मन की अहमियत है!!!

२४
२०१२
अक्टूबर
बैंगलुरु आश्रम, भारत
आप जानते हैं, कि किसी भी कीमत पर, आपको अपने मन को बचाना चाहिये|
अब क्या होता है, कि आप बहुत अच्छे मूड में हैं, बहुत खुश हैं, और कोई आकर आपके कान में कुछ बात बताता है, जो आपको पसंद नहीं आती|
वे कहते हैं, किसी अमुक व्यक्ति ने आपके बारे में ये कहा, और वे धीरे से आपकी आलोचना करते हुए कहते हैं, तुम क्या कर रहे हो? ये तो ठीक नहीं है, और फिर अचानक आपका दिमाग घूमने लगता है और आपको अच्छा नहीं लगता| आप परेशान होने लगते हैं|
तो ये सब कैसे होता है? कोई आपके अंदर कुछ नकारात्मकता भर देता है| ये बहुत आम बात है|
आप देखेंगे, कि आपकी रोज़मर्रा की जिंदगी में, लोग आते हैं, और आपके अंदर ऐसी नकारात्मकता भर देते हैं, जो आपके मन को, आपकी दृढ़ता को हिला देती है| ऐसा मत होने दीजिए|
ये तो स्वाभाविक है और आम है कि लोग नकारात्मकता भरेंगे, लेकिन जब आप अपने अंतर्मन से गहरे जुड़े हुए होते हैं, जब आपके पास वह अंतर्ज्ञान होता है, तब आप इन सबसे मुस्कुराते हुए आगे निकल जायेंगे|
तब आप अपने कानों में एक फिल्टर लगा लेंगे|
आप जानते हैं कि दुनिया ऐसी ही है| आप जानते हैं कि कुछ सुखद और कुछ दुखद बाते हैं| हम किस तरह उन्हें संभालें और अपना संयम बनाएँ रखें, ये सबसे ज्यादा ज़रूरी है|
इन नौ दिनों में हमने यहाँ जो भी साधना और यज्ञ और ये सभी उत्सव किये, ये सब आपको अपने उत्साह और ऊर्जा के वास्तविक स्तर पर लाने में मदद करेंगे|
इसलिए, अपने दिल को मज़बूत रखिये और अपने मन को तीक्ष्ण रखिये और फिर आप देखेंगे कि जिंदगी की गाड़ी बहुत आसानी से चलेगी|
छोटी बातों को छोड़िये, और बड़ा सोचिये| ये सोचिये कि हम समाज के लिए क्या कर सकते हैं, देश के लिए, दुनिया के लिए? इस तरह, आपको अपने जीवन में कुछ बड़ा लक्ष्य रखना चाहिये|
लोग अक्सर बहुत छोटी छोटी चीज़ें मांगते हैं|
लोग कहते हैं, गुरुदेव, हमारे लिए गाड़ी भेज दीजिए, हमें टैक्सी नहीं मिल रही है’|
वे अक्सर छोटी चीज़ें ही मांगते हैं| वो भी ठीक है| ये सब चीज़ें मांगने में कोई हर्ज नहीं है, लेकिन साथ ही कुछ बड़ा सोचिये|
इसीलिये, हमारी भारतीय सभ्यता में, हज़ारों साल से, लोग कह रहें हैं, सुखी बसे संसार सब, दुखिया रहे न कोय (भगवान करे कि सब खुश रहें, कोई भी दुखी न रहे) हम भी प्रार्थना करते समय यही कहते हैं, लोका समस्ता सुखिनो भवन्तु (भगवान करे कि पूरी दुनिया खुश रहे)|
न सिर्फ यह दुनिया, बल्कि वे भी जो दूसरे सूक्ष्म संसार में रहते हैं, हमारे पूर्वज, वे भी खुश रहें| हम यही आशा करते हैं|
आवश्यक बात यह है कि हम संतुष्ट रहें|
आपको समय समय पर अपने आप को परखना चाहिये| स्वयं से पूछिए, कि मैं जो कर रहा हूँ, उससे दूसरों का फ़ायदा हो रहा है कि नहीं?
अगर कोई बात या काम आने वाले समय में दुःख दे भी रहा है लेकिन लंबे समय में वह सबके लिए उत्तम और फायदेमंद है, तो वही सही कार्य है|
यही परीक्षा है|
कुछ भी काम करने से पहले, आप अपने आप से ये सवाल करिये, क्या मैं केवल छोटी छोटी बातों पर ध्यान दे रहा हूँ, या फिर एक विशाल दृष्टिकोण से सोच रहा हूँ? ये बहुत ज़रूरी है|
इसलिए, अपने दृष्टिकोण को बड़ा करना बहुत ज़रूरी है| जब आपका दृष्टिकोण संकुचित होता है, तब हमारे निर्णय गलत हो जाते हैं| लेकिन जब हमारी व्यापक दृष्टि होती है, दीर्घकालिक सोच होती है, तब हमारे अंदर एक सहज ज्ञान उभरने लगता है|
आज का दिन विजय का दिन है, बुराई पर अच्छाई की विजय|
किसी नए सिरे से सोचने के लिए, आज का दिन अच्छा है|
अपने आप से पूछिए, ठीक है, अब मैं क्या करना चाहता हूँ?
