३०
२०१२ नॉर्वे
अप्रैल
आप जानते हैं, हम
तत्व और आत्मा, दोनों से बने हैं| हमारा शरीर कार्बोहाइड्रेट, खनिज पदार्थ,
प्रोटीन आदि से बना है और हमारी आत्मा शुद्ध ऊर्जा से; प्रेम, सहानुभूति, आकर्षण
शक्ति से बनी है| यह सब ऊर्जा के स्वभाव हैं| प्राचीन समय में, लोग इसे दो शब्दों द्वारा कहते
थे प्रकृति, और पुरुष अर्थात ऊर्जा; दो चीज़ें, चेतना और तत्व| पर फिर, एक कदम और आगे जायें तो वे कहते थे, कुछ
भी दो नहीं है, सब एक ही हैं| ऊर्जा और तत्व दो अलग चीज़ें नहीं हैं| मन और शरीर अलग नहीं हैं, सब एक ही हैं|
परन्तु, चेतना चार
प्रकार से काम करती है; एक चेतना के चार काम हैं, जैसे एक व्यक्ति, जब दफ्तर जाता
है तो वो अफसर है, बाजार जाता है तो खरीददार या व्यापारी, और वही व्यक्ति कक्षा
में विद्यार्थी है| है न? और घर पर वह एक पिता या पति या बेटा या कुछ और होता है| वह विभिन्न भूमिकाएं निभाता है| इसी तरह, यह एक चेतना चार महत्वपूर्ण कार्य करती
है|
पहला है मन| क्या आप सब यहाँ हैं? सुन रहे हैं? यदि आप यहाँ
हैं और आपका मन कहीं और है तो आप सुन नहीं सकते| आपके कान खुले हैं पर यदि आपका मन कहीं और है तो
आप सुन नहीं सकते| क्या आप मुझे देख रहे हैं? यदि आप यहाँ हैं, आपका मन कहीं और है, तो चाहे
आपकी आँखें मुझे देख रही हों, आप मुझे नहीं देख रहे| तो मन चेतना का वह पहलू है जिससे हमारी इन्द्रियाँ
अनुभव करती हैं| यह सब जीवों में होता है| काकरोच का मन उसके एंटीना में होता है| एक लंबे से एंटीना से वे महसूस करते
हैं|
जैसा मैंने पहले
कहा, मन शरीर में नहीं है, शरीर मन में है| जैसे लौ बाती के चारों ओर है| है न? शरीर दिए की बाती की तरह है, और मन लौ कि
तरह| कभी कभी किर्लियन और छायाचित्रण द्वारा आप प्रभामंडल देख भी सकते हैं| तो मन शरीर के भीतर और उसके चारो ओर है| फिर भी,
मन ही एहसास है, कानों से, आँखों से, स्पर्श से, गंध से| तब हम उसे मन कहते हैं| और फिर, वहीँ चेतना, यह सब एहसास करने के बाद उसे
बाँट देती है| यह अच्छा है, यह अच्छा नहीं है, यह सुन्दर है, यह कुरूप है, यह सही है, यह
गलत| यह बुद्धि है जो चेतना की एक और महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है| बुद्धि एक एहसास और समझ है, जो कि परखने, भेदभाव
करने का और समझाने का काम करती है|
क्या आप अभी “हाँ” कह रहे हैं? यह बुद्धि है| क्या आप कह रहे हैं, “नहीं, मैं नहीं मानता”? कोई बात नहीं, आप कह सकते हैं “मैं नहीं मानता” पर यदि आप जानते हैं कि आप वह कह रहे हैं, तो वह बुद्धि
है और यह दूसरा सबसे महत्वपूर्ण काम है|
मनुष्यों के पास
सबसे उच्च श्रेणी की बुद्धि है| यह एक भेंट है|
पुराने समय का एक बहुत
ही पवित्र मंत्र है, गायत्री मंत्र| यह कहता है, “यह बुद्धि किसी ऐसी चीज़ से प्रेरित हो, जो बुद्धि
से परे है; दिव्यता| यही प्रार्थना है, “मेरी बुद्धि प्रभु से प्रेरित हो”| अर्थात मेरे मन में शुद्ध विचार आने दो, उपयुक्त
निर्णय आने दो मेरी बुद्धि द्वारा, मेरे अंदर अंतर्बोध आने दो, ताकि मैं जो भी
करूं वो उत्तम हो जाये|
बुद्धि ही है जो
रुकावट बनती है; बुद्धि ही शक पैदा करती है, जो गलत विचार देती है और अंतर्बोध को
ढक देती है|
मान लो आपमें अच्छा
अंतर्बोध है, और आप स्वीडन में किसी से मिलना चाहते हैं, और आप कहते हैं, “ठीक है, मैं इस व्यक्ति से मिलूँगा”| आपकी नीयत सही है पर आपकी बुद्धि बीच में आ कर
बोलती है, “नहीं, यह शायद संभव न हो, हम यह नहीं कर पाएंगे”| तो आपकी बुद्धि आपके अंतर्बोध को ढक देती है| और
ऐसे में हम गलतियां कर देते हैं| आप सोचते हैं यह व्यक्ति अच्छा है, यह व्यक्ति
