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अपनी युवावस्था में ही श्री श्री को वैदिक ज्ञान पर विचार विमर्श करने के लिए विश्व के विभिन्न हिस्सों से निमंत्रण मिलने शुरु हो गए थे। श्री श्री ने यूरोप के विभिन्न विश्व विद्दालयों में जाकर कई विद्वान और प्रोफ़ेसरों से मुलाकात की। ऐसे ही एक उपलक्ष पर जर्मन विश्वविद्दालय ने श्री श्री को आमंत्रित किया, जहाँ उनकी लाइबरेरी में संस्कृत में कई पुस्तकें थी और वे चाहते थे श्री श्री उनके विषय पर रोशनी डालें। श्री श्री ने इसके लिए भारत से संस्कृत विद्वानों को इसका भाग बनाने का निर्णय लिया। भारत आकर उन्होने संस्कृत के विद्वानों की खोज शुरु की। पर उन्हे रूढ़िवादी विद्वानो में वैज्ञानिक दृष्टिकोण की कमी लगी। इस कमी को पूरा करने के लिए उन्होने एक कमेटी बनाई जिसमें संस्कृत के निपुण पंडित समाज के सम्मानित जनों, जैसे भारत के पिछले चीफ जस्टिस वी र कृष्ण अय्यिर, जसटिस पी एन भगवती, चीप्फ़ सेक्रेटरी नरसिम्हा राओ और बैंगलोर मुन्सिपल कोर्पोरेशन की पिछली अध्यक्षा एन लक्ष्मी राओ शामिल थे। कमेटी का लक्ष्य विज्ञान और वेदों का पुन: उत्थान था। इसी आधार पर गुरुजी की दृष्टि को आगे बढ़ाने के लिए १९८१ में बैंगलोर के कुछ सम्मानित लोग और गुरुजी के पिता श्री र एस वी रत्नम ने मिलकर वेद विज्ञान महा विद्दापीठ की स्थापना की। १९८५ में वेद विज्ञान महा विद्दापीठ ने बनेरघट्टा रोड पर १०० एकड़ उपजाऊ भूमि के लिए अर्ज़ी दी। गुन्डु राओ, बैंगलोर के मुख्य मंत्री बनेरघट्टा में ज़मीन देने के लिए माने। आगे चलकर यह मालूम पड़ा कि वो भूमि इस्लामिया संस्था को दे दी गई है। फिर मुख्य मंत्री ने कनकपुरा रोड के पास भूमि दी।
यह भूमि बंजर ज़मीन दी जहाँ केवल पत्थर ही थे। वही धरती जहाँ कोई पेड़-पौधा नहीं था, आज एक हरे-भरे और खूबसूरत आश्रम में परिवर्तित हो गई है, और यहाँ देश-विदेश से हज़ारों लोग आकर जीवन में आनंद और शांति का अनुभव करते हैं। भूमि के बंजर होने के बावजूद भी VVMVP तीस वर्ष की अवधि के लिए पट्टे पर इसे लेने के लिए सहमत हुए। पूर्ण भुक्तान करने के बावजूद भी भूमि का अधिकार प्राप्त करने के लिए VVMVP को दो वर्ष इंतज़ार करना पड़ा। इस दौरान कुछ स्थानीय लोग अवैधिक ढंग से घुस आए, और जब तक अधिकारियों ने इस भूमि का अधिकार दिया केवल २४ एकड़ भूमि ही बची थी। जब अधिकारी इन लोगों को हटाने के लिए पहुँचे तो गुरुजी ने न केवल उन अवैधिक वासियों को वहाँ रहने की अनुमति दी, बल्कि उन्हें उस जगह की ज़मीन का वैधिक अधिकार लेने की भी अनुमति दी!तत्पश्चात संस्था ने सरकार से बाकी बची जमीन देने की बात की जिसके फल स्वरूप १९९५ में अधीकार रूप में १९.५ एकड़ ज़मीन आश्रम के बाहर सरकार से मिली, और यह भी बन्जर पहाड़ की जमीन थी। आज भी संस्था को १९८५ में दी जाने वाली निर्धरित पूरी ६० एकड़ जमीन हासिल नहीं हुई है और बची १६.५ एकड़ जमीन मिलना अभी भी बाकी है।
आश्रम के पास कोई स्कूल न होने से गुरुजी ने वहाँ आस पास के ग्रामीण वासियों के लिये एक स्कूल खोला और ग्राम वासियों के लिए एक पानी का टैंक भी बनवाया । इस स्कूल में दसवीं कक्षा तक पढ़ने के लिये नि:शुल्क शिक्षा दी जाती है और करीब २००० बच्चे पढ़ रहे हैं। गुरुजी के आदेश पर आश्रम की ओर से पास के गांव वालों की झोपड़ियों के बदले उनके लिये शौचालय समेत पक्के मकान बनवाये गये हैं।
उदिपालिया सबसे पहला गाँव था जहाँ आर्ट ऑफ़ लिविंग ने अपना सामजिक सेवा कार्य शुरु किया। अब तो संस्था के स्वयं सेवक देश भर में और अन्य अंडर डेवेलप्ड व प्रगतिशील देशों में हज़ारों गावों मे पहुँच कर कार्य कर रहे हैं। आश्रम की गतिविधियों से आश्रम के आस पास की जगह को स्थानिय आर्थिक लाभ भी हुआ है। पर गुरुजी के मुताबिक ये सब सागर में एक बूंद समान है, अभी तो बहुत और करना बाकी है।
