बैंगलोर आश्रम, भारत
प्रश्न : मैं कई काम शुरु कर लेता हूँ, पर उन्हें पूरा नहीं कर पाता हूँ। आप मुझे इस स्थिति को सुधारने का कोई उपाय बता सकते हैं?
श्री श्री रवि शंकर : तुम चाहो, तो तुम कुछ भी कर सकते हो। काम पूरा करने की इच्छा तुम्हारे भीतर से आनी चाहिये। इस संकल्प के साथ कि मैं ये काम करूंगा ही। भीतर से किया गया ये संकल्प तुम्हारी सहायता करेगा। समझ गये? ये काम तुम्हारे सिवा कोई नहीं कर सकता है।
तो, छोटे छोटे काम हाथ में लो, और उन्हें पूरा करो । इस तरह तुम में आत्मविश्वास आ जायेगा। इस से तुम बड़े काम करने के लिये तैयार होते हो। तुम्हें पता है कि तुम काम पूरा क्यों नहीं करते हो? क्योंकि तुम उसे महत्वपूर्ण नहीं समझते। पर, जीवन में कुछ भी महत्वहीन नहीं है। हर चीज़ का अपना महत्व है। अगर तुम्हें कोई काम महत्वपूर्ण नहीं लगे, तब भी तुम कहो, ‘मुझे ये काम पूरा करना है, और मैं इसे पूरा करूंगा।’ इस से तुम्हारी पर्तिबद्धता बढ़ेगी।
प्रश्न : कहते हैं कि सिर्फ़ अपने बारे में सोचने से अवसाद हो जाता है, पर महाभारत के युद्ध की शुरुवात में अर्जुन तो दूसरों के बारे में सोच रहा था, तब भी अवसाद-ग्रस्त हो गया था। कृपया इस पर प्रकाश डालिये।
श्री श्री रवि शंकर : अवसाद-ग्रस्त होने का मंत्र है - ‘मेरा क्या होगा? मेरा क्या होगा?’। अर्जुन सोच रहा था कि जो काम उसे करना है वो उसे कैसे करे, और लोग उसके बारे में क्या सोचेंगे। वो अपने बारे में ही सोच रहा था। सिर्फ़ अपने बारे में सोचने से ही नहीं, पर मोह और सही तरह से ना समझ पाने की वजह से भी अवसाद हो जाता है। अवसाद ग्रस्त होने का एक अचूक तरीका है – बिना किसी काम के, खाली बैठना और सोचना, ‘मेरा क्या होगा?’ इस तरह तुम ज़रूर अवसाद-ग्रस्त हो जाओगे।
प्रश्न : गुरुजी, आज एक कार्यशाला में बताया कि अगर तुम्हारे किसी मित्र के मित्र का मित्र खुश है तो तुम भी खुश हो सकते हो। क्या वैदिक शास्त्रों में ऐसा कोई सूत्र है?
श्री श्री रवि शंकर : हाँ! इसका अर्थ है, उदाहरण के तौर पर - जैसे कि अहिंसा को पसंद करना, अहिंसा को अपनाना। जो व्यवहार प्रकृति और परमात्मा तुम्हारे साथ करते हैं, तुम भी करो। कुछ ऐसा करो जिसके बदले में कुछ पाने की इच्छा ना हो।
एक वैदिक प्रार्थना है, ‘मैं सबको मित्रता की दृष्टि से देखूं, और सभी मुझे मित्रता के भाव से देखें।’
प्रश्न : अंधविशवासी होने का क्या अर्थ है? मैं भ्रमित हूँ। कभी कभी मैं इन बातों को मानता हूँ, पर मैं अंधविश्वासी नहीं हूं।
श्री श्री रवि शंकर : तुम कह रहे हो कि तुम अंधविश्वासी नहीं हो, पर उन बातों को मानते हो। अच्छा, पहले ये बताओ कि अंधविश्वास क्या है?
देखो, कई तरह की मान्यतायें होती हैं। किसी को कोई बात अंधविश्वास लग सकती है, पर किसी दूसरे को ऐसा नहीं लगता। पर एक व्यापक दृष्टि से देखें तो जो तर्क-संगत ना हो, मानव की क्रमगत उन्नति में सहायक ना हो, और बौधिक, मानसिक, आध्यात्मिक और शारीरिक रूप से नुक्सान पहुँचाये, वह अंधविश्वास है और उसे मिटाने की आवश्यकता है। दुनिया के कई भागों में अंधविश्वास प्रचलित है।
आध्यात्म और अंधविश्वास, एक दूसरे के विलोम हैं। वे संग में नहीं चल सकते। हमें समाज में आध्यात्मिक गुणों को बढ़ाना है, और अंधविश्वास को घटाना है।
प्रश्न : जीज़स की इस बात का क्या अर्थ है, ‘जो रोटी तुम खाते हो, वो मैं ही हूँ।’?