एक लक्ष्य अपने लिए रखिये, और एक लक्ष्य दुनिया के लिए रखिये, और अगर यह दोनों एक हों जाएँ, तो वह सबसे उत्तम है|
अगर वे दोनों एक नहीं है, तब भी ठीक है, आप दोनों प्राप्त कर सकते हैं, लेकिन इतना देखिये, कि वे आपस में विरोधी न हों|
सबसे पहले, समाज के लिए आपकी कल्पना, फिर दुनिया के लिए, लोगों के लिए और फिर जो भी कुछ आपके मनोरथ हैं, इच्छायें है, वे तो निश्चित ही पूरी हो जायेंगी| ऐसा हो रहा है न?
आपमें से कितने लोगों को ऐसा अनुभव हुआ है, कि आप जो भी मांगते हैं, आपको मिल जाता है? (बहुत से लोग अपना हाथ उठाते हैं)
एक साधक के लिए ऐसा ही होता है| कहते हैं, प्रत्यवायो न विद्यते, अर्थात, एक बार जब आपको रास्ता मिल जाए, तब उसमें कोई मुश्किल नहीं आती| तब फिर आप जो भी संकल्प लेते हैं, आप जो भी सोचते हैं, वह बिना किसी श्रम के होने लगता है|
यह जो महीना बीता है, अश्विनमास, ये बहुत महत्वपूर्ण महीना है| क्यों? क्योंकि इसमें पन्द्रह दिन हमारे उन पूर्वजों की याद में बिताए थे जो गुजार गए हैं, और बाकी पन्द्रह दिन ईश्वरों की आराधना में, और उनसे बातचीत में बिताए हैं| इसीलिये ये बहुत महत्वपूर्ण महीना है, और पूरनमासी के दिन तक ये उत्सव ऐसे ही चलते रहेंगे|
लेकिन हमारे लिए, हर दिन ही उत्सव है, है न? हर जगह उत्सव मन रहा है| लेकिन फिर भी, यह माह थोड़ा महत्वपूर्ण तो है|

प्रश्न : गुरुदेव, इस दुनिया में महात्मा और राक्षस दोनों हैं| जो महात्मा का अनुसरण करते हैं, वे सात्विक बन जाते हैं| और फिर राक्षस उन सात्विक जीवों को दबाने का, विफल करने का प्रयास करते हैं| ऐसे समय में क्या करना चाहिये?
श्री श्री रविशंकर : ये आवश्यक है कि अच्छे लोग आपस में जुड़े रहें|
आज समाज का पतन बुरे लोगों के कारण नहीं हुआ है, बल्कि अच्छे लोगों के चुप रहने के कारण हुआ है|
जिनकी अच्छी मन्शाएँ होती हैं, वे चुपचाप रहते हैं और वोट तक करने नहीं जाते|
वे सोचते हैं, हमें क्या फ़र्क पड़ता है, वैसे भी हम कुछ नहीं कर सकते| चलो हम अपना काम करते हैं, और खुश रहते हैं |
ऐसी उदासीन भावनाओं के साथ वे चुपचाप बैठे रहते हैं| ये सही नहीं है, आपको सक्रिय होने की ज़रूरत है|
निष्क्रियता को अच्छा गुण नहीं मानना चाहिये|
यदि कोई व्यक्ति निष्क्रिय रहता है, और कुछ नहीं करता, और फिर कहता है कि मैं अच्छा व्यक्ति हूँ, तो ऐसी अच्छाई किसी काम की नहीं है| यदि आप अच्छे और दयालु हैं, तो साथ ही कुछ काम भी करिये| है न?
वह जो आप सुधार सकते हैं, उसे सुधारिये| और जिसे सुधार नहीं कर सकते, जो आपकी क्षमता के परे है, उसके लिए प्रार्थना ही सबसे उत्तम विकल्प है|
इसीलिये, जीवन में चार चीज़ें बहुत ज़रूरी हैं भक्ति, मुक्ति, शक्ति और युक्ति|
युक्ति से आप अपना काम करवा सकते हैं| शक्ति भी जीवन में आवश्यक है| लेकिन केवल युक्ति और शक्ति से ही काम नहीं बनेगा| इसके साथ ही आपको भक्ति और मुक्ति भी चाहिये|
क्या आप जानते हैं, कि जब आप अंदर से मुक्ति का अनुभव करते हैं, तो उससे आपके अंदर इतनी शक्ति उत्पन्न होती है कि आप जो भी काम करेंगे वह बिना श्रम के सफल हो जायेगा|
अच्छे लोगों को कभी ये नहीं सोचना चाहिये कि वे कमज़ोर हैं| आप कहाँ कमज़ोर हैं? आपके अंदर इतनी ज़बरदस्त शक्ति है, आपको उसे पहचानना चाहिये|
क्या आप जानते हैं, कि परसों क्या हुआ था?
