"लालच, महत्वाकांक्षा तथा किसी इच्छा के ज्वर से ज्ञान छुप जाता है"

गुरु पूर्णिमा २०१० की पूर्व संध्या पर गुरुजी के साथ वार्तालाप से कुछ अंश..

हाँ, कई लोग ये प्रश्न पूछते हैं कि, ‘मेरे पास कोई प्रश्न ही नहीं है। मैं क्या करूं?’ ये तो अच्छी बात है!

तो, तुम लोग अभी और गाना चाहते हो, है ना? कितने लोग अभी और गाना चाहते हैं? एक कहानी सुनोगे?

मुझे एक कहानी याद आई है! ये ५००० वर्ष पुरानी है, जब भगवान श्री कृष्ण ने उद्धव को कई प्रक्रियाओं और ध्यान करने की विधि के साथ गोप गोपियों के पास भेजा था। गोप गोपियां भक्ति भाव से ओत प्रोत थे, और हमेशा नाचते गाते रहते थे। उद्धव, भगवान श्री कृष्ण के बहुत नज़दीकी व्यक्ति थे, और बड़े ज्ञानी थे। तो, उद्धव गोप गोपियों को ज्ञान देने लगे, उन्हें मुक्ति के बारे में बताने लगे पर किसी को उन बातों में रुचि नहीं थी।

उन्होंने कहा कि, ‘हमें कृष्ण की कथा सुनाओ। ये बताओ कि द्वारिका में जहाँ वे हैं, वहाँ क्या हो रहा है? हमें तुम्हारी ज्ञान की बातें नहीं चाहिये। इन्हें अपने पास ही रखो। हमे तो कृष्ण की खबर सुनाओ। चलो अब हम नाचे गायें। ज्ञान तो बहुत सुन लिया है, चलो अब उत्सव मनायें। हम में प्रेम और तीव्र लालसा है, और कुछ नहीं है। हमें ज्ञान की परवाह नहीं है। हम प्रेम में प्रसन्न हैं। तो चलो, नाचे गायें।’

यही कहानी है कि वे बस यही करना चाहते थे! देखो, प्रेम कैसे तुम्हें दीवाना बना देता है! पर जीवन में कम से कम कभी कभी दीवाना होना अच्छा है। उस समय सभी भेदभाव मिट जाते हैं। तुम अपने आस पास की दुनिया में सब को अपना जानने लग जाते हो, और पूरे विश्व के साथ एक हो जाते हो – यही ‘गुरु तत्व’ है।

गुरु तत्व ही मुख्य है..ज्ञान है। और, कल गुरु पूर्णिमा है।

सदियों से यह ज्ञान विश्व में चलता चला आया है। तो, कल हम गुरुओं की परंपरा में हुये सभी गुरुओं के प्रति अपना आभार प्रगट करेंगे। पितृत्व और मातृत्व की ही तरह गुरु-तत्व होता है| गुरु तत्व का अर्थ है, ‘मैं तुम्हारा भला चाहता हूँ। मुझे अपने लिये कुछ नहीं चाहिये।’

हर किसी में थोड़ा गुरु तत्व होता ही है। तो, किसी ना किसी के गुरु बनो। हाँ, आर्ट आफ़ लिविंग के शिक्षक तो यह पात्र अदा करते ही हैं। जब वे आकर गुरु के स्थान पर बैठते हैं तब उनकी चेतना में कुछ परिवर्तन आता है, है ना? तब तुम भीतर से ख़ाली होते हो, और जिसकी जो आवश्यकता होती है, उसे तुमसे वो मिल जाता है। तो, तुम विश्व के दर्पण बन जाते हो – यह गुरु तत्व है – कोई बंधन नहीं, कोई छाप नहीं, केवल आत्मा का प्रतिबिंब।

तो, कल हम यही उत्सव मनायेंगे। कल और बहुत लोग आयेंगे। आज हम कुछ और गायेंगे। गुरु तत्व ही मुख्य है। अब, किसी के कोई प्रश्न हैं?

