३०
२०१२
नवम्बर
|
बैंगलुरु आश्रम, भारत
|
पहले प्रकार के लोग जो प्रश्न पूछते हैं , वे दुखी या कष्ट
में होते हैं
|
दुखी लोग प्रश्न पूछते हैं , लेकिन वे उत्तर
नहीं सुनते
|
ये
तो एक तथ्य है
, क्या आपने इसका अनुभव नहीं किया ? आपमें से कितने
लोगों ने इस बात को अपने जीवन में अनुभव किया है ? (बहुत से लोग
अपने हाथ खड़े करते हैं)
बूढ़े लोग , खास तौर पर जब
वे बूढ़े हो जाते हैं और घर पर रहते हैं , कष्ट में होते
हैं
, वे कहते हैं , ‘ओह , मुझे यह परेशानी
है
, भगवान मेरे साथ इतने निर्दयी क्यों हैं ? ये परेशानी
क्यों है
?’
वे
ये प्रश्न ही पूछते रहते हैं , और जिसके लिए वे
आपसे किसी उत्तर की उम्मीद भी नहीं करते | याद
है
? !
वे
सिर्फ प्रश्न पूछते हैं , ‘मैं कष्ट में
क्यों हूँ
, मैंने तो सब अच्छा ही किया , फिर मेरे लिए ये
कष्ट क्यों
?’
इसलिए
, उदास और दुखी लोग प्रश्न पूछते हैं , लेकिन वे किसी
जवाब की उम्मीद नहीं कर रहे | और यदि आप
उन्हें उत्तर देते हैं , तो आप मूर्ख
हैं
|
आपको चुप रहना चाहिये | सिर्फ उन्हें
देख कर मुस्कुराईये | आपका सिर्फ उनके
साथ होना ही उनके लिए अच्छा है | जब परिवार में
किसी की मृत्यु हो जाती है , तब लोग ये पूछते
रहते हैं
, ‘ऐसा क्यों
हुआ
?’ और आपके पास कुछ कहने के लिए नहीं होता | क्या आपके पास
कुछ कहने के लिए होता है ?
नहीं
, कुछ कहने के लिए नहीं होता
|
इसलिए
, केवल आपकी उपस्थिति ही बहुत है | उनके सवालों के
उत्तर देने का प्रयास न करिये , ठीक
है
? !
और
हाँ
, भगवान की तरफदारी करने की , या फिर उन्हें
भगवान के खिलाफ़ करने की भी कोशिश न करें
|
आम
तौर पर लोग कहते हैं , ‘भगवान ने
तुम्हारे साथ बड़ा बुरा किया , प्रकृति ने
तुम्हारे साथ बड़ी निर्दयता करी , ऐसा नहीं होना
चाहिये था’
, और ये सब बातें | ऐसा कहने से
उनका कोई भला नहीं होता |
इसलिए
, जब दुखी और उदास लोग प्रश्न पूछते हैं , तो आपको सिर्फ
चुप रहना चाहिये |
दूसरे प्रकार के व्यक्ति जो प्रश्न पूछते हैं , वे होते हैं जो
गुस्से में होते हैं; जिन्हें लगता है कि उनके साथ कुछ अन्याय हो गया
है
| वे बहुत गुस्से में होते हैं , और वे प्रश्न
पूछते हैं
|
वे
कोई भी उत्तर सुनने के लिए तैयार नहीं होते , क्योंकि जब कोई
व्यक्ति गुस्से में होता है , तब उसके मन में
ताला लग जाता है | उनकी बुद्धि काम
नहीं कर रही होती है | भावनाएँ उनपर
काबू कर लेती हैं |
ऐसी
हालत में बेहतर है कि उनके सवालों के निरंतर जवाब देने के बजाय , उन्हें पहले
शांत होने दिया जाए |
एक
क्रोधित व्यक्ति के सवालों के जवाब देने का कोई फ़ायदा नहीं है
|
फिर
तीसरे प्रकार के व्यक्ति हैं जो प्रश्न पूछते हैं , वे हैं जो सिर्फ
अपनी उपस्थिति महसूस कराना चाहते हैं , उन्हें उत्तर
में बिल्कुल भी दिलचस्पी नहीं है
|
‘मैं यहाँ
हूँ
, क्या आप मुझे पहचानते हैं ?’ , वे बस इतना ही
जानना चाहते हैं , उन्हें उत्तर
