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२०१२ मॉन्ट्रियल, कनाडा
मई
प्राचीन काल में राजा-महाराजा
उन लोगों का साथ दिया करते थे जो समाधी में बैठते थे। प्रतिदिन कुछ घंटों के लिए समाधी
में बैठना और आस-पास के वातावरण में सुंदर/सकारात्मक संवेदनाओं का संचार करना ही उनका
काम था। इन्हें पुरोहित कहा जाता था। ये लोग समाज और नगर के लिए अच्छे और लाभकारी काम
किया करते थे। ये प्रतिदिन मंत्रोच्चार करते और समाधी में बैठ कर सकारात्मक ऊर्जा का
संचार करते थे। पर धीरे-धीरे ये परम्परा कम होती गई और आज ये पूरी तरह से लुप्त हो
चुकी है। हम इस प्रकार की समाधी में कब जा सकते हैं? जब हमें कोई भी इच्छा न हो; जब हमारी कोई भी चाह न बचे तभी समाधी घटित होती है।
प्रश्न : प्रिय गुरुजी, ज्ञान की जिस बहुमूल्य परम्परा में हम हैं, इसका मूल क्या है? और इसमें हम कब तक रहने वाले हैं?
श्री श्री रविशंकर : इसके मूल के बारे में मुझे नहीं पता, पर ये हजारों वर्षों से हैं। ये पाँच, छह, सात या दस हजार साल भी नहीं बल्कि कितने हजारों सालों से हैं, हम भी नहीं जानते। हो सकता है कि हमारी चेतना जितने
साल पुरानी है,
उतने साल!
प्रश्न : यदि मैं ही ब्रह्म हूँ, अनादि-अनन्त हूँ, अंतर्मुक्त और शुद्ध चेतनस्वरूप हूँ तो मैं उसे क्यों नहीं जान पा रहा हूँ या उसका
अनुभव क्यों नहीं कर पा रहा हूँ?
श्री श्री रविशंकर : क्योंकि आपका मन बहिर्मुख है। आपको कभी ये चाहिए तो
कभी वो। आपको सुख की लालसा है। अच्छे संबंधों की कामना है। आपको और १०१ चीजें भी चाहिए
और आपका मन इन्हीं सब बातों में लगा हुआ है। तो आप भीतर के गहन में कैसे उतरेंगे? आप इसका अनुभव कैसे करेंगे? अत: जब आप इच्छाओं से मुक्त होकर ये कहेंगे कि मुझे
कुछ नहीं चाहिए ; मैं संतुष्ट हूँ तब आप
अपने मन तक पहुँच पायेंगे। दो परिस्थितियों में ही हम ये कहते हैं कि 'मुझे कुछ नहीं चाहिए', एक- जब हम अवसादग्रस्त (फ्रस्ट्रेट) हो जाते हैं, इसी प्रकार जब हम कहते हैं कि 'मैंने ये सब छोड़ दिया है और अब ये सब बरदाश्त नहीं
कर सकता' तो अवसादभरी इस स्थिति से कोई लाभ नहीं मिलने वाला है।
अपने भीतर उतरने के लिए ये स्थिति कारगर नहीं है। परन्तु जब हम कहते हैं कि 'ओह! अब मैं पूर्ण हूँ, परिपूर्ण महसूस कर रहा हूँ, मुझे अब कुछ नहीं चाहिए’, तो प्रसन्न रहने की हमारी ये स्थिति और कुछ न चाहना
हमारे मन को भीतर की ओर ले कर जाता है। यह कैच २२ की स्थिति है। क्योंकि जब हम भीतर
की ओर जाते हैं केवल तभी कहते हैं कि मुझे कुछ नहीं चाहिए। परन्तु जब तक हम ये नहीं
कहते कि मुझे कुछ नहीं चाहिए तब तक हम भीतर की ओर नहीं जा सकते। (श्री श्री हँसते हैं)
इसे आपको समझना होगा।
