"समय से पहले जरूरत से ज्यादा मिल जाना ही सिद्धि है"


प्रश्न : गुरूजी,यह प्रश्न मूर्खतापूर्ण हो सकता है परन्तु मुझे धन की समझ नहीं है| क्या आप मेरे लिए इसका वर्णन करेंगे? यह कितना महत्वपूर्ण है? मुझे यहाँ लाने के लिए धन्यवाद|

श्री श्री रवि शंकर :
वेदों के साहित्य में लिखा है धर्म सच्चाई है| तब अर्थ आता है जिसका मतलब है माध्यम। धन एक माध्यम है| तब इच्छाएं आती है| और फ़िर मोक्ष आता है| इस तरह धर्मस्य मूलं अर्थ| इसका अर्थ है धार्मिकता समृद्धि पर निर्भर करती है| यदि सभी समृद्ध होंगे तो कोई भी चोरी नहीं करेगा| धर्म का आधार समृद्धि है| और धन का आधार राष्ट्र है| इस तरह ये सब सम्बंधित है| धन महत्वपूर्ण है परन्तु धन केवल एक साधन है| यह सब कुछ नहीं है| धन को कभी भी ख़ुशी से नहीं जोड़ना चाहिए| यदि आप देखो तो पाओगे यहाँ तक कि गरीब से गरीब लोग भी खुश होते हैं | वास्तव में वे ज्यादा खुश हैं| धन सुरक्षा की एक गलत धारणा बन जाता है| आप सोचते हो यदि आपके पास धन है तो सब कुछ है।
धन का ख्याल आराम के लिए है| आप धन क्यों चाहते हो? आराम के लिए| परन्तु धन आपको केवल एक तरह का आराम दे सकता है| आराम के तीन प्रकार हैं| शरीरिक आराम,भावात्मक और मानसिक आराम, और अध्यात्मिक आराम यां आन्तरिक आराम| जबकि धन केवल एक तरह का आराम दे सकता है| यह भावनात्मक और अध्यात्मिक आराम नहीं देता| यह आवश्यक है| जैसे हम जीवित रहने के लिए खाते हैं, परन्तु यदि हम केवल खाने के लिए जीवित रहे (हंसी) तो हमारे साथ बुनियादी तौर पे कुछ गलत है|
ग्रन्थ और प्राचीन लोग बड़ी खूबसूरती से बताते हैं कि आपको अपने धन को इस्तेमाल कैसे करना चाहिए। आप धन को २०% के पांच भागों में बाँट लो| एक भाग आप अपने इस्तेमाल के लिए रखो| एक भाग आप बचा लो| २०% आप तुरंत ज़रुरतों पर खर्च कर लेते हो| २०% आप परिवार के लिए खर्च करते हो जिससे मेरा मतलब है तत्काल जरूरतों के लिए| २०% आप समाज के लिए इस्तेमाल करते हो| एक वह है जिसे आपद धन कहतें हैं जो आपातकालीन,भविष्य की जरूरतों के लिए होता है| २०% जो आप बचाते हो, उसे बाद में अपने मित्रों,परिवार या अपने वंशजों को दे देते हो|
एक और विचारधारा है जो कहती है १०% दान करो| ३०% बचत करो| ६०% को जैसे चाहो इस्तेमाल करो|
मैं कहूँगा आपको १०% भी दान देने की जरुरत नहीं है| कम से कम २% या ३% अपनी आमदनी से अलग रख दो| यदि आप बिलकुल भी दान नहीं देते तो आपका पैसा कचेहरी में मुकद्दमों और अस्पतालों में खर्च होगा| इसलिए आपके धन का कुछ हिस्सा २% या ३% अलग रखा जाना चाहिए| यहाँ तक कि १% भी चलेगा| २% फिर ३| २ से १०%दुनिया के लिए अलग रखो| तब आपके मन में लालच नहीं आएगा| लालच आदमी को खत्म करता है और बाद में उसके व्यापर को भी खत्म कर देता है|
