प्रश्न : पंडित, ज्योतिषाचार्य और मनोवैज्ञानिकों के भविष्य कथन को कितना महत्व देना चाहिये?
श्री श्री रवि शंकर : इसको हल्के रूप में लेना चाहिये क्यों कि सब बदल रहा है। आप को ज्योतिषी जो भी बताये उसे पूरी नहीं मान लेना चाहिये। ज्योतिष शास्त्र विज्ञान है, पर सब ज्योतिषी वैज्ञानिक नहीं हैं, इसलिये सोच समझ कर मानना चाहिये।
प्रश्न : प्रिय गुरुजी, मैं पिछले बीस साल से अपनी आमदनी का एक हिस्सा समाज के उद्धार के लिये देता आ रहा हूँ। क्या आप आध्यात्मिक पथ पर दान के महत्व पर प्रकाश डालेंगे?
- आपका आभारी और स्नेही
श्री श्री रवि शंकर : हाँ। हाँ, समाज को किसी भी रूप में कुछ वापस लौटाना बहुत महत्वपूर्ण कार्य है। एक कहावत है - ‘एक बूँद घी, चावल को पवित्र कर देता है’। जैसे थोड़ा सा घी चावल को पवित्र कर देता है, वैसे ही दान भी धन को पवित्र कर देता है। जब आप अपने अर्जित धन का एक हिस्सा किसी अच्छे कार्य हेतु दान में देते हो, तो आपका जो बचा हुअ धन रहता है, वह पवित्र होता है। इसी तरह तन शुद्ध होता है स्नान से, मन शुद्ध होता है प्राण शक्ति से - प्राणायाम व ध्यान से, और बुद्धि शुद्ध होती है ज्ञान से। हम जब ज्ञान की बातें सुनते हैं तो पवित्र होते हैं।
जब तुम ज्ञान की बातें सुनते हो, जैसे योग वशिष्ठ, अष्टावक्र गीता आदि, तो अंदर से एक ‘वाह!’ का स्फुरण होता है। तो जैसे बुद्धि पवित्र होती है ज्ञान से, वैसे जीवन पवित्र होता है समर्पण से।
प्रश्न : प्रिय गुरुजी, हम कई लोग जो आध्यात्म के पथ पर हैं, केवल अपने लिये ही दिव्यता नहीं चाहते, समाज के अन्य लोगों के लिये भी चाहते हैं। क्या ऐसा दिव्य मानवों का समाज इस धरती पर कभी हुआ है और क्या हम ऐसे समाज की कल्पना अपने भविष्य के लिये कर सकते हैं? क्या यह सपना एक पागलपन होगा?
श्री श्री रवि शंकर : तुम्हें पागल बन कर ही कल्पना करनी चाहिये, हरेक व्यक्ति को कोई स्वप्न देखना चाहिये। जानते हो, जो भी तुम्हे असम्भव लगे, उसका तुम्हें स्वप्न देखना चाहिये और उसे सम्भव में परिवर्तित करना चाहिये। हमने ऐसा एक गाँव में कर दिखाया। यह एक बदनाम ग्राम था, जहाँ कोई भी पाँच-छह बजे के बाद नहीं जाता था। वहाँ चोरी, लूट और अन्य अपराधों का बोल बाला था। वहाँ हमारे एक आर्ट ऑफ लिविंग टीचर ने जाकर तीन महीनों में उस ग्राम का नक्शा ही पलट दिया! उस ग्राम को अपना कर, सबको कोर्स कराया । हैरानी की बात यह कि अब वहाँ छोटे, बड़े, सब गाते, नाचते हैं सत्संग में और उन्होने खुद नियम बना लिया है कि वहाँ नशेबाजी करने वाले को दंड भुगतान करना होगा। परिणाम स्वरुप यह पूरा ग्राम अब नशामुक्त है और लोग रासयनिक मुक्त खेती भी करते हैं। मैं उस ग्राम की एक सी.डी. लाया हूँ यहाँ।
मेरे पिछले दौरे के समय स्वमी प्रज्ञापाद्जी ने मुझे बताया कि इस गांव में एक दुकान है जहाँ पर कोई दुकानदार नहीं होता और दुकान ठीक रूप से चलती भी है। लोग सामान लेते हैं और पैसे वहाँ पड़ी टोकरी में डाल देते हैं। अन्य लोग आश्चर्यचकित हैं कि यह ग्राम ऐसे ढाई साल से इसी तरह चल रहा है, जहाँ कोई पहरेदार नहीं, कोई चोरी नहीं! और वहाँ कोई ताला भी अब नहीं लगाता है - किसी भी घर के दरवाजे पर ताला नहीं है। ऐसा ग्राम जहाँ दरवाजे बिना ताले के हैं, यह ग्राम स्वावलंबी और आत्मनिर्भर ग्राम बन गया है। यहाँ पूरे ग्राम के पीने के लिये शुद्ध पानी की व्यवस्था है, पूरा ग्राम गुलाबी रंग से पुता हुआ है। सबने एकता दिखाते हुये गुलाबी रंग से ही अपने मकानों को रंगना मंजूर किया। भारत सरकार और महाराष्ट्र सरकार ने इस ग्राम को पुरस्कार स्वरूप धन राशि देकर और सर्वश्रेष्ठ आदर्श ग्राम की उपाधि से सम्मानित किया है। और आप जिसे पागलपन का स्वप्न कहते हैं, वैसा ही एक स्वप्न, सिर्फ एक टीचर ने देखा और उसे साकार भी कर दिखाया!
