श्वास को जाने, जीवन को जाने!!!


परम पूज्य श्री श्री रविशंकर जी के द्वारा
हमारी श्वास में काफी सारे रहस्य समाये हुए हैं, क्योंकि मन की सभी भावनाओं के लिए श्वास की एक अनुरूप लय होती है और हर लय शरीर के कुछ अंगों पर भौतिक स्तर पर प्रभाव डालती है। आपको उसे महसूस करने के लिए सिर्फ उसका अवलोकन करना होता है। उदाहरण के लिए जब हम खुश होते हैं तो हम फैलाव का भाव महसूस करते हैं और जब हम दुखी होते हैं तो हम संकुचन का भाव महसूस करते हैं। जब कि हम खुशी या दुख और अनुभूति को महसूस करते हैं परन्तु हम उसके संबंध का अवलोकन करने में विफल रहते हैं। जो फैलता है उसे समझना ज्ञान है। वह क्या है? यह ज्ञान, यह चेतना की खोज, ही जीवन का अध्ययन है, जो प्राण का अध्ययन है और आयुर्वेद का अध्ययन है।
क्या आपने यह गिना है कि एक मिनिट में आप कितने बार श्वास लेते हैं? श्वास जीवन का पहला कार्य होता है और वही जीवन का अंतिम कार्य भी है। इसके मध्य में सारा जीवन हम श्वास ले रहे हैं और उसे छोड़ रहे हैं परन्तु हम श्वास के प्रति ध्यान नहीं देते हैं।
शरीर की ९० प्रतिशत अशुद्धि श्वास के द्वारा निकलती है क्योंकि हम दिन में पूरे २४ घंटे श्वास लेते हैं। यद्यपि हम अपने फेफड़ों का सिर्फ ३० प्रतिशत क्षमता का उपयोग करते हैं। हम अधिक श्वास नहीं ले रहे हैं। यह देखे कि मन एक पतंग के जैसे है और श्वास उसकी डोर है। मन को उच्च होने के लिए श्वास का लंबा होना आवश्यक है। आपको प्रोजाक (चिंता और उदासी की औषधि) लेने की आवश्यकता नहीं है यदि आप श्वास का ध्यान रखते हैं।
एक मिनिट में हम १६ से १७ बार श्वास लेते हैं। यदि आप परेशान हैं तो श्वास एक मिनिट में २० बार हो सकती है, यदि आप अत्यंत चिंतित और क्रोधित हैं तो यह २५ बार भी हो सकती है। यदि आप शांत और प्रसन्न हैं तो दस बार और यदि आप ध्यान में हैं तो दो से तीन बार।
गहरा ध्यान आप जो श्वास लेते हैं उसकी संख्या को कम कर सकता है। यदि आप किसी शिशु को गौर से देखें तो आप को आश्चर्य होगा कि वे कितनी संतुलित श्वास लेते हैं। वे अपने शरीर के तीनों भागों से श्वास लेते हैं। जैसे वे श्वास लेते हैं तो उनका पेट बाहर आता है और श्वास को जब वे छोड़ते हैं तो पेट अंदर चला जाता है। परन्तु आप जब बैचेन और तनावपूर्ण हो तो इसका विपरीत होगा। जब आप श्वास को छोड़ेंगे तो आप का पेट बाहर आयेगा और जब आप श्वास को लेंगे तो पेट अंदर चला जायेगा।
इन बातों को सीखने के लिए आपको स्कूल जाने की या किसी से सीखने की आवश्यकता नहीं है, यदि आप का मन तेज है। परन्तु हमारा मन कितनी बातों से चिंताकुल होता है जैसे निर्णय, राय और मन में कोई छाप जिसके कारण हम प्रकृति की इतनी बारीक चीज का अवलोकन और अनुभव करने में असमर्थ हो जाते हैं।
इसलिए हमें अध्ययन करने की आवश्यकता है। शिशु के रूप में हमने योग के आसन किये हैं। क्या आपने एक महीने के शिशु को पीठ के बल पर लेटे हुए पैरों को ऊपर के तरफ करते हुए देखा है। बिलकुल उसी के जैसे जो आप उदरीय यंत्र के साथ करते हैं। फिर वह उलटा लेट कर कोबरे की जैसी मुद्रा बना लेता है। यदि आप किसी शिशु को सोते हुए देखें तो उसका अंगूठा और तर्जनी आपस में जुड़ी हुई होती है और वह चिन मुद्रा के जैसे बना हुआ होता है। यदि आप चिड़ियाघर में जायें तो बंदरों पर ध्यान दें। वे भी कई आसन करते हैं जिससे वे स्वस्थ्य रह सकें। यह बातें शरीर, श्वास, मन और आत्मा में समन्वय स्थापित करता है। आयुर्वेद सम्पूर्ण दृष्टिकोण का ध्यान रखता है। शरीर में कई बिन्दु हैं जिनका विभिन्न अनुभूति से समन्वय होता है परन्तु यह उसका प्रतिबिंब है जो इस सब से परे है। वह कुछ क्या है,? वह जीवन का स्रोत है।
स्वास्थ्य रोग मुक्त शरीर, कम्पन मुक्त श्वास, तनाव मुक्त स्मरण शक्ति, अहंकार है, जिसमें सब कुछ और आत्मा सम्मिलित है और वह दुख से मुक्त हो।


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