में बिल्कुल भी रूचि नहीं है | यदि आप उनके
प्रश्न का उत्तर देते भी हैं , तो वे दाएँ बाएँ देखने लगते हैं , या वे कुछ अन्य
कार्य करने में मगन हो जाते हैं | उनके लिए अपनी
मौजूदगी सामने वाले को महसूस कराना इतना ज़रूरी हो जाता है , कि वे प्रश्न
पूछते हैं
|
ये
तीसरे तरह के लोग होते हैं |
यदि
आप एक स्कूल टीचर हैं , तो आपको ज़रूर
इसका अनुभव हुआ होगा | एक कॉलेज टीचर
ने इस बारे में लिखा है , कि कभी कभी
कॉलेज में लोग खड़े होकर कुछ पूछते हैं , सिर्फ ये जताने
के लिए कि वे कितने बुद्धिमान हैं , और वे कक्षा
में उपस्थित हैं |
आप
में से कितने लोगों ने ये अनुभव किया है ? ऐसा IIT में हर
समय होता रहता है न ? कोई भी खड़ा
होकर
, सवाल पूछने लगता है |
चौथे प्रकार के व्यक्ति वे होते हैं , जिन्हें लगता है
कि उन्हें उत्तर मालूम है , लेकिन वे सिर्फ
सामने वाले को परखने के लिए प्रश्न पूछते हैं , कि उन्हें उत्तर
आता है कि नहीं | मानो वे कह रहे
हों
, ‘मुझे सभी जवाब
मालूम हैं
, लेकिन मैं इस व्यक्ति को परखना चाहता हूँ , कि क्या इसे वो
जवाब पता है कि नहीं |’
ऐसे
लोगों से बात करना बिल्कुल व्यर्थ हैं
|
पाँचवे तरह के व्यक्ति वे होते हैं , जिन्हें कोई गहन
अनुभव हुआ होता है , और वे उसे समझना
चाहते हैं
|
‘मैंने ध्यान किया
और मुझे इस तरह की तरंगें महसूस हुई
| वह क्या
था
? मैं उसके बारे
में और अधिक जानना चाहता हूँ
|’
जब मैंने ध्यान किया
, मैंने कुछ
प्रकाश देखा , और एक बहुत
सुन्दर सुगंध आयी | मैं इसके बारे
में जानना चाहता हूँ | मैं जानना चाहता
हूँ
, कि क्या मैं इस
तकनीक को सही तरह से कर रहा हूँ
| इस अनुभव का
क्या अभिप्राय है ?’
किसी अनुभव के पश्चात पूछे जाने वाले प्रश्न – क्योंकि अनुभव
और बोध साथ साथ चलने चाहिये |
जब
कुछ लोगों को पहली बार अनुभव होता है , तब वे उसे समझना
चाहते हैं
, और इसलिए उन्हें प्रश्न आते हैं
|
छठे प्रकार के लोग जो प्रश्न पूछते हैं , उन्हें ‘जिज्ञासु’ कहते हैं |
उनके मन में सत्य को जानने की एक धधकती ज्वाला होती है | वे वास्तविकता
को जानना चाहते हैं | और जिससे वे
प्रश्न पूछ रहे हैं , उस पर उन्हें
पूर्ण श्रद्धा होती है , कि इस व्यक्ति
को उत्तर पता है , और
इसीलिये
, वे उनसे जाकर प्रश्न पूछते हैं
|
आप
अपने घर की नौकरानी से दवा-औषधि के बारे में प्रश्न नहीं पूछते
|
कोई
आपके घर में झाड़ू लगा रहा है , और आपके घर में
बर्तन मांज रहा है , आप उससे जाकर ये
नहीं पूछेंगे
, कि आपको कौनसी दवा लेनी चाहिये , क्योंकि आप
जानते हैं
, कि उसे यह नहीं मालूम होगा
|
जब
आप बीमार होते हैं , आप डॉक्टर के
पास जाते हैं
, और उनसे पूछते हैं , क्योंकि आप
जानते हैं
, कि उन्हें जवाब मालूम होगा
|
इसलिए
, जब आपको यह विश्वास होता है , कि सामने वाले
व्यक्ति को उत्तर मालूम होगा , और तब आप उस
व्यक्ति से प्रश्न पूछते हैं , केवल तभी आप
उत्तर लेने के लिए तैयार होते हैं
|
ऐसी
