बैंगलौर, ११ नवंबर २००९
ग्रामीण महाराष्ट्र के सैकड़ों युवाचार्यों और एक विशेष एडवांस कोर्स के ७३० सहभागी सत्संग
में थे | सत्संग में गहन ज्ञान से परिपूर्ण एक गीत गाया जाता है | गुरु जी इस गीत
के कुछ अंशों पर वार्ता की| फिर वह कहते हैं :
संगीत समझने के लिए नहीं, आनंदित होने के लिए है | यदि जो कहा जा रहा है तुम नहीं समझ पा रहे हो, तो पूरी वार्ता को संगीत की तरह सुनो| महाराष्ट्र के सभी युवाओं के लिए, मैं हिंदी में कुछ शब्द कहना चाहूंगा| तुम सभी ने बहुत अच्छा काम किया है |
जीवन में हम कुछ चीजें पसंद करते है और कुछ नहीं | किसी वस्तु के लिए पसंद और नापसंद केवल तभी उठती है जब हम उसके बारे में कुछ जानते हैं| यदि हम नहीं जानते, तो रूचि-अरुचि हो ही नहीं सकती | मोह (लगाव), राग (लालसा) और इच्छाएं उन्हीं के लिए उठती है, जिन्हें हम जानते हैं | अरुचि और घृणा भी उन्हीं के लिए उठती हैं, जिन्हें हम जानते हैं|
इस विश्व के बारे में हम कितना जानते हैं? इस सृष्टि के आकार की तुलना में हमारा ज्ञान सरसों के बीज के आकार से भी कम है| फिर भी हम केवल कुछ चीज़ों को पसंद करते हैं और उन्हीं में फंसे रहते हैं| तो, अब हम उन चीज़ों के बारे में बात करते हैं, जिनके बारे में हम नहीं
जानते – जो अज्ञात है|
श्री श्री रविशंकर : तुम कितनी बार जन्म ले चुके हो ?
श्रोता : नहीं मालूम |
श्री श्री रविशंकर : तुम कितनी बार और जन्म लोगे ?
श्रोता: नहीं मालूम |
श्री श्री रविशंकर : ब्रह्मांड में पृथ्वी के समान कितने ग्रह हैं ?
श्रोता : नहीं मालूम |
श्री श्री रविशंकर : ब्रह्मांड में कितने तारे (नक्षत्र) हैं ?
श्रोता : नहीं मालूम |
श्री श्री रविशंकर : इस ग्रह पर कितने जीव हैं ?
श्रोता : नहीं मालूम |
श्री श्री रविशंकर : तुम्हारे द्वारा ली गयी प्रत्येक श्वास में कितने
परमाणु होते हैं ?
श्रोता : नहीं मालूम |
श्री श्री रविशंकर : इस पृथ्वी पर एक मुट्ठी में कितने परमाणु हैं ?