परन्तु लक्ष्य ठीक है| आपके पास लक्ष्य होना चाहिए| आप में और धन कमाने की कामना होनी चाहिए| और अधिक धन बनाना एकदम गलत नहीं है| धन कमाओ| समझ गए आप?इस तरह से धन के लिए संतुलित रवैया होना चाहिए| धन ही जीवन में सब कुछ नहीं होना चाहिए| यह आपको बनाये रखने के लिए और शरीर को आराम देने के लिए होना चाहिए| यह केवल आध्यात्मिकता है जिससे पूर्ण विश्राम मिलता है| और यदि मानसिक और अध्यात्मिक आराम होगा, जब आप ईश्वर से जुड़े हों तो आप धन के बारे में सोचते भी नहीं| चीजें अपने आप आती हैं|
इस आश्रम को अगले साल २० साल हो जायेंगे| उससे पहले ५ बर्ष तक जब मैं उत्तरी अमेरिका में आता था तो हम यहाँ वहां किराये पर जगह लेते थे| बहुत सारे लोग आते थे| हमें शाकाहारी भोजन के लिए रसोई चाहिए थी| होटल में अडवांस कोर्स करने में मुश्किल होते थे| तब मैंने कहा अगली बार जब मैं आयूँ तो हमारे पास अपना स्थान होना चाहिए जहाँ हम पवित्र वातावरण रख सकें, ऐसे स्थान पर ध्यान लगता है और स्थान का भाव अधिक सात्विक,अधिक अनुकूल और प्रकृति के साथ लय में होता है| तब हमारे कुछ भक्त लोग यहाँ आये और स्थान के लिए छान बीन करने लगे परन्तु हमारे पास इतने पैसे नहीं थे| पर हमें बिलकुल भी चिंता नहीं हुई| हम केवल योजना बनाते हैं और बाकि सब बातो का ध्यान अपने आप रखा जाता है| सभी ने थोड़ा थोड़ा कुछ करना शुरू किया| और यह जगह सुंदर बन गई। इसे ही सिद्धि कहतें हैं| सिद्धि का मतलब है आपको जो चाहिए समय में मिल जाता है|
भारत में एक कहावत है - आप बादाम खाना चाहते हो और ये आपको तब मिलते हैं जब आपके सारे दांत गिर जाते हैं| (हंसी) आप बादाम के लिए प्रार्थना करते हो और जब आपको बादाम मिलते हैं आपके दांत जा चुके होतें हैं| इसका कोई फायदा नहीं| इस तरह सिद्धि का मतलब है समय से पहले जरूरत से ज्यादा मिल जाना|
हम कभी यह चिंता नहीं करते कि काम कैसे होगा? इसे ही सिद्धि कहते हैं। जब आध्यात्मिक उर्जा होती है तो काम सहजता से ही पूर्ण होते चले जाते हैं। इस आत्म विश्वास के साथ चलो| पर हमे ज़्यादा हवा में भी नहीं रहना चाहिए। थोड़ा सा व्यवहारिक भी होना चाहिए| जब तक आप उस अंदरूनी अध्यात्मिक निर्भरता,अध्यात्मिक ऊंचाई तक नहीं पहुँच जाते,आपको तर्कसंगत होना चाहिए,और तर्कसंगत तरीके से जागरूक होकर आपको पैसों का प्रबंध करना है। और यह आप कैसे कर सकते हो? जब एक पैर नीचे जमीन पर होगा एक उपर उठा होगा| इस तरह यह एक नाच की तरह है| नाच कैसे होगा? यदि दोनों पैर कीचड़ में दबे होंगे तो क्या आप नृत्य कर सकते हो? और यदि दोनों पैर उपर हवा मैं होंगे तो भी आप गिर जाओगे| दोनो परिस्थितियों में नाच नहीं हो सकता| नाच तभी हो सकता है जब एक पैर नीचे जमीन पर होगा और दूसरा उपर हवा में| यही सम्पूर्ण ज्ञान है - व्यवहारिक लेकिन सूक्ष्म,अध्यात्मिक दृष्टिकोण से|
परन्तु मैंने कुछ लोगों को देखा है जो बहुत अधिक काल्पनिक होतें हैं| वे कोई काम नहीं करते परन्तु बैठे रहतें हैं,'मुझे २० मिलियन डॉलर चाहिए, मुझे १०० मिलियन डालर चाहिए|' वे थोड़े पैसों के लिए भी नहीं सोचते| :हंसी) केवल मिलियन के लिए सोचतें हैं| हर दिन इसके लिए प्रार्थना करते हैं| कुछ देर बाद आप जाते हो,खाना पकाते हो और भूल जाते हो| यह सही नहीं है|
इस संतुलन को जानो|

