०१.०२.२०१२
प्रश्न : अर्घ्य (सूर्य को जल अर्पित
करना) का क्या महत्त्व है?
श्री श्री
रविशंकर :
जल प्रेम का प्रतीक है। वास्तव में, संस्कृत में तो यह प्रेम का समानार्थक शब्द है।
‘आप’ का अर्थ है – जल और इसका अर्थ प्रेम भी है। इसीलिये जो भी आपके बहुत करीब
होता है, उसे आप क्या कहते हैं? ‘आप्त’ अर्थात बहुत प्रिय। आप और आप्त बहुत ही निकट हैं।
अत:, जल
अर्पित करना महत्त्वपूर्ण नहीं है, महत्त्वपूर्ण है सूर्य से जुड़ाव को अनुभव करना।
पहले लोग जल
को हाथ में लेकर रखते थे और धीरे धीरे जल को हाथ से प्रवाहित होने देते थे, और
उतने समय तक सूर्य को टकटकी लगा कर देखते रहते थे। आप सूर्य की ओर देखें, टकटकी
लगायें और जल को बहने दें। आपके लिये समय का ज्ञान होना आवश्यक है। जल के बहने में
दो या तीन मिनट का समय लगेगा। उस समय तक आप सूर्य को निहारते रहें और जल को बहने
दें और आप देखेंगे कि आप का शरीर ऊर्जा से भर गया है। इसके पीछे यही तकनीक थी। सूर्य को इस तरह से जल न देने पर
इसका लाभ नहीं होगा।
प्रश्न :
गुरुजी, आप कहते हैं कि ब्रह्मांड प्रकृति व परमात्मा के मेल से बना है। परमात्मा की
बात करें तो वह पूर्ण आनंद है, तो फिर उन में यह ‘संकल्प’ कैसे जाग सकता है?
श्री श्री
रविशंकर : हाँ,
उपनिषदों में कहा गया है कि पहले केवल परमात्मा थे और उन्हें लगा कि वे अकेले हैं,
एक हैं और उन्होंने अनेक बनना चाहा
और वो अनेक बन
गये। विचार अपने आप ही सच बन गया ‘एकोहम बहुस्वयम’।
संकल्प कोई व्यतिक्रम
नहीं है। इसे व्यतिक्रम नहीं माना जा सकता। जब एक साधक तुच्छ मन से विशाल मन की ओर
बढ़ता है तो उसे संकल्प बाधा प्रतीत होता है। परंतु एक विशाल मन के लिये यह आगे
बढ़ने की सीढ़ी है। इसलिये, यदि आप यह सोचते हैं कि परमात्मा में संकल्प क्यों जागा
और उसे निर्विकल्प रहना चाहियेतो ऐसा नहीं है। संकल्प भी परमात्मा है, निर्विकल्प
भी वो हैं और विकल्प भी वो ही हैं। जैसे कि एक सागर में लहरें अपने आप उठती हैं,
परमात्मा में, अनेक बनने का विचार उठा, और वो अनेक बन गये। भिन्न-भिन्न प्रकार की
प्रकृति, भिन्न-भिन्न प्रकार के लोग और विभिन्न प्रकार के ज्ञान की रचना हुई।
परसों मैं धरती
के सृजन के विषय में ‘नैशनल ज्योग्राफिक चैनल’ पर देख रहा था। इसमें बताया गया कि ४०० अरब वर्ष पूर्व केवल गैस ही थी। गैस ने घूमना शुरु किया और
आग प्रकट हुई। फिर आग से पानी निकला और तब धरती बनी।
मुझे अचानक
अहसास हुआ, “ओह यह तो वेदों में बताया गया है!
इन्होंने नया क्या कहा?”
