२५
२०१२
अक्टूबर
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बैंगलुरु आश्रम, भारत
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प्रश्न : गुरुदेव, आपने अपनी पुस्तक जीवन का रहस्य में लिखा है कि ,"कार्य को इस दुनिया में रखना चाहिए लेकिन अपने दिमाग में नहीं घुसाना चाहिए", कृपया एक बार पुनः इसे समझाएं, क्या ये अनासक्ति के जैसा है?
श्री श्री रविशंकर : ये बिल्कुल वो ही है जो हमने अभी ध्यान में किया। जब हमारी आँखें खुली होती हैं, हम दृश्य को देखते हैं लेकिन जब हम अपनी आँखें और अपना दिमाग बंद करते हैं तब एक दूसरी ही दुनिया नज़र आती है। क्या आपने इस पर ध्यान दिया है? इसलिए ध्यान ही इसका तरीका है।
अभी
मानिये आप बैठ कर सोच रहे हैं, "अरे मेरी बहू ने ये किया, मेरे बेटे ने मेरी इज्ज़त नहीं की, आदि आदि।" आप ये सब बातें पूरी रात बैठ कर सोच सकते हैं, अगली सुबह और अगला पूरा दिन ये बात आपको परेशान करती रहेगी। मैं ये कहता हूँ, "वो जो भी कर रहे हैं उन्हें करने दीजिये, उसको वहां बाहर रहने दीजिये। जब आप अपनी आँखें बंद करते हैं तब आप अपनी ही दुनिया में होते हैं, वहां इन सब बातों को खुद को परेशान मत करने दीजिये।" ये मुश्किल है, मैं जानता हूँ, ये इतना आसान नहीं है लेकिन यही वो दिशा है जिसमें हमें आगे बढ़ना है।
दो
दुनिया हैं, और इन दो दुनिया के बीच में सत्य है। एक को मनोराज्यं कहते हैं - अपने मन का राज्य, और दूसरा है समाज - बाहर की दुनिया। समाज और मनो राज्य के बीच सत्य है।
प्रश्न : गुरुदेव, जब हम ध्यान में बैठते हैं, तब कुछ विचार तो बादल जैसे निकल जाते हैं, लेकिन कुछ ऐसे होते हैं जो हमें लम्बी यात्रा पर ले जाते हैं, अचानक मुझे अहसास होता है की मैं एक लम्बी यात्रा पर निकल गया हूँ, ये क्या तकनीक है जो हमें इस लम्बी यात्रा पर ले जाती है, और क्यों सब विचार बादल जैसे ही नहीं निकल जाते?
श्री श्री रविशंकर : ये ऐसे ही होता है, कुछ विचार ऐसे ही होते हैं और कुछ नहीं। कुछ आपको परेशान करते हैं और कुछ नहीं। इसलिए ही मन को वापिस केंद्र पर लाने के इतने सारे तरीके और तकनीक हैं। देखिये अभी आजकल की पूजाओं में हमने बहुत सारे संगीत वाद्य यंत्रो का इस्तेमाल किया। झांझ, नादस्वरम बजाये गए, मंत्रोचारण किया जा रहा था, और कोई बजा रहा था, बहार बहुत आवाजें की जा रही थी जिससे मन अन्दर सोचना बंद कर दे, तो इस तरह से बहुत से तरीके हैं,किसी न किसी प्रकार के कौशल से हमें मन को वापिस अपने केंद्र पर लाना होता है। हम इसके बार एमें कोई शिकायत नहीं कर सकते, क्योंकि मन ऐसा ही है। कभी कभी ये बेकार की बातों पर अटक जाता है और ये ऐसा ही है। इसलिए ये मन कभी कभी अज्ञेय हो जाता है।
भगवत
गीता
में, अर्जुन ने भगवान् कृष्ण से कहा, "ये मन एक राक्षस के जैसे है, मैं इसे काबू नहीं कर सकता, ये मेरी बात ही नहीं सुनता।" भगवन कृष्ण ने उनको कहा, "बिलकुल, मैं तुम्हारी बात से सहमत हूँ" लेकिन अंत में उन्होंने ये भी कहा कि एक रास्ता है।
प्रश्न : प्रिय गुरुदेव, मैं आपका आशीर्वाद पाने की अपनी क्षमता को कैसे बड़ा सकता हूँ? मैं अपनी पात्रता कैसे बढ़ा सकता हूँ?