अच्छा नहीं है| यह आवश्यक नहीं कि यह सब निर्णय सही हों, जब आपकी बुद्धि आपके अंतर्बोध से या
भीतरी चेतना से कटी हो| इसे चित्त कहते हैं|
तो मन, बुद्धि, और
फिर स्मृति| हमारा मन काफी समय स्मृतियों में अटका रहता है| आप कुछ भी अच्छा देखते हैं तो आपको अतीत में देखा
हुआ कुछ याद आ जाता है| कुछ भी भद्दा देखते हैं, तो अतीत का कुछ भद्दा दृश्य याद आ
जाता है| तो मन स्मृतियों में कैद हो जाता है या यदि आपकी स्मृतियाँ हावी हो रही
हों तो ऐसा होता है| स्मरणशक्ति बहुत महत्वपूर्ण है| यह तीसरी भूमिका है|
फिर है अहम; मैं हूँ| चौथी भूमिका|
यह एक चेतना के चार
कार्य या भूमिकाएं हैं| पर फिर भी, यह इन चारों से भी परे है| इसीलिए इसे महत्,
अर्थात महान कहते हैं| यदि आप अहम के आगे जा पाएं, तो वो अविकारी है; जो सर्वव्यापी
है पर कहीं भी नहीं है| आप उसका अनुभव करते हैं और तब आप महत् बनते हैं| एक
महात्मा बनते हैं|
आपने महात्मा गाँधी
के बारे में सुना है? उन्हें महात्मा की पदवी लोगों ने दी थी| हर संत को महात्मा
कहा जाता है, अर्थात वे अहम के आगे चले गए हैं| वो मन, बुद्धि, स्मरण, अहम से एक
कदम आगे महत् तक चले गए| वे सबके साथ सहज महसूस करते हैं| यह ज्ञानोदय है ; जहाँ आप सब के साथ सहज
महसूस करते हैं; आप के लिए कोई भी पराया नहीं है| आप एक बच्चा बन कर उसी क्षण में
जीने लगते हैं| आप को कुछ आहत नहीं करता, सब कुछ आपका हिस्सा है; बड़प्पन और पूर्ण शान्ति| आप बस यह नहीं कहते कि शरीर आपका है, बल्कि आप सब
जगह हैं| यह केवल एक भाव व्यक्ति है| देखो, आप जब टी वी देखते हैं, आप एक चैनल
देखते हैं, या बी बी सी चैनल देखते हैं| हालांकि आप बी बी सी उस छोटे से टी वी में देख रहे
हैं, क्या बी बी सी केवल उस डब्बे में ही है? नहीं| बी बी सी चैनल, उसकी तरंगें सारे कमरे में हैं, सब
जगह हैं| यदि आप टी वी बंद भी कर दें, फिर भी बी बी सी की तरंगें सब जगह हैं| पर टी वी उन्हें सही तरीके से व्यक्त कर हमारे लिए दिखाता
है|
इसी तरह, हमारे शरीर
भी टी वी के डब्बों जैसे हैं| आप मेरे साथ हैं? आपका शरीर एक टी वी बॉक्स है| आपकी चेतना उस चैनल की
तरंगें| तो, आप बी बी सी हैं, वह सी एन एन हैं, वह व्यक्ति फोक्स चैनल है और एक और
व्यक्ति मनोरंजन चैनल है| हर किसी की अपनी तरंग दूरी है पर इसका अर्थ यह नहीं है
कि हम बस यहीं अटके हैं| यह तो केवल एक तरंगे पाने या भेजने का यन्त्र है पर
तरंगें हर ओर हैं| क्या आप समझ रहे हैं मैं क्या कह रहा हूँ?
जैसा मैंने कल कहा,
शुद्ध ज्ञान है और व्यावहारिक ज्ञान है| हमें दोनों की आवश्यकता है; ये दोनों एक
दूसरे के पूरक हैं| इस एक चेतना को जानना, “मैं यह हूँ”, शुद्ध ज्ञान है| और यह जान कर तनाव मुक्त होना ध्यान
है, योग है| अपने “आप” से मिलना योग है| यह किसी ऐसे से मिलना नहीं है जो आप नहीं हैं| यह बस अपने आप में वापस लिपट जाना है, पुनार्मिलाप| इस चक्र को पूरा करना ही योग है|
बचपन में आप सब योगी
थे| हर बच्चा एक योगी है| हम सब योग आसन करते थे, वर्तमान में जीते थे, और हमारा
दिमाग हमेशा ताज़ा और जागरूक होता था| हम इतने जुड़े हुए महसूस करते थे सब कुछ से,
और घर पर, एक दम प्रेम से भरे| और फिर आगे चल कर कहीं, हम अपने मन के बाहर, बाहर जाते
गए|
एक उपनिषद में ऋषि
कहते हैं, “भगवान ने बहुत बड़ी गलती कर दी सारे इन्द्रियों को बाहर की और केंद्रित कर के|
हमारी इन्द्रियाँ केवल बहार की ओर जाती हैं| पर कभी कभी कुछ बहादुर लोग
होते हैं जो इन्हें भीतर की ओर केंद्रित कर पाते हैं और सत्य तक पहुँच पाते हैं”| और यही योग है वे कहते हैं|
और यह कितना सत्य