मुझे नहीं पता कि आप ये कैसे करेंगे? मैं आपको ढेर सारे सुझाव दूंगा, तकनीकें बताऊँगा, ये करो, वो करो, ऐसे करो,
इसे कर के देखो आदि-आदि, परन्तु मैं नहीं जानता कि आप ये सब कैसे करेंगे (श्री श्री हँसते हैं) आपको अपने आप
को प्रसन्न रखते हुए उस स्थिति में लाना होगा और कहना होगा, मुझे कुछ नहीं चाहिए, मैं परिपूर्ण हूँ, संतुष्ट हूँ' तब मन आनंद में डूबता है।
प्रश्न : आपने कहा कि मैं आपके साथ हूँ, तो क्या इसका अर्थ ये है कि आप मेरी हर एक सोच, हर क्रिया-कलाप, आशा-निराशा और भय से परिचित हैं? क्या आप सच में मेरे भीतर हैं? दिन-रात, घर में,
बाहर में, मेरे काम पर, हर एक जगह,
हर समय साथ में व्याप्त हैं? यदि हाँ तो यह जानना सुखकारी है और अच्छा है कि मै अपने
विचारों और कार्य-कलापों को देखना और उन पर नजर रखना आरंभ कर दूँ!
श्री श्री रविशंकर : आप मेरा ये सब ट्रेड सीक्रेट क्यों जानना चाहते हो? मैं आपको ये सब नहीं बताऊँगा, हाँ! कभी आप देखते हैं तो कभी अपनी आँखें बंद भी तो
कर लेते हैं।
प्रश्न : बहुत सारी देशी परम्परा के अंतर्गत समारोहों में चेतना
के उच्च स्तर को प्राप्त करने के लिए कुछ विशेष तरह की जड़ी-बूटियों का सेवन करने का
विधान है। क्या वेदांत में भी ऐसा ही है? और ये परम्परा लाभकारी है या नुकसानदायक?
श्री श्री रविशंकर : हाँ, आयुर्वेद एक विज्ञान है। इसमें बहुत सारी औषधियां हैं। कुछ जड़ी-बूटियां शमनकारी
प्रभाव या मन को शांत कर देने वाली होती हैं। परन्तु उन पर निर्भर होना भी एक प्रकार
का बंधन है। अत: वेदांत इसे नकार देता है।
आयुर्वेद और योग दोनों
में ही उन जड़ी-बूटियों के विषय में उल्लेख है, जो हमें शांत करती हैं और भीतर जाने में हमें मदद करती हैं, परन्तु इनमें से ज्यादातर जड़ी-बूटियों, औषधियां जिनका लोग प्रयोग करते हैं, हमारे शारीरिक प्रणाली के लिए नुकसानदायक भी हैं। जितना
ये हमें लाभ पहुँचाती हैं उससे ज्यादा ये नुकसान करती हैं। ये सब हमें लाभ पहुँचाने
वाली औषधियां बिल्कुल नहीं हैं! ये केवल हमारे शरीर को नुकसान पहुँचाती हैं। ये हमें
अस्थाई रूप से थोड़ा ऊपर उठा हुआ महसूस कराती हैं| परन्तु मैंने कभी स्वयं इनका स्वाद
नहीं चखा है,
कभी भी नहीं। ये सब लोगों द्वारा
कही गई बातों के आधार पर मैंने बताया है। इनका सेवन करने के लिए मैं कभी किसी को नहीं
कहता हूँ क्योंकि मैंने उन लोगों को देखा है जो अफीम, गाँजा आदि का सेवन करते हैं। उनके चेहरों को देखें, कोई आनंद नहीं, कोई संवेदना नहीं और न ही कोई चमक या आभा। अत: इससे मुझे इसके प्रति कभी कोई रुचि
भी नहीं हुई।
यदि आप कभी कुंभ मेले
में जाएं तो वहां आपको अनेक साधु हुक्का, चरस, गाँजा और अफीम आदि का सेवन करते हुए मिल जाएंगे।
वे इस दुनियाँ की हर