इस ग्राम के परिणाम को देख कर अब हमारे साथ १८० ग्राम, आदर्श ग्राम बनने की कतार में लग गये हैं!
नई दिल्ली में कुछ अपने स्वयंसेवियों ने [common-wealth games कामनवेल्थ] एशियन गेम्स के पहले नगर की सफाई करने की सोची, क्योंकि वहाँ लोग कचरा कूड़ा आदि निकाल कर सड़कों पर ड़ाल देते हैं जिससे बहुत गंदगी फैली हुई है। तो इन सेवकों ने इस विचार को फलीभूत करने की सोची।
लोग अक्सर सरकार को दोष देते रहते हैं पर कार्य नहीं करते।सरकार पर निर्भर होने के बदले में इन मुठ्ठीभर आर्ट ऑफ लिविंग स्वयंसेवकों ने कार्य करना शुरु किया | उन्होंने लाखों लोगों को झाड़ू लेकर आने और प्लास्टिक व अन्य कचरा हटाकर, पूरे नगर की सफाई करने के लिये प्रेरित किया! १२ सितम्बर से चल रहा है यह कार्य और १० लाख लोगों को शामिल कर लिया है इस अभियान में। दिल्ली की सरकार जो अब तक आर्ट ऑफ लिविंग के किसी कार्य में सहायता देने में रुचि नहीं दिखा रही थी, किसी समारोह में शामिल नहीं होती थी, अब अचानक जागी है उनकी मदद के लिये! अब सरकार घोषणा कर रही है आर्ट ऑफ़ लिविंग के सुंदर कार्य का!
इसलिये जो तुम चाहते हो उस पर जरुर सोचो, विचार करो, और स्वप्न देखो कि क्या करना चाहते हो। यह शायद तत्काल फलीभूत ना हो पाये पर समय के साथ होगा!
प्रश्न : मैं अपनी शारीरिक इच्छाओं पर कैसे विजय पाऊँ?
श्री श्री रवि शंकर : य़ह तुम्हारी उम्र पर निर्भर करता है। यदि तुम नव-वयस्क हो, तो यह भावनाएं उठना स्वाभाविक है। तुम उसके लिये ज्यादा कुछ नहीं कर सकते हो। अपने आप को कार्य में व्यस्त रखो।
जब ज्यादा खाली समय पास में होता है, तो मन कामवासना की ओर भागता है। क्या तुमने इस बात पर गौर किया है, कि जब परीक्षा का समय होता है या अत्यन्त व्यस्त होते हो, या जब कुछ हासिल करना हो, किसी खेल कूद में भाग लेना हो या मन किसी अन्य विचार में उलझा हो तो आपको कामवासना का विचार नहीं सूझता है और ना ही कामवासना हावी होती है दिमाग पर। पर जब तुम खाली, बेकार बैठे रहते हो तब यह भूत जैसे सवार हो जाती है दिमाग पर। देखो, सम्भोग क्रिया कोई खराब बात नहीं है पर इसी में सब समय ध्यान लगा रहे, यह खतरनाक है। किसी समय एक तरह के सम्भोग में तृप्ति न होने पर दूसरे तरीकों पर जाने लगते हैं लोग, और मन में अनेक विभिन्न भ्रान्तियाँ और विकृतियाँ जन्म लेने लगती हैं।
सबसे अच्छा और सरल उपाय है प्राणायाम, जिसके करने से राहत मिलती है। और, अपने भोजन पर ध्यान देना। यदि तुम बहुत अधिक खाते हो तो अधिक शक्ति भी एकत्रित हो जाती है, जो फिर किसी और रूप में बाहर होने का रास्ता ढूँढती है। और यदि तुम किसी भी सृजनात्मक कार्य में व्यस्त नहीं रहते हो तब तो अवश्य ही अर्जित शक्ति दूसर रास्ता अपनायेगी। तो थोड़ा ध्यान भोजन की ओर देना। इसीलिये यह कहावत है कि, यदि जीभ पर काबू नहीं तो जननेन्द्रियों पर भी काबू नहीं, क्योंकि जननेंद्रिय और जीभ का एक दूसरे से संबंध है। भोजन और कामवासना का ताल-मेल है। कामवासना के विकारों से बचने का उपाय है हल्का और संयमित भोजन और प्राणायाम। प्राणायाम से अधिक मात्रा में उठने वाली प्रवृतियों पर काबू पाया जा सकता है।