श्री श्री रवि शंकर : मैंने इस बारे में, ‘Jesus - the embodiment of love’ किताब में बताया है।
प्रश्न : आध्यात्मिक पथ पर सांसारिक सुखों का परित्याग करना पड़ता है, जिससे ऐसा लगता है कि जीवन से खुशी छिन गई है। क्या ऐसा है?
श्री श्री रवि शंकर : नहीं। बल्कि, ये तुम्हें और खुशी देता है।
प्रश्न : अद्वैत शब्द के प्रयोग के बारे में जानना चाहिती हूँ । ‘जो दो नहीं है’ क्यों कहते हैं? इसे ‘एक ही है’ क्यों नहीं कहते?
श्री श्री रवि शंकर : क्योंकि एक को गिन सकने के लिए दो चाहिए।
प्रश्न : पंचतत्वों में पृथ्वी और जल को स्त्रीलिंग बताया है, अग्नि और वायु को पुल्लिंग बताया है। आकाश का क्या लिंग है? ये भेद क्यों?
श्री श्री रवि शंकर : इस के बारे में कई सोच विचार हैं। लोग हर चीज़ में पुल्लिंग और स्त्रीलिंग आरोपित कर देते हैं। पर मानव मन इसी तरह कुछ समझ पाता है। वो इसके आगे नहीं समझता।
प्रश्न : मोक्ष क्या है, और उसे कैसे प्राप्त करें?
श्री श्री रवि शंकर : जिस दिन तुम्हारी छुट्टी होती है तुम्हें कैसा लगता है? वो मोक्ष की एक हल्की सी झलक है। तब भी तुम्हें ऐसा ही लगता है जब तुम्हारे इम्तिहान खत्म होते हैं, और तुम एक राहत के साथ अपनी किताबों को किनारे रखते हो। जब बस में एक लंबा सफ़र करने के बाद तुम अपनी मंज़िल पर उतरते हो, और एक चैन की सांस के साथ अपने आप को हिलाते डुलाते हो तो भी मुक्ति का अनुभव होता है। ऐसे ही जब जीवन में तुम पूर्ण विश्राम पाते हो, जब मन आनंदित और संतुष्ट होता है, उसे मोक्ष कहते हैं।
प्रश्न : ऐसा क्यों है कि मैं Art of living के सेवा कार्यों में अपना १००% दे पाता हूँ, पर पढ़ाई में ऐसा नहीं कर पाता हूं?
श्री श्री रवि शंकर : मुझे पता है कि ये कठिन है, पर तुम्हें करना होगा। जो काम अच्छा लगता है, मन उस में आसानी से लग जाता है। अगर उस में तुम्हें रस आ रहा है, तो मन लगाना कठिन काम नहीं है। ये स्वाभाविक रूप से हो जाता है। पर कोई काम अगर रुचिकर ना हो, रूखा और उबाऊ लगे, पर आगे चल कर तुम्हारे लिये फ़ायदेमंद सिद्ध हो तो तुम्हें उसे करने में पूरा प्रयास करो। कोई विकल्प नहीं है।
प्रश्न : Yes+ कोर्स करने से मुझे बहुत फ़ायदा हुआ है, पर जीवन में एक नई समस्या हो गई है। कोर्स करने के पहले मैं हर छोटी छोटी बात के लिये भी अपने माता पिता पर निर्भर थी, पर अब मैं अपने कुछ निर्णय खुद ही लेने लगी हूँ। । इससे मेरी मां हमारे रिश्ते के नये प्रारूप को लेकर कुछ असुरक्षित महसूस करती हैं। उन्हें लगता है कि उनकी बेटी उनसे दूर जा रही है। पर ये सच नहीं है। मेरे हृदय में उनके लिए पहले से अधिक सम्मान है।मैं चाहती हूँ कि वे असुरक्षित ना महसूस करें और मैं अपने कुछ निर्णय खुद भी के सकूं। इसके लिये मुझे क्या करना होगा?