अवस्था जिसमें – ‘आप नहीं
जानते
, आप जानना चाहते
हैं
, और आपको यह यकीन
है कि जिस व्यक्ति से आप प्रश्न पूछने जा रहे हैं
, उसे उत्तर मालूम
है’
|
जब
ये तीन गुण उपस्थित हैं , तब वहाँ
‘जिज्ञासा’
होती हैं – ज्ञान पाने की
वास्तविक भावना |
आप
झाड़ू देने वाले से एअरपोर्ट जाने का रास्ता नहीं पूछते
|
आप
माली के पास जाकर ये नहीं पूछते कि गाड़ी कैसे चलाते हैं , या किसी दवा को
कैसे लेना चाहिये | आप जानते
है
, कि यह बात उन्हें मालूम नहीं होगी , क्योंकि आपको ये
थोड़ा बहुत आभास है कि उन्हें क्या पता है और क्या नहीं
|
जब
आप किसी माली के पास जाकर , उनसे उनके
क्षेत्र के बारे में कोई प्रश्न पूछते हैं , तब आप जानते हैं
कि उन्हें उत्तर पता होगा |
इसलिए
, जब आप ये जानते हैं , कि इस व्यक्ति
को उत्तर मालूम है , और मुझे नहीं
मालूम
, और तब आप प्रश्न पूछते हैं – वही असली साधक
है
|
यही
वे छठी प्रकार के व्यक्ति हैं जो प्रश्न पूछते हैं
|
हमारे सभी शास्त्र , सभी भारतीय
ग्रन्थ एक प्रश्न से ही शुरू हुए हैं
|
और
किस प्रकार का प्रश्न ? न
पहला
, न दूसरा , न
तीसरा
, न चौथा , न
पांचवा
, बल्कि छंटवी तरह का प्रश्न – मैं नहीं
जानता , मैं जानना चाहता
हूँ , और इस व्यक्ति
को इसका उत्तर मालूम है
, इसलिए मैं इनसे
प्रश्न पूछता हूँ
|
सभी
शास्त्रों का ज्ञान इस सच्ची जिज्ञासा से ही शुरू हुआ है , प्रश्नों के
द्वारा
|
एक
बार कोई किस रेलवे स्टेशन पर खड़ा था और वह टिकट कलेक्टर से हर आने-जाने वाली ट्रेन
के बारे में पूछता था | टिकट कलेक्टर ने
तीन-चार बार तो जवाब दिया , मगर उसके बाद वह
परेशान हो गया
, और बोला , ‘भाईसाहब , आपको जाना कहाँ
है
?’
तब
उस आदमी ने कहा , ‘कहीं
नहीं
, मुझे तो सिर्फ पटरी के उस पार जाना है’
|
तो
अगर आपको सिर्फ पटरी के उस पार जाना है , तो बेकार के
सवाल पूछना व्यर्थ है | अधिकतर लोग यही
करते हैं
, सिर्फ समय बिताने के लिए व्यर्थ की बातें पूछते हैं
|
तो
मैंने जो कुछ भी कहा , उस पर मनन
करिये
| उसके बारे में , बार बार
सोचिये
|
एक
बार कनाडा में
, एक सत्संग के दौरान मैंने कहा , ‘२+१=०’
दो
घंटे तक इस पर बहस चली | वहां सब बड़े
प्रतिष्ठित कॉलेजों के प्रोफेसर थे , जैसे IIT वगैरह | उन सबके लिए ये इतनी अनूठी बात ठी , कि गुरुदेव ने
ये कैसे कहा
, २+१=० |
देखिये , इसका भी फ़र्क
पड़ता है
, कि कौन कहता है | अगर कोई बच्चा
ये बात कहता है , कि
२+१=०
, तब हम कह सकते हैं कि ये गलत है | लेकिन अगर कोई
बहुत बड़ा प्रोफेसर कहे कि २+१=० , तब हम ये नहीं
कह सकते कि ‘नहीं , ये सही नहीं
है’
|
आपको इस पर मनन करना चाहिये | आपको इसके बारे
में सोचना चाहिये | उसके पीछे कोई
रहस्य छिपा हो सकता है , और इसीलिये
उन्होंने ऐसा कहा है | वे कोई मूर्ख
नहीं है
, कि ऐसी बात यूँ ही कह देंगे
|
जब
आप ऊपरी स्तर पर देखेंगे , तब हो सकता है
आपको लगे कि यह असंभव है , लेकिन हर असंभव