प्रश्न : गुरूजी मुझे लगता है मैं अपने परिवार में किसी की मृत्यु के शोक से नहीं निकल पाया हूँ और यह मुझे अपने सम्बन्धों और अपना निजी परिवार की ओर चलने से रोक रहा है| मैं इस ओर आगे बढ़ना चाहता हूँ परन्तु ऐसे लगता है मैं स्वयं ही अपना शत्रु हूँ| गुरूजी कृपया मेरी मदद करें| मैं धैर्यपूर्वक आपके जबाब का इंतजार कर रहा हूँ|

श्री श्री रवि शंकर :
जब आप ध्यान करते हो,भजन करते हो तो इसकी उर्जा उन तक पहुँच जाती है| आप शांत हो तो शांतिपूर्ण भावनाएं उन तक जाती है| इसीलिए आध्यात्मिकता को संस्कृत में साधना भी कहतें हैं,इसका मतलब है असली दौलत,असली मुद्रा जो यहाँ वहां जा सकता है|(हंसी) दूसरी डालर मुद्रा दूसरी तरफ़ नहीं चल सकती|इसीलिए हम कहतें हैं जब आप सत्संग करते हो,गाते हो,ध्यान करते हो,ये सकरात्मक भाव उन तक जाते हैं| और जब ऐसे भावनाएं आती है उनका निरीक्षण करो,ध्यान से देखो| वे आयेगीं और लुप्त और गायब हो जायेंगीं| हाँ? आगे बढ़ो|

प्रश्न : गुरूजी, क्या आप दूसरे ग्रहों पर जीवन के बारे में कुछ बताएँगे? क्या उनके पास प्रेम है जैसे हमारे पास पृथ्वी पर प्रेम। जय गुरुदेव|

श्री श्री रवि शंकर :
प्राचीन लोगों को १४ ब्रह्मांडों का पता था| १४ में से हम बीच में हैं-७ उपर ७ नीचे| अनंत ब्रह्मांड है, अनंत ग्रह है केवल एक ही नहीं है| यहाँ पर भी अस्तित्व के अलग अलग स्तर हैं| जो हम देखते हैं वह केवल एक भाग है| भौतिक विज्ञान भी यही कहता है।यहाँ पर भी बहुत से स्तर हैं| हाँ? परन्तु यह एक ब्रह्मांड हमारे लिए बहुत अच्छा और पर्याप्त बड़ा है| (हंसी)अभी इसी के बारे में सोचते हैं।

प्रश्न : गुरूजी, यह इतना सुंदर ज्ञान देने के लिए मैं आपका बहुत आभारी हूँ| मुझे बहुत जिज्ञासा होती है कि यह अंतर्दृष्टि कहाँ से आती है| जब मैं ध्यान करता हूँ कभी कभी इसके बाद शांत हो जाता हूँ और प्रभावकारी भी,परन्तु ब्रह्मांड के रहस्य अपने आप नहीं पता चलते| इसकी बजाय मैं इसी तरह के नाटक या आत्म सम्मोहन में फंस जाता हूँ| यह रास्ता मेरे लिए अच्छा है| इसका मुझे विश्वास है|परन्तु मुझ में धैर्य नहीं है|मुझे आपके प्रकृति और ईश्वर के बारे में कहे हुए शब्द शहद जैसे लागतें हैं जिनके लिए मुझे भूख है| क्या आप इसी विषय में कुछ कहेंगे| मैं प्रकृति के साथ गहरा सम्बन्ध महसूस करता था| आजकल मैं रोबोट की तरह महसूस करता हूँ| क्या मुझ में अनुग्रह नहीं रहा या कोई और बात है?

