का अनुभव नहीं कर सकता| शुक्रगुज़ार बनिए|
और आप जितने संतुष्ट बनेंगे, उतना ही कृपा का अनुभव करेंगे|
ऐसा मत सोचिये कि कोई ख़ास प्रकार की कृपा है| कृपा हमेशा है, हम बस उसके मूल्य को समझने लगते हैं| कृपा ऐसी वस्तु है जो बंद बटुए में भी जा सकती है| आपको कृपा पाने के लिए अपना बटुआ खोलने की आवश्यकता नहीं है| यदि कोई आपको कहता है कि कृपा तभी मिलेगी जब आप पैसे दें, तो समझ लीजिए कि कहीं कुछ गलत अवश्य है|
भगवान हमेशा ढेर सारी कृपा देते हैं| आपको अपने बटुए में से पैसे देने की आवश्यकता नहीं है इसे पाने के लिए| परन्तु, यदि ऐसे भ्रामक विचार मन में उठते हैं, तो इसे योग माया कहते हैं| इसके लिए किसी को दोषी नहीं ठहराना चाहिए|
आपको इसे आध्यात्मिक गुरुओं के विरोध में नहीं देखना चाहिए, जो इसका अभ्यास करते हैं| उनके मन में कोई कपट नहीं होता क्योंकि वो सबको आशीर्वाद देते हैं| पर जब यही गुरु या साधक इसके माध्यम से पैसा बनाने लगते हैं, एक व्यवसाय की भांति, तब उनकी आशीर्वाद देने की शक्ति भी क्षीण हो जाती है|
क्या आप समझ रहे हैं? उनकी सही अंतर्दृष्टि गुम हो गयी थी|
तो, जब आप किसी को आशीर्वाद देते हैं, तो उसे एक सौदा मत बनाइये| आपको आशीर्वाद खुल के, बिना मूल्य लिए देने चाहिए| पर यदि कुछ लोग आपको धन अपनी श्रद्धा से देते हैं, आपसे आशीर्वाद पाने के बाद, तो उसे स्वीकार कर लीजिए और भले काम में उपयोग करिये|
यह धन मांग कर आशीर्वाद देने की प्रथा हर धर्म में आ गयी है| कोई कहेगा इतना दान करिये आशीर्वाद के लिए, यह सही नहीं है| कृपा बिना किसी शर्त के आपके पास आती है|
अब आप पूछ सकते हैं, कि आर्ट ऑफ लिविंग के कोर्स के लिए हमें पैसे क्यों देने पड़ते हैं| यह किसी के मन में अगला प्रश्न हो सकता है| कारण है शिक्षा या ज्ञान बिना दक्षिणा के प्राप्त नहीं हो सकता|
आशीर्वाद बिना किसी कीमत के दिए जाते हैं| पर जब किसी को शिष्य बन कर कुछ सीखना होता है, तब बिना दक्षिणा अर्पण किये वह कार्य एक तामसिक यज्ञ बन जाता है| यह एक यज्ञ है  - एक पवित्र और धार्मिक रिवाज़|
हम यहाँ कुछ सीख रहे हैं| कुछ दे कर ही आप ज्ञान पा सकते हैं| यह ज्ञान हमारे पास तभी रहता है जब हम इसके बदले में कुछ उपयुक्त मूल्य अदा करते हैं|
यह तथ्य धार्मिक ग्रंथों से आया है| अभी इस बात को एक ओर रख देते हैं| आजकल का अनुभव क्या है? जब आप शुल्क दे कर कक्षा में बैठते हैं, तो आप इमानदारी से सीख पाते हैं और अपना ध्यान भी लगाते हैं| यदि हम मुफ्त में कोर्स करें तो लोग एक दो दिन आ कर तीसरे दिन भाग जायेंगे| वे अपना पूरा ध्यान और एकाग्रता नहीं देंगे|
इसलिए, शिष्य के फायदे के लिए, हम फीस लेते हैं| पर यदि आपको कोई कहता है कि वो आपसे पैसे ले कर ही आपको आशीर्वाद देगा, तो आपको ऐसे लोगों से दूर रहना चाहिए| वे योग माया में फंसे हैं|

इसलिए, मीडिया और लोग निर्मल बाबा को ढोंगी कह रहे हैं| वे खुद भी अचंभित होंगे, न जानते हुए कि क्या हुआ है| जो आशीर्वाद अब तक ठीक काम कर रहे थे उनको क्या हो गया? शक्ति कैसे एक दम से क्षीण हो गयी?