है! हमारा मन बाहर की ओर जाने के लिए बना है| पर कभी कभी आपको भीतर की ओर भी जाना
चाहिए| अब अधिक से अधिक व्यक्ति सीख रहे हैं और अधिक बुद्धिमान बन रहे हैं| वह जानते हैं कैसे अपने भीतर की ओर मुड़ें और
शान्ति को अपने अंदर पायें, ना कि बाहर|
तो हर बच्चा एक योगी है और हम सब योगी की
तरह ही पैदा होते हैं| कहीं हम वह भोलापन खो चुके हैं| उसमे वापस जाने के लिए, हम यह सब व्यायाम,
ध्यान आदि करते हैं, उसी सहजता को ढूँढने, उसी भोलेपन को, जो हम हैं| अब, उसे पाने के बहुत से उपाय हैं| अभी मैं
विस्तार में नहीं जाऊँगा|
जो एक अभ्यासी को
प्रभावित करेगा वह है वातावरण| एक बेहतर, शांत वातावरण अच्छा है| और भोजन पर भी ध्यान देना अच्छा है, भोजन
का असर मन पर पड़ता है| आयुर्वेद एक महान विज्ञान है जो बताता है किस प्रकार का
भोजन किस तरह के लोगों के लिए ठीक रहता है| आपका वात, पित्त, और कफ क्या है और
कैसा भोजन आपके लिए अच्छा है| इस बारे में एक पूरा विज्ञान है|
जैन धर्म ने भोजन
पदार्थों पर बहुत अनुसंधान किया है| पर यह अंतहीन है| यदि आप विस्तार में जायेंगे,
तो आप कुछ और नहीं कर सकते, बस अपने भोजन का ही ख्याल करते रह जायेंगे| इस लिए, मैं
कहूँगा कि हमें चरम सीमा तक नहीं चले जाना चाहिए|
हमें संतुलित रहना
चाहिए|
एक ओर ऐसे लोग हैं
जो परवाह नहीं करते कि वे क्या खा रहे हैं, बस सब कुछ अपने पेट में ठूस लेते हैं
और फिर दुखी होते हैं| दूसरी ओर ऐसे लोग हैं जो इतना छांटते रहते हैं, “ओह, इसमें चीनी है, मैं यह नहीं खा सकता, वो नहीं
खा सकता” और दिन रात वो परेशान रहते हैं केवल खाने को लेकर| यह भी ठीक नहीं है क्योंकि
आपके शरीर के पास अपरिमित लचक और अनुकूलनशीलता है| इस लिए, यदि आप सोचोगे यह चीज़
कभी मेरे लिए अच्छी नहीं है और उसे कभी नहीं खाओगे तो आपका शरीर भी ऐसे ही काम करने
लगेगा| आपका शरीर लचक खो देगा|
उसी तरह, यदि आप
बहुत से स्फूर्तिदायक पदार्थ या दवाईयां खाते रहेंगे वो भी अच्छा नहीं है| यह सब
कभी कभी सेवन करने के लिए ठीक हैं| लोग मेरे लिए इतने सारे स्फूर्तिदायक पदार्थ
लाते हैं| यदि आप मेरा बक्सा देखेंगे तो इतने सारे ऐसे पदार्थ पायेंगे| पर मैं ये सब
प्रतिदिन नहीं उपयोग करता| कभी मैं यह पदार्थ लेता हूँ, कभी वो|
लोग कहते हैं
एन्जाइम और खनिज पदार्थ बहुत अच्छे होते हैं| हाँ ये अच्छे होते हैं पर मैं मानता
हूँ कि हमें बहुत से ऐसे पदार्थ नहीं लेने चाहियें| ये सब आवश्यक हैं क्यों कि आजकल
जैसे खाने की चीज़ें उगाई जाती हैं वो बहुत बदल गया है| यह ऐसा नहीं है जैसे पहले
खाने की चीज़ें उगाई जाती थी|
मैंने पढ़ा था कि
आजकल केलों में १/१२ पोषक तत्व है उन्नीसवीं सदी के मुकाबले| तो, चाहे अब फल और
सब्जियां ज़्यादा उगाई जाती हैं और बड़ी बड़ी होती हैं, उनके पोषक तत्त्व बहुत ही कम
हैं| ये सब जैविक रूप से नहीं उगाए जा रहे, और मिटटी खोखली होती जा रही है|
देखो, गेहूं का नया
बीज जो हम खाते हैं, उसमे इतना फोलिक एसिड नहीं है जितना पहले होता था पुराने
गेहूं में| भारत में एक वैज्ञानिक ने शोध किया था| उसने कुछ पुरानी गेहूं जाँची,
और कहा इसमें अत्यधिक फोलिक एसिड है| आज लोग ह्रदय रोग से पीड़ित हैं क्योंकि भोजन
में पर्याप्त मात्रा में फोलिक एसिड नहीं है| तो सेहत बनाने वाले ऊपरी पदार्थ
आवश्यक हैं| पर इनके साथ बंध जाना, इनके बारे में अत्यधिक चिंता करना उचित नहीं
है| हमारा मस्तिष्क, हमारा शरीर काफी कुछ खुद पैदा कर सकता है| तो भोजन का असर
होता है, पर आपकी चेतना भोजन से भी ज़्यादा शक्तिशाली है|
प्रश्न : गुरुजी, इस ब्रम्हाण्ड
में सर्वशक्तिमान कौन है?