श्री श्री रवि शंकर :
नहीं नहीं| मुझे लगता है आपके पास बहुत समय है| आप बैठकर अपने बारे में बहुत सोचते रहते हो| व्यस्त हो जाओ| आप जानते हो जितना अच्छा काम आप करते हो, अपने आसपास सकरात्मक वातावरण और भाव बनाते हो| जब आप सकरात्मक भाव बनाते हो तो आपको अपने भीतर गहरे जाने में मदद मिलती है| यह आवश्यक है कि दूसरों का ध्यान रखा जाए और जो आप के पास है दूसरों के साथ बांटा जाए| जिस तरह भी आप कर सकते हो करो| किसी प्रोजेक्ट में शामिल हो जाओ| ध्यान करो| बैठ कर चिंता मत करो,'ओह आज मुझे यह अनुभव हुआ| कल क्या होगा|' यह तो आते जाते रहेंगे| आप इन सब अनुभवों से ज्यादा हो।
एक साधक को क्या करना होता है ,जो भी अनुभव हो, चाहे सबसे अच्छा अनुभव हो, को भी सवीकार करो और उसका समर्पण करो।
स्वीकारना और समर्पण करना, दोनो ही ज़रुरी हैं। यदि आप केवल त्यागने की कोशिश करते हो तो आप उनको रोकने की कोशिश कर रहे हो| यदि आप केवल स्वीकार करते हो तो आप उनको पकड़ लेते हो| इसीलिए आपको दो हाथ दिए गए हैं| एक तरफ़ से आप स्वीकार करते हो और दूसरी तरफ़ आप समर्पण कर देते हो।यह अनुभव तो आते जाते रहतें हैं ,कोई बड़ी बात नहीं|

प्रश्न : गुरूजी, कल रात आपने कहा था कि ,'यदि आप जो कर सकते हो नहीं करते हो तो आपकी चेतना में आपको पीड़ा होती है। मुझे पता है मुझमें बहुत सी योग्यताएं हैं,परन्तु कभी कभी यह बहुत कठिन काम लगता है| मैं हमेशा अपनी तरफ से अच्छा कार्य करती हूँ,हमेशा सेवा करती हूँ| मैं सेवा को बिना बोझ समझे कैसे कर सकती हूँ?

श्री श्री रवि शंकर :
केवल उतना ही करो जितना तुम कर सकते हो| कभी कभी आप प्रतिबद्धता लेते हो| उस क्षण यह बहुत अधिक लगता है| परन्तु यह समाप्त हो जाता है| उस प्रतिबद्धता को पूरा करो और फ़िर उसके बारे में सोचो भी मत| आपको पता है यदि आप सोचोगे ,'मैंने कितना सारा काम कर लिया' तब वह बोझ लगने लगता है| हर रोज आप में नई शक्ति आ जाती है| अगर हम देखें हमने कितना हवा,पानी और भोजन का उपभोग किया है तो हम हैरान रह जाएंगे। इसकी कोई गिनती ही नहीं है| इसलिए आप जो सेवा करते हो उसे गिनो मत| जो आपने उपभोग किया है उस सब के मुकाबले में यह बहुत कम है|

प्रश्न : जब मुझ पर करो या मरो जैसा दबाव होता है तो मेरे अंदर जो भी अच्छा है बाहर आ जाता है| यह वह समय होता है जब अपनी इच्छाओ और इरादों को पूरा करने के लिए मेरे पास प्रकाश की किरण की तरह तेज जैसी एकाग्रता,मानसिक शांति,नियन्त्रण और प्रेरणा होती है| परन्तु जब मैं खुश,विश्राम में और आनंद में होता हूँ तो मुझ में वह मानसिक शांति और अपनेआप को प्रेरित करने की शक्ति नहीं होती| मैं इस पैटर्न को कैसे बदल सकता हूँ?

श्री श्री रवि शंकर :
तो किसी को आप पर ऐसा दबाव डालने के लिए कहो।सुनो यदि आपको लगता है 'मेरा अच्छा तभी बाहर आता है जब मैं खतरे में हूँ, यां दबाव में हूँ’ तो आपने ऐसा इरादा बना लिया है,ऐसा विचार मन में बना लिया है| इसलिए ऐसा ही होता रहा है|
आप तब भी उतनी ही उर्जा और एकाग्रता से काम कर सकते हैं जब आप खुश होते हो,जब आप आनंद में होते हो,जब आप मुक्त होते हो। इसलिए जब आप इस पैटर्न के प्रति सजग हो जाते हो तो यह आपकी जिम्मेवारी है कि आप इससे बाहर आएं| कोई और आपकी मदद नहीं कर सकता। केवल आप अपनी मदद कर सकते हो| आप कह सकते हो 'अभी आज मैं खुश हूँ, मैं ऐसा करने जा रहा हूँ!'