श्रोता : नहीं मालूम |
हम कुछ नहीं जानते | (सब श्रोता हंसते हैं)
क्या तुम देख रहे हो कि हम जो नहीं जानते उसमें कितने प्रसन्न हैं? अंग्रेज़ी मैं
एक कहावत है, जिसका अर्थ है –’अज्ञानता वरदान है’ |
हम एक पृथ्वी को जानते हैं। कहते हैं कि इस तरह की १४ पृथ्वी हैं, पर हम उनके बारे में कुछ नहीं जानते| प्रेम, जिसे हम नहीं जानते, श्रद्धा या विश्वास कहलाता है| क्या हम ईश्वर को जानते हैं? क्या बच्चा माँ को जानने की कोशिश करता है? वह बस उसे प्यार करता है और उसमें विश्वास रखता है। क्या वह इसकी जांच करता है कि वह किस स्कूल में गयी या कौन सी डिग्री (उपाधि) पायी| बच्चा तो तीन-चार साल तक अपनी माँ का नाम भी नहीं जानता| तुम इस सृष्टि की सन्तान हो| तुम इसके बारे में कुछ भी नहीं जानते। फिर भी तुम विश्वास कर सकते हो|
शरणु विश्वमात्मादलि मंकुतिम्मा........(कन्नड़ भजन की पहली पंक्ति)
विश्वात्मा- विश्व संसार है, आत्मा चेतना है| विश्वात्मा शाश्वत चेतना है| क्या तुम अपने जीवन के बारे में जानते हो? तुम तो यह भी नहीं जानते कि तुम कौन हो?तुम अपनी नींद या स्वप्नों के बारे में नहीं जानते – स्वप्न क्यों आते हैं, हम नहीं जानते|
अहंकार तब आता है जब तुम सोचते हो कि तुम कुछ जानते हो| तुम निर्हंकारी (अहंकार से मुक्त) हो सकते हो, जब तुम्हारा मन शांत होता है और तुम जानते हो कि तुम कुछ नहीं जानते| जब तुम मंदिर जाते हो, तुम नहीं जानते कि पुजारी क्या कर रहा है या कौन सा मंत्र पढ़ रहा है, पर तुम्हें विश्वास होता है कि कुछ भला ही होगा| गांवों में लोगों में बहुत विश्वास होता है| तुम डॉक्टर से दवा लेते हो, पर तुम नहीं जानते कि यह कैसे काम करती है| यदि तुम जानने का प्रयास करो कि तुम्हारा भोजन कैसे पचता है तो तुम आश्चर्य-चकित हो जाओगे| भोजन को सिर्फ पचाने के लिए कितना काम ज़रूरी होता है| इसे मुख में रखकर चबाना, इसमें लार मिश्रित करना, निगलना, फिर भोजन का पेट के सभी रास्तों से होकर गुजरना, जठराग्नि और पाक~रसों का इस पर कार्य करना, फिर समान्गीकरण के लिए बड़ी आंत में घूमना आदि-आदि| कितना कुछ होता है!! हम सब भोजन को मुंह में रखना जानते हैं| इसके बाद हम नहीं जानते कि क्या होता है| जो हम जानते हैं-उसका महत्व है,पर जो हम नहीं जानते-उसका और अधिक महत्व है| इस पूरी सृष्टि के बारे में हर चीज़ जानना संभव नहीं है| पुराणों में एक कथा है| ब्रह्मा (बनाने वाले) और विष्णु (पालन करने वाले) ने शिव (संहारक/रूपांतरक शक्ति) के बारे में जानना चाहा| शिव आदि या अंत से परे अनंत हैं| तो ब्रह्मा, शिव के सिर और विष्णु, उनके पैरों की खोज के लिए चल पड़े| वे युगों तक चलते रहे, पर शिव के आदि यां अंत में से किसी का पता नहीं लगा सके| उन्होंने वापिस लौटने का निर्णय लिया| अपने लौटने के मार्ग पर ब्रह्मा ने एक केतकी