श्री श्री रविशंकर : जो सबसे सहज है वहीँ सर्वशक्तिमान है| अच्छा देखो, परमाणु तो सब जगह है| सारा ब्रम्हाण्ड परमाणुओं से घिरा है| सब कुछ परमाणु से बना है लेकिन परमाणु शक्ती केंद्र अलग होता है| इसी प्रकार सर्वशक्तिमान भी सबसे सरल, सबसे अधिक उपलब्ध और सबसे अल्पमूल्य वस्तु है| आप उसको वस्तु भी नहीं कह सकते, वह सबके अस्तित्व का आधार है| वह कहीं ऊपर आसमान में नहीं है| वह एक रिक्त स्थान की तरह है, एक मैदान के जैसा| यह ऐसा ही है जैसे आप मुझसे पूछो कि पृथ्वी का चुम्बकीय क्षेत्र कहाँ है?वह सब जगह है! वह उस चुम्बकीय क्षेत्र से भी ज्यादा सूक्ष्म है जो सब जगह विद्यमान है, सब समयों में उपस्थित है और समान प्रचंडता के साथ है| ऐसा नहीं है कि सर्वशक्तिमान वहां कहीं है|उसको सर्वशक्तिमान कहने के स्थान पर हमको उसे मूलतत्व कहना चाहिए, वह जो सबके अस्तित्व का आधार है| जैसे की प्राचीन काल के लोग उसे कहते आये है; अस्तित्व| सत, "जो है" और चित्त जो चेतना है और आनंद है| आप इस सर्वशक्तिमान के परमानन्द का या इस ब्रम्हाण्ड के आधार का अनुभव कैसे कर सकते हैं? मौन में रह कर और अपने मन को अंतर्मुखी बना कर| अभ्यास से आनंद ऊपर उठ कर आता है|
श्री श्री रविशंकर : जो सबसे सहज है वहीँ सर्वशक्तिमान है| अच्छा देखो, परमाणु तो सब जगह है| सारा ब्रम्हाण्ड परमाणुओं से घिरा है| सब कुछ परमाणु से बना है लेकिन परमाणु शक्ती केंद्र अलग होता है| इसी प्रकार सर्वशक्तिमान भी सबसे सरल, सबसे अधिक उपलब्ध और सबसे अल्पमूल्य वस्तु है| आप उसको वस्तु भी नहीं कह सकते, वह सबके अस्तित्व का आधार है| वह कहीं ऊपर आसमान में नहीं है| वह एक रिक्त स्थान की तरह है, एक मैदान के जैसा| यह ऐसा ही है जैसे आप मुझसे पूछो कि पृथ्वी का चुम्बकीय क्षेत्र कहाँ है?वह सब जगह है! वह उस चुम्बकीय क्षेत्र से भी ज्यादा सूक्ष्म है जो सब जगह विद्यमान है, सब समयों में उपस्थित है और समान प्रचंडता के साथ है| ऐसा नहीं है कि सर्वशक्तिमान वहां कहीं है|उसको सर्वशक्तिमान कहने के स्थान पर हमको उसे मूलतत्व कहना चाहिए, वह जो सबके अस्तित्व का आधार है| जैसे की प्राचीन काल के लोग उसे कहते आये है; अस्तित्व| सत, "जो है" और चित्त जो चेतना है और आनंद है| आप इस सर्वशक्तिमान के परमानन्द का या इस ब्रम्हाण्ड के आधार का अनुभव कैसे कर सकते हैं? मौन में रह कर और अपने मन को अंतर्मुखी बना कर| अभ्यास से आनंद ऊपर उठ कर आता है|
प्रश्न : गुरुजी, क्या चाँद सितारे और दिव्य शक्तियाँ मन को प्रभावित करती हैं? अगर हाँ तो कैसे?
श्री श्री रविशंकर : हाँ !क्या आप यह जानते हैं कि चाँद समुद्र को प्रभावित करता है? पूर्णिमा के दिन समुद्र में लहरें ऊँची होती हैं| चाँद पानी को प्रभावित करता है यह तो सबको पता है| हमारा शरीर पानी से बना है| हमारे शरीर का ६० %पानी से बना है और इसमें समुद्र की तरह ही लवणीय तत्व
है| हमारा शरीर एक छोटे समुद्र के पानी के संग्रह की तरह है और आप एक समुद्र के पानी की थैली
हो| अगर तुम्हारे शरीर से द्रव्य निकाल दिया जाए तो तुम
सिकुड़ जाओगे|
तुम एक समुद्र के पानी की थैली हो| कहीं पर लाल और कहीं पर नीली, और
कहीं पर किसी और रंग की, सब कुछ एक ही थैली में है| क्योंकि हमारा शरीर ६० %पानी है इसलिए चाँद का हमारे ऊपर असर होता है| जो कुछ भी शरीर को प्रभावित करता है वह मन को भी
प्रभावित करता है| इसलिए चाँद मन को प्रभावित करता है| इसीलिए जो लोग पागल हो जाते है उनको उन्मत्त कहते हैं| देखो यह उर्जा का क्षेत्र बहुत ही रोचक है| अगर आप रेडियो के अन्दर देखोगे तो पाओगे कि कुछ तार एक धातु के टुकड़े पर एक आकार
में
लगे होते है लेकिन उससे कितना
परिवर्तन आ जाता है, है की नहीं? आपने कभी सेल फ़ोन के अन्दर की चिप को देखा है? उसकी अपनी एक आकृति है| अगर सेल फ़ोन की चिप अलग है तो वह अलग नंबर को
दर्शाती है|
हर एक छोटे से छोटी आकृति एक इलेक्ट्रोनिक ऊर्जा और स्पंदन को दर्शाती
है| उसी प्रकार से हमारा शरीर भी एक इलेक्ट्रोनिक परिपथ है और इसका इस सारे जगत
से एक नाता है|
इस जगत में सब कुछ एक दुसरे से जुड़ा है और एक दूसरे से सम्बंधित
है|
प्राचीन लोगों को यह
पता था| यह इतना आश्चर्यजनक है कैसे वह ब्रम्हाण्ड को सूक्ष्म से जोड़ते थे| सूर्य हमारी आँखों से जुड़ा है| मस्तिष्क चाँद से
जुड़ा है| मंगल ग्रह जिगर से जुड़ा है| शनि गृह दांतों से जुड़ा है|
जैसे मंगल ग्रह आपके
जिगर से जुड़ा है, आपकी नींद से जुड़ा है, और चने से जुड़ा है| मंगल ग्रह, चने, भेड़,
बकरी और जिगर सब आपस में जुड़े हैं| तो उन्होंने इन सब तत्वों के बीच में एक रिश्ता
पाया; ब्रम्हाण्ड से सूक्ष्म जगत में| यह एक बहुत दिलचस्प विज्ञान है; अत्यंत
रोचक, और आकर्षक| आपको इस खोज में गहरा जाना है|
इसी तरह, शनि ग्रह
तिल के बीजों से जुड़ा है| यह कौओं और आपके दांतों से जुड़ा है| यह सब बहुत दिलचस्प
है, मैं कह रहा हूँ, बहुत ही रोचक|
आपने तितली प्रभाव
के बारे में सुना होगा| एक तितली दक्षिण अमरीका के बरसात के जंगलों में अपने पंख
फड़फड़ा रही हो तो उसका असर चीन के बादलों पर होता है| कैसे एक तितली की हलचल से चीन
में असर होता है, बहुत ही दिलचस्प!