प्रश्न : गुरूजी,यह पहली बार है मैं आपकी धन्य महिमा देख रहा हूँ| क्या आप मुझे बता सकते हैं कि मैं स्वयं को सम्मानित और प्रेम करना कैसे सिखा सकती हूँ?मैं अपने शरीर को दुःख देती हूँ क्योंकि मैं अपने आप को किसी योग्य नहीं समझती| मुझे क्या करना चाहिए?आपका जबाव बहुत महत्वपूर्ण है| जय गुरुदेव|

श्री श्री रवि शंकर :
सबसे पहले यह मत सोचो कि आप खुद से प्यार नहीं करते| यह किसने कहा? यहाँ तक जो व्यक्ति आत्महत्या करते हैं वे भी खुद से प्यार करते हैं| वे अपने आप से बहुत प्यार करते हैं और इसलिए पीड़ा नहीं चाहते| पीड़ा सहन नहीं कर सकते| पीड़ा से छुटकारा चाहते हैं| इसलिए जब लोग पीड़ा या दुःख सहन नहीं कर सकते,वे ख़ुशी चाहते हैं,वे आत्महत्या कर लेते हैं| इसलिए कि वे खुद को बहुत प्यार करते हैं| वे दूसरों से प्यार नहीं करते| यदि आत्महत्या करने वाला व्यक्ति अपनी माता या पुत्री या पत्नी या और कोई प्रिय को प्रेम करे तो आत्म हत्या कैसे कर सकता है?यदि आपको दूसरों की फ़िक्र होगी तो आप कभी आत्महत्या नहीं कर सकते|
उन्हें पता होता है कि यदि वे खुद को फंदा लगा लेंगे, वे अपने प्रिय जनो के लिए समस्या खड़ी कर देंगे| वे बहुत दुखी हो जायेंगे।
उनका यह सोचना, "मैं उन्हें उदास नहीं कर सकता,मैं उन्हें रुलाना नहीं चाहता| मैं उन्हें खुश देखना चाहता हूँ| यदि मैं उन्हें खुश देखना चाहता हूँ तो मैं खुद को दुःख क्यों दूँ? मैं केवल अपनी ख़ुशी के बारे में सोच रहा हूँ,अपनी तकलीफ के बारे में सोच रहा हूँ| मैं आराम चाहता हूँ,ख़ुशी चाहता हूँ| मैं खुद को बहुत अधिक प्यार करता हूँ| तभी मैं खुद को फंदा लगाता हूँ" उन्हे कभी ऐसा कदम उठाने नहीं देगा।
इस तरह अपने लिए अपने प्यार पर शंका मत करो| कौन कहता है आप खुद को प्यार नहीं करते? यह असम्भव है क्योंकि आप स्वयं प्रेम हो|यह केवल कहीं खो गया है| कहीं आप इसे महसूस नहीं कर पा रहे हो| और आप सही जगह पर हो|अभी तक कोई भी माँ इस ग्रह पर बुरी पैदा नहीं हुई है| एक माँ के रूप में ऐसा मत सोचो कि आप बुरी या कुछ और हो। यह असम्भव है| हाँ? विश्राम में रहो और अपना काम करते आगे बढ़ो|
जो हो गया उसके बारे ज्यादा विश्लेषण मत करो। क्योंकि धरती पर कोई भी ऐसा कार्य नहीं है जो पूरी तरह दोष से मुक्त हो| हर कार्य में कहीं ना कहीं कुछ दोष होता ही है। और बुरे से बुरे कार्य में भी कुछ अच्छा होता है। अच्छे से अच्छे कार्य में भी २ प्रतिशत दोष होता है। इसलिए दोष पर इतना ध्यान मत दो।

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