२९
२०१२
नवम्बर
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बैंगलुरु आश्रम, भारत
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श्री श्री
रविशंकर : कहा गया है कि रामायण आपके अपने भीतर ही घटित हो रही है । आपकी आत्मा राम
है , मन सीता , आपके श्वास या प्राणशक्ति हनुमान है , आपकी चेतना लक्ष्मण और आपका अहं रावण है ।
जब अहं (रावण)
मन (सीता) का हरण कर लेता है तो आत्मा(राम) व्याकुल हो उठती है। अब आत्मा अपने आप
मन तक नहीं पहुँच पाती , इसे श्वास - प्राणशक्ति (हनुमान) की सहायता लेनी पड़ती है । प्राणशक्ति की
मदद से , मन फिर से आत्मा से मिल जाता है , और अहं का नाश हो जाता है ।
यही इस कथा का
आध्यात्मिक महत्त्व है ।
और दूसरी
प्रकार से , हनुमान वानर थे , और उन दिनों वानर भी बहुत समझदार और बहुत ही श्रद्धालु होते
थे । श्रद्धालु गुरु से अधिक सामर्थ्यवान होते हैं । यह वास्तविकता है । सच्चे
श्रद्धालु ईश्वर से भी कहीं अधिक सामर्थ्यवान होते हैं ।
प्रश्न : गुरुदेव , हम भगवान राम व भगवान कृष्ण की तो पूरी देह की पूजा करते हैं , परंतु शिव के लिंग का ही पूजन किया जाता है , ऐसा क्यों है ?
श्री श्री रविशंकर
: लिंग भगवान शिव का प्रतीकात्मक स्वरूप है । पहले आप यह समझें कि लिंग है क्या । लिंग
एक प्रतीक है ।
जननांगों को
भी लिंग क्यों कहा जाता है ? वो इसलिये , क्योंकि यही एक प्रतीक है
जिससे कि यह जाना जा सकता है कि बच्चा लड़का है या लड़की । जब बच्चा पैदा होता है तो
उसके लिंगनिर्धारण के लिये एक ही जगह देखा जाता है । इसलिये यह पहचान का प्रतीक है
।
भगवान शिव
पूरे ब्रह्मांड में विद्यमान हैं , तो कोई उनकी पहचान कैसे करे
या उनके साथ कैसे जुड़े ? इसीलिये , प्राचीन समय में , समझदार ज्ञानियों ने एक पिंड या एक गोल अथवा अंडाकार पत्थर
रख दिया और इसे भगवान शिव तुल्य मान लिया ।
इस प्रकार , लिंग और योनि (वो आधार जिस पर कि शिवलिंग रखा रहता है) को
रखा गया , क्योंकि इस से नर व मादा की पहचान
होती है । अब , आप
ब्रह्मांड के स्वामी , जोकि निराकार है , को कैसे वर्णित करेंगे ?
प्राचीन काल
में , भगवान शिव की त्रिशूल , और कुछ भी ऐसा पकड़े हुये कोई आकृति नहीं थी । प्राचीन समय में , केवल पिंड को ही रखा जाता था और फिर मंत्रोचारण द्वारा चैतन्य
शक्ति को जागृत किया जाता था और पिंड में इसका अविर्भाव किया जाता था । इस प्रकार
से इसका पूजन किया जाता था ।
मूर्तियों का
सृजन तो बहुत बाद में हुआ ।तब क्या हुआ ? लोगों ने पिंड के ऊपर आँखें , मुँह आदि बनाना शुरु कर दिया । पिंड के ऊपर चेहरा बनाने की
परम्परा पहले नहीं थी ।
इसी प्रकार से
भगवान विष्णु का पूजन भी उनके चरणों ( संस्कृत में पाद ) की पूजा करके किया जाता
था ।
यदि आप गया
(भारत में बिहार के दूसरे बड़े शहर में) जायें
, तो वहां लोग “विष्णु
पाद” ही बोलेंगे । वहां केवल भगवान के चरण ही पूजे जाते हैं ।
कहा जाता है
कि मूर्ति की अपेक्षा यंत्र ( देवता की प्रतीकात्मक आकृति) अधिक महत्त्वपूर्ण है ।
हर देवी-देवता
का एक यंत्र और एक मंत्र होता है , जोकि उन्हें समर्पित किया
गया है , और उनके पूजन के विधि विधान को
तंत्र के नाम से जाना जाता है ।
मूर्ति में तब
तक आध्यात्मिक शक्ति नहीं आती जब तक कि इसके यंत्र की स्थापना नहीं की जाती । और
यंत्र में तब तक शक्ति नहीं होती जब तक कि इसे मंत्रोच्चारण द्वारा सशक्त नहीं
किया जाता ।यही कारण है कि हर मंदिर में पहले यंत्र स्थापित किया जाता है और फिर
उसके ऊपर मूर्ति की स्थापना की जाती है । ऐसा मंदिर में आने वालों के भीतर गहन
श्रद्धा का भाव जगाने के लिये किया जाता है ।
पहले भी , सनातन धर्म में मूर्तियां या मूर्तिपूजन नहीं थे , केवल हवन किये जाते थे और भगवान शिव के पिंड को उनकी
उपस्थिति दिखाने के लिये रखा जाता था । बस
, इसके सिवा और
कुछ नहीं किया जाता था ।मूर्तियां स्थापित करने का रिवाज़ तो बाद में शुरु हुआ
।गणेश देवता को सुपारी में , भगवान शिव को पिंड में देखा
जाता था और देवी माँ की अराधना नारियल रखे कलश के रूप में की जाती थी । सनातन धर्म
के अनुसार यही विधान था ।
आज भी कलश के
बिना किसी मूर्ति के पूजन की कोई महत्ता नहीं है । कलश के जल से मूर्ति का अभिषेक
किया जाता है । यही परम्परा है ।
अब , मूर्तिस्थापना की परम्परा का प्रारम्भ क्यों हुआ ?