का फूल गिरते हुए देखा और उससे पूछा कि वह कहाँ से आ रहा है| फूल ने उत्तर दिया कि वह शिव के सिर का श्रृंगार था| फूल के वचनों को सच मानते हुए ब्रह्मा ने सोंच लिया कि उन्होंने शिव के सिर को देख लिया और यही विष्णु को बता दिया| विष्णु ने कहा कि वह शिव के पैरों को नहीं पा सके| यह ब्रह्माण्ड अनंत विस्तार (अनंत फैलाव का) है| इस अनंत ब्रह्माण्ड में व्याप्त चेतना भी अनंत और अज्ञेय ( जिसे जान नहीं सकते) है|यह केवल चाहने(प्रेम करने) योग्य है|
ईश्वर को जानने की चेष्टा न करो| ईश्वर, जिसे जाना नहीं जा सकता, उससे बस प्रेम करो| यही श्रद्धा है| जब तुम ध्यान करते हो और अन्य लोगों के इतने अच्छे अनुभवों के बारे में सुनते हो, तो तुम सोचने लगते हो, "मेरी क्या स्थिति है?" । इसमें मत फंसो| यह जानो कि ईश्वर को जाना नहीं जा सकता। "मैं कुछ नहीं जानता" - यह ध्यान का मूल है। पर इसका गलत प्रयोग मत करो| यदि कोई तुमसे पूछता है कि तुम कहाँ से आ रहे हो या कहाँ जा रहे हो या क्या समय है, तो यह मत कहो कि "मैं नहीं जानता"| यह ठीक नहीं है|जब तुम ध्यान में बैठो, तब इसका उपयोग करो|
यदि हम रूचि या अरुचि में फंस जाते हैं, तो जीवन सीमित हो जाता है| सीमित होने में आनंद नहीं है|
नाल्पे सुकमस्ती- तुच्छ चीज़ों में आनंद नहीं|
योवाई भूमा सुकम – विस्तार में,विशालता में आनंद है|
जब तुम आनंद में होते हो, तुम्हारी चेतना का विस्तार होता है और जब तुम पीड़ा या दुःख में होते हो, तुम्हारी चेतना संकुचित होती है।
वृत्ति तन मौअवाहुदु मंकुत्तिमा.. (कन्नड़ भजन की दूसरी पंक्ति)
यह पंक्ति गाते हुए कवि ने वृत्तियों की दैवी चेतना में विलयन की अनुभूति की है| वृत्ति, विश्वात्मा में घुल जाती है| जब तुम अनजानेपन के क्षेत्र में होते हो तो मन शांत और केंद्रित हो जाता है| जिसे तुम नहीं जानते, उसके बारे में नहीं सोच सकते| तो स्वीकृति भावनाओं के स्तर पर होती है|
सोचने के लिए तुम्हे उसके बारे में कुछ जानने की ज़रुरत है। निर्विचार, आत्मज्ञान का मूल है|
श्रृद्धा या विश्वास अंधा नहीं होना चाहिए| इसीलिए हम साधना करते हैं| विश्लेषण और तार्किक विचार दिन-प्रतिदिन के कार्य-कलापों के लिए आवश्यक होते हैं| परंतु वे ध्यान के लिए नहीं चाहिए|
नाद और वेद दोनों आवश्यक हैं| वेद प्राचीन ज्ञान है| नाद संगीत है जो तुम्हे ज्ञात से परे ले जाता है| श्रृद्धा दोनों को बड़ाती है| यह शांत चेतना का आकाश है| साधारणतः जब कुछ नहीं जानते या नहीं जान पाते हैं, तो हम चिड़ते हैं या क्रोधित हो जाते हैं| परन्तु यह ’न जानना’ बहुत सुंदर है| जब यह ’न जानना’ आ जाता है, तो मन स्थिर और शांत हो जाता है| यह ध्यान का क्षेत्र है और मौन इसका मार्ग है|
प्रश्न : गुरु जी,हम सभी सही और गलत जानते हैं, फिर भी हम गलत चीज़ें क्यों करते हैं? ऐसा क्यों होता है?