संगीत, नृत्य आदि में रुचि, कुछ सृजनात्मक कार्य, चित्रकारी, लेखन, सुंदर वस्तुओं में रुचि आदि, ये सब भी सहायक होते हैं। जब तुम प्रसन्न रहते हो तब मन में काम वासना कम रहती है। पर यदि तुम दुखी, बैचेन, व्याकुल रहते हो तो तुम्हारा झुकाव कामवासना की ओर ज्यादा होगा। इसलिये ये सब बातें ध्यान में रखते हुए और अपने को व्यस्त रखकर तुम आसानी से सब दुविधाओं से पार हो सकते हो।
क्योंकि काम वासना में बहुत रुझाव रखने पर भी बात में अच्छा नहीं लगता और, इस प्रवृति को पूरा छोड़ने पर भी विक्षिप्त सी अवस्था में पड़ सकते हो। यह वयस्कपन की दुविधापूर्ण समस्या है, जिसका कोई आसान हल नहीं सिवाय अपने आप को खूब व्यस्त रखने के।
फिर इसके बाद है अधेड़ आयु के लोगों की मुश्किल!
मैं सब आयु के लोगों को ध्यान में रखते हुए इस समस्या का उपाय बता रहा हूँ। और ये सब बताये उपाय भी काम में नहीं आयें तो बस फिर वक्त का इन्तजार करो! जैसे जैसे उम्र बढ़ेगी, ये इच्छायें भी कम होती जायेंगी। तो समय खुद इसका समाधान कर देगा, हो सकता है जब तुम ६०, ७० या ८० वर्ष के हो जाओ| तब तुम चेतना का एक नयापन अनुभव कर सकोगे, मन शांत होगा ही और नई चेतना महसूस करोगे।
प्रश्न : हम बार बार जन्म और मृत्यु का अनुभव क्यों करते हैं?
श्री श्री रवि शंकर : शायद धरती को गले लगाने के लिये!
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"चेतना के विस्तार के साधन हैं संगीत, ज्ञान और मौन"
श्री श्री रवि शंकर ने क्या कहा..
न्यूयार्क के गणेश मंदिर में दिये गये व्याख़्यान के कुछ अंश
चेतना के विस्तार के लिये तीन मुख्य साधन हैं - संगीत, ज्ञान और मौन।
ज्ञान, तर्क-बुद्धि से जुड़ा है। रोज कुछ क्षण मौन रखने के अभ्यास से, हम अपनी सजगता का स्तर बढ़ा सकते हैं। बुद्धि के स्तर को उन्नत करना यानि पात्रता बढ़ाना है, और यह हो सकता है कुछ ही क्षण मौन में रहने से। बस इतना ही प्रयास चाहिये यह हासिल करने के लिये।
संगीत का उद्देश्य है मौन की ओर ले जाना, और ज्ञान का लक्ष्य है आश्चर्य की ओर ले जाना।
सचेतन
अब क्या हो रहा है यहाँ? (हँसी) सचेतन होने का आभास, ठीक है ना? मैं कुछ नहीं कह रहा हूँ और आप सब लोग कुछ पकड़ने के लिये इन्तज़ार कर रहे हैं। क्या आप को इस बात का आभास हो रहा है? किसी चीज़ को पकड़ने की अपेक्षा, अपने ध्यान को प्रतीक्षा की ओर लगाने को सचेतन होना कहते हैं, और यह है ध्यानस्थ सजगता।
क्या आप समझ रहे हैं मैं क्या कह रहा हूँ? तो जब आप सचेतन होते हैं तब क्या होता है? आप में एक बदलाव आने लगता है -आप दृश्य से हट कर दृष्टा की ओर जाने लगते हैं। अब आप ही दृष्टा और दृश्य हैं। आप मुझे देख रहे हैं और समझने की कोशिश कर रहे हैं कि मैं क्या कह रहा हूँ।
अब फिर से अपना ध्यान खुद की ओर ले जाइये। आप बैठे हैं, पढ़ रहे हैं..