हमारे वैदिक
ज्ञान में इसे श्लोक के रूप में कहा गया है; अंतरिक्ष में पहले वायु थी,वायु से
अग्नि प्रकट हुई, अग्नि से जल और जल से धरती का निर्माण हुआ। सूर्य (अग्नि) को जल
देने के पीछे यह विचार है कि हम स्वयं तक वापिस जायें। जल से अग्नि तक, अग्नि से
वायु तक। और फिर सूर्य को अर्घ्य देने के बाद हम प्राणायाम करते हैं और वायु तत्व
तक पहुँच जाते हैं। वायु से हम अंतरिक्ष में चले जाते हैं और फिर ध्यान लग जाता है।
ये सब तरह तरह
की कथायें हैं; जिनका गहराई से अध्ययन करने पर कुछ नया ही समझ आता है।
प्रश्न : कहा
जाता है कि हमें अपने स्वर्गीय माता-पिता की तस्वीरें उन देवी-देवतायों की
तस्वीरों के साथ नहीं लगानी चाहिये, जिनकी कि हम पूजा करते हैं। कुछ लोग तो यह भी
कहते हैं कि हमें स्वर्गीय माता-पिता की तस्वीरें घर की दीवारों पर भी नहीं टाँगनी
चाहिये। क्या यह सच है?
श्री श्री
रविशंकर :
नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है। आप अपने स्वर्गीय माता-पिता की तस्वीरें देवी-देवतायों
की तस्वीरों के साथ रख सकते हैं। यदि कोई सन्यासी है तो उसकी तस्वीर भी देवता की
तस्वीर के साथ रखी जा सकती है। यदि कोई गृहस्थ जीवन जी रहा होता है, तो, हम उसकी
तस्वीर नहीं रखते, ऐसा रिवाज़ है।
प्रश्न :
गुरुजी, कृपया कष्ट के कारण के विषय में बतायें।
श्री श्री रविशंकर
: ठीक है,
मान लीजिये मैं आपसे कहूँ कि आज रात को आपको पाँच मसाला डोसा खाने हैं, तो आपका
क्या होगा?मान लीजिये आपको जबरदस्ती पाँच मसाला
डोसा या बीस पूरी खिला दी जायें, तो आपका क्या होगा?
सबसे पहले तो
आपको कष्ट होगा। आज रात को आप सो नहीं पायेंगे, ठीक? इससे
सिरदर्द, पेटदर्द और फिर, सब प्रकार के दर्द होंगे।
प्रथम, जब हम
प्रकृति के नियमों का उल्लंघन करते हैं, तो हम कष्ट पाते हैं। दूसरा है-अज्ञान।
यदि आप जानते ही नहीं कि आप क्या खा रहे हैं और आप कुछ गलत चीज़ें खा लेते हैं, तो
भी आपको कष्ट झेलना पड़ेगा, ठीक? तीसरा है, यदि आपने पूर्व
में, अपने पूर्व जन्म में, किसी समय किन्हीं नियमों का उल्लंघन किया है, तो वो कुछ
कर्म भी आ सकते हैं। इस तरह, कर्मजा, अज्ञानजा और प्रज्ञापराध; ये तीन चीज़ें कष्ट
लाती हैं। अज्ञान को कैसे मिटायें? ज्ञान से और
समझ से; जैसा कि आप प्रश्न पूछ के कर रहे हैं।
प्रश्न : सच
में क्षमा किस प्रकार करें?
श्री श्री
रविशंकर :
सच में?क्या कोई झूठी क्षमा भी होती है? मैं झूठी क्षमा के विषय में नहीं जानता। मैं केवल सच्ची क्षमा
के विषय में ही जानता हूँ। क्षमा अर्थात क्षमा, बस। जो गया सो गया, लोग गलतियां
करते हैं, बस खत्म। आगे बढ़िये।जानते हैं क्यों कुछ लौट के आता है, कुछ सुखों से
आपके मोह के कारण। यह दूसरे की गलती नहीं है। मान लीजिये आपको कोई सुख मिला, किसी
ने आप को कोई खुशी दी, और फिर उसने आपको धोखा दिया या फिर उससे कोई गलती हुई, आप
उसकी वह गलती क्षमा कर सकते हैं, पर सामने आ जाती है| उस सुख के लिये आपकी चाह। जब आप समझ जाते हैं कि यह केवल
भ्रम है तो आप केंद्रित हो जाते हैं।
प्रश्न :२०१२ के
विषय में विशेष क्या है?
