२१
२०१२
अप्रैल
ध्यान के रहस्य - दिवस २
ध्यान, ध्वनि से मौन की यात्रा है, हलचल से शांति की, एक सीमित पहचान से असीमित आकाश तक की यात्रा|
कल रात मैंने
आपको वह पांच तरीके बताये थे जिसके माध्यम
से ध्यान होता है| एक बार दोहराते हैं|
पहला शारीरिक
व्यायाम से| योग, ताई ची, यह सभी इस के
अंतर्गत आते हैं| शरीर
के खिचाव से मन सजगता की अवस्था का अनुभव करता है, जिसको ध्यान कह सकते हैं|
दूसरा साँस और प्राणायाम के
माध्यम से मन शांत हो जाता
है|
तीसरा, पांच
इंद्रियों और संवेदी वस्तुओं में से किसी
एक के माध्यम से, उदारता, निर्विचारता, शांति, सुख और आंतरिक
सौंदर्य का अनुभव
कर सकते हैं| यदि आप एक बच्चे को गौर से देखें जब वह एक लॉलीपॉप या एक टॉफी का आनंद ले रहा हो, आप देखेंगे कि वह बालक पूरी तरह से उस टॉफी के आनंद में तल्लीन होता है| आप बच्चे को पूछें “तुम्हारा नाम क्या है?” वह जवाब नहीं देगा| वह इस कार्य को पूरी तरह से कर रहा है| किसी भी संवेदी वस्तु में १००% तल्लीन होना, आप को ध्यान
में ले जाता है|
किसी दिन, जब आपके पास समय हो, लेट कर आसमान को
देखते रहिये, एक पल आता है जब मन स्थिर हो
जाता है, निर्विचार, और आप नहीं जानते
कि आप कहाँ
हैं, लेकिन आप जानते
हैं कि आप हो| हर
जगह केंद्र और परिधि कहीं नहीं, ऐसा अनुभव होता है| असीम जागरूकता, आकाश को देखने मात्र से महसूस हो जाती है क्योंकि हमारा मन और चेतना भी आकाश के समान हैं| आप संगीत सुनते हैं, फिर एक क्षण आता है जब आप पूरी तरह से संगीत में तल्लीन हो जाते
हैं और फिर आप
उस ध्वनि से अलग हो जाते हैं| अब
आप संगीत नही सुन रहे, लेकिन आप
जानते हैं कि आप हैं और आपकी कोई
सीमा नहीं है| योग की भाषा में, इस लय को योग कहा
जाता है, जिसका अर्थ है लीन हो जाना| यह भी आपको ध्यान में ले
जाता है|
कोई आश्चर्य या विस्मय भी आपको ध्यान में ले जाता है| जब
भी आप को एक
'वाह!' का अनुभव होता है, वहाँ मन नहीं होता, कोई विचार नहीं होता, लेकिन आप होते हैं| स्पर्श, गंध, स्वाद, दृष्टि और ध्वनि, अभी आप को ध्यान में ले जा
सकते हैं यदि सही तरीके से किया जाये| इसे अनुभव करने के लिये कौशल की
आवश्यकता है| भावनाएं भी आप को ध्यान
में ले जा सकती हैं, दोनों- सकारत्मक और नकारत्मक भावनाएं| सदमा भी आपको ध्यान में ले जा सकता है|
यह थोड़ा जोखिम भरा है| आपको पता है कि जब आप पूरी तरह से निराशाजनक हो जाते हो, तब आप
कहते हो, “बस, मैं हार गया!” जब आप बहुत गुस्से
में होते हो, आप क्या
कहते हो? “बस, मैं हार गया!”, इसका मतलब, मैं अब और
नहीं सह सकता| 'उन क्षणों में, अगर आप कुंठा ,अवसाद या हिंसा में न फिसलें, तो आप पाएंगे कि वहाँ