आजकल आश्रम द्वारा गरीबों की जमीन हड़पने के बारे में कुछ कहानियाँ प्रसारित कराई जा रही हैं, इसलिये संस्था आश्रम के अधिकार में ज़मीन के हर भाग के बारे में बताने का अपना कर्तव्य समझती है। गुरुजी ने ही अवैधिक रूप से रहने वाले गाँव वालों को वैधिक तरीके से उनके नाम जमीन कराने में सहयता की थी। संस्था ने ८ एकड़ जमीन आश्रम के पास झील के किनारे रहने वालों से खरीदी थी जो वहाँ मुर्गीखाना बनाना चहते थे।
कर्नाटक फ़ाइनेन्शियल कोर्पोरेशन ने आश्रम के पास उत्तर में जो जमीन थी उसे दो बार नीलाम किया था और हमारी संस्था की बोली मानी गयी थी। इसका किन्हीं गोपाल कृष्ण और आरती कृष्ण ने विरोध किया, और अदालत में भी इस खरीदारी के खिलाफ़ आवाज़ उठाई, पर दोनों अदालतों (हाई कोर्ट व सुप्रीम कोर्ट) में उनकी याचिका खारिज़ हुई।
२००५ में आर्ट ऑफ़ लिविंग के २५ वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में उत्सव होने की तैयारियाँ चल रहीं थीं। उत्सव में भाग लेने के लिये लाखों लोगों के बंगलौर में व आश्रम में आने की अपेक्षा थी। इसको देखते हुए आश्रम ने पास में ही रहते विजय नाम के एक व्यक्ति से उसकी १४ एकड़ जमीन खरीदी। यह जाँचने के लिए कि किसी को कोई आपत्ति नहीं है, इस बारे में अखबार में नोटिस भी छपवाये गये थे। इसके बाद ही वो ज़मीन विजय से बाज़ार में चलते भाव में खरीदी गई थी। न्यायिक रूप से ज़मीन हासिल करने के बाद किसी मि. पौल ने जमीन की खरीदारी पर आपत्ति उठाई। उसके मुताबिक विजय के पिता उसके कारोबार में हिस्सेदार थे और पौल के कर्जदार थे।तत्पश्चात एक मि. अग्नि श्रीधर, जो पहले अपराधी गतिविधियों से जुड़े थे, और अब अपनी छोटी समाचार पत्रिका को चलाने और छापने का काम करते हैं, अचानक दलितों का उद्धार करने वाला मसीह बन कर सामने आये! उसने इल्जाम लगाया है कि आश्रम ने दलित विजय की ज़मीन हड़प ली है। असल में विजय एक ब्राह्मण है! और मि. पौल ने जो टी.वी. पर आकर आश्रम द्वारा ज़मीन हड़प लेने की बात कही है बिना सबूत के है, और बेबुनियाद है। हमने तो यह सलाह भी दी थी कि विजय और पौल के बीच जो अनबन चल रही थी, वे उसे शान्ति पूर्वक सुलझा लें। पर हम किसी भी तरह अनैतिकतापूर्ण कार्य करने वालों के दबाव में नहीं आ सकते और अदालत के फैसले का सम्मान करते हैं।
जमीन हड़पने की बात ही कैसे उठ सकती है? हमने सदा ज़मीन खरीदारी, सब तरह की जाँच पड़ताल के बाद बाज़ार में लागू मूल्यों से की है। कर्नाटक में जमीन खरीदारी के लिये कड़े नियम है, और पूर्ण रूप से न्यायिक कार्य होने में समय लगता है। जब तक ज़मीन पंजीकृत होती है, कई वर्ष निकल जाते हैं और दाम भी बढ़ जाते हैं। इसलिये जब बात पक्की होती है और जब ज़मीन हासिल होती है तो कई बार दस गुना बढ़ा हुआ दाम देना पड़ जाता है! जो भी दाम थे, हमने पूरे दाम दिये जमीन के लिये। कभी कभी हमे जमीन खोनी भी पड़ी क्योंकि हम घूस नहीं देते हैं। हाल ही में, आश्रम में अधिक गतिविधियाँ बढ़ने से, ज्यादा लोगों के आने से, रहने की व्यवस्था के लिये जगह की कमी महसूस होती है। इसी कमी को पूरा करने हेतु, कुछ सालों में संस्था और संचालकों ने २२ एकड़ जमीन मि. काशीनाथ से, ८ एकड़ कर्नल सोबती से, १६ एकड़ मि. मधुसूदन बालिगा से, १३ एकड़ मि. शिव कुमर से और १५ एकड़ जमीन विभिन्न किसानों से खरीदी। फ़िलहाल, हम कुछ एकड़ जमीन हमारे आयुर्वेदिक अस्पताल और शैक्षनिक संस्थानों के लिये खरीदने के प्रयास में हैं और इसके लिये न्यायिक कागज़ात और अनुमति आदि अग्रिम कार्यवाही शुरु कर रहे हैं।
संस्था का विकास कोई आसान कार्य नहीं, पर पूरी सफ़लता से कार्य सम्पन्न हुआ है, और सबके लिये एक जीवंत उदाहरण है कि कैसे एक संस्था विद्यमान बाधाओं के होते हुए भी निरंतर विकसित हो सकती है। बिना भ्रष्टाचार और घूस के, और बिना जल्दबाजी किये भी विकास हो सकता है-यह ज्वलन्त उदाहरण हमने अग्रसर हो कर दिया है!
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