प्रयत्न और प्रार्थना, दोनों एक दूसरे के पूरक हैं

बैंगलोर आश्रम, २२ नवंबर २००९

अगर हम रोज़ प्रेम व्यक्त करते रहते हैं तो वो सिर्फ़ शब्द रहे जाते हैं जिनमें भाव नहीं रहता। अगर रोज़ कहते रहो, "मैं तुम्हें प्रेम करता हूँ।" तो अंतत: ये हो जाता है, "मैं तुम्हें बर्दाश्त नहीं कर सकता।" ज़रुरत से अधिक अभिव्यक्ति बात को बिगाड़ देती है। अगर बिलकुल अभिव्यक्त ना करो, तब भी ठीक नहीं है। संतुलन होना चाहिये। जैसे कि एक बीज को अगर सतह पर ही रख दोगे तो वो उगेगा नहीं, और ना ही तब उगेगा जब वो धरती के भीतर बहुत गहरा दब गया हो। इसे सही गहराई पर बोने की आवश्यकता है, संतुलन की आवश्यकता है।

प्रश्न: औरा को साफ़ करने में नींबू का क्या महत्व है?
श्री श्री: तुमने कभी माइक्रोस्कोप से नींबू के रस को देखा है? वो सूर्य की किरणों की तरह दिखता है। विटामिन सी को माइक्रोस्कोप से देखो तो वो सूर्यमुखी के फूल की तरह दिखता है। कुछ पदार्थ जैसे कि नमक, नींबू और सही मात्रा में मिर्च ऐसी शक्ति रखते हैं कि वो नकरात्मक ऊर्जा को मिटा देते हैं। यहाँ श्रद्धा भी काम करती है। अगर तुम कोई दवा भी लेते हो और तुम्हें उस दवा या उसे देने वाले डाक्टर पर भरोसा नहीं है तो शायद वो दवा तुम पर असर ना करे।

प्रश्न: शक्ति और भक्ति कैसे प्राप्त कर सकते हैं?
श्री श्री: विश्राम से तुम भक्ति को प्राप्त करते हो। जब तुम विश्राम के साथ में प्रयत्न लगाते हो तब तुम्हें शक्ति मिलती है। प्रयत्न और प्रार्थना, दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। एक दूसरे के बिना दोनों अधूरे हैं। किसी कार्य की पूर्णता के लिये दोनों की आवश्यकता है। आमतौर पर महिलायें केवल प्रार्थना करती हैं और पुरुष केवल प्रयत्न करते हैं। प्रार्थना और प्रयत्न दोनों को ही करना होगा।

प्रश्न: मैं परिवार और आजीविका में किस को चुनू, ये तय नहीं कर पा रहा हूँ।
श्री श्री: आजिविका पर ध्यान दोगे तो माता पिता भी तुम पर प्रसन्न होंगे। अगर आजिविका के अभाव में तुम घर पर बैठ जाओ तो क्या उन्हें अच्छा लगेगा? नहीं! इस तरह से परिवार और आजिविका दोनों एक साथ आ गये।

प्रश्न: मैं जीवन में कभी सफल नहीं हुआ। मैं अपने आप को अपने माता पिता पर बोझ समझता हूँ।
श्री श्री: आलस छोड़ो और अधिक नुक्ताचीनी ना करो। जो भी काम मिले उसे करो। ये ना सोचो कि कोई काम तुम्हारे लिये तुच्छ है। ये ना सोचो कि तुम सफल नहीं हो। हर काम आदर और प्रतिष्ठापूर्ण है।

प्रश्न: गुरुजी, मेरे परिवार में कुछ अलगाव है। एक सदस्य ’आर्ट आफ़ लिविन्ग’ को मानता है। दूसरा सदस्य किसी और आध्यात्मिक मार्ग, प्राणिक चिकित्सा की पद्दति पर चलता है।
श्री श्री: दोनों अपने अपने आध्यात्मिक मार्ग पर दृढ़ रहो।

प्रश्न: ध्यान करते समय, मन कई जगह जाता है। एक बार आपने कहा था कि, "मन जहां भी जाये उसे जाने दो।" क्या इसका अर्थ हुआ कि मेरा और मेरे मन का अस्तित्व अलग अलग है? अगर ये सच है तो मेरा मन क्या है और मैं कौन हूं?
श्री श्री: जब तुम अपने मन को रोक कर रखने की कोशिश करते हो तो ये इधर उधर भागता है। जब तुम इस भागते मन को देखते हो तो तुम्हें ये एहसास होता है कि तुम अपने मन से बड़े हो। जब तुम ये जान लेते हो कि तुम मन नहीं हो, शरीर नहीं हो, कुछ और नहीं हो, जो बचता है वही तुम हो। अपने आप को जान कर तुम श्रेष्ठतम को जान लेते हो। तुम पाते हो कि तुम ही सर्व हो। तुम ही मन हो। तुम ही विचार हो। तुम ही पूरा संसार हो। पर ये होता है दूसरे स्तर पर। जब तुम स्वयं को जान लेते हो, तुम दैवी शक्ति को जान लेते हो। सर्व खल्विदम ब्रह्म - सब वही एक शक्ति है। ये जानकर ज्ञान में स्थापित हो जाओ।

प्रश्न: गुरुजी, एक बार आपने कहा था कि इच्छायें आती हैं, जाती हैं। जिन इच्छाओं को पूर्ण होना होता हैं वे रहती हैं, बाकी गायब हो जाती हैं। पर उन इच्छाओं का क्या जो रहती हैं, पर पूरी नहीं होती?
श्री श्री: प्रतीक्षा करो और दृढ़ रहो।

प्रश्न: मैं यहां आने के लिये इतना पागल क्यों रहता हूं?
श्री श्री: क्योंकि मैं भी ऐसा ही हूँ। कोई अमीर ही दूसरे को अमीर बना सकता है। कोई मुक्त ही दूसरों को मुक्त करा सकता है। एक भक्त ही दूसरों में भक्ति को जगा सकता है। ईशवर से प्रेम करने वाला व्यक्ति दूसरों को भी वैसा बना देता है। जो तुम्हारे भीतर है, वही दूसरे तुम से ले पाते हैं। जो तुम्हारे भीतर है, वही तुम दूसरों में देखते हो।

प्रश्न: जीवन साथी(Soul mate) क्या है?
श्री श्री: पहले अपनी आत्मा (Soul) से मिलो, फिर जीवन साथी (Soul mate) के बारे में जान सकते हो।



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