एक पल है, जहां मन स्थिर है| तो, सकारात्मक या नकारात्मक
भावनाएँ, जैसे कि भय, मन को स्थिर कर देती हैं, वह थम जाता
है| यह आप को उस
स्थान में ले जा सकता है|
फिर है, बौद्धिक उत्तेजना, ज्ञान के
माध्यम से, जागरूकता से आप ध्यान में जा सकते
हैं| इसे ज्ञानयोग कहा जाता
है| यदि आप किसी अंतरिक्ष संग्रहालय में गए हैं, तो आपने अनुभव किया होगा कि आपकी चेतना बाहर आते हुए किसी दूसरे स्तर
पर होती है| वहाँ एक अलग
संदर्भ है, क्योंकि आप
खुद को ब्रम्हान्ड के संदर्भ में देखते हैं| आप
कौन हो? आप क्या कर रहे
हो? आप कहाँ हो? उस विशाल, अनंत ब्रम्हान्ड के संदर्भ में आप
कैसे हो? यदि आप क्वांटम भौतिकी का
अध्ययन करें, आप देखेंगे कि परमाणु ही सब कुछ है, बस एक लहर, सिर्फ ऊर्जा| यदि
आप वास्तव में क्वांटम
भौतिकी सुनें, फिर आप वेदांत या ध्यान की कला या योग का अध्ययन करें, आप को बहुत समानताएँ मिलेंगी| आप पाएंगे कि एक ही भाषा बोली जा
रही है|
आदिशंकर ने कहा है, “जो आप देख रहे हैं, वह वास्तव में है
नहीं| ”
हमारे समय के शीर्ष वैज्ञानिकों में से एक, डॉ हंसपीटर दुर्र ने कहा, मैंने पिछले ३५ वर्षों से इस विषय का अध्ययन किया, और फिर यह ज्ञात हुआ कि यह तो मौजूद ही नहीं है! मैं वह पढ़ रहा था जो अस्तित्व में है ही नहीं! तो ज्ञान के माध्यम से भी आप ध्यान का अनुभव कर सकते हैं|
हमारे समय के शीर्ष वैज्ञानिकों में से एक, डॉ हंसपीटर दुर्र ने कहा, मैंने पिछले ३५ वर्षों से इस विषय का अध्ययन किया, और फिर यह ज्ञात हुआ कि यह तो मौजूद ही नहीं है! मैं वह पढ़ रहा था जो अस्तित्व में है ही नहीं! तो ज्ञान के माध्यम से भी आप ध्यान का अनुभव कर सकते हैं|
मैं ध्यान
के लाभों के बारे में चर्चा नहीं करूँगा| यह तो आप गूगल से
पता कर सकते
हैं| बहुत से बुद्धिमान लोगों ने ध्यान पर अनुसंधान कर, उसके फायदे वहाँ बताए, ध्यान
के लाभ क्या है| किसी भी ध्यान से कुछ लाभ
तो होता ही है| लेकिन ध्यान के रहस्य क्या है, हम इसमें
रुचि रखते हैं|
हम इस बारे
में जिज्ञासु है, रहस्य क्या है?
रहस्य को लेकर पूरब और पश्चिम में एक अंतर है| पश्चिम की सभ्यता में, कुछ
भी शर्मनाक हो तो उसे गुप्त
रखा जाता है| पूर्व की सभ्यता में
जो पवित्र है, उसे गुप्त रखा जाता है| इन दोनों
के बीच यह एक
चौंकाने वाला अंतर है| यदि आप कहते हैं कि यह बात गुप्त है, तो यह बहुत पवित्र होगी| यह पूर्व का रवैया है| पूर्व में एक शर्मनाक कृत्य को
गुप्त नहीं रखा जाता, उसे कबूल कर
लिया जाता है| वहाँ कुछ भी
नहीं छिपा| लेकिन रहस्य क्या हो
सकता है,एक ध्वनि, जिसे मन में बहुत गुप्त रखा जाता
है, एक मंत्र|
यह गुप्त क्यों रखा
जाता है?