ऐसा इसलिये
क्योंकि मूर्ति को देख कर श्रद्धा की भावना भीतर से जागृत होती है ।
दूसरा कारण यह
है कि जब बौद्धों व जैनियों ने अपने मंदिर बनवाये तो उन्होंने इतनी सुंदर प्रतिमायें
रखीं कि सनातन धर्म को मानने वालों को भी लगा कि उन्हें भी ऐसा ही कुछ करना चाहिये
। इसलिये उन्होंने भी इसका अनुसरण किया और भगवान विष्णु , भगवान राम और भगवान कृष्ण की विभिन्न मूर्तियां स्थापित करनी
शुरु कर दीं ।
आपको भगवद्
गीता या रामायण में पूजा के लिये मूर्तियां लगाने की प्रथा का वर्णन कहीं नहीं
मिलेगा ।
केवल शिवलिंग
ही रखा जाता था । इसीलिये प्राचीन काल में केवल शिवलिंग ही था , जिसकी भगवान राम , भगवान कृष्ण व बाकि सब पूजा
करते थे ।
क्या आप जानते
हैं कि पवित्र काबा (मक्का , सऊदी अरब) में रखा गया पत्थर
भी भगवान शिव ही हैं ।
‘भविष्य पुराण’ में भगवान विष्णु के एक
बौने ब्राह्मण के रूप में लिये गये पांचवे अवतार वामन द्वारा लिये गये तीन कदमों
के विषय में एक श्लोक है । भगवान का पहला कदम गया में पड़ा था और दूसरा मक्का में ।
पैगंबर मोहम्मद
के आने से बहुत पहले से ही लोग तीर्थ यात्रा के लिये मक्का जाते थे । इसीलिये
तीर्थयात्री वहाँ जाते हैं और वहां रखे पत्थर (सलीब) को चूमते हैं और इसकी सात बार
परिक्रमा करते हैं । यह बिल्कुल शिव मंदिरों की तरह किया जाता है , जहाँ पर कि लोग बिना सिले सफेद कपड़े पहन कर जाते हैं और
पत्थर की पूजा करते हैं ।
यह प्राचीन
काल से चली आ रही परम्पराओं के बिल्कुल अनुरूप है । इस तरह से गया और मक्का में की
जाने वाली पूजा में अद्भुत समानता है : एक ही प्रकार का पत्थर रखा गया है और इसे
ही पूजा जाता है , एक ही तरह से परिक्रमायें ली जाती
हैं , और एक ही तरह के अनसिले कपड़े पहने
जाते हैं ।
ये सब कहीं न
कहीं आपस में सम्बन्धित हैं और जुड़े हैं ।
प्रश्न : शिवलिंग
को अकेले क्यों नहीं , बल्कि योनि के साथ ही क्यों
पूजा जाता है ?
श्री श्री रविशंकर
: जैसा कि मैंने पहले बताया है कि , दोनों को शिव और शक्ति के
रूप में पूजा जाता है । इन्हें अकेले भी पूजा जाता है । कई ऐसे स्थान हैं जहाँ पर
कि केवल पिंड ही रखा गया है ।
प्रश्न : गुरुदेव , वैदिक काल में , भगवान ब्रह्मा , विष्णु व शिव की उपस्थिति का कोई उल्लेख नहीं है । ३५०० ईसा
पूर्व से २८०० ईसा पूर्व का समय भारतीय इतिहास में वैदिक काल के रूप में जाना जाता
है , और २८०० ईसा पूर्व से २६०० ईसा
पूर्व तक के समय को रामायण का युग कहा गया है । इस सारे समय में , भगवान शिव की पूजा का कोई प्रमाण या उल्लेख नहीं है । तो फिर
भगवान शिव की लिंग व योनि के रूप में पूजा वास्तव में कब शुरु हुई और क्यों ?