चीज को भुला देते हैं। वे तो अपनी ही एक अलग दुनियाँ में खो जाते हैं। आपको उनमें बुद्धत्व
का कोई चिन्ह दिखाई नहीं देता, ये बहुत दुर्भाग्यपूर्ण
है।
हाँ, प्राचीन काल में
इसे केवल एक चिकित्सा पद्धति के रूप में अवश्य प्रयोग किया जाता था। यदि कोई व्यक्ति
वासना, लालच, ईर्ष्या या किसी प्रकार के भ्रम से भरा हुआ होता था तो उसे थोड़ी मात्रा में इन
पदार्थों का सेवन कराया जाता था जिससे उसका ध्यान वहाँ से हट सके परंतु लोग इसका प्रयोग
बहुत अधिक नहीं करते थे। यही बात तान्त्रिक सेक्स के संबंध में भी थी| इसका प्रयोग केवल
उसी व्यक्ति पर किया जाता था जो बहुत अधिक कामासक्त होता था। आप समझ रहे हो न कि मैं
क्या कह रहा हूँ?
किसी-किसी व्यक्ति के
शरीर में हार्मोनों का असंतुलन हो जाता है जिसके कारण वे सेक्स के अलावा कुछ नहीं सोच
सकते हैं| दिन रात उनके मन में सेक्स के ही विचार आते हैं| ज्ञानी लोग कहते हैं कि इस तरह का जीवन एक रेजर की धार
पर चलने जैसा है। ऐसे लोगों के मन का संतुलन ठीक करने के लिए एक सुप्रशिक्षित गुरु
उन्हें तान्त्रिक सेक्स सिखाया करते थे।
यह केवल कुछ दिनों के
लिए किया जाता था हमेशा के लिए नहीं| केवल ३ महीने, ६ महीने या फिर १ वर्ष तक| जिससे उनके शरीर में हार्मोनों का संतुलन सही हो सके।
सेक्स की यह विधि वे लोग सिखाया करते थे पर अब वे सब परंपराएँ समाप्त हो चुकी हैं।
प्रश्न : मेरे मन में कई बार यह प्रश्न
उठता है कि क्या मध्य एशिया में कभी चिर स्थाई शांति हो सकेगी?
श्री श्री रविशंकर : हमें आशा रखनी चाहिए कि यह हमारे जीते जी हो सकेगा।
हाल ही में इजराइल के हमारे आर्ट ऑफ लिविंग की एक शिक्षिका ने बहुत ही बेहतरीन कार्य
किया है। उन्होंने कुछ फण्ड इकट्ठा किया और कुछ फिलीस्तीनी व कुछ इजराइली महिलाओं को जर्मनी के आश्रम में लेकर आईं। फिलिस्तीन व इजराइल के लोग एक दूसरे से नफरत करते हैं।
उन्होंने उन महिलाओं को उस आश्रम में रखा और वे कहीं भी जा नहीं सकीं। तब उन शिक्षिका
ने उन महिलाओं को आपस में बात करने के अवसर दिए। प्रारंभ में वे महिलाएँ एक दूसरे से
झगड़ती थीं,
एक दूसरे को मार डालने पर उतारू
थीं, एक दूसरे से बहुत नफरत करती थी| पर धीरे धीरे यह सब
कम हो गया और वे एक दूसरे के प्रति सकारात्मक होने लगीं। यह घटना जर्मनी के सभी बड़े
समाचार पत्रों में एक प्रमुख समाचार के रूप में प्रकाशित हुई। टी.वी. ने भी इस स्टोरी
को प्रसारित किया और कहा 'कि यदि एक महिला, आर्ट ऑफ लिविंग की एक शिक्षिका दोनों समुदायों को आपस
में मिला सकती हैं तो हमें भविष्य के प्रति बहुत आशावान होना चाहिए' यह लोगों प्रश्न लोगों को नजदीक लाने का है।
प्रश्न : यदि मनुष्य को जीवन में एक चीज़ मांगनी होती, तो उसे क्या माँगना चाहिए?