कहा
जाता है कि मंत्र बीज की तरह
है और अंकुर गोपनीयता
में फूटता है| आप जमीन के
नीचे बीज डाल कर माटी से ढक देते हो, फिर बीज अंकुरित होता है और एक
पेड़ बन जाता है| बेशक, जो अंकुर आप खाते हैं, वह अलग
है|
मंत्र की प्राचीन अवधारणा है कि इस एक
ध्वनि को गुप्त रखा जाता है ताकि यह आपके अंदर बढ़ सके, आपके अंदर प्रतिध्वनित हो सके| जो भी आप अपने अंदर एक रहस्य के रूप में रखेंगे
वह आप को गहराई और अवचेतन की परतों में ले जायेगा| पाप स्वीकृति की प्रथा होने के कारणों में से यह भी एक कारण है|
आप बोल कर क्यों कुछ
कबूल करते हैं? यह इसलिए है कि वह आपकी चेतना की गहराई में नहीं जाना
चाहिए| एक गलती या पाप किया, एक बार आप ने बोल कर कबूल कर लिया तो वह बाहर
चला जाता है और आपको परेशान नहीं करता| लेकिन मंत्र, एक
ध्वनि है जो आप को गहराई
में जाने में मदद करती है|
ध्वनि (मंत्र) किसी
अन्य व्यक्ति से एक छात्र को दिया
जाता है और कहा जाता है 'यह अपने
आप में रखें, यह आपका व्यक्तिगत मंत्र है, इसे बढ़ने दे|’ ध्वनि का अर्थ महत्वपूर्ण नहीं है, सिर्फ ध्वनि
कंपन महत्वपूर्ण है| अर्थ को
समझना किसी भी
ध्वनि कंपन पहलू की तुलना में सतही है| यह वह
आवाज़ भी हो सकती है जो हर कोई
जानता हो| पुराने दिनों में एक मंत्र
देने के लिये चार दिन का उत्सव आयोजित किया जाता था| जब बच्चे
को मंत्र दिया जाता था तब सभी
रिश्तेदारों और दोस्तों को बुलाया जाता था| बच्चे को घोड़े
की पीठ पर बैठा कर एक जुलूस निकाला जाता था| इसे करने का यह प्राचीन तरीका था| आध्यात्मिक यात्रा बहुत पवित्र, बहुत ही
व्यक्तिगत है और अभी के लिये गर्व की
बात मानी जाती है| आप को एक
गुप्त ध्वनि मिल रही
है और वह एक बड़े गर्व की बात है क्योंकि यह पवित्र है|
ध्यान खालीपन की अवस्था में होता है| वास्तव
में ध्यान होता है, आप यह कर नहीं सकते| आप इसके होने के लिये
केवल एक अनुकूल
वातावरण बना सकते हैं|
किशोर अवस्था में कहीं
मन बहना शुरू होता
है| यह किशोर अवस्था से पहले नहीं होता| हार्मोन शरीर में सक्रिय
होने के बाद होता है| एक बच्चे
का दिमाग हमेशा किसी चीज़ पर केंद्रित रहता
है और वहाँ पर ही चिपका रहता है| लेकिन हमारे शरीर में जैसे ही हार्मोन बढ़ते हैं, अधिक
कार्य शुरू हो जाता है, मन झुलना और ढुलमुल होना शुरू हो जाता है, और वह केंद्रित ध्यान कम
हो जाता है|
पहले के दिनों में, इस
से पहले कोई किशोरावस्था में जाता, वे उसे योग और ध्यान में
प्रशिक्षित करते थे| तो किशोरावस्था में जब मन झूलता और यहाँ
वहाँ जाता, युवा को पहले से ही मन को संभालने
के लिए प्रशिक्षित किया
जाता| ८ या
९ साल की उम्र में शुरू करना बहुत अच्छा है| हार्मोनल
परिवर्तन शुरू होने से पहले ध्यान, योग, और सभी मार्शल
आर्ट आरंभ करने का सही समय है| शरीर लचीला और मन तैयार होता है|
यह आदर्शस्वरूप है, लेकिन कोई
भी समय ध्यान शुरू करने के लिए अच्छा है, कोई
भी उम्र ठीक है| लेकिन सबसे आदर्श ८
या ९ साल की उम्र है| आजकल तो ८ और ९ वर्षीय बच्चों के मन भी ढुलमुल हैं| कई बातें बच्चों को
प्रभावित करती हैं| जैसे भोजन का मन पर एक
प्रभाव है, पर्यावरण का प्रभाव होता है, जीवन
शैली का एक प्रभाव
है| तो कई बातों का प्रभाव
होता है| लेकिन यह सभी प्रभाव छोटे हैं|
