"बुद्धि शुद्ध होते ही श्रद्धा मज़बूत हो जाती है"

बैंगलोर आश्रम, भारत

प्रश्न : आदरणीय प्रणाम। गुरुदेव आप कौन हैं?

श्री श्री रवि शंकर : पहले तुम अपने आप को जानो। मुझे जानने की चेष्टा क्यों कर रहे हो? तुम खुद को जानो, तुम्हे अपना ही परिचय नहीं है। तुम कितनी बार दुनिया में आए हो पहले यह तो जानो। फिर मुझे जानना आसान हो जाएगा।

प्रश्न : कभी कभी लगता है आप मेरे साथ हो और हमेशा मुझे देख रहे हो। पर कभी कभी लगता है कि संपर्क टूट गया है। उस समय मन विचलित हो जाता है। विचलित मन से साधना भी नहीं होती। ऐसे में क्या करें?

श्री श्री रवि शंकर : तुमने प्रश्न में उत्तर भी दे दिया। प्रेम का स्वरूप ही ऐसा है कि इसके ना होने पर विरह की पीड़ा होती है। जिन्हे दिल में भक्ति की एक झलक भी मिल जाए तो ना होने पर जी घबराता है। ऐसा नहीं है कि भक्ति नहीं होती पर ऐसा भास होता है, और उससे मन विचलित हो जाता है। अगर ज्ञान पूर्वक देखें तो श्री नारद ने भक्ति सूत्र में कहा है भक्ति का लक्षण ही यही है कि उसके होने में परमांनद और ना होने से परम व्याकुलता का अनुभव होता है। यही भक्ति की ख़बर देता है। इसलिए तुम अपने को भाग्यवान मानो जब इस तरह से जी मचलता है। थोड़े समय के लिए ही ऐसा लगता है। भक्ति तो रहेगी ही। वो मिटती नहीं। भक्ति तो है ही अमृत स्वरूप। भक्ति कभी मिटती नहीं पर घट जाती है। जब घट जाती है तो इस तरह की बेचैनी होती है। यह सहज ही है। ऐसा बहुत भाग्य से होता है। नहीं तो जड़ता में जो व्यक्ति आ जाता है उसमे ना भक्ति होती है, और भोग और चिंता खा जाते हैं।

प्रश्न : श्रद्धा को कैसे दृढ़ करें?

श्री श्री रवि शंकर : श्रद्धा को दृढ़ करना है, इस भाव से ही दृढ़ हो गया। ’मुझ में अटूट श्रद्धा है’ - यह मान कर चलो। बुद्धि शुद्ध होते ही श्रद्धा मज़बूत हो जाती है। बुद्धि शुद्ध करने के लिए हमारा आहार शुद्ध हो। भोजन पर ध्यान दीजिए। यदि भोजन करते वक्त दुनिया भर की गलत बातें सोचते रहें तो इसका भी बुद्धि पर प्रभाव पड़ता है। कई बार तो लोगों को बात करने का समय भी केवल भोजन के वक्त मिलता है, और भोजन परोसते और करते समय बीमारी इत्यादि की बात करते हैं। यह बहुत गलत है। इस आदत से हमको छुटकारा पाना चाहिए। जैसा अन्न वैसा तन।और जैसा मन वैसा तन भी होने लगता है। अन्न से ही मन पर प्रभाव पड़ने लगता है। इसलिए बुद्धि शुद्ध होने के लिए प्रसन्न चित्त से खाना खाओ। अक्सर जब हम बहुत खुश होते हैं तो, जल्दी में भोजन गले से ठीक से नीचे भी नहीं उतरता। और व्याकुलता में हम ज़रुरत से अधिक भोजन कर लेते हैं। इसलिए होश के साथ भोजन करना उचित है।

प्रश्न : जब भी आपको देखता हूँ तो आँखों से आँसु बहने लगते हैं। ऐसा लगता है मैं आपको बहुत लंबे समय से जानता हूँ। क्या यह सत्य है?

श्री श्री रवि शंकर : तेरा अनुभव है और तुझे इसपर ही संशय हो रहा है। तब तो बिल्कुल सच है। सच पर ही संशय करते हैं, झूठ पर कभी संशय नही करते। किसी की ईमानदारी पर ही संशय करते हैं। किसी की बेईमानी पर आजतक किसी ने संशय नहीं किया। इसी तरह से कोई तुमसे पूछे कि तुम सुखी हो तो कहते हैं पता नहीं।दुख को निश्च्य रूप से जानते हैं। सुख को निश्च्य रूप से नहीं जानते। सुख पर संशय करते हैं। ईश्वर है कि नहीं इस पर संशय होता है। इस अस्थायी और नश्वर जगत के होने पर संदेह नहीं होता। पर एक विकसित वैज्ञानिक यह समझता है कि यह सब दिखाई देने वाले संसार के अस्तित्व पर एक प्रश्न चिन्ह है।

प्रश्न : आपने कहा की निष्क्रिय होने पर दिव्यता अनुभव होती है। निष्क्रिय होने का क्या भाव है?

श्री श्री रवि शंकर : निष्क्रिय होना मतलब यह नहीं कि सब काम करना छोड़ दें। यह गहराई की बात है। अपना जो काम है वो करते जाएं और करते हुए भी भीतर यह जानो कि तुम कुछ नहीं कर रहे हो। शुरु शुरु में थोड़ी देर बैठकर यह अनुभव करो कि तुम कुछ नहीं कर रहे हो। फिर लगेगा करते हुए भी मेरे अंदर एक सत्ता है जो कुछ नहीं कर रही है।
इसको समझाने के लिए ॠषियों ने बड़ा सुन्दर बताया है। एक ही वृक्ष पर दो पक्षी बैठे हुएं हैं। एक खा रही है और दूसरा सिर्फ़ साक्षी होकर देख रही है। यहाँ मुक्त पक्षी की बात कह रहें हैं जो साक्षी है, निष्क्रिय है। उसकी तरफ़ भी ध्यान दो। जो दो पक्षी हैं वो सखा हैं। साथ साथ रहते हैं। एक निरंतर साक्षी बनी हुई है और दूसरा निरंतर कार्य में लगा हुआ है। इस बात को जानो। बिना काम किए हुए वैसे ही बैठ जाना निष्क्रियता नहीं है। भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते हैं एक क्षण के लिए भी बिना क्रिया करते कोई टिक नहीं सकता। कर्म करते जाओ। कर्म के भी साक्षी बनते जाओ। यह बहुत गहरा ज्ञान है।

श्री श्री ने ’Understandind Shiva’ नाम की पुस्तक का शुभारंभ किया। इस पुस्तक में सर्वव्यापी शिव तत्व का एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण सम्मिलित किया गया है।


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