प्रश्न : एक दिन आपने पंचतत्व के बारे में बताया था। क्या आप पंचतत्वों के बारे में और प्रकाश डालेंगे?
श्री श्री रवि शंकर : पूर्ण सृष्टि पाँच तत्वों से बनी है।
नदियों का सम्मान करने की एक महान परंपरा रही है। नदी नहीं चाहती कि तुम उसे फूल यां फल दो। ये पूजा का तरीका नहीं है। और नदी में कूड़ा और गंदगी के नाले डाल कर, तुम ये कैसे कह सकते हो कि तुम नदी की पूजा कर रहे हो? पूजा का अर्थ है सम्मान देना। और हम तभी सम्मान दे पाएंगे जब हम नदियों में गंदे नाले, कूड़ा, प्लास्टिक डालना बंद करेंगे। कुछ साल पहले तक, नदी से जल लेकर सीधे ही पी सकते थे। पर आज, किसी भी नदी का जल अपने उद्गम स्थान से १०० किलोमीटर दूर भी पीने लायक साफ़ नहीं है!पहले समय में अपने उद्गम स्थान से हज़ारों किलोमीटर दूर भी नदी का पानी पीने लायक साफ़ हुआ करता था। इस देश में लोग बर्तन साफ़ करने के लिये लकड़ी की राख का प्रयोग करते थे, ना कि साबुन का। हल्दी और दूसरी प्राकृतिक वनस्पतियों का प्रयोग होता था जो कि bio-degradable होती हैं। हम नदियों में बहुत ज़्यादा औद्योगिक कूड़ा डाल रहे हैं। ये जल तत्व के प्रति असम्मान दर्शाता है।
पृथ्वी तत्व का सम्मान करने का अर्थ है कि हम धरती में प्लास्टिक, विषैली खाद और रसायन डाल कर प्रदूषण ना करे। पर्यावरण के लिये सजग होना, पृथ्वी का सम्मान करना है।
फिर वायु तत्व आता है। हमें स्वच्छ ऊर्जा चाहिये। हमने महाराष्ट्र के गाँवों में धूम्ररहित चूल्हों का इंतज़ाम किया है, जो एक बहुत ही सफल प्रयोग रहा। हमे वायु का सम्मान करना है और इसके स्वच्छ वायु के लिये हमें जो भी करने की आवश्यकता हो, करें।
आकाश तत्व है जो कि अमूर्त है। आप आकाश को पकड़ नहीं सकते हैं। जब आप अपने मन को नकारात्मक भावों से बचाते हैं तो आप इर्द गिर्द आकाश को आनंद से भर रहे हैं। तब आसपास की वायु भी आनंदित हो जाती है। तुम एक स्थान को अविश्वास, क्रोध, लालच, और खुदगर्ज़ी से भर सकते हो, यां एक एक ऐसा स्थान बना सकते हो जहाँ मस्ती हो, आत्मविश्वास हो, आपसी समझ हो, अपनापन हो। अगर तुम हर समय गल्तियों के बारे में नकारात्मक भाव व्यक्त करते रहोगे तो तुम इस पृथ्वी पर कहीं भी नहीं जी पाओगे। हर किसी में कोई ना कोई दोष है।
जब हम दूसरों में देखने का प्रयास करते हैं तो हम अपनी कमियों को देखना भूल जाते हैं।
पंचतत्व, सृष्टि का हिस्सा हैं। और इस सुंदर सृष्टि को बनाये रखने के लिये हमे इनका सम्मान करना होगा।
प्रश्न : मैं ऐसी बहुत सी चीज़े पाता हूँ जो मुझे ठीक नहीं लगती। मुझे नहीं पता कि जो मुझे ठीक नहीं लगता, उसे मैं कैसे ठीक करूँ। कृपया मेरा मार्गदर्शन कीजिये।