हम यह जान लें कि ध्यान ऊर्जा के स्तर को ऊपर उठाता है और इसे बाहर की ओर फैलाता है। यह मन को भी ऊपर उठाता है और उसे विस्तार प्रदान करता है। ध्यान में ध्वनि भी यही करती है। यह हमें उत्कर्ष पर ले जा सकती है और हमारी चेतना को संकुचित भी कर सकती है। कैसे? इस बात को मैं एक उदाहरण देकर समझाता हूँ। जब भी हमें कहीं दर्द होता है तो हमारे मुँह से कौन सी ध्वनि निकलती है? ‘आह’ की ध्वनि, है न! संपूर्ण विश्व में ये ऐसा ही है। मंगोलिया से टिएरा डी फिगो तक। हम कहीं भी चले जाएँ और किसी बच्चे या किसी से भी पूँछें कि दर्द होने पर वे क्या बोलते हैं तो वे कहेंगे कि ‘आह’, कोई नहीं कहेगा कि ‘वाह’ की ध्वनि निकलती है। ‘वाह’ की ध्वनि तब निकलती है जब हमें कोई बात आश्चर्यजनक या विस्मयकारी लगती है।
जब हम ‘आह’ कहते हैं तो हमारी प्राण शक्ति कहाँ होती है? हम इसे अपने शरीर के निचले हिस्से में पाएँगे, और जब हम ‘वाह’ की ध्वनि करते हैं तो प्राण हमारे शरीर के मध्य भाग अर्थात वक्षस्थल के आस-पास होती है। ऐसा तब होते हैं जब हम चकित या आश्चर्य में पड़ जाते हैं कि ‘अरे! मुझे तो पता ही नहीं था।' और अधिक आश्चर्यजनक स्थिति होने पर हमारे मुँह से ‘अरे वाह’ निकलता है। इस समय हमारी प्राण शक्ति और भी उच्च स्तर अर्थात गले और शरीर के ऊपरी भाग में होती है। इस समय हमारी जीवनी शक्ति का स्तर उच्च होता है। और जब हम हँसते हैं तो हमारे मुँह से किस तरह की ध्वनि निकलती है? ‘ही ही ही’ । स्वाभाविक हँसी के समय ‘ही’ की ही ध्वनि निकलती है। जब हम ‘ही’ कहते हैं तो क्या होता है? एक स्वाभाविक विस्तार का भाव महसूस होता है। जब भी हम प्रसन्न होते हैं तो वह प्रसन्नता एक प्रकार की विस्तार की भावना से जुड़ी होती है। और जब कभी भी हम खिन्न या दुखी महसूस करते हैं तो यह एक प्रकार के संकुचन एवं घुटन की भावना लाती है। हमारे भीतर ऐसा कुछ है जो हमारे प्रसन्न होने पर विस्तृत होता है और दुखी होने पर संकुचित होता है। पर हम कभी भी इस बात पर ध्यान नहीं देते हैं कि हमारे भीतर क्या विस्तृत या संकुचित हो रहा है? हम अपना ध्यान केवल बाहर की ओर ही रखते हैं। हम कारण को बाहर खोजते हैं जबकि वह कारण है ही नहीं। हमने कभी सही कारण पर ध्यान ही नहीं दिया। ऐसा कुछ हमारे भीतर ही है जो प्रसन्न अथवा दुखी होने पर क्रमश: विस्तृत या संकुचित होता है।
हम केवल बाहर ही कारण देखते हैं, परंतु वे वास्तविक कारण नहीं हैं। वास्तव में हमने कभी कारण पर ध्यान दिया ही नहीं है। हमारे भीतर ही कुछ है जो कि विस्तृत या संकुचित हो रहा है।
प्राचीन काल के एक ज्ञानी संत गौड़पदाचार्य ने कहा है कि ‘हमारे भीतर ऐसा कुछ है जो विस्तृत होता है और उसे जानना चाहिए'|
अपने भीतर की इस चेतना, इस ऊर्जा की एक झलक भी हमारे चेहरे पर वह अटल मुस्कान ला सकती है जिसे हमसे कोई छीन नहीं सकता है। कोई भी हमें दुखी नहीं कर सकता है, हमारे जीवन से आनंद को दूर नहीं कर सकता। अचानक ही जीवन को एक दूसरी दिशा मिल जाती है; जो हमारे भीतर विस्तार प्राप्त करता है कल्पना या उसकी एक झलक मात्र से। अत: विस्तार हमेशा प्रसन्नता, आनन्द और ‘ही' की ध्वनि से जुड़ा रहता है। और यदि किसी की हँसी में ‘हा' की ध्वनि मिश्रित है तो वह किसी खलनायक या दुष्ट व्यक्ति की हँसी होती है।