श्री श्री रविशंकर : क्यों
उसे एक ही चीज़ मांगनी चाहिए?
उसे जितनी चाहिए उतनी चीज़ें मांगनी चाहिए| जब उसे प्यास लगे तो उसे पानी माँगना चाहीये,
भस्त्रिका करने से पहले उसे टिशु पेपर माँगना चाहिए| जब वह भूखा
हो तो उसे खाना माँगना चाहिए| उसे केवल एक ही बात पूछने के लिए
क्यों सीमित करना चाहिए| मैं कहता हूँ, यह दुनिया कई सारी चीज़ों से परिपूर्ण है| क्यों भगवान एक ही चीज़
बनाएं और आपको वहीँ पर सीमित कर दें? जरा सोचियें, यदि आपके जीवन में केवल एक ही प्रकार
की सब्जी मांग सकते, तो कौन सी सब्जी आप मांगते? ओख्रा,
पूरी ज़िन्दगी ओख्रा खाते रहो? या केला? पूरी ज़िन्दगी केले खाते रहो?
ऐसा क्यों करना चाहियें?
मांगिये और आपको दिया जायेंगा| और जब
भी जो भी चाहियें, उस समय मांगिये और आगे बढिए| और जब आप सभी चीज़ों से भर जाएँ, तब बोलियें, "मुझे कुछ नहीं चाहिएं, मैं खुश हूँ|"
जो चाह है, उन्हें गिरना होगा| आप उसे इस तरह त्याग नहीं कर सकते| आप प्यासे हो और आप कहते हो, "नहीं, मुझे पानी नहीं चाहिये”, आप ऐसा नहीं कर सकते| यदि आप प्यासे हो तो उस समय आपको पानी चाहिये| दुर्भाग्यवश, जैन परंपरा है जिसका मैं अनुमोदन नहीं करता हूँ| वे बिना खाना खाए शरीर त्याग देते हैं| वे बहुत दिनों तक उपवास करते है, जो लगभग आत्महत्या की तरह होता है|
जो चाह है, उन्हें गिरना होगा| आप उसे इस तरह त्याग नहीं कर सकते| आप प्यासे हो और आप कहते हो, "नहीं, मुझे पानी नहीं चाहिये”, आप ऐसा नहीं कर सकते| यदि आप प्यासे हो तो उस समय आपको पानी चाहिये| दुर्भाग्यवश, जैन परंपरा है जिसका मैं अनुमोदन नहीं करता हूँ| वे बिना खाना खाए शरीर त्याग देते हैं| वे बहुत दिनों तक उपवास करते है, जो लगभग आत्महत्या की तरह होता है|
तो वह संत बिस्तर पर लेटकर
कहता हैं, "पानी, पानी,
पानी” क्योंकि वह आन्तरिक आग्रह है, और उसके आस पास के लोग
कहतें हैं, "संत की वाणी सच है| वहां पर आपको बहुत सारा पानी मिलेगा|” और वे उन्हें पानी नहीं देतें| तो ऊपर, आपको मिलेगा आप उसे मांगिये मत, कोई बात नहीं, पानी के बिना मर जाएँ|
वह उन्हें हिदायत देते
की, "मुझे पानी न दिया जाए, मैं चिल्लाऊं तो भी नहीं|” मैं कहता हूँ, यह यातना है|
आज कल यह बहुत कम हो गया
है, फिर भी लोग करते हैं| यह बहुत
गलत बात है| मैं कहता हूँ, महावीर ने कभी नहीं कहा कि आपको बिना
पानी पिये उपवास करना चाहिये और इस तरह मरना चाहिये| लेकिन
एक ख़ास परंपरा है जहाँ पर वे ऐसा प्रयत्न करते हैं| हिन्दू
मैं भी, कुछ लोग अपने आप पर यातना करतें हैं| एक बहुत छोटे से