श्री श्री रविशंकर
: ‘भारत ज्ञान’ नामक एक पुस्तक है , जिसे आपको अवश्य पढ़ना चाहिये । २८०० वर्ष के जिस काल की आप
बात कर रहे हैं वह सही नहीं है । भगवान कृष्ण ५,२००
वर्ष पहले हुये , और भगवान राम लगभग ७,५०० वर्ष पूर्व , और उससे कम से कम १०,००० वर्ष पूर्व वेदों के बारे में विचार किया गया था और
उन्हें लिखा गया था ।
मेरा सुझाव है
कि आप भारत ज्ञान के विभाग से सम्पर्क करें
, या फिर
डा.डी.के.हरि से मिलें । वे आपको इस विषय में सब कुछ बतायेंगे । उन्होंने इस
क्षेत्र में गहन शोध किया है अत: वे आपके सब प्रश्नों का उत्तर दे पायेंगे ।
प्रश्न : गुरुदेव , हमने चार महान युगों – सतयुग , त्रेतायुग , द्वापरयुग और कलियुग , के विषय में पढ़ा है । जबकि ,
स्कूल व कॉलेज में पढ़ाया जाने वाला इतिहास युगों के विभाजन की इस प्रणाली को नहीं
मानता और इसे पूर्णत: नकारता है । यह कहा जाता है कि आर्य जाति का भारत में आगमन
लगभग ५,५०० वर्ष पूर्व हुआ था । हम इस
विसंगति को कैसे समझें ?
श्री श्री
रविशंकर : सुनिये , अब ये सब धारणायें परे फैंक दी गई
हैं । आर्य लोगों के आगमन की धारणा , जिसे पढ़ाया जा रहा है , गलत सिद्ध हुई है ।
विश्व की आयु २८
बिलियन या १९ बिलियन वर्ष बताई गई है , जोकि बिल्कुल उससे मेल खाता
है जैसा कि हमारे पंचाग में बताया गया है ।
इस ब्रह्मांड
का समय व आयु जैसा कि वैदिक काल के अनुसार पंचाग में बताया गया है उससे बिल्कुल
मेल खाता है , जैसा कि आधुनिक वैज्ञानिक बता रहे
हैं । यही कारण है कि मैं आपसे भारत ज्ञान विभाग के साथ बैठने व शोध का अध्ययन
करने को कह रहा हूँ ।
रोमिला थापर
ने स्वयं यह माना है कि जो भी उसने लिखा है
, वो गलत है ।
इतिहास की
पुस्तकें लिखते समय सब कुछ ६,००० वर्ष पूर्व के बाद हुआ
बताया गया है । उसके जैसे विद्वानों ने न तो संस्कृत पढ़ी है और न ही हमारे प्राचीन
अभिलेखों को । उन्होंने भारत के इतिहास को पूर्णत: विकृत कर दिया है ।
बहुत से
आविष्कार यहाँ हुये थे । कई नये तथ्य व खोजें की गई थी । रोमिला थापर , जिसने कि यह सब लिखा है
, ने स्वयं यह
कहा है कि हमें आर्यों के आगमन के विषय में पुनर्विचार करना होगा । इसीलिये मैं
आपको सुझाव देता हूँ कि आप यहां भारत ज्ञान विभाग पर एक नज़र डालें और उनसे सम्पर्क
करें ।
प्रश्न : गुरुजी , उन चीज़ों को कैसे जाने जो हमारे लिये अज्ञात हैं ? ऐसी बहुत
सी चीज़ें हैं जिन्हें कि हम नहीं जानते । कई बार मुझे बहुत पीड़ा होती है और मैं
अज्ञात का ज्ञान न होने के कारण रो पड़ता हूँ ।
श्री श्री रविशंकर
: मैं आपकी परेशानी को समझता हूँ ।
कुछ जानने की
चाह की तीव्र पिपासा है , पर वह कुछ क्या है , यह आप नहीं जानते । आप जानते हैं कि कुछ है , पर आप नहीं जानते कि उस कुछ को कैसे जाने । ऐसा ही है न ?
बस शांत हो
जाइये और ध्यान कीजिये । यही वहां पहुँचने का मार्ग है ।
प्रश्न : गुरुदेव , क्या आप हमें असुर और देवों के विषय में कुछ बता सकते हैं ?
क्या असुर बुरे लोग थे ?
श्री श्री रविशंकर
: असुर वे हैं जो कि आत्मा के विषय में नहीं सोचते , वे
केवल शरीर से या धरती से जुड़े हैं । देव आत्म-बद्ध हैं ।
वास्तव में , असुर और देव दोनों एक ही व्यक्ति की संतान हैं । प्रजापति की
दो पत्नियां थीं , अदिति व दिति । दिति से असुरों की
और अदिति से देवों की उत्पत्ति हुई । यही कथा बताती है ।
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