इसी लिए संस्कृत में
कहावत है, “यत पिंड तत् ब्रम्हाण्ड”| अर्थात, जो कुछ भी ब्रम्हाण्ड है वो एक छोटे से अंश में भी है| आपका शरीर एक बहुत छोटा ब्रम्हाण्ड है, क्योंकि वह
उस से जुड़ा हुआ है एक बीज कोष के रूप में| आप एक द्वीप नहीं हैं| आप समाज से जुड़े
हैं और न सिर्फ समाज से, बल्कि पूरे विश्व से जुड़े हैं|
बिना आपके जुडना
चाहे भी आप जुड़े हुए हैं| आप इस ग्रह के हर व्यक्ति से जुड़े हैं, चाहे आपको यह
एहसास हो या नहीं, इसका कोई फर्क नहीं पड़ता| आप पहले से ही जुड़े हैं|
प्रश्न : गुरूजी, कृपया अविद्या और माया का सिद्धांत बताइए?
श्री श्री रविशंकर : माया माने वो जो नापा जा सके, अंग्रेजी का शब्द Measure संस्कृत के शब्द माया से बना है| "मियते अन्य इति माया"|
मियते मतलब नापना,
सब कुछ जो नापा जा सकता है वो माया है| पंच तत्व नापे जा सकते हैं : धरती, जल, अग्नि, वायु, आकाश| ये सब को नापा जा सकता है, इसलिए ये संसार जो पांच तत्वों से मिलकर बना है, माया है क्योंकि इसे नापा जा सकता है|
क्या नापा नहीं जा सकता? करूणा,
प्यार इन्हें नापा नहीं जा सकता| आप ये नहीं कह सकते कि ये व्यक्ति तीन औंस प्यार है और ये व्यक्ति पांच औंस प्यार है| सत्य को नापा नहीं जा सकता, सुन्दरता को नापा नहीं जा सकता, आप नहीं कह सकते कि ये नारी तीन ईकाई सुन्दर है और ये नारी पांच ईकाई सुन्दर है| सुन्दरता को नाप नहीं सकते| प्यार, सुन्दरता,
करूणा, सत्य, शुद्धता,
ईमानदारी; आत्मा के ये सब गुण नापे नहीं जा सकते, इसलिए ये सब माया नहीं हैं| ये महेश्वर हैं -आत्मा की प्रकृति| माया का अर्थ उन सब से भी है जो बदल रहा है और जिसे नापा जा सकता है; और नाप बदलता है इसलिए माया का एक अर्थ है संसार में सब कुछ बदल रहा है| और दूसरा अर्थ है संसार में सबको नापा जा सकता है| और वो जो नहीं बदल रहा और जिसे नापा नहीं जा सकता वो है आत्मा, ब्रह्मन या सर्वव्यापक शक्ति|
अविद्या का अर्थ है इन बदलने वाली, नापने वाली चीजों का अध्ययन|
दो बात हैं, विद्या और अविद्या| विद्या मतलब आत्मा का अध्ययन और अविद्या मतलब संसार का छोटी वस्तुओं का अध्ययन|
प्रश्न : गुरु जी, मोक्ष क्या है? लोग इसे क्यों पाना चाहते हैं और लोग किस से मोक्ष पाना चाहते हैं?
श्री श्री रविशंकर : सोचिये अगर आप १० घंटे से एक कुर्सी पर बैठे हैं, और आपको आज्ञा दी गयी है कि आपको कुर्सी से नहीं उठना है, आप कहते हो,कृपया मुझे उठने दीजिये, मेरे पैर सो गए हैं,कृपया मुझे उन्हें उठाने दीजिये, आप ऐसा कहेंगे या नहीं? ये मोक्ष पाना है| आप बच्चों से पूछिए जिस दिन उनकी परीक्षा ख़त्म होती है उन्हें कैसा लगता है? वे घर आते हैं, किताबें सोफे पर फ़ेंक देते हैं और सोफे पर लेट कर आराम से टी वी देखते हैं| जब आप पूछते हो कि कैसा लग रहा है? वे कहते हैं,
" ओह, मुक्ति मिल गयी, हो गयी परीक्षा ख़त्म!"