श्री श्री रवि शंकर : जब तुम कहते हो, ‘ये ठीक नहीं है,’ तो तुम्हारे मन में इस ‘ये ठीक नहीं है’ का बीज घर कर जाता है जो मन को विश्राम नहीं करने देता है। जब तुम बेचैनी को पकड़ कर बैठे हो, तो मन को चैन कैसे आयेगा? जो जैसा है तुम्हें उसे वैसा ही स्वीकार करना होगा। ‘ये ठीक नहीं है, ये ठीक नहीं है,’ तुम्हें बाहर रखता है। जो दोष तुम्हें दिख रहा है वो किसी कारण से है। वो ठीक हो जायेगा, कुछ समय लगेगा।
इस वक्त जो जैसा है, ठीक है। भविष्य में भी वो ठीक होगा। जो भूतकाल में हुआ है, वो भी ठीक था।
जब तुम ये समझ जाओगे, तुम विश्राम कर सकोगे, और उस विश्राम में तुम ध्यान कर सकोगे। जब तुम विराम लेते हो तो ये निवृत्ति है, और जब तुम उस विराम से बाहर आते हो तो वह प्रवृत्ति है। तब तुम कर्म कर सकते हो। जब तुम थके हुये हो और तुम इस बात पर केंद्रित हो कि, ‘ये ठीक नहीं है,’ तब तुम विश्राम नहीं कर सकते हो। जब तुम मस्ती में होते हो, तो क्या कहते हो? ‘सब बढ़िया है!’ नहीं तो तुम मस्त नहीं हो सकते हो, कर्म नहीं कर सकते हो - ये ना प्रवृत्ति है और ना ही निवृत्ति।
ध्यान योग निवृत्ति है। कर्म योग प्रवृत्ति है। बहुत से लोग, ‘ये ठीक नहीं है,’ विचार को पकड़े हुये हैं जिस वजह से वे विश्राम नहीं कर पाते है, जीवन में आनंदित नहीं हो पाते हैं, मस्त नहीं हो पाते हैं। वो व्यक्ति, सरकार, शासन, सब कुछ ठीक नहीं है।’ तब ये तुम्हारे अंदर भी आ जाता है - ‘मैं ठीक नहीं हूँ।’ सूक्ष्म रूप से ये भाव तुम में समा जाता है कि, ‘मैं ठीक नहीं हूँ।’ तब तुम्हें ऐसा महसूस करना अच्छा नहीं लगता है, और तुम उसे छिपाने की कोशिश करते हो, मन में कई सफ़ाइयां गढ़ लेते हो, और मन भ्रमित हो जाता है।
अगर तमोगुण अधिक हो तो तुम प्रवृत्ति यां निवृत्ति नहीं जानते हो। जब सत्व गुण अधिक होता है तो तुम जानते हो कि तुम्हें क्या करना है, कब करना है, कार्य करना है यां नहीं करना है। जब रजोगुण बढ़ जाता है तो ये बीच का बिंदु है - तुम कर्म करते हो और फिर पछताते हो। हम में से कई लोग कर्म करते हैं और फिर पछताते हैं। मां अपने बच्चे को डांटती है और बाद में पछताती है, और फिर बच्चे से अच्छा व्यवहार करती है।
सत्वगुण में तुम पछताते नहीं हो, विराम और विश्राम करते हो, और तुम्हारी सोच एकदम साफ़ और पारदर्शी होती है।
रजोगुण में भ्रम और अस्तव्यस्तता होती है।
तमोगुण में एकदम आलस और कर्म करने की अनिच्छा होती है।
इन तीनों गुणों के बीच कोई गहरी रेखा नहीं है, ये आपस में घुल मिल जाते हैं, और हम एक गुण से दूसरे गुण में सहज ही आ जाते हैं।
प्रश्न : अपने मन की रक्षा कैसे करें?
श्री श्री रवि शंकर : ये बहुत बड़ा काम है। गीता में कहा गया है कि बहुत बुद्धिमान लोग भी भ्रमित हो जाते हैं कि क्या करें और क्या ना करें, और मन को कैसे संभाले। मन की रक्षा करना एक बहुत बड़ा काम है, और इसके लिये हमें ज्ञान की आवश्यकता है। ये देखो कि आज के इस क्षण तक जो भी कुछ हुआ है, वो सब चला गया है!