श्री श्री रवि शंकर : अपनी भावनाओं को ठीक तरह अभिव्यक्त करना, और दूसरों की भावनाओं को ठीक तरह समझना सबसे कठिन कार्य है। इस कौशल की कमी ही आज समाज की सब से बड़ी समस्या है। इस कौशल का विकास करना है। ये कभी परिपूर्ण नहीं होता है। इस मामले में उतार चढ़ाव होते ही रहते हैं। हम जो महसूस करते हैं, उसे ठीक तरक व्यक्त नहीं कर सकते हैं, और दूसरों को ठीक तरह समझ नहीं सकते हैं। ऐसा जीवन में होता ही रहता है। पर, जब हम शांत और प्रसन्नचित्त हो जाते हैं, तब हम दूसरों के मन को अधिक समझ पाते हैं। इसीलिये, प्राणायाम और ध्यान करना आवश्यक है। इनसे हमें अंतःस्फूर्णा और भीतरी स्पष्टता मिलती है। और हम पाते हैं कि दूसरें हमें आसानी से समझ पाते हैं और हम अपने विचारों को बेहतर अभिव्यक्त कर पाते हैं।
प्रश्न : अगर हम कोई वस्तु यां घटना चाहते हों तो हमारे पास दो रास्ते हैं - एक तो ये कि इच्छा को छोड़ दो, और उसे पूरा होने दो। दूसरा रास्ता है कि, उसे इतना चाहो कि वह पूरी हो जाये। इन दोनों में से हमें कौन सा रास्ता अपनाना चाहिये?
श्री श्री रवि शंकर : स्वाभाविक रूप से जो हो रहा है, होने दो। कभी कभी तुम किसी चीज़ के लिये दिल से प्रार्थना करते हो और वो तब पूरी होती है। कभी कभी बस मन में एक हल्का सा विचार आता है और वो इच्छा पूरी हो जाती है। है ना? तो, इसके लिये कोई तय मापदंड नहीं है। सब कुछ संभव है।
प्रश्न : हम कथाओं में पढ़ते हैं कि योगी कभी कभी श्राप भी देते हैं। योगी श्राप क्यों देते हैं? एक तरफ़ तो वो कहते हैं, ‘सुखी रहो। ध्यान करो, इत्यादि।’ तो फिर श्राप क्यों देते हैं?
श्री श्री रवि शंकर : योगी अगर श्राप भी दें तब भी उस से लाभ होता है। एक अज्ञानी का प्रेम भी नुक्सान करता है। जैसे कि, गाँव में कोई बच्चा रो कर कहे कि वो स्कूल नहीं जाना चाहता, तो कभी कभी उसकी माँ उसका रोना बंद करने के लिए अज्ञानवश बच्चे की बात मान जाती है, और बच्चा घर पर खेलता रहता है, यां जानवरों को जंगल में चराने ले जाता है। स्कूल ना जाने से बच्चे को आगे चल कर नुक्सान होगा। उसी तरह, एक योगी के क्रोध से भी प्रेरणा मिल सकती है और इससे कल्याण हो सकता है।
प्रश्न : क्या आपने कभी किसी को श्राप दिया है?
श्री श्री रवि शंकर : नहीं। कभी ऐसा मौका ही नहीं आया। जब आप पूर्ण महसूस करते हैं, तब श्राप देने की इच्छा ही नहीं जागती। जो लोग जीवन में कुछ कमी महसूस करते हैं, वे ही श्राप दे सकते हैं।
प्रश्न : क्या मृत्यु के समय तुरंत ही आत्मा शरीर को छोड़ देती है? अस्वाभाविक और दुर्घटना से हुई मौत के बाद क्या होता है?
श्री श्री रवि शंकर : शरीर और आत्मा का रिश्ता अद्भुत है। ये बहुत गहरा विषय है, इसके बारे में फिर कभी बात करेंगे।
प्रश्न : मैं वस्तुओं और व्यक्तियों से बहुत मालिकीपन और आसक्ति रखता हूं। मैं क्या करूं?
श्री श्री रवि शंकर : कोई बात नहीं। इसकी सजगता से ही तुम इससे बाहर आने लगते हो।
प्रश्न : हम चिंता और अपेक्षा से कैसे मुक्त हो सकते हैं? साथ ही बार बार आती अपेक्षाओं की वजह से परेशान ना हो?
श्री श्री रवि शंकर : कोई बात नहीं। उसे रहने दो। तुम अपनी सभी अपेक्षाओं से क्यों मुक्त होना चाहते हो? जब तुम्हें उनसे परेशानी होती है, तब तुम उनसे मुक्ति चाहते हो, है ना? तुम्हें पता है, जब तुम्हारे पास कुछ करने को नहीं होता तब तुम बैठ कर चिंता करते हो, अपेक्षा रखते हो यां दिवास्वप्न देखते हो। जब तुम व्यस्त होते हो, तब ऐसा नहीं होता है।
प्रश्न : मैं कभी कभी तय नहीं कर पाता कि क्या करूं, क्या ना करूं। जैसे कि पढ़ाई के समय मैं कहीं खो जाता हूं, और पढ़ाई करना भूल जाता हूं। ऐसी स्थितियों में मैं क्या करूं?
श्री श्री रवि शंकर : साधना, सत्संग और सेवा करो, इससे मन केन्द्रित होता है।
शेष अंश अगली पोस्ट में..
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