सम्प्रदाय के लोगों में अपने आप को यातना देने की पद्धतियाँ मौजूद हैं| इन सब को मान्यता नहीं हैं| भगवद गीता में भगवान श्रीकृष्ण
बहुत स्पष्टता से कहते हैं, यह लोग अपने आप पर यातनायें करते हैं, उन्हें मेरा उनके
भीतर होने का ज्ञान नहीं है| मैं उनके भीतर बैठा हूँ| वे मुझे नहीं देख सकते वे मुझे नहीं पहचानते| यह सब
तामसिक पद्धतियाँ हैं, वे अपने आप को यातना देते हैं| कर्सेयंत
सरीरा स्थारिन भूत ग्राम अचेतसः मम, चैवान्तः सरीरा स्थं तम विद्दय असुर निश्चयन|
तो एक बीच का रास्ता है|
एक तरफ अहंकारी लोग अपने आप को यातना देते है, और दूसरी तरफ ऐसे लोग है जो शरीर
के आराम के लिये इतने मनोग्राहित होते है| दोनों की हार निश्चित है| आप बैठे हो, और
आपके पैर दर्द कर रहे है, कोई बात नहीं, उन्हें दर्द करने दीजिये| आप यहाँ वहाँ थोड़ा बहुत दर्द से मर नहीं जायेंगे| दर्द
करने दो, यदि आप ऐसी इच्छाशक्ति के साथ बैठेंगे तो आप देखोगे, कि आपका दर्द गायब हो
जायेगा|
जब आप योग करते हो, तो
अवश्य दर्द होता है| आपका शरीर
यहाँ वहां खींचता है, और आपको यहाँ वहाँ दर्द करता है, लेकिन यदि आप चालू रखते हैं,
तो दर्द गायब हो जायेगा| वैसा ही है जब आप व्यायाम शाला जाते
हो और अपना व्यायाम करते हो| दुसरें दिन आपका शरीर सभी जगह
पर दर्द करता है कि नहीं? लेकिन आप इसे छोड़ नहीं देते हो|
आप जारी रखते हैं, और फिर दर्द गायब हो जाता है| आप एक या दो सत्र
करते हैं और सब दर्द और पीड़ा चली जाती है| तो एक तरफ ऐसे लोग
है जो अपने आप को यातना देते है अपने अहंकार की वजह से, और दूसरी तरफ ऐसे लोग है
जो शरीर के आराम के लिए मनोग्राहित होते हैं| दोनों की हार निश्चित है| कैसे होगा?
जो बीच का रास्ता अपनाते हैं, वही स्वर्ण लकीर है| क्या यह
स्पष्ट है? तो ध्यान के विषय में भी, जो उपवास करता है उसे भी
कभी हासिल नहीं होगा, और जो बहुत ज्यादा खाता है, उसे भी कभी हासिल नहीं होगा, नहीं
जो ज्यादा सोता है और नहीं उसे जो हर समय जागे रहते हैं और अपने आप पर यातना करते
हैं| नाही उन्हें जो किसी भी प्रकार की गतिविधि नहीं करते हैं
और नाही उसे जो ध्यान के लिये थोड़ा समय भी नहीं निकाल सकते हैं| किसी भी प्रकार के चरम काम नहीं करते हैं| तो बीच
का रास्ता ही होना चाहिये|
प्रश्न: मुझे डर है कि पृथ्वी एक प्रशिक्षण करने
की जगह है| यदि ऐसा हैं तो मुझे कैसे पता चलेगा की कौनसा पाठ पढना चाहिये या कौनसा
कौशल विकसित करना चाहिये? मैं थक गया हूँ| और कितने पाठ पढने हैं?