अपना ध्यान अब अपनी साँस पर ले जाइये। आप्के मन में कुछ संवाद चल रहा है अपने आप से - ‘हाँ’ या ‘ना’ के रूप में। समझ रहे हैं न मेरी बात?
दृश्य से हट कर दृष्टा की ओर जाना योग द्वारा, उज्जई साँस और ध्यान से संभव होता है। इससे आपके भीतर एक करुणा का सागर उमड़ पडता है। इससे बुद्धि तीक्ष्ण और सचेत होती है। आप अधिक सजग और सूक्ष्म आभासी हो जाते हैं, और आपका मैत्रीभाव और आत्मविश्वास और अधिक बढ़ता है।
विश्वास के तीन स्तर
विश्वास के तीन स्तर होते हैं। पहला जब आप अपने में विश्वास रखते हैं तभी दूसरों में भी विश्वास रख सकते हैं। यह समाज में, लोगों की अच्छाई के प्रति विश्वास है। देखिये, यहाँ कितने अच्छे लोग बैठे हैं! ( हँसी)।
फिर, उसके प्रति जिसे देख नहीं सकते पर महसूस कर सकते हैं। यह बात समझना कठिन है पर इसे नज़र अन्दाज़ नहीं किया जा सकता।
और अंत में, दैवी शक्ति या ईश्वर में विश्वास। पर ईश्वर में विश्वास होने से पहले दुनिया के लोगों में विश्वास करना होगा। इस दुनिया में हम जितना सोचते हैं, उससे कहीं अधिक अच्छाई है। यहाँ केवल थोड़े से, गिनती के सिरफिरे, राह से भटके, तनाव से भरे लोग हैं, जो तरह तरह के हिंसात्मक कार्यों में लगे हुए हैं। साधारण तौर पर दुनिया में अच्छाई ही है।
आध्यात्म का पहला नियम
हम अधिकतर दुनिया को दोष देते हैं और उसके फलस्वरुप खुद को भी दोषी ठहराने लगते हैं।
आध्यात्म का पहला नियम है- स्वयं को दोषी मत मानो और न ही दूसरों को।
क्या आपने यह पहल कदम ले लिया है? क्या आप यह कर सकते हैं? इसके बिना आगे बढ़ना बेकार है। तो, ना खुद को दोष दो और ना ही अन्य किसी को। फिर देखो क्या परिवर्तन होता है खुद में - एक उत्साह और शक्ति उभर आती है! मेरे कहने का यह मतलब नहीं है कि तुम अपने दोषों को छुपाओ। गलती को जान कर उसे दूर करने की चेष्टा करो। अपनी गलती को मान कर आगे बढ़ते जाओ। यह बात अपने आप को दोषी मानते रहने से भिन्न है। खुद में और समाज की अच्छाई में विश्वास रखो। इस पूरी सृष्टि के मूल सार में विश्वास रखो।
क्या आप सेलफोन इस्तेमाल करते हैं? इसको चलाने के लिये सिम कार्ड लगता है। अगर सिम कार्ड नहीं है तो नंबर लगाये जाने पर भी किसी से बात नहीं कर पाओगे। इसी तरह हमारी कई प्रार्थनायें भी नहीं पहुँच पाती हैं और न ही उनका फल मिल पाता है, क्योंकि मेरे भाई तुमने सिम कार्ड नहीं डाला!