श्री श्री
रवि शंकर:
आप जानते हैं कि हमारे लिये तो हर दिन, हर साल विशेष है।
हिन्दू
कैलेंडर के अनुसार, अगले वर्ष को ‘नंद’ कहते हैं। ‘नंद’ अर्थात प्रसन्नता। ‘आनंद’ का वर्ष।
पिछला वर्ष जो
कि २३ मार्च को खत्म हो जायेगा, को ‘खरा’ कहते हैं। ‘खरा’ अर्थात पक्का, निश्चय ही। इससे पहले अनिश्चय का वर्ष था और
यह निश्चितता का, विश्वास का वर्ष है। अगला वर्ष आनंद का होगा।
प्रश्न :
सुख-दु:ख की अनुभूति आत्मा को होती है अथवा मन को?
श्री श्री
रविशंकर :
केवल मन को अनुभूति होती है। सभी अनुभव मन के ही होते हैं। आत्मा का अनुभव भी मन
के स्तर पर होता है। जब मन शांत होता है, तभी आत्मा की अनुभूति होती है| आत्मा तो केवल प्रसन्नता का स्वरूप है।
दु:ख की
अनुभूति मन को होती है। जब मन विलीन हो जाता है तो केवल प्रसन्नता की अनुभूति होती
है।
प्रश्न : मन
और आत्मा की सीमा क्या है? मन कहाँ तक है और आत्मा कहाँ
से शुरु होती है?
श्री श्री
रविशंकर :
बिल्कुल सागर और लहरों की तरह। जिस प्रकार, सागर में लहरें होती हैं, वैसे ही मन
आत्मा में होता है। मन कोई अलग तत्व नहीं है। यह सागर की लहर है। यह थोड़ा ऊपर उठता
है और फिर शांत हो जाता है, फिर उठता है और फिर शांत हो जाता है।
प्रश्न :
गुरुजी, कुछ लोगों को जीवन भर ही कष्ट क्यों भोगना पड़ता है? कुछ लोग गन्दी बस्तियों में पैदा होते हैं और कष्ट पाते रहते
हैं, जबकि कुछ अच्छे घरों में पैदा होते हैं और अरामदायक,सुखी जीवन जीते हैं? मैं जानना चाहता हूँ। मैं दूसरों को और खुद को कष्ट पाते हुये
देख रहा हूँ।
श्री श्री
रविशंकर :
क्या आप कष्ट पा रहे हैं? मुझे बतायें कि क्या यह आपका
कष्ट है या दूसरों का? उत्तर : मैं भी कष्ट पा रहा
हूँ।
आप भी? पर आप तो मुस्कुरा रहे हो! आपके चेहरे को देख कर ऐसा नहीं
लगता कि आप बहुत कष्ट में हो। बस इसी की आवश्यकता है! जब आप साधना कर रहे होते
हैं, तो आपको अपने चेहरे पर प्रसन्नता दिखाई नहीं देती क्या? आप कठिनाई के समय भी मुस्कुराते रहते हैं, यही जीवन है।
हर कष्ट जाने
के लिये आता है। जितनी जल्दी यह आता है, उतनी जल्दी ही चला जाता है। कोई भी समस्या
सदा के लिये नहीं रहती। यह आती है और चली जाती है।
प्रश्न : गुरुजी,
पुनर्जन्म होता है क्या?
श्री श्री
रविशंकर :
बिल्कुल।
प्रश्न : गुरुजी,
आपका प्रिय शिष्य बनने के लिये मुझे क्या करना होगा?
श्री श्री
रविशंकर :
जो आप कर रहे हैं, वही करते रहें, बस, आप पहले से ही मुझे प्रिय हैं! सेवा कीजिये,
साधना कीजिये, सत्संग में आते रहिये, शिक्षक बन जाइये। दूसरों का भला कीजिये।
मेरा शिष्य
होने का अर्थ ही है मेरा प्रिय होना। प्रिय या अप्रिय शिष्य कुछ नहीं होता, समझे?
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