मोक्ष मतलब एक अहसाह, "मेरा काम हो गया, जो करना था वो पूरा हो गया, काम ख़त्म
!" पूर्ण संतुष्टि; पूर्ण आज़ादी; करने को और कुछ नहीं, कुछ करने की मजबूरी नहीं| मुझे जो चाहिए था, मैंने पा लिया| अब मैं मुक्त हूँ|"
मोक्ष सदैव बंधन से जुड़ा होता है| जब कोई बंधन है, तब उस बंधन से मुक्ति ही मोक्ष है| हम अपने स्वयं के विचारों की वजह से पैदा होते हैं, अपनी इच्छाओं की वजह से, अपनी कामनाओं,
अपने द्वेष राग की वजह से| जब राग - द्वेष की भावनाएं, इच्छाएं चली जाती हैं तब आप अन्दर से एक आजादी महसूस करते हैं, एक सादगी! सबने अपने जीवन काल में कभी न कभी मोक्ष का अनुभव किया है, कहीं न कहीं कभी न कभी| लेकिन जब ये ज़िन्दगी की एक स्थिर सच्चाई बन जाता है तब आपकी पूरी ऊर्जा ही बदल जाती है और फिर कुछ भी आपको परेशान नहीं करता| कोई भी आपकी मुस्कराहट आपसे छीन नहीं सकता, कोई भी आपको कुछ भी करके आपको बदल नहीं सकता, कोई भी आपके बटन नहीं दबा सकता| क्या आप समझ रहे हैं कि मैं क्या कह रहा हूँ? दबाने के लिए कोई बटन बचता ही नहीं, वरना ज़िन्दगी में छोटी छोटी बातों से हमारे बटन दबते रहते हैं, एक छोटी सी चीज़ कहीं गलत हुई और बस!
प्रश्न : गुरूजी, मेरा पुरुष मित्र बहुत ईर्ष्यालु है, मैं उसे सांस लेने की कला (पार्ट १) कोर्स में ले गयी और वह पुनः बहुत ईर्ष्यालु हो गया| एक रात के बाद उसने मुझे मारा| मैं उस से दूर चली गयी और १
महीने तक उससे बात नहीं की, अब वह कहता है कि रोज़ क्रिया करने के बाद वह बदल गया है, अब वह यहाँ मौन की कला (पार्ट २) कोर्स के लिए भी आया हुआ है, ऐसा लगता है कि वह बदल गया है, वह चाहता है कि मैं उसको एक मौका और दूं, मुझे क्या करना चाहिए?
श्री श्री रविशंकर : हाँ, बिलकुल आपको उसे एक और मौका देना चाहिए, और हाँ, इस कोर्स से निश्चित रूप से उसमें बदलाव आया होगा| देखिये,
अच्छाई हर एक के अन्दर छुपी होती है| तनाव और अनभिज्ञता की वजह से वह दबी रहती है| तो यहाँ, इस कमरे में जो खाली और खोखला है, और बाकी के ध्यान से हम उस अच्छाई को बाहर निकालते हैं, वो खिलती है, फलती-फूलती है|
प्रश्न : मैं अपने पिता को उनके नकारात्मक संवेदनाओ से निपटने में कैसे मदद कर सकता हूँ? और क्योंकि मैं उनके साथ काम करता हूँ तो कार्य-स्थल पर उनकी अव्यवस्था को कैसे सम्भालूँ?
श्री श्री रविशंकर : यह मुश्किल कार्य है| अलग अलग पीढ़ियों का काम करने का अलग तरीका होता है| आपको बहुत धैर्य से काम लेना होगा, और उनसे बात करने में कौशल दिखाना होगा| कभी कभी पुरानी पीढ़ी के लिए कार्य को सौंपना बहुत मुश्किल होता है, वे कार्य की निपुणता में इतना ज्यादा विश्वास करते हैं कि सब कार्य खुद ही करना चाहते हैं| और ये नयी पीढ़ी के लिए एक मुद्दा बन जाता है| इसलिए आप एक काम करो, जब भी वो नकारात्मक भाव में आयें आप चुपचाप वहां से हट जाओ| उनसे बहस मत करो, बहस से कुछ नहीं होगा, भले ही आप जो कह रहे हो वो ठीक ही क्यों न हो, वे उसको नहीं मानेंगे| ये मुश्किल तो है, लेकिन आप कुशलता से उनके सामने अपने विचार रखो| आपको ऐसे में कौशल की आवश्यकता होगी और मौन सभी प्रकार के कौशल की जननी है| देखिये, जब आप मुझ से पूछते हैं, "मुझे यहाँ आकर ३
दिन तक मौन क्यों रखना चाहिए गुरु जी, उससे क्या लाभ होगा, मुझे बात करने दीजिये"| जब आप मौन में होते हैं तब सभी प्रकार के कौशलों को पोषण प्राप्त होता है और उनमें निखार आ जाता है|
प्रश्न : प्रत्यक्षीकरण के पीछे क्या रहस्य है? जब में ध्यान में बैठता हूँ, मेरा सिर आगे की ओर झुक जाता है और शरीर भी, क्या ये ठीक है या हमें ऐसा होने से रोकना चाहिए और सीधा बैठना चाहिए?