चीज़ में कुछ तो संभव होता ही है | जब आप बैठकर
सोचते हैं
, तब बहुत सी नयी संभावनाएँ सामने आती हैं
|
तो
उस दिन
, इतना सारा ज्ञान बाहर आया , सिर्फ तब जब
हमने सोचा कि २+१=० कैसे हो सकता है
|
इसका एक पूरा टेप बन गया था | वह बहुत ही
मजेदार था
, सब लोग उन दो घंटो तक इतना हंस रहे थे
|
तो
इस बात का फ़र्क पड़ता है कि कौन ज्ञान दे रहा है , कौन बात कह रहा
है
|
यदि
कोई बहुत बुद्धिमान व्यक्ति कहता है , ‘२+१=०’ , तो आप उसको यूं
ही नहीं टाल सकते | आपको उसे
कुरेदना पड़ेगा और उसके बारे में सोचना पड़ेगा | इसी को
‘कोअन’ कहते
हैं
| (कोअन जैनझम बुद्धिझम में उपयोग किये जाने वाली ऐसी कहानियाँ या
विरोधाभासी वाक्य हैं , जिन्हें ध्यान
करने के लिए या आध्यात्मिक ज्ञान में गहरा उतरने के लिए प्रयोग किया जाता
है) हिंदी में इसे ‘पहेली’ कहते
हैं
|
देखिये , जीवन एक पहेली
है और बहुत बार ज्ञान भी हम तक एक पहेली के रूप में ही आता है | तब बुद्धि की
तीक्ष्णता का उपयोग करके हमें उस पर मनन करना चाहिये , और फिर उस ज्ञान
पर चिंतन करके उसके अंदर छिपे रहस्यों को समझना चाहिये; उनके भीतर छिपा
अर्थ
|
भारत में , इस तरह के बहुत
से ज्ञानी गुरु/शिक्षक हुए हैं , और ये सब ज्ञानी
लोगों को सभी कुछ पहेलियों के रूप में ही समझाते थे | तो उन लोगों को
ज्ञान तक पहुँचने के लिए पहले उन पहेलियों को सुलझाना पड़ता था | तब उन्हें वह
ज्ञान प्राप्त होता था |
आपने विक्रम-बेताल के बारे में सुना होगा , हमारे देश में
उस तरह की इतनी सारी पहेलियाँ थी जो बच्चों के लिए बहुत फायदेमंद होती थी | उसके उनकी बुद्धि की तीक्ष्णता बढ़ती है , और उनके सोचने
की शक्ति भी बहुत तेज हो जाती है
|
यहाँ तक कि भगवान कृष्ण भी अर्जुन को सारा ज्ञान देने के बाद कहते
हैं
, ‘मुझे जो कहना
था
, सो मैंने कह दिया , अब तुम इसके
बारे में सोचो
| इसमें अंदर डूब जाओ , इस पर मनन
करो
, और फिर अगर तुम्हें लगे कि यह सही है , तभी तुम इसे
स्वीकार करना’
|
इसलिए
, सुनने के बाद , आपको उस पर मनन
करना चाहिये
| केवल सुनना ही काफी नहीं है , उसे हजम करना भी
ज़रूरी है
| उसके बारे में बार बार सोचिये | उसके अर्थ के
पीछे छिपे अर्थ को समझिए |
और
बिना उसके बारे में चिंतन किये , आपको न तो उसे
स्वीकार करना चाहिये , और ना ही
अस्वीकार करना चाहिये |
यदि
आप उसे अस्वीकार कर देते हैं , तो वह भी गलत
है
, और यदि आप उसे सहज ही स्वीकार कर के बैठ जाते हैं , तो वह भी गलत
है
|
आपको सुनना है , उस पर चिंतन
करना है
, और फिर उसे स्वीकार करना है | तब ज्ञान आपके
भीतर पक्का बैठ जाएगा |
यदि
आप सुनते ही उसे स्वीकार कर लेते हैं , तब उसके बारे
में सोचने का मौका ही नहीं मिलेगा | और यदि आप फ़ौरन
ही उसे नकार देंगे , कि ‘नहीं , ये गलत
है’
, तब भी आप उस पर चिंतन नहीं कर पाए
|
इसलिए
, पहले सुनिए , फिर स्वीकार
करिये
, फिर चिंतन करिये | चिंतन-मनन करने
के बाद ही आप उसे स्वीकार करिये
|
|