किसी की ‘हा हा हा’ करके हँसने की ध्वनि को ध्यान से सुनें। आप धोखा खा जाएँगे क्योंकि आपने मुझे नहीं सुना। केवल हँसी को सुन कर ही हम पता लगा सकते हैं कि ये हँसी किस किस प्रकार की है। ये निंदा के लिए है या किसी को चिढ़ाने के लिए अथवा अहंकार या क्रोध से भरी हुई। क्रोधी व्यक्ति भी हँसते हैं, परंतु उनकी एक अलग प्रकार की हँसी होती है। उसकी ध्वनी
अलग होती है। बच्चों जैसी स्वाभाविक हँसी में भी 'ही' की ध्वनि होती है।
तो आज हम दो ध्वनियों का प्रयोग कर ध्यान करने जा रहे हैं। हम अपनी पूरी ऊर्जा और बल लगा कर छ: बार 'हो' कहेंगे। फिर इसके बाद सातवीं बार में 'ही' कहेंगे। हमारे शरीर में ऊर्जा के सात केन्द्र होते हैं| ये हमारी अंत:स्रावी प्रणाली से जुड़े होते हैं और ये बहुत पवित्र भी होते हैं।
इसे मंत्र के ध्यान के रूप में न लें। यह एक निर्देशित ध्यान हैं। निर्देशित ध्यान हमें ध्यान की एक झलक देने के लिए अच्छा होता है। जब हमें अपने से ध्यान करना हो तो अच्छा होगा कि हम मंत्र ध्यान अर्थात सहज समाधि करें। निश्चय ही प्रतिदिन नहीं पर कभी कभार हम कोई सीडी लगा कर बैठ के ध्यान भी कर सकते हैं; मंत्र ध्यान को हम प्रतिदिन और कहीं भी कर सकते हैं; बैठें, अपना मंत्र लें और सब कुछ छोड़ कर इसके साथ रहें।
ठीक है! तैयार! तो शुरु करते हैं।
आराम से बैठ जाएँ, रीढ़ की हड्डी सीधी और शरीर को ढीला रखें। कई बार लोग शरीर को बिल्कुल कड़ा रख कर ध्यान के लिए बैठ जाते हैं। पूरे समय वे शरीर के प्रति बहुत ही सजग रहते हैं जिसके परिणामस्वरूप ध्यान के बाद वे क्रोध में होते हैं क्योंकि ध्यान में बैठने के लिए उन्होंने अत्यधिक श्रम किया था और उनके इस प्रयास एवं अकड़न ने वह ध्यानस्थ गुणवत्ता नहीं आने दी।
यदि हमने ध्यान किया है तो हमें फूल की भाँति हल्का, भीतर से अत्यंत कोमल, सुंदर, मधुर एवं सहज महसूस करना चाहिए। परंतु यदि हम भीतर से घुटनभर, क्रोधी और चिड़चिड़ापन महसूस करते हैं तो इसका अर्थ यह है कि ध्यान हुआ ही नहीं। बैठे-बैठे विचार करना छोड़्कर गुरुजी की बातों पर अमल करें। और यह होना ही है। हम चीजों से घटित होने की उम्मीद नहीं कर सकते, हमको ही वैसा होना पड़ेगा।
यदि हम अपने बिस्तर पर पैर फैलाकर लेट जाएँ और सोचें कि हम ध्यान कर रहे हैं तो इसका अर्थ है हम अपने आप को मूर्ख बना रहे हैं। इससे काम नहीं चलेगा। यह टी वी देखते हुए आलू के चिप्स खाने जैसा नहीं है। 'ओह! खाते हुए भी हम ध्यान में जा सकते हैं, ऐसा गुरुजी ने कहा था, नहीं'। हम ऐसे शुरुआत करें कि हमारी रीढ़ की हड्डी तो सीधी हो परंतु शरीर विश्राम की अवस्था में हो। अकड़ा हुआ नहीं परंतु हमारे कंधें ढीले हों। सिर सीधा हो इसके बाद हम अपनी आँखें बंद कर लें और मुक्त हो जाएँ।
ध्यान के दौरान यदि हमारा सिर नीचे चला जाए तो यह ठीक है हमारा सिर नीचे जा सकता है या एक तरफ झुक सकता है। सिर की स्थिति जो भी हो ठीक है। परंतु हम ऐसा करके शुरुआत न करें। सबसे अच्छा उदाहरण है जैसे कि हैंगर में कोई कोट टंगा हुआ हो। ऐसे ही हमारा शरीर सीधा हो और रीढ की हड्डी सीधी हो।
अब बैठ के ये न सोचना शुरू कर दें कि ओह! जैसा कि गुरूजी ने कहा है मुझे तो बहुत ढीला और आराम से ही बैठना है| ऐसा होना ही चाहिए.’ मैं आपको कहता हूँ कि ऐसा नहीं होने वाला है क्योंकि चिंता अपने आप में ही इसे घटित होने में रुकावट सिद्ध होगी| इसीलिए मैंने कहा कि ये एक बेहद संवेदनशील परिस्थिति है| हम किसी घटना के होने की अपेक्षा नहीं कर सकते| हम बस इसके साथ हो सकते हैं| हम केवल इसके साथ हो लें!