यह होता है साधना के पथ पर|
इसी लिए कहा जाता है, श्रोत्रियम ब्रह्मनिष्ठ्म - एक गुरु को श्रोत्रिय, अर्थात वह जिसे पूर्ण अंतर्दृष्टि हो ग्रंथों के अर्थ की और उसे सबसे उपयुक्त भाषा में व्यक्त करने की क्षमता हो| ब्रह्मनिष्ठ वो है जिसे सत्य का ज्ञान है|
जब तक कोई श्रोत्रिय और ब्रह्मनिष्ठ नहीं बनता, ऐसी शक्तियां और खेल कुछ दिन ही चलते हैं, जिसके बाद इन सब का अंत हो जाता है| इस लिए, यह सब योग माया का खेल है| यहाँ भी कुछ ऐसा ही हुआ| एक महिला यहाँ आयीं और जिन लोगों ने उन्हें देखा, उन्हें लगा कि वो प्रत्यक्ष देवी माँ हैं! मैंने उन्हें आदरपूर्वक अपना स्थान लेने को कहा|
हाँ, यह सब देख कर क्रोध आता है| ऐसी बातों पर क्रोध आना स्वाभाविक है| पर क्रोध के आवेश में कुछ भी कहना या करना आपकी शक्ति को कम करता है|
जब ये सिद्धियाँ या शक्तियां किसी व्यक्ति में जागरूक होती है, तो वे उन्हें एक और ही स्तर पर ले जाती हैं| ऐसे समय कोई सम्बन्ध नहीं रहता यहाँ जो हो रहा है उस से| यह समय है जब मन अपने खेल खेलता है| तो ऐसा नहीं है कि वे बुरे या बेईमान हैं|
हाँ, कुछ बेईमान लोग भी हैं, पर इतने सारे लोग हैं जो केवल योग माया में फंसे हैं|
योग साधना में भी आवश्यक है कि योग माया से उभरा जाए| तभी व्यक्ति पूर्णता और सिद्धियाँ प्राप्त कर सकता है| तब तक जीवन में पूर्णता नहीं आती|
जब आप साधक होते हैं, यदि आप देखें, साधक पहले श्राप देने कि शक्ति प्राप्त करते हैं| इसी लिए कहते हैं किसी के लिए कुछ बुरा मत कहो| यदि कोई भी बुरा विचार या क्रोध किसी के लिए आपके मन में आता है, तभी वो उनका कुछ बुरा कर देता है| है न?
कितने लोगों को ऐसा अनुभव हुआ है? आप किसी पर क्रोधित हुए और उसी क्षण उनका नुकसान हो गया? आपके साथ ऐसा नहीं हुआ? (बहुत से लोग हाथ उठाते हैं)
इस लिए, किसी का बुरा मत चाहो| और सबको आशीर्वाद दो, इस में कंजूसी मत करो|यह मत सोचो, अगर मैं किसी को आशीर्वाद दूंगा तो मेरी शक्ति कम हो जायेगी| कुछ लोगों को ऐसा भी लगता है| यह भी योग माया है|
योग माया के बहुत प्रकार हैं| कुछ लोग अशांत हो जाते हैं यदि कोई उनको छू लेता है| वे सोचते हैं कि उस व्यक्ति ने उनकी सारी शक्ति खींच ली है| आप इतना क्यों डरते हैं? हम सब चेतना के समुद्र में डूबे हैं| हाँ, हमें कुछ नियमों और अनुशासन का पालन करना चाहिए; यह आवश्यक है|
तो, योग माया छोटी छोटी सिद्धियों में फंसने की प्रकृति है| जब आप इसके आगे बढ़ते हैं तो आप सहजता से सिद्धियाँ प्राप्त करते हैं| और तब आप औरों को आशीर्वाद देते हैं, उनकी इच्छाएं और कामनाएं पूरी होती हैं|