श्री श्री रविशंकर: बस सब कुछ भूल जाएँ| किसने कहा कि आप को कोई परीक्षा
देने की जरुरत है? आप को कुछ भी सीखने की जरुरत नहीं हैं| मैं कहता हूँ, बस खाली हो जाईयें| बस मरने से पहले सब कुछ छोड़ दीजियें| यह रहस्य हैं और
खुश रहियें| दुनिया में पूर्णता नहीं है| मैं कहता हूँ, यह दुनिया खामियों से भरी है, बस स्वीकार करें| आप शांत हो जायेंगे| क्या आपको पता चला?
और यह शरीर और मन दुनिया
का है| एक आत्मा के रूप
में आप पूर्ण हो और शरीर और मन के स्तर पर आप खामियों से भरे हो| यदि आप अपने आप को जांचते रहते हो, तो आपको अपने
आप में खामियां मिलेगी, और यदि आप दुनिया को जांचते हो तो
आप को वहाँ पर भी खामियां दिखेगी| और आम तौर पर आप इस खामी से
उस खामी पर चलते हो| या तो आप को ऐसा लगता हैं की दुनिया अपूर्ण
है और आपको लगता हैं कि आप पूर्ण हो, या यदि आपको ऐसा लगता हैं की आप अपूर्ण हो, तो
आप और सभी लोगों को पूर्ण देखते हो और आपसे बेहतर देखते हो, केवल आप ही अपूर्ण हैं
और आप अपने आपको दोष देने लगते हो| तो आप इस दोष के खेल में
आ जाते हो जहां आप या तो अपने आपको या दुनिया को दोष देते हो| यह एक साधक के लिये सबसे बुरी बात है, इसे बंद किजीये| आपकी सभी अपूर्णता को इश्वर को समर्पित कीजिये और कहिये, "जैसा भी हूँ,
मैं तेरा हूँ और आप इश्वर हों आप पूर्ण हो"| तो आप अपनी अपूर्णता को किसी को
समर्पित कर देतें हैं| "ओ इश्वरी माता, आप पूर्ण हो, मैं अपने आप को आपके हवाले करता हूँ|” यदि आप फूटबाल खिलाड़ी हैं, आप क्या करते हो?
एक खिलाड़ी अपनी अपूर्णता अपने शिक्षक को समर्पित करता है| आप शिक्षक को बताते हो क्या आप को नहीं
पता और यह आपकी खामियां है| फिर शिक्षक कहता हैं, "ठीक है,
आप चिंता न करे, मैं आपको बताऊंगा कि क्या करना है|"
इसी तरह, आप अपनी खामियां
गुरु को दे देते हो, "गुरूजी, जैसा भी हूँ, मैं अपनी खामियां आप को समर्पित करता
हूँ," और आराम करते हो|
आपके भीतर की जो शान्ति
है, जो वैराग्य है वही सभी कौशल की जननी है| यह पूर्णता की माता है| कार्य कभी भी पूर्णता की जननी नहीं होती, कार्यता से कुशलता नहीं आती| योग से कुशलता आती है| क्या आपको पता है की योग क्यों
करना चाहिये? क्यों आपको शांत होना चाहिये? क्यों ध्यान करना चाहिये? वह आपमें पूर्ण
कुशलता लाता है, वह पूर्णता लाता है और बेहतर गुणवत्ता का आनंद भी; यह तीन लाभ हैं|
इस दुनिया का आनंद उठाने के लिये भी आपको अंतर्मुख होना पड़ेगा, आपको योग की जरुरत है| योग कार्यता में कुशलता लाता है, योग आपमें
पूर्णता लाता है, और योग आपके भीतर प्रतिभा और कौशल लाता है, और आपको बेहतर आनंद और
आराम प्रदान करता है|
प्रश्न : यह मौन कोर्स और सत्य और जीवन के बारे जानना बहुत
अच्छा है| जब हम असली दुनिया में जातें हैं तनाव और नकारात्मकता
हमे घेर लेती हैं उससे कैसे निपटे?
