परम पूज्य श्री श्री रविशंकर जी के द्वारा
हमारा जीवन
तीन गुणों से नियंत्रित होता है - सत्व, रजस और तमस।
जब सत्व
की वृद्धि होती है तो सजगता, ज्ञान, बुद्धि, प्रसन्नता, आनंद, समता, शांतता इन सब की
जीवन में वृद्धि होती है। जब रजस की वृद्धि होती है तो अशांतता, इच्छा और तृष्णा
की शुरूआत होती है। यह कुछ हद तक अपने साथ दुःख को भी लाती है। जब तमो गुण बढ़ता है
तो उदासी, निद्रा, आलस, निरूत्साह आता है।
जीवन में
यह तीन गुण चलते रहते हैं। एक ही दिन में कुछ समय आप महसूस करते हैं कि सत्व गुण बढ़
गया है या किसी प्रहर में तमो गुण बढ़ गया है और किसी समय में रजो गुण बढ़ गया है।
क्या आपने इस पर ध्यान दिया है?
जब आप ध्यान में बैठे हैं तो भी कुछ क्षण सत्व गुण के आयेंगे और आप बहुत अच्छा
महसूस करेंगे। और कुछ ही क्षणों उपरांत रजो गुण के उपरांत तमो गुण आ जायेगा और आप अपनी
ऊर्जा में बदलाव महसूस करेंगे। इसका उल्टा भी हो सकता है। कभी-कभी तमो गुण आ जाता है
और जब आप उससे निकल जाते हैं तो सत्व गुण बढ़ जाता है। फिर आप अच्छा महसूस करते हैं।
इसीलिये
जब ऐसी बातें जीवन में होती हैं तो ज्ञानी व्यक्ति इसके कारण लड़खड़ाता नहीं है। जब
तमो गुण या सत्व गुण आता है तो भी वह शांत रहता है। वह सारी बातों को वैसे ही रहने
देता है जैसे कि वे हैं और वह अपने आप को उनसे परे देखता है। सिर्फ इसे जानकर वह शांत
साक्षी की तरह इस बढ़ते हुए और गिरते हुए सत्व गुण, रजो गुण और तमो गुण को देखता है। वह यह भी
जानता है इनमें से किसी गुण की उपस्थिति उसके मन के अवस्था पर प्रभाव डालेगी इसीलिये
वह अपने मन का स्नान उनसे करवाता है। अपने स्वयं में इस आस्तित्व का परिष्कार करने
के लिये यह आवश्यक है कि हम अपने मन का स्नान करवायें।
जब आप बाहर
जाते हैं तो अच्छे वस्त्र पहनते हैं। जो वस्त्र आप पहनते हैं वह या तो नये हो सकते
हैं या अच्छे इस्त्री किये हुये हो सकते हैं, दोनों ही अवस्था में आप उन्हें बाहर पहनकर
जाते हैं। उसके बाद क्या होता है?
वस्त्र गंदे हो जाते हैं और आपको उन्हें फिर से धोना पड़ता है। उसी तरह आप स्नान
करते हैं और अपने शरीर पर इत्र लगाते हैं। इत्र की सुगंध कितनी देर रहेगी? वह सिर्फ कुछ ही देर के लिये रहेगी।
फिर आपको दूसरे दिन फिर से स्नान करना पड़ता है। आपको अपनी स्वच्छता बरकरार रखने के
लिये निरंतर स्नान करना पड़ता है।
हमारा मन
इसी के समान है। जैसे हम अपने शरीर को स्नान देते हैं, आपको अपने मन को
भी स्नान देना चाहिए। कभी-कभी आपको उसी शाम को दोबारा स्नान करना पड़ता है। यदि गर्मी
का मौसम है तो आपको दो से तीन बार स्नान करने की आवश्यकता पड़ती है। यदि ठंड का मौसम
है तो दूसरे दिन ही स्नान करना पर्याप्त है।
कोई यह
नहीं कहता कि वे सिर्फ तभी स्नान करेंगे जब वहां अस्वच्छता है। कोई भी बार-बार यह नहीं
सोचेगा कि उसे स्नान करना है कि नहीं। यदि हम सुगंध ले रहे हैं या नहीं, यदि हमारा शरीर स्वच्छ या अस्वच्छ
है, फिर भी हम प्रतिदिन
स्नान करते हैं। उसी तरह कोई भी यह नहीं देखेगा कि कपडे गंदे हो गये हैं और उनको धोने
की आवश्यकता है। हम सारे वस्त्र के गंदे होने का इंतजार नहीं करते कि फिर उसे धोने
के बारे में विचार करें।
ऐसी कल्पना
करें कि आपके हाथ में मिट्टी लग गई है और उस पर डामर चिपक गया है। तो क्या आप बैठकर
रोने लगते हैं? नहीं। आप
तुरंत जाकर साबुन लगाकर अपना हाथ साफ कर लेते हो। यदि गंद काफी कठोर है और आसानी से
नहीं निकल रही है तो आप घिस घिस कर हाथ को साफ करते रहेंगे। फिर आपको इस बात का संतोष
हो जाएगा कि आपके हाथ स्वच्छ हैं। ऐसी कल्पना करें कि आपके हाथ गहरे रंग या डामर से
रंग गये हैं और रंगों को निकलने में दो दिन का समय लग रहा है तो भी आप उसको साफ करने
का प्रयास करते रहेंगे। और आप उसे छोड़ नहीं देंगे। और इसकी वजह से आप अपने मन की शांति
को समाप्त नहीं करेंगे।
उसी तरह
हमें निरंतर हमारे मन की गदंगी को साफ करने की आवश्यकता होती है। मन उसी तरह से बना
हुआ होता है जहां पर ध्यान मदद करता है। वह मन को स्वच्छ रखने में सहायक है। मन में
हर समय खुशी और उदासी आती रहती है और वह उत्पन्न होते हुए चली भी जाती है। थोड़ी देर
बैठ जाएँ और कुछ समय के लिए ध्यान, प्राणायाम, भजन और प्रार्थना करें। अब मन पर ध्यान दें तो आप यह पायेंगे
कि वह धुल गया है और फिर से स्वच्छ हो गया है। ध्यान के द्वारा पूर्व के सारे क्रोध
और पूर्व की घटनाओं से निकला जा सकता है। ध्यान से इस वर्तमान क्षण को स्वीकार किया
जा सकता है और हर क्षण को गहराई के साथ जीया जा सकता है।© The Art of Living Foundation