"चेतना के विस्तार के साधन हैं संगीत, ज्ञान और मौन"

श्री श्री रवि शंकर ने क्या कहा..

न्यूयार्क के गणेश मंदिर में दिये गये व्याख़्यान के कुछ अंश

चेतना के विस्तार के लिये तीन मुख्य साधन हैं - संगीत, ज्ञान और मौन।

ज्ञान, तर्क-बुद्धि से जुड़ा है। रोज कुछ क्षण मौन रखने के अभ्यास से, हम अपनी सजगता का स्तर बढ़ा सकते हैं। बुद्धि के स्तर को उन्नत करना यानि पात्रता बढ़ाना है, और यह हो सकता है कुछ ही क्षण मौन में रहने से। बस इतना ही प्रयास चाहिये यह हासिल करने के लिये।

संगीत का उद्देश्य है मौन की ओर ले जाना, और ज्ञान का लक्ष्य है आश्चर्य की ओर ले जाना।

सचेतन

अब क्या हो रहा है यहाँ? (हँसी) सचेतन होने का आभास, ठीक है ना? मैं कुछ नहीं कह रहा हूँ और आप सब लोग कुछ पकड़ने के लिये इन्तज़ार कर रहे हैं। क्या आप को इस बात का आभास हो रहा है? किसी चीज़ को पकड़ने की अपेक्षा, अपने ध्यान को प्रतीक्षा की ओर लगाने को सचेतन होना कहते हैं, और यह है ध्यानस्थ सजगता।

क्या आप समझ रहे हैं मैं क्या कह रहा हूँ? तो जब आप सचेतन होते हैं तब क्या होता है? आप में एक बदलाव आने लगता है -आप दृश्य से हट कर दृष्टा की ओर जाने लगते हैं। अब आप ही दृष्टा और दृश्य हैं। आप मुझे देख रहे हैं और समझने की कोशिश कर रहे हैं कि मैं क्या कह रहा हूँ।

अब फिर से अपना ध्यान खुद की ओर ले जाइये। आप बैठे हैं, पढ़ रहे हैं..

अपना ध्यान अब अपनी साँस पर ले जाइये। आप्के मन में कुछ संवाद चल रहा है अपने आप से - ‘हाँ’ या ‘ना’ के रूप में। समझ रहे हैं न मेरी बात?

दृश्य से हट कर दृष्टा की ओर जाना योग द्वारा, उज्जई साँस और ध्यान से संभव होता है। इससे आपके भीतर एक करुणा का सागर उमड़ पडता है। इससे बुद्धि तीक्ष्ण और सचेत होती है। आप अधिक सजग और सूक्ष्म आभासी हो जाते हैं, और आपका मैत्रीभाव और आत्मविश्वास और अधिक बढ़ता है।

विश्वास के तीन स्तर

विश्वास के तीन स्तर होते हैं। पहला जब आप अपने में विश्वास रखते हैं तभी दूसरों में भी विश्वास रख सकते हैं। यह समाज में, लोगों की अच्छाई के प्रति विश्वास है। देखिये, यहाँ कितने अच्छे लोग बैठे हैं! ( हँसी)।

फिर, उसके प्रति जिसे देख नहीं सकते पर महसूस कर सकते हैं। यह बात समझना कठिन है पर इसे नज़र अन्दाज़ नहीं किया जा सकता।

और अंत में, दैवी शक्ति या ईश्वर में विश्वास। पर ईश्वर में विश्वास होने से पहले दुनिया के लोगों में विश्वास करना होगा। इस दुनिया में हम जितना सोचते हैं, उससे कहीं अधिक अच्छाई है। यहाँ केवल थोड़े से, गिनती के सिरफिरे, राह से भटके, तनाव से भरे लोग हैं, जो तरह तरह के हिंसात्मक कार्यों में लगे हुए हैं। साधारण तौर पर दुनिया में अच्छाई ही है।

आध्यात्म का पहला नियम

हम अधिकतर दुनिया को दोष देते हैं और उसके फलस्वरुप खुद को भी दोषी ठहराने लगते हैं।