श्री श्री रविशंकर : केवल कुछ चीज़ें हमें गलत करने को प्रेरित कराती हैं :
क्रोध – हम जानते हैं कि क्रोध हमारे लिए अच्छा नहीं है,फिर भी हम क्रोध करते हैं|
काम – हम जानते हैं कि यह ठीक नहीं है,फिर भी मन दौड़ता है|
लोभ – हम जानते हैं कि यह नियमानुसार गलत है,फिर भी हमारा लालच बड़ता जाता है|
बेईमानी – तुम जानते हो कि झूठ बोलना अच्छा नहीं है, फिर भी ऐसा करते हो|
क्रोध केवल निर्बलता से आता है| तुम देखोगे कि ध्यान और प्राणायाम का अभ्यास करने से यह कम हो जाता है| जब तुम निरंतर ज्ञान में
रहते हो,तुम्हारा क्रोध घट जाता है| क्रोध के पीछे इच्छा होती है| क्रोध आता है चाहे तुम्हारी इच्छा पूरी हो यां ना हो|
इच्छाएं दो प्रकार की होती हैं – शारीरिक स्तर से और मानसिक स्तर से|
शारीरिक स्तर पर इच्छाएं भोजन, जल, वातावरण, तुम्हारे संगति, और उम्र के कारण तुम्हारे शरीर में होने वाली रासायनिक क्रियाओं से प्रभावित होती हैं|
मानसिक स्तर पर उठने वाली इच्छाएं पिछली छापों से प्रभावित होती हैं| केवल ध्यान और प्राणायाम इसमें बदलाव ला सकता है|
खूब पढ़े-लिखे लोग भी गलतियाँ करते हैं| यह ठीक है| जो बीत गया,वह ठीक है| इसे छोडो| वर्तमान क्षण में तुम निर्दोष हो| जो स्व-आरोप ( खुद को दोषी ठहराना) में फंस जाता है, वह वही गलतियां बार-बार दोहराता है| तो इसके लिए तुम्हें भक्ति-सूत्रों को सुनना चाहिए| ईश्वर को अपनी गलतियां समर्पित कर दो| मात्र समर्पण से तुम अपनी हजारों इच्छाएं शांत कर सकते हो|
इच्छाओं का कोई अंत नहीं है| कुछ लोग, किसी अन्य से अधिक धन पाने की इच्छा में अपना जीवन धन कमाने में गुज़ार देते हैं| लोग कभी-कभी अपने उपयोग से अधिक कपड़े व जूते खरीदते रहते हैं| वहाँ संतोष नहीं है| केवल सेवा के द्वारा तुम सच्चे संतोष और आनंद का अनुभव कर सकते हो| और वह आनंद तुम्हारी इच्छाओं को कम कर देगा| लोभ का कोई अंत नहीं| इच्छाएं रखना ठीक है| इसमें कोई नुकसान नहीं है| लेकिन तुम्हें प्रसन्न रहना चाहिए| तुम्हारी प्रसन्नता, तुम्हारी किसी इच्छा की पूर्ति पर निर्भर नहीं होनी चाहिए|
हमे शांत और केंद्रित प्रवृत्ति रखनी चाहिए, सजगता रखनी चाहिए और यम-नियम (जीवन के निर्देशक सिद्धांत) से रहना चाहिए| अपने जीवन में जहाँ तक हो सके उन्हें अपनाओ। किसी चीज़ की अति मत करो| कहा गया है-’अहिंसा परमोधर्म’-हिंसा न करना सबसे बड़ा धर्म है| जब तुम बोलते हो- बहुत से जीवाणु मर जाते है, इसीलिये कुछ लोग अपने मुंह को हमेशा ढके रखते हैं| इतनी दूर तक जाने की आवश्यकता नहीं है| जितना अधिक तुम यम-नियम का पालन करोगे, उतना ही अधिक तुम चमकोगे| जीवन में तुम्हारी रूचि और आकर्षण इन नियमों की ओर होना चाहिए| हिंसा दिमाग में शुरू होती है| हिंसा का मूल कारण तृष्णा और घृणा है| इनको स्वतः मन में खत्म किया जा सकता है| अपने जीवन में इस ज्ञान को इस तरह अपनाओ कि तुम्हारा जीवन स्वतः ज्ञान हो जाए| और यह केवल ध्यान से संभव हो सकता है| केवल
ध्यान से ही तुम्हारे अंदर सच्चे ज्ञान का उदय हो सकता है| और तब तुम विश्व को नए आयामों में देखोगे|
प्रश्न : प्रिय गुरु जी, मैं ईश्वर के साथ एकाकार कब हो सकता हूँ?
श्री श्री रविशंकर : लहर समुद्र से कब मिलेगी ? मेरे प्यारे, लहर कहाँ है? यदि तुम अशांति और कामना को महसूस करते हो, तो तुम भाग्यवान हो| तुम्हारी आतंरिक यात्रा शुरू हो चुकी है| सेवा,साधना और सत्संग करो| वे तुम्हें अशांति से मुक्ति दिलायेंगे और तुम्हें प्रेम के स्रोत में डुबो देंगे|
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