श्री श्री रविशंकर : हम सीधे बैठते हैं ओर फिर सब छोड़ देते हैं, ध्यान में अगर आपका सिर नीचे की ओर आता है या शरीर आगे की ओर झुक जाता है तो कोई गलत बात नहीं, ये अच्छी बात है|
अब, मैं उसको प्रत्यक्ष या प्रकट कैसे करूँ? जब आप अपनी आकांक्षा,
अपनी मन्शा प्रकट करते हैं, तब वो निश्चित रूप से प्रत्यक्ष होती है| एक इरादा और उस पर थोडा सा ध्यान,
बस वो प्रत्यक्ष रूप में आ
जाती हैI इसको संकल्प कहते हैं| आप अपने जीवन में क्या चाहते हैं? अपने मन में साफ़ सोच लीजिये ओर उस पर थोडा ध्यान दीजिये, उसको पकड़ के रखने या उसके लिए लालायित होने की आवश्यकता नहीं| आपकी कोई आकांक्षा है, बस उसको छोड़ दीजिये विश्राम करें, वो पूरी हो जाएगी|
आकांक्षा और इच्छा में फर्क है, इच्छा का अर्थ है कि उस आकांक्षा को पकड़ के रखना| मान लीजिये आपको यहाँ से गोटेंबर्ग जाना हो, और आप कहते रहे, "मुझे गोटेंबर्ग जाना है, जाना है, जाना है"|
जब आप इतनी प्रबल उत्कंठा से गाडी चलाएंगे तब आप गोटेंबर्ग नहीं कहीं और ही पहुँच जायेंगे| लेकिन अगर आप वहां जाने का इरादा रखते हैं, मैं गोटेंबर्ग जा रहा हूँ और बस; आप गाडी चलाएंगे आप इधर उधर कहीं रुकेंगे फिर गाडी चलाएंगे और आप पहुँच जायेंगे| ये मन्शा है, और इच्छा लगातार उस के बारे में सोचते रहना है, और उस से केवल निराशा ही हाथ लगती है|
प्रश्न : जब आप पास होते हैं तब इतनी अलग अलग भावनाएं क्यों होती हैं? मैं एक ही समय में शांत और अधीर, स्नेही और ईर्ष्यालु महसूस करता हूँ|
श्री श्री रविशंकर : बस ये ही है, मानव जीवन भावनाओं का ऊपर नीचे चलने वाला खेल है, ये सारी भावनाएं आती हैं| जब आपकी भावनाएं ऊपर की ओर उठती है, आप सकारात्मक महसूस करते हैं और जब नीचे की ओर जाती हैं आप नकारात्मक महसूस करते हैं, लेकिन ये अच्छी बात है कि आपको पता चलता है कि वे सब आ रही हैं और जा रही हैं| आप सिर्फ साक्षी भाव से उनको देखते रहिये|
प्रश्न : हम सिर्फ योजनायें बनाने और बातें करने के बजाय खुद को उन्हें कार्यान्वित करने में कैसे लगायें?
श्री श्री रविशंकर : अच्छी बात है, आप मार्ग दर्शक हैं, मार्ग दिखाइए| एक मार्गदर्शक, एक नेता कार्य करना चाहता है इसलिए उठिए और काम में लग जाइये, सबको साथ लेकर चलिए, लोगों से उस टोली में जुड़ने को कहिये| अगर वे नहीं जुड़ते, तब आप अकेले ही चलना शुरू कर दीजिये|
ये हमारी नीति होनी चाहिए, हम सबसे आगे बढने को कहें और आगे बढ़ जायें,
लेकिन मान लीजिये कोई भी नहीं आता आपके साथ, तो भी चिंता नहीं करें, आप उस पथ को छोडें नहीं, अकेले आगे बढ़ते रहें| तब अगर आप अचानक पीछे मुड कर देखेंगे तो पाएंगे कि बहुत से लोग आपके साथ चल रहे होंगे|
प्रश्न: कृपया कर्म के सिद्धांत पर प्रकाश डालें, हम कहाँ इस के बारे में और गूढता से पढ़ सकते हैं?
श्री श्री रविशंकर: अब कर्म मतलब क्या ? आपने अब तक कर्म के बारे में इतना कुछ सुना है, कर्म का असली अर्थ है कार्य| कार्य को तीन प्रकार में बांटा जा सकता है, भूत काल, वर्तमान एवं भविष्य| भूत काल के कार्य मतलब विचार या छाप, भविष्य के कार्य भी विचार ही हैं और वर्तमान के कार्य कर्म हैं जो अब परिणाम देते हैं| क्या आप समझ रहे हैं जो मैं कह रहा हूँ| तो कर्म का अर्थ है भूत काल के छाप जो बिलकुल वैसी ही परिस्तिथि भविष्य में आपके सामने लायेंगे और वो भविष्य के कर्म बन जायेंगे, और वर्तमान में जो आप कर रहे हैं वो आपके मन मस्तिष्क में एक छाप छोड़ रहा है और वो आपके कर्म बनते जा रहे हैं| अगर आप सच्चे साधक की
अंतरंग वार्ता नाम की पुस्तक देखेंगे तो पाएंगे कि मैंने सबसे पहले पन्ने पर कर्म के बारे में ही लिखा है| कैसे कुछ कर्म होते हैं जिन्हें हम बदल सकते हैं, और कुछ छाप-विचार जिन्हें हम बदल नहीं सकते और जिन्हें आपको भोगना ही पड़ता है| मैं आपको एक साधारण सा उदाहरण देता हूँ, कितने लोगो को सुबह उठते के साथ कॉफी पीने की आदत है? आप में से कितने है कि अगर वो सुबह उठ कर कॉफी न पियें तो सिर दर्द होने लगता है? (
बहुत से लोगों ने हाथ उठाया