श्री श्री रवि शंकर : एडवांस कोर्स में आप सब ने षट संपत्ति के विषय में सुना होगा।
इन
सब
बातो
पर
ध्यान देने से ही आप अपने जीवन में और क्षमता बढ़ा सकते हैं, अपने आशीर्वाद पाने की क्षमता बढ़ा सकते हैं।
ज्ञान के चार स्तम्भ में से तीसरे में ये ६ संपत्ति है, और ये ही हमें बढ़ाना है, और सेवा और साधना भी करनी है।
प्रश्न : गुरुदेव, ऐसा कहा जाता है कि हमारे धर्मग्रंथो का कार्य हमें, "मुझे क्या मिलेगा" इस सोच से आगे ले जाना होता है, तब ऐसा क्यों है की हर धर्मग्रन्थ में फलश्रुति ( उस धर्मग्रन्थ का फायदे) पर इतना जोर दिया जाता है।
श्री श्री रविशंकर : सिर्फ आपको उन्हें पढने को लुभाने के लिए (हँसते हुए) ये एक विपणन नीति है। आप जानते हैं, एक कहावत है, "बिना किसी फायदे के कोई कुछ नहीं करता", एक निरुत्साही व्यक्ति तब तक कुछ नहीं करता जब तक उसको ये न लगे कि उसको इसमें से कुछ मिलेगा। पुराने समय के ऋषियों को ये पता था और इसलिए ही उन्होंने उसमें फलश्रुतियों को जोड़ दिया, आपको ये बताने को कि ऐसा करने से आपको ये सब लाभ होगा। इसलिए ही इसको अपरा कहा जाता है, अपरा विद्या वो होती है जिसमें आप अभ्यास के वक़्त कुछ जोड़ दें। उस से भी सूक्ष्म होती है परा , और अंत में परा विद्या ही होती है जहाँ ये सब मायने नहीं रखता। परा विद्या हासिल करने का कोई जरिया नहीं होता।
प्रश्न : गुरुदेव, हमने सुना है कि नवरात्री, रजस और तमस पर सत्व की विजय होती है, लेकिन क्या तीनो गुण ज़िन्दगी के लिए आवश्यक नहीं होते? हम किसी एक को दूसरे से ज्यादा महत्त्व कैसे दे सकते हैं?
श्री श्री रविशंकर : नहीं, हमेशा ऐसा नहीं होता। तीनो में से कोई एक प्रमुख होता है। हर एक में हमेशा सत्व, रजस और तमस होता है, तीनो गुण हमेशा मौजूद होते हैं, लेकिन उन में से कौन सा अधिक है इस बात से फर्क पड़ता है।
जब
तमोगुण बढ़ता है, तब क्लेश होता है।
जब
रजोगुण बढ़ता है तब मतभेद होता है।
जब
सतगुन बढ़ता है, तब जागरूकता, ज्ञान और ख़ुशी होती है।
आपको
ये
ध्यान देना होता है कि कौन से गुण की प्रभुत्ता है वो ही उस समय को महत्ता देता है।
प्रश्न : प्रिय गुरुदेव, कल आपने हमें बताया कि हम बहुत कुछ बदल सकते हैं,यहाँ तक कि हमारा भाग्य भी। मैं अपनी तरफ से अपने जीवन में बदलाव की हर संभव कोशिश कर रहा हूँ लेकिन फिर भी मुझे लगता है की जो भी मेरे भाग्य है मैं उससे ही गुज़र रहा हूँ, ऐसा क्यों?
श्री श्री रविशंकर : देखिये, जीवन सुख और दुःख का मिश्रण होता है। अपने जीवन की सुखद घटनाओं पर अधिक ध्यान दीजिये, तब वो बढेंगी। जब आप ज्ञान में होते हैं तब आपका भी भाग्य बदल जाता है।
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