आध्यात्म का पहला नियम है- स्वयं को दोषी मत मानो और न ही दूसरों को।

क्या आपने यह पहल कदम ले लिया है? क्या आप यह कर सकते हैं? इसके बिना आगे बढ़ना बेकार है। तो, ना खुद को दोष दो और ना ही अन्य किसी को। फिर देखो क्या परिवर्तन होता है खुद में - एक उत्साह और शक्ति उभर आती है! मेरे कहने का यह मतलब नहीं है कि तुम अपने दोषों को छुपाओ। गलती को जान कर उसे दूर करने की चेष्टा करो। अपनी गलती को मान कर आगे बढ़ते जाओ। यह बात अपने आप को दोषी मानते रहने से भिन्न है। खुद में और समाज की अच्छाई में विश्वास रखो। इस पूरी सृष्टि के मूल सार में विश्वास रखो।

क्या आप सेलफोन इस्तेमाल करते हैं? इसको चलाने के लिये सिम कार्ड लगता है। अगर सिम कार्ड नहीं है तो नंबर लगाये जाने पर भी किसी से बात नहीं कर पाओगे। इसी तरह हमारी कई प्रार्थनायें भी नहीं पहुँच पाती हैं और न ही उनका फल मिल पाता है, क्योंकि मेरे भाई तुमने सिम कार्ड नहीं डाला!

अब सिम कार्ड लगाने पर भी अगर कहीं ज़मीन के नीचे के तल हो, तो सिग्नल नहीं मिलता है। फिर बैटरी की भी ज़रूरत होती है। तो सिम कार्ड, सिग्नल और बैटरी हो, तो तुम किसी से बात कर सकते हो। उसी प्रकार से हमारी अपनी चेतना से जुड़ने के लिये, मन शांत, शुद्ध और स्थिर होना चाहिये।

ज्ञान, संगीत और मौन - ये तीन साधन हैं जीवन में पूर्णता लाने के लिये। तब हमारी प्रार्थना सुनी जाती है।

भावपूर्वक गाते रहो। श्रद्धा, विशवास, मौन और ज्ञान से प्रेरित प्रार्थना जरूर फलित होती है।

क्या आप सब यहीं हैं?

यह आत्मा क्या है?

हम इतना सुनते हैं आत्म साक्षात्कार के बारे में पर यह आत्मा है क्या?

क्या आप जानना चाहते हैं? आप में से कितनों ने भौतिक विज्ञान (फ़िज़िक्स) और रासयनिक विज्ञान (केमिस्ट्री) पढ़ा है? सबको भौतिक विज्ञान के विषय में थोड़ी जानकारी अवश्य होनी चाहिये। हमारा शरीर करोड़ों कोशिकाओं से बना है और प्रत्येक कोश में जीवन है। प्रतिदिन नयी कोषिकायें बनती और मिटती रहती हैं। जब रगड़ कर नहाते हो तो चमड़ी पर से मरी कोषिकायें धुल जाती हैं। तुम एक अकेले व्यक्ति नहीं हो। हमारे ऋषि मुनियों ने कहा है कि तुम एक ‘पुरुष’ हो, यानि कि चलती फिरती नगरी हो। संस्कृत में ‘पुर' का अर्थ नगरी होता है। हमारी आत्मा इस नगरी यानि हमारे इस चलते फिरते शरीर में वास करती है। और इस चलते फिरते शरीर में भी अनेक जीव जन्तु घूम रहें हैं साथ साथ। जानते हैं, हमारे शरीर की केवल आँतों में ही ५०,००० कीटाणु रहते हैं?!

तो, यह शरीर तो प्रतिदिन बदल रहा है, फिर भी इसमें एक कुछ है जो नहीं बदल रहा। यह समझने के लिये मधुमक्खी के छत्ते को जानना होगा। आपने देखा है कभी छत्ता? उसे थामे रखने वाला आधार कौन है? रानी मधु मक्खी। यदि रानी उड़ जाती है तो सब नष्ट हो जाता है।

वैसे ही हमारा शरीर भी अनेक परमाणुओं से बना है और इसमें एक रानी मधुमक्खी छुपी बैठी है। प्रत्येक शरीर मधु से भरे एक छत्ते के समान है। अपने शरीर रूपी छत्ते में छुपी रानी को ढ़ूँढ निकालो। यही ध्यान है। करोड़ों परमाणु जो हमारे शरीर में मौजूद हैं वैसे ही हाथी या अन्य प्राणी में भी हैं। बाहरी शरीर की बनावट का कोई महत्व नहीं है। अंदर वास करती आत्मा सबमें एक है और नित्य है, कभी बदलती नहीं। यह ज्ञान होने पर तुम्हें कुछ भी नहीं सता सकता है, तुम्हें सब अपने लगने लगेंगे, कोई बात तुम्हें विचलित नहीं कर पायेगी तब, और यही आध्यात्म का सार है।


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