क्या आप जानते हैं, कि वह हाथी यहाँ यज्ञशाला में आकर क्यों इतना डर गया था? (गुरुदेव आश्रम में रहने वाली हथिनी इन्द्राणी के बारे में बात करते हैं)
वह डर गयी थी, क्योंकि उसने खुद को बड़े स्क्रीन में देख लिया था, और उसे लगा कि वहां कोई दूसरा हाथी खड़ा है| उसने पहचाना ही नहीं, कि ये उसी का प्रतिबिंब है| इसलिए हमें वो स्क्रीन बंद करना पड़ा| यही बात हमारे साथ होती है| हम अपनी पहचान खो चुके हैं, और हम नहीं जानते कि हम कौन हैं| एक बार जब हम ये समझ जायेंगे, तब जीवन में कोई दुःख नहीं रहेगा|

प्रश्न : गुरुदेव, कृपया हमें १२ ज्योतिर्लिंगों का महत्व बताएं|
श्री श्री रविशंकर : देखिये, ज्योति तो आपके भीतर है, और जहाँ ज्योति है वहां शिव है| ज्योतिर्लिंग आपके भीतर है| १२ ज्योतिर्लिंग हमारे शरीर में ही हैं| हमारे शरीर में १२ स्थान ऐसे हैं जहाँ ज्योतिर्लिंग स्थित हैं|
अब पुराने ज़माने में, ये बारह ज्योतिर्लिंग अलग अलग स्थानों में स्थापित थे, केदारनाथ से लेकर रामेश्वरम| ताकि लोग उत्तर से दक्षिण तक, और दक्षिण से उत्तर तक यात्रा करें|
ये हमारे पूर्वजों द्वारा बनाई गयी एक योजना थी जिससे भारत एक संघटित राष्ट्र रहे| भारत को संघटित करने का और कोई उपाय नहीं था| आप और कैसे भारत को जोड़ सकते थे? हर जगह की अपनी अलग भाषा है, तमिल नाडु और उत्तर प्रदेश में आज क्या समानता है?
वे ऐसे हैं, जैसे दो अलग अलग देश, अलग सभ्यता, अलग परम्पराएं, भोजन और पहनावा| सब कुछ अलग है|
इसलिए लोगों को कहा गया कि रामेश्वरम जाओ, और फिर वहां से बोले कि अब तीर्थ यात्रा पर काशी जाओ, और पवित्र गंगा में स्नान करो| उसके बाद उन्हें बोले कि काशी से पवित्र गंगा के जल को रामेश्वरम लेकर आओ और फिर वहां के ज्योतिर्लिंगम पर चढ़ाओ|
उन्होंने इसे एक परंपरा बना दिया, और इसी तरह भारत के अलग अलग स्थानों के लोग आपस में जुड़े| नहीं तो, यह यूरोप की तरह कबका चौबीस देशों में बंट गया होता|
हमारे पूर्वजों ने यह ज़रूरी काम भारत के अलग अलग स्थानों को जोड़ने के लिए किया था| इसीलिये कहते हैं, कि आपको पवित्र गंगाजल काशी से लाकर रामेश्वरम में चढ़ाना चाहिये|

प्रश्न : गुरुदेव, ज्ञान सुनते समय, कभी-कभी मन ये सोचता है, ओह मैं तो ये पहले सुन चुका हूँ| किस तरह उस अवस्था में आया जा सकता है जिसमें मन हमेशा विस्मय और खुलेपन से ज्ञान को स्वीकार करे?
