फ़्रान्स
३० जुलाई २०१०
प्रश्न : मुझे ऑफ़िस कार्य के दौरान कई ऐसी जगह पर जाना पड़ता है जहाँ शाकाहारी भोजन आसानी से उपलब्ध नहीं होता है और दूसरे साथियों के साथ गलत भोजन करने से बहुत आलस महसूस होता है। ऐसी परिस्थिति में क्या करना चाहिये?
श्री श्री रवि शंकर : जिन लोगों को किसी भोजन से कोई एलर्जी होती है तो उस भोजन को चाहे उनके साथी खा रहे हों, वे नहीं खाते हैं। यदि तुम्हें दूध से एलर्जी हो और तुम्हारे साथी, दूध- चाय आदि पी रहे हों, तो तुम नहीं कहोगे, ‘हाँ मैं भी पी लूँगा’, क्योंकि तुम्हें पता है इससे तुम्हें हानि होगी।
वैसे ही, किसी भी संगत में रहते हुए भी तुम अपने भोजन का चुनाव खुद कर सकते हो। अगर मांसाहारी भोजन ही उपलब्ध है तो तुम कह सकते हो, ‘मैं केवल चिप्स, सब्जी, ब्रेड आदि ही खाऊँगा। माँसाहारी भोजन या अन्य भोजन जो तुम्हें अस्वस्थ करे, उसे खाने के लिये तुम्हें कोई मजबूर नही कर सकता अगर तुम ना खाना चाहो तो, ठीक है ना? अगर जानते हो कि कोक, पेप्सी आदि तुन्हारे लिए हानिकारक हैं तो तुम्हें पीने की आवश्यकता नहीं। सही है ना? देखो जो लोग बहुत पेप्सी, कोला आदि पीते हैं, उनके पेट व आँतों की अंतरीय परतें क्षतिग्रस्त हो जाती हैं और आगे चल कर कितने प्रकार की मुश्किलें पैदा करती हैं। ये सब गैस वाले पेय हानिकारक होते हैं, इनसे दूर ही रहना चाहिये।
किसी ने यह बात प्रमाणित करने के लिये किसी के गिरे हुए एक दाँत को जब पेप्सी से भरे एक कप में ड़ाला, तो वह उसमें गल गया! अब दाँत जो प्राकृतिक रुप से इतना मजबूत होता है, वह भी गल जाता है पेप्सी में, तो आप सोच सकते हैं कितना विनाशक होता होगा पेप्सी। और वही विनाशक पेय हमारी आँतो को, मस्तिष्क को, नाड़ी-तन्तुओं को भी कितनी हानि पहुँचा सकता है। इसलिये हमें लाभदायक भोजन करने की आदतों पर जो़र देना चाहिये और उनके बारे में प्रचार कर के दूसरों को भी सावधान करना चाहिये।
आज का समय ३० साल पहले के समय से कहीं अधिक अच्छा है। ३० साल पहले जब हमने यह पहल की थी तब लोग शाकाहारी भोजन व आध्यात्म के प्रति बहुत उदासीन थे, परंतु आज वही चीज फ़ैशन बन गयी है, क्योंकि अब हमने इसे लोगों के बीच एक प्रवृति बना दिया है और हम इसको धारा स्वरुप चलायमान रखते हैं।
प्रश्न : मैं आपकी सेवा में लगना चाहता हूँ, किस जगह जाऊँ?
श्री श्री रवि शंकर : यहाँ बहुत से अवसर हैं। बैड अंतोगस्ट में ही बहुत लोगों की जरूरत है जो यहाँ के आश्रम में रह कर मदद करना चाहें, कर सकते हैं। अन्य जगह भी हैं।
प्रश्न : मैं दो व्यक्तियों के बीच चुनाव की दुविधा में हूँ। इनमें से एक मेरे बच्चे का पिता है किंतु मैं उसके साथ एक स्त्री के रूप में सुखी नहीं हूँ, और दूसरा जो व्यक्ति है वह मुझे अच्छा लगता है। इनमें से किसका चयन करूँ? क्या मुझे बच्चे के संरक्षण हेतु उसके पिता के साथ रहना चाहिये या मुझे अपने दिल के रास्ते पर चलना चाहिये?
