सक्रिय मन

आपको कठिनाई और उदासी के लिये बैठ कर इंतजार नहीं करना पड़ता इन चीजों को झलकाने के लिए। वस्तुतः आपको इंतजार नहीं करना होगा| अभी शुरु करें| यदि आप प्रतिदिन अभ्यास करेंगे तो आपकी समस्या और कठिनाई कम होगी। यदि कोई प्रकट भी हुई तो बैठकर चिंता मत करें। क्या आप स्वच्छ हैं? क्या आपका स्वभाव पवित्र है? क्या आप और आपका स्वभाव स्थिर और पवित्र है?
आप इसे जान लें फिर पाप आपके निकट नहीं आयेगा। पाप को आपको स्पर्श करना असंभव हो जायेगा। आपको इसे अच्छे से समझना होगा। जैसे स्नान करने से शरीर का मैल साफ हो जाता है, वैसे ही जब आप अपने मन को ज्ञान से स्नान कराते हैं तो सारे पाप आपको छोड़ देते हैं। पाप आपका स्वभाव नहीं है।
हम सामान्यतः स्वयं की चेतना में पाप से भर लेते हैं। वह दोष का विचार हमें नीचे ले जाता है। जब हम यह सोचते हैं कि हम पापी हैं तो फिर साधना करना संभव नहीं है। दोष के विचार से क्या होता है? आप क्रोधित हो जाते हैं और क्रोध से आप अपवित्र भावना उत्पन्न कर लेते हैं जो आपके मन में आने लगती है।
क्या करना चाहिए किसी दोष की भावना से मुक्त करने के लिए। हमें अपनी पवित्रता को पहचानना होगा। हमें पवित्र होने के लिये कहीं नहीं जाना पड़ता क्योंकि हम वास्तबिक रुप से पवित्र हैं। इस सजगता को आपके भीतर की गहराई में पैदा करने के लिये आपको आपकी अपनी प्राण शक्ति को बढ़ाना होगा। सुदर्शन क्रिया, प्राणायाम, भजन से प्राण शक्ति में वृद्धि होती है और मन पवित्र और हलका हो जाता है। यदि कुछ गंदगी आती है और ठहर जाती है तो मन अपवित्र हो जाता है। तो फिर क्या करना होगा? हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारा स्वभाव पवित्र है।
मन एक स्फटिक के जैसे साफ रहता है। स्फटिक के उपर जो भी रंग डाल दिया जाये ता वही रंग उससे चमकता है। उसी तरह पर्यावरण में भावनायें जैसे क्रोध, जलन, घृणा, इच्छा सभी मन मे प्रतिंबंबित होती है। जब वह प्रतिबिंबित होती हैं तो यह मूर्खता होगी कि उस पर विचार ही करते रहें और कहते रहें कि यह मेरे साथ हुआ, क्या मैं ऐसा हूँ? आपको इस सत्य से सजग होना पड़ेगा कि मैं हर वक्त पवित्र हूँ। इसे विवेक कहते हैं।
फिर हमारी चेतना शिव के जैसी बन जाती है। शिव क्या है? पवित्र साफ प्रकाश। वह चेतना जो पवित्र है वह स्फटिक जैसी साफ होती है, पवित्र ज्ञान को देने वाली। वह शक्तिपूर्ण है। उसमें कुछ भी कमी नहीं है। यदि कमी है तो दोष की भावना उसका पीछा करती है। इसे समझें कि हमारी चेतना ही ज्ञान है। दूसरे किसी स्थान पर ज्ञान लेने की आवश्यकता नहीं है। यदि आप सोचते हैं कि मन पवित्र नहीं है तो आपको उसे पवित्र करने के लिए साधना करनी पडे़गी।


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