श्री श्री रविशंकर : यदि आपको ऐसा लगता है कि आप इसे पहले सुन चुके हैं, तो इसका मतलब कि वह पहले से ही आत्मा में हैं, आपके अंतर्मन में| ये अच्छा है| पहचानना, उसे ग्रहण करना और फिर उसका हिस्सा बनना ये तीनों स्तर अनायास ही होंगे|

प्रश्न : गुरुदेव, कृपया हमें दुर्गा माता के विभिन्न शस्त्रों के बारे में बताईये|
श्री श्री रविशंकर : मैं आपको संक्षेप में बताता हूँ| उन दिनों में बंदूक नहीं होती थी| उन दिनों में, केवल त्रिशूल होते थे| यदि उन दिनों में बन्दूक होती, तो शायद दुर्गा माँ के हाथों में AK-47 होती|
ऐसा कहते हैं, कि देवताओं ने माँ दुर्गा से पूछा कि, देवी, आपने इन शस्त्रों को क्यों उठा रखा है? आप अपनी एक हुंकार से सभी दानवों का विनाश कर सकती हैं ’|
तब उन देवताओं ने स्वयं ही उत्तर देते हुए कहा, आप इतनी दयावान हैं, कि आप दानवों को भी अपने शस्त्रों के माध्यम से शुद्ध कर देना चाहती हैं| आप उन्हें मुक्त करना चाहती हैं, और इसीलिये आप ऐसा कर रहीं हैं|’
इसके पीछे यह संदेश है, कि कर्म की अपनी जगह होती है| केवल अकेले संकल्प के होने से काम नहीं होता|
देखिये, भगवान ने हमें हाथ और पैर दिए हैं, ताकि हम काम कर सकें|
आप देवी माता के इतने सारे हाथ क्यों हैं? इसका तात्पर्य यह है कि भगवान भी काम करते हैं, और केवल एक हाथ से नहीं, हज़ारों हाथों से और हज़ारों तरीकों से|
देवी के पास असुरों का विनाश करने के हज़ारों तरीकें हैं| वे एक फूल से भी अधर्म का विनाश कर सकती हैं, जैसे गांधीगिरी| इसीलिये देवी अपने हाथों में फूल लिए हैं, ताकि फूल से ही काम हो जाए| और फिर शंख बजाकर, ज्ञान प्रसारण करके भी| और फिर अगर वह भी काम नहीं करता, तो फिर वे सुदर्शन चक्र का उपयोग करती हैं|
इसलिए, उनके पास एक से अधिक उपाय हैं| यह इस बात का प्रतीक है कि इस विश्व में परिवर्तन लाने के लिए, केवल कोई एक ही युक्ति काम नहीं करती| आपको बहुत से तरीके ढूँढने पड़ते हैं|
यही बात हमारे रिश्तों में भी है| हम हर परिस्थिति में हठ नहीं कर सकते| यदि आप अपने पिता के साथ हर समय हठ करेंगे, और फिर उम्मीद करेंगे कि बात बन जाए तो ऐसा नहीं होगा| कभी प्यार, कभी हठ करना और कभी कभी गुस्सा करने से काम होता है|
बच्चों के साथ भी यही है| देखिये किस तरह माँ-बाप बच्चों को बड़ा करते समय तरह तरह की युक्ति और व्यवहार करते हैं| हर बार डंडे का प्रयोग करने से काम नहीं बनेगा| कभी कभी उन्हें प्यार से भी काम करवाना पड़ेगा|
तो यही बात कही गयी है| हर समस्या के बहुत से समाधान हो सकते हैं और इसीलिये देवी इतने सारे अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित हैं|

प्रश्न : गुरुदेव, कृपया हमें देवी माँ के छिन्नमस्ता रूप के बारे में बताईये|
श्री श्री रविशंकर : आपने देखा होगा कि देवी माँ अपना ही कटा हुआ सिर अपने हाथ में लेकर खड़ी हैं, और शायद आप ये देखकर डर गए होंगे| क्या आप जानते हैं कि इस तरह के चित्रण का क्या अर्थ है?
सुबह से लेकर शाम तक हम अपने सिर में उलझे रहते हैं| अगर सिर नहीं होगा, तो न कोई परेशानी होगी, न समस्या, और ना ही झगड़े| तब केवल दिल ही काम करेगा, और इस दिल से प्रेम, खुशी, आनंद और सरलता के फ़व्वारे निकलेंगे|
हमारे सिर में ही सारे मतभेद उत्पन्न होते हैं, हमारे दिल से नहीं| जाति में भेद, मज़हब में भेद, पद में भिन्नता ये सब सिर से आते हैं| उद्दंडता सिर से शुरू होती है, गलत काम सिर से शुरू होते हैं, हिंसा भी सिर से शुरू होती है| कोई भी, कभी भी दिल से हिंसक नहीं हुआ है; ये सब सिर से शुरू होता है|
इसलिए, छिन्नमस्ता मतलब, देवी ने अपने शरीर से सिर काट कर अलग कर दिया है| जब सिर हट जाता है, तब केवल शुद्ध चेतना ही रह जाती है; दिल और जब केवल दिल रह जाता है, तब जीवन में प्रेम, करुणा और सुख पनपने लगता है| अधर्म का विनाश हो जाता है| छिन्नमस्ता इसी का प्रतीक है|
ये सभी चित्रण प्रतीकात्मक हैं| इन सभी चित्रों के पीछे कुछ रहस्य छिपे हैं| इन रहस्यों को खोजना चाहिये|