जागो!
जब तुम प्राण से भरे हुये होते हो तो तुम अचानक ये देखते हो कि सब चला गया है. अभी! जो भी कुछ हो गया, ठीक था। ये सोचो कि अब क्या करना है। कभी कभी जो भी तुम करते हो १००% सफल होता है, कभी ऐसा नहीं भी होता है। एक किसान जानता है कि वो जो बीज उगाता है, उन में से हर बीज अंकुरित नहीं होता है। वो बीज लेकर खेत में बो देता है और ये नहीं सोचता कि ये बीज उगेगा यां नहीं उगेगा।
इसी समय से एक नया अध्याय शुरु हुआ है। हर दिन एक नया अध्याय है। ये जागरूकता बार बार अपने भीतर लाओ। ये पूरा विश्व मेरी ही आत्मा से भरा है। ये सब मैं ही हूँ। एक ही चेतना है। ये एक चेतना एक व्यक्ति के भीतर एक तरह से अभिव्यक्त होती है, किसी दूसरे व्यक्ति से दूसरी तरह अभिव्यक्त होती है। ये एक सागर की लहरों के समान है। अगर ये बात तुम्हें ५ सेकंड के लिये भी समझ आ गयी तो तुम्हारे शरीर और मन में समूल परिवर्तन आ जायेगा। तब तुम अनुभूत करोगे, ‘अहो!’ सब चिंतायें धुल जायेंगी। बस एक सेकंड के लिये ये पहचान लो कि मेरे दुश्मन में भी मैं ही हूँ। मैंने ही ये खेल शुरु किया है। ये समझ लो लेकिन ऐसा करने के लिए मूड बनाने की आवश्यकता नेहीं है।ये समझ केवल निवृत्ति में रखनी है, प्रवृत्ति में नहीं। अगर हम व्यवहार में अद्वैत को ले आयेंगे तो इससे भ्रम और बढ़ेगा। प्रवृत्ति में हम द्वैत को देखते हैं। द्वैत के बिना मानव शरीर धारण करना असंभव है। कितनी प्रवृत्ति और कितनी निवृत्ति होनी चाहिये ये एक नाज़ुक विषय है। जब प्रवृत्ति अधिक हो जाती है तो नकारात्मक भाव बढ़ जाता है और व्यक्ति को निवृत्ति में जाने को कहा जाता है।
प्रश : मैं एक नया काम हाथ में ले रहा हूँ। कृपया मुझे आशीर्वाद दीजिये।
श्री श्री रवि शंकर : मैं बिना किसी रोक के बहुत आशीर्वाद देता हूँ। ये तुम पर है कि तुम कितना लेना चाहते हो। यहाँ बहुत पानी है। तुम्हारे पात्र की जो क्षमता है, तुम उतना ही ले पाओगे।
प्रश्न : गुरुजी, यहाँ पर इतनी संदर गौशाला है, वहाँ जाकर ऐसा लगता है मानो प्राचीन भारत में आ गए हों। पर अन्य जगह हम देख रहे हैं कि गायें विलुप्त होती जा रही हैं। हमे क्या करना चाहिए?
श्री श्री रवि शंकर : प्रति १००० व्यक्ति पर हमारे पास १२० गायें रह गयी हैं। १२० गायें १००० व्यक्तियों के लिये पर्याप्त दूध नहीं दे सकती। जब भारत आज़ाद हुआ था तब १००० व्यक्तियों के लिये ४५० गायें थी। अब ये संख्या गिर कर १२० हो गयी है। दो-तीन सालों में से संख्या २० हो जायेगी। ये आज की आवश्यकता है कि गायों की रक्षा की जाये। लोगों को इस बारे में जागरूक होना चाहिये, नहीं तो भारत के लोग दूध, दही, घी की कमी झेलेंगे। हमें गायों का संरक्षण करना होगा।
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