), देखिये ये कॉफी कर्म है, क्योंकि आप कॉफी पीते चले आ रहे हैं इसलिए उसने आपके मन में एक छाप बना ली है| और अगर एक दिन आप कॉफी नहीं पीते तो आपके सिर में दर्द होने लगता है, ये कॉफी कर्म है| अब इस से निकलने के दो तरीके हैं, एक तो ये कि आप कॉफी पीते रहें और सिर दर्द से बचे रहें, और या फिर आप उसको रोकें और कहें कि ठीक है| सिर दर्द होता है तो होने दो, और आप उस से आगे निकल जायें, तो २-३ दिन तक वो दर्द करेगा और फिर वो दर्द ख़त्म हो जायेगा क्योंकि कर्म हमेशा समय से बंधा होता है| मान लीजिये आपका किसी दुर्घटना का कर्म है, तो वो भी समय-बद्ध है, जैसे ही वो समय निकल जायेगा, वो कर्म भी चला जायेगा|
जैसे की कॉफी न पीने से आपको सुबह सिर दर्द हुआ, वो दर्द कुछ घंटो तक रहा| फिर आपने पानी पी लिया, कुछ खा लिया और कुछ और काम कर लिया और वो दर्द समाप्त हो गया, आप समझ रहे हैं? ये कर्म के बारे में बताने का एकदम सटीक उदाहरण है|
ऐसे ही जीवन में, साल के एक निश्चित समय पर आपको बेचैनी महसूस होती है, या आप कुछ भी करते हो आपको ख़ुशी नहीं मिलती| एक निश्चित समय पर आप प्रसन्न महसूस करते हो चाहे आप कुछ भी कार्य क्यों ना कर रहे हो| ऐसा आपके साथ भी होता है या नहीं? अगर आप ध्यान देंगे तो साल में किसी एक खास समय पर, भले ही फरवरी,दिसंबर,जनवरी,
या किसी भी समय, किसी एक हफ्ते, महीने, या पखवाड़े में आप निराशा महसूस करते हैं| और तभी अचानक किसी एक समय पर आप बहुत उल्लासित महसूस करते हैं, क्योंकि मन, समय और कर्म सब जुड़े हुए हैं| तो ऐसे समय में क्या करें? ऐसा कहते हैं कि इस बात को जान लेने मात्र से आप उस बात से ऊपर उठ जाते हैं|" अच्छा, ये फरवरी का महीना आ
गया, इस महीने हर साल मेरे साथ ऐसा होता है, कोई बात नहीं, मैं इससे भी पार निकल जाऊँगा,चलो मैं और ध्यान, सत्संग करता हूँ, गाता हूँ"| योग करने से, ज्ञान चर्चा करने से, इन सब से आपकी ऊर्जा शक्ति बदल जाती है, ये सब समय से ऊपर है इसलिए ही इनको सच्ची दौलत कहा जाता है क्योंकि ये आपको समय, आकाश और कर्म से पार ले जाती है| इसलिए साधना से कर्म घटते हैं, समय का नकारात्मक प्रभाव कट जाता है और आपकी आत्मा ऊपर उठती है, इसलिए ही इसको साधना कहते हैं, लेकिन बात ये है कि आप इसे उस समय करना नहीं चाहते| जब आपको इसकी सबसे ज्यादा ज़रूरत है तब ही आप इसको नहीं करना चाह रहे होते हैं, ये बहुत जटिल है| ये ऐसा ही है कि कोई बीमार हो और कहे कि मैं दवाई नहीं लेना चाहता,
किसी को ठण्ड लग रही हो और आप उनसे कहें कि ये गरम जाकेट ले लो, ये बहुत अच्छी है और वो कहे कि नहीं मैं इसको नहीं लूँगा क्योंकि मुझे बहुत ठण्ड लग रही है| अब आप उसको क्या कह सकते हो ऐसे में? ये भी बिलकुल वैसा ही है, जब हमें इसकी सबसे ज्यादा ज़रूरत होती है तब हमारा मन इसका विरोध करने लगता है, इसलिए हमारा मन हमारा सबसे अच्छा दोस्त और सबसे बड़ा दुश्मन भी है| आपका कोई दुश्मन बाहर नहीं है, वो यहाँ पर ही है, इसलिए अपने मन को अपना अच्छा दोस्त बनाइये और इसलिए ही हम सब यहाँ बैठ कर उसे निखार रहे हैं|
प्रश्न : मैं इस पथ पर पिछले १० साल से भी ज्यादा से हूँ और मैं इस से बहुत प्रसन्न हूँ| सिर्फ सोचता हूँ कि ऐसे बाधाओं का क्या करें जो लम्बे समय के लिए टिकते हुए नज़र आते हैं? मेरी निचले चक्र की ऊर्जा शक्ति कम है, क्या कोई रास्ता है जिस से परिस्तिथियाँ बेहतर हो जायें?
श्री श्री रविशंकर : हाँ, बिलकुल|
अगर आप खुश हैं तो चीज़ें सभी सही दिशा में ही चल रही हैं| और निचले चक्र को और अधिक सक्रिय करने की चिंता मत करो| आप उसको और अधिक सक्रिय क्यों करना चाहते हैं? उसको ऐसे ही रहने दें, प्रकृति उसका ध्यान स्वयं रख लेगी|
प्रश्न : हम आर्ट ऑफ़ लिविंग में जो भी करते हैं, क्या उसका उद्देश्य जागृत होना और ज्ञान प्राप्त करना है या सिर्फ बेहतर महसूस करना है? व्यक्तिगत रूप से मैं जागृत होना चाहता हूँI
श्री श्री रविशंकर : देखिये ये एक महासागर के जैसा है, यहाँ सब कुछ उपलब्ध है| अगर आप केवल समुद्र के किनारे चलना चाहते हैं तो आपका स्वागत है, अगर आप गहरे में उतरना चाहते हैं और तेल ढूँढना चाहते हैं तो वो भी यहाँ मौजूद है| ये पथ सागर के जैसा है, आप यहाँ से नमक ले जा सकते हैं, तेल ले जा सकते हैं, मछली पकड़ सकते हैं, और आप यहाँ सैंकड़ो काम कर सकते हैं| निश्चित रूप से ज्ञान प्राप्त करना तो थाली में सजा हुआ है, और मुझे ख़ुशी है कि आप वो पाना चाहते हैं| मैं चाहता हूँ कि लोग उसको पाने के लिए आगे आयें, मुझे बहुत अच्छा लगा यह जान कर कि आपको वो चाहिए, आप यहाँ मात्र किसी प्रकार के सुकून के लिए नहीं आये हैं, ये अच्छी बात है| आइये हमें बहुत से कार्य करने हैं|