अनुभव होते हैं, वे बदलते हैं और चले जाते हैं| प्रतिदिन अलग-अलग अनुभव होंगे ; उनकी परवाह न करें, केवल अपनी कार्यप्रणाली, अपना दृष्टिकोण ठीक रखने की जरुरत है| न तो बहुत ज्यादा कठोर रहना और न ही अपने आपको बहुत ढीला छोड़ना ही सही कार्यप्रणाली है.
प्रश्न : एक मिनट
का ध्यान मुझे ८ या १० घंटे
की
नींद
से
ज्यादा
उर्जा
क्यों
प्रदान
करता
है?
श्री श्री रविशंकर
: ऐसा ही है|
ध्यान हमें एक अलग तरह की उर्जा प्रदान करता है और भोजन एक अलग तरह की| इसी
प्रकार
नींद
या
विश्राम,
व्यायाम
तथा
ज्ञान
से
हमें
अलग-अलग
तरह
की
उर्जा
मिलती
है
और
ध्यान
से
मिली
उर्जा
इन
सबमें
श्रेष्ठ
है|
प्रश्न : ध्यान
में
बैठने
पर
क्या यह आवश्यक
है
कि हर
ध्यान
में
हमें
क्षणभर
के
लिए
समधित्व
का
अनुभव
हो
या
कुछ
मिनटों
के
लिए
शान्ति
का
अनुभव
हो?
श्री श्री रविशंकर
: मैं आपको
कहता हूँ
कि
इसका
कोई
मानदंड
नहीं
है|
यह
कहीं
भी,
कभी
भी
और
नहीं
भी
हो
सकता
है|
यदि हमने कुछ गलत खा लिया है अथवा बहुत ही चिडचिडापन महसूस कर रहे हैं तो ऐसा नहीं भी हो सकता है, पर ये कोई बड़ी बात नहीं है, ध्यान के लिए बैठना ज्यादा महत्वपूर्ण है| यहाँ तक कि यदि
हम
२० मिनट या आधे घण्टे के लिए बैठते हैं तो निश्चित रूप से ये बिलकुल न बैठने से ज्यादा बेहतर महसूस करते हैं|
देखो जब हम प्रसन्न
हैं तो आसानी से ध्यान कर सकते हैं लेकिन जब हमारा मन उत्तेजित
होता है तो हम ध्यान नहीं कर सकते और तभी हमें शांत रहने की ज्यादा जरूरत होती है और ऐसे में हमें ध्यान न करने की इच्छा को रोकना है|
प्रश्न : गुरूजी आपने कहा कि प्रार्थना भगवान से कहना है और ध्यान ईश्वर को सुनना| ध्यान में अपने प्रश्नों और प्रार्थनाओं का उत्तर मैं कैसे सुन सकता हूँ?
श्री श्री रविशंकर : विश्राम करो! जब हमारी कोई इच्छा या मन्शा होती है या हम किसी बात पर अटक रहे होते हैं तो हमारा मन ध्यान में नहीं लगेगा| जब हम इसे छोड़ देते हैं तो केवल तभी हम ध्यान में जा सकेंगे| इसलिए सभी इच्छाओं और प्रार्थनाओं को छोड़ दीजिये|