श्री श्री रवि शंकर : यह तो बड़ा मुश्किल सवाल है! यह तुम्हारे बच्चे की उमर क्या है, इस पर निर्भर करता है। और यदि बच्चे को दोनों माता-पिता का प्यार और संरक्षण चाहिये, तो तुम्हें पहले उस ओर ध्यान देना चाहिये। बाल अवस्था जीवन का बहुत कीमती व महत्वपूर्ण समय होता है। इसके लिये हमें, जब बालक का विकास हो रहा है, तब अपनी निजी इच्छाओं का भी त्याग करना पड़े तो करना चाहिये। इसलिये तुम्हारा अपने परिवार को बचाना हितकर है और यही तुम्हारा सर्व प्रथम उद्देश्य होना चाहिये। इसके लिये तुम्हें कई प्रलोभनों को, कई निजी इच्छाओं को त्यागना पड़ सकता है, हाँ?
प्रश्न : अपनापन और सात्विक शक्ति को कैसे बढ़ायें जिससे अधिकतम लोगों को इस पथ पर ला सकें?
श्री श्री रवि शंकर : यह सवाल को मैं आप लोगों के लिये ही छोड़ता हूँ। अपने आप से पूछते रहो यह सवाल, समय समय पर इसका जवाब आपको मिलेगा तब लोगों को शांत और सुखी करने के लिये उनका इस्तमाल करते जाना। जिसे हम सात्विक शक्ति कह रहे हैं यहाँ, वह क्या है? वह है सांमजस्य - तुम्हारे भीतर और अपने आसपास में लय महसूस करना।
प्रश्न : प्रिय गुरुजी, मुझे शादी नहीं करनी है, पर अकेले रहना भी बहुत कठिन लग रहा है। साथ में बातचीत या काम करने के लिये कोई भी ना होने पर अधिक समय फ़िर टी.वी. देखने में चला जाता है। मैं इस स्थिति को कैसे संभालूं और क्या करूँ?
श्री श्री रवि शंकर : हाँ, जो अकले रहते हैं, उन्हें ये मुश्किलें आयेंगी ही। इसी कारण आश्रम बनाये गये हैं जहाँ कई लोग मिलकर रहते हैं, हर दिन सत्संग में सामुहिक रूप से भाग लेते हैं और व्यस्त रहते हैं। तुम भी कोई प्रोजेक्ट लेकर कार्य शुरु कर सकते हो। फ़्रांस में भी बहुत मदद की जरूरत है, तुम भी फ़्राँस की टीम के साथ जुड़ सकते हो।
प्रश्न : क्या क्रोध अहंकार के साथ जुड़ा होता है? हिन्दू कथाओं में कई ऋषियों को बहुत क्रोधी बताया गया है। इससे उन की मन की शांति पर क्या असर पड़ा?
श्री श्री रवि शंकर : बहुत नहीं, एक ही ऋषि अपने क्रोध के कारण प्रसिद्ध थे पर उनका गुस्सा भी लोगों के लिये लाभदायक सिद्ध होता था। इसलिये मैं कहता हूँ कि एक ज्ञानी का गुस्सा भी लाभदायक होता है और एक मूढ़ का प्रेम भी हानिकारक होता है।
अब देखो, कोई अज्ञानी, अनपढ़ माता अपने बच्चों को स्कूल जाने से रोकती है क्योंकि बच्चे स्कूल जाते वक्त रोते हैं। बच्चे कहते हैं हमें स्कूल नहीं जाना, नहीं पढ़ना है, तो वह मान जाती है। तो यह उसका बच्चों के प्रति अंधा प्रेम, उसकी मूर्खता है जो उसके बच्चों के हित में नहीं है, है कि नहीं ? इसलिये मूर्ख का प्रेम हानिकारक होता है पर संत, मुनियों का गुस्सा भी लाभदायक होता है।
भारत में कई कहानियां प्रचलित हैं एक क्रोधी ऋषि की जिनका नाम था दुर्वासा। कोई बहुत गुस्से वाला होता है तो लोग कहते हैं, ‘ओह! वह दुर्वासा है।’ तो दुर्वासा का मतलब हो गया जो थोड़ी सी बात पर भी क्रोधित होता हो, थोड़ी सी बात का बतंगड़ बना देता हो, पर जल्द ही सामान्य स्थिति में भी लौट सकता हो! इसको दूसरी तरह से कह सकते हैं कि गुस्सा आया तो इतनी ग्लानि मत करो, ऋषियों को भी गुस्सा आता था, तो आत्मग्लानि कर के अपने आप को परेशान मत करो। सत्य तो यह है कि आत्मज्ञान होने के लिये किसी शर्त की आवश्यकता नहीं है। क्या है? आत्मज्ञान के लिये कोई शर्त नहीं है। और एक बात, कि इसके लिये कोई खास अवस्था होना जरूरी नहीं, सो क्रोध भी किसी अवस्था में हो सकता है। और कभी कभी क्रोध भी लाभदायक साबित हो सकता है।
शेष अंश अगली पोस्ट में!!
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