प्रश्न : आप शंकाओं के बारे में क्या कहते हैं? क्या हमें शंकायें नहीं होनी चाहिये?

श्री श्री रवि शंकर :
नहीं, मैने कभी नहीं कहा कि शंकायें नहीं होनी चाहिये। जितनी अधिक शंका कर सकते हो, करो, क्योंकि सत्य कभी शंकाओं से छुप नहीं सकता है। हाँ, शंका सत्य को हरा नहीं सकती है, इसलिये जितना मर्ज़ी शक करो, पर उसे जल्दी ख़त्म करो, वर्ना तुम बहुत समय व्यर्थ करोगे। खूब शक करो और फिर उसके आगे बढ़ो।

मुझे स्वीडन की एक घटना याद है। एक सार्वजनिक कार्यक्रम में एक पत्रकार सबसे पीछे बैठा था। उसने आगे आ कर मुझ से कहा, ‘मैं आपसे एक प्रश्न पूछना चाहता हूँ।’ मैने कहा, ‘हाँ, पूछो।’ उसने पूछा, ‘क्या आपको आत्मज्ञान हैं?’ मैनें कहा, ‘नहीं।’

पर उसने ज़िद की, ‘नहीं। कृपया सच बताइये। मुझे पता है कि आप हमेशा मज़ाक करते रहते हैं। कृपया मुझे सच बताइये।’ मैनें फिर कहा, ‘नहीं।’

तुमने देखा, मेरे ‘नहीं’ के जवाब से बात ख़त्म हो जानी चाहिये थी, पर वो ज़िद करता रहा, ‘नहीं, नहीं, आप सच नहीं बता रहे हैं। मुझे सच बताइये, क्या आपको आत्मज्ञान हुआ है? मुझे अभी इसका जवाब जानना है।’

देखो, जब आप ‘नहीं’ कहते हैं, तो बात वहीं ख़त्म हो जाती है। आगे स्पष्टीकरण की आवश्यकता नहीं रहती। पर ये व्यक्ति इस जवाब को मान ही नहीं रहा था! मैनें कहा, ‘ऐसा क्या है जो तुम्हें इस “नहीं” के जवाब से संतुष्ट नहीं होने दे रहा है? तुम्हें खुश होना चाहिये कि तुम्हें जवाब मिल गया है।’ उसने कहा, ‘नहीं, मैं इसे नहीं मानता!’

मैनें कहा, ‘तुमने देखा, तुम्हारे भीतर से एक आवाज़ आ रही है कि, “ये जो कह रहे हैं सही नहीं है।” है ना? तो तुम्हें जवाब मिल गया है!

कितनी ही बार, तुम अपने भीतर की आवाज़ सुनते हो, पर मन की ऊपरी परत से उस पर शक करते हो। भीतर से तुम्हारा हृदय और मन कुछ और कह रहे होते हैं। तुम्हारे भीतर की आवाज़ जो कहती है, तुम उसे मानते हो, है कि नहीं? अगर कोई तुमसे कहे कि, ‘मैं तुम्हें प्रेम करता हूँ,’ तो क्या तुम उसकी बात पर सीधे ही विश्वास कर लेते हो?

नहीं, तुम उसका चेहरा देखते हो; तुम उसे देख कर, या बिना देखे भी, अपने भीतर कुछ महसूस करते हो। मैं जो कह रहा हूँ, आमतौर पर ऐसा ही होता है। हरेक में अंतर्ज्ञान की शक्ति होती है, पर तुम्हारे लालच की वजह से ये अंतर्ज्ञान कभी कभी ढक जाता है। लालच से, महत्वाकांक्षा से अंतरज्ञान की शक्ति छुप जाती है। लालच, महत्वाकांक्षा तथा किसी इच्छा के ज्वर से ज्ञान छुप जाता है। तो, जितना हो सके शक करो!

आगे का वार्तालाप, अगली पोस्ट में पढ़ियेगा...


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