श्री श्री रविशंकर : वास्तव में यह असली दुनिया है| यह आपको अलग से देखना पड़ेगा| यह आपकी
असली दुनिया है और जब अप वहाँ जाते हैं, वह आपकी बस यात्रा करने की जगह है| वह आपका पारगमन स्थल है और यह आपका घर है|
क्या आपको पता हैं कि आदि शंकराचार्य ने भजो गोविन्दम में क्या कहाँ हैं? उन्होंने कहाँ
हैं, ’सुरमंदिरातारुमूलानिवासाह, सय्या
भूतालामाजिनाम वासः, सर्वपरिग्रह भोगात्यागाह, कस्य सुखं न करोति विरागः| भज गोविन्दम, भज गोविन्दम|’ यह कितना सुन्दर है| यह कहता है, मेरा असली निवास वहाँ है, मेरा
असली घर वहाँ है, और यहाँ मैं बस यात्रा करनें आया हूँ, बस कुछ देर आराम करने के लिये| तो जानिये कि यह असली बात है और यह हकीकत है| आप दुनिया
में वापस जाते हो तो जरुर एक नकारात्मकता आ जाती हैं| यह ऐसा ही है, और आप वहाँ पर
कुछ सकारात्मकता लाने के लिये हो| आपका काम उस वातावरण में
कुछ सकारात्मकता लाना है, आप वहाँ खो नहीं जाना, इसीलिए आप आते रहतें हो और जाते रहते
हो| हम इतने आश्रम का निर्माण क्यों कर रहे हैं?
हम केवल एक जगह पर स्थित
हो सकते थे| मैं दुनिया भर
में क्यों यात्रा करते रहता हूँ? आपको पता है यह मेरा इस महीने में १८ या १९ वा स्थान
है| यह १२ देश है जिसका मैं दौरा कर रहा हूँ| मैं सब जगह क्यों दौरा करता हूँ? मुझे पता हैं कि हमे ऐसी जगहों की जरुरत
है जो प्रकाश स्वरुप है, जहां पर लोग आ सकें और अपनी आन्तरिक सुख शान्ति पा सकें| तो
इसीलिए हम सभी जगह पर केंद्र बना रहे हैं और सत्संग कर रहे हैं| यदि आपके क्षेत्र में नहीं हैं तो आप इसकी शुरुवात किजीयें| आपको पता है, यह गैस स्थानक है, आपको गई स्थानक की जरुरत है क्योंकि सभी जगह
पर लोगों का गैस खत्म हो जाता है| तब फिर उनकी गाड़ियां स्थिर
हो जाती है| तो सत्संग समूह गैस स्थानक है, जाईये भर दीजिये,
अपने आप को उत्तेजित कर दीजिये| आप यह रोना नहीं, “ओह, मैंने अपना गैस भरा था और अब यह पूरा खाली हो गया है, मैं क्या करूँ?”, वह खाली हो गया क्योंकि वह उसका स्वभाव हैं, उसे फिर से भर दीजिये|
लेकिन आप गैस स्थानक में
रह नहीं सकते| इसलिए मैं उन
लोगों को जो आश्रम में रहतें हैं और जो एक ही जगह पर लम्बे समय तक रहते हैं, कहता हूँ
की उनको चारों ओर घूमना होगा| मैं उनको कहता हूँ की चारों और घुमियें
और ज्ञान को बांटिये| जब वे बांटना शुरू करेंगे तब वे ज्यादा
खुश रह सकेंगे| यदि एक ही जगह पर वे ज्यादा समय तक रहेंगे तो
कभी कभी वे उब जातें है|जब एक आयु के पश्चात जब आप यात्रा नहीं
कर सकते हैं और आप संतुष्ट और पूरे होते हो, तब वह ठीक है|