अब सिम कार्ड लगाने पर भी अगर कहीं ज़मीन के नीचे के तल हो, तो सिग्नल नहीं मिलता है। फिर बैटरी की भी ज़रूरत होती है। तो सिम कार्ड, सिग्नल और बैटरी हो, तो तुम किसी से बात कर सकते हो। उसी प्रकार से हमारी अपनी चेतना से जुड़ने के लिये, मन शांत, शुद्ध और स्थिर होना चाहिये।
ज्ञान, संगीत और मौन - ये तीन साधन हैं जीवन में पूर्णता लाने के लिये। तब हमारी प्रार्थना सुनी जाती है।
भावपूर्वक गाते रहो। श्रद्धा, विशवास, मौन और ज्ञान से प्रेरित प्रार्थना जरूर फलित होती है।
क्या आप सब यहीं हैं?
यह आत्मा क्या है?
हम इतना सुनते हैं आत्म साक्षात्कार के बारे में पर यह आत्मा है क्या?
क्या आप जानना चाहते हैं? आप में से कितनों ने भौतिक विज्ञान (फ़िज़िक्स) और रासयनिक विज्ञान (केमिस्ट्री) पढ़ा है? सबको भौतिक विज्ञान के विषय में थोड़ी जानकारी अवश्य होनी चाहिये। हमारा शरीर करोड़ों कोशिकाओं से बना है और प्रत्येक कोश में जीवन है। प्रतिदिन नयी कोषिकायें बनती और मिटती रहती हैं। जब रगड़ कर नहाते हो तो चमड़ी पर से मरी कोषिकायें धुल जाती हैं। तुम एक अकेले व्यक्ति नहीं हो। हमारे ऋषि मुनियों ने कहा है कि तुम एक ‘पुरुष’ हो, यानि कि चलती फिरती नगरी हो। संस्कृत में ‘पुर' का अर्थ नगरी होता है। हमारी आत्मा इस नगरी यानि हमारे इस चलते फिरते शरीर में वास करती है। और इस चलते फिरते शरीर में भी अनेक जीव जन्तु घूम रहें हैं साथ साथ। जानते हैं, हमारे शरीर की केवल आँतों में ही ५०,००० कीटाणु रहते हैं?!
तो, यह शरीर तो प्रतिदिन बदल रहा है, फिर भी इसमें एक कुछ है जो नहीं बदल रहा। यह समझने के लिये मधुमक्खी के छत्ते को जानना होगा। आपने देखा है कभी छत्ता? उसे थामे रखने वाला आधार कौन है? रानी मधु मक्खी। यदि रानी उड़ जाती है तो सब नष्ट हो जाता है।
वैसे ही हमारा शरीर भी अनेक परमाणुओं से बना है और इसमें एक रानी मधुमक्खी छुपी बैठी है। प्रत्येक शरीर मधु से भरे एक छत्ते के समान है। अपने शरीर रूपी छत्ते में छुपी रानी को ढ़ूँढ निकालो। यही ध्यान है। करोड़ों परमाणु जो हमारे शरीर में मौजूद हैं वैसे ही हाथी या अन्य प्राणी में भी हैं। बाहरी शरीर की बनावट का कोई महत्व नहीं है। अंदर वास करती आत्मा सबमें एक है और नित्य है, कभी बदलती नहीं। यह ज्ञान होने पर तुम्हें कुछ भी नहीं सता सकता है, तुम्हें सब अपने लगने लगेंगे, कोई बात तुम्हें विचलित नहीं कर पायेगी तब, और यही आध्यात्म का सार है।
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न्यूयार्क के गणेश मंदिर में दिये गये व्याख़्यान के कुछ अंश
चेतना के विस्तार के लिये तीन मुख्य साधन हैं - संगीत, ज्ञान और मौन।
ज्ञान, तर्क-बुद्धि से जुड़ा है। रोज कुछ क्षण मौन रखने के अभ्यास से, हम अपनी सजगता का स्तर बढ़ा सकते हैं। बुद्धि के स्तर को उन्नत करना यानि पात्रता बढ़ाना है, और यह हो सकता है कुछ ही क्षण मौन में रहने से। बस इतना ही प्रयास चाहिये यह हासिल करने के लिये।
संगीत का उद्देश्य है मौन की ओर ले जाना, और ज्ञान का लक्ष्य है आश्चर्य की ओर ले जाना।
सचेतन
अब क्या हो रहा है यहाँ? (हँसी) सचेतन होने का आभास, ठीक है ना? मैं कुछ नहीं कह रहा हूँ और आप सब लोग कुछ पकड़ने के लिये इन्तज़ार कर रहे हैं। क्या आप को इस बात का आभास हो रहा है? किसी चीज़ को पकड़ने की अपेक्षा, अपने ध्यान को प्रतीक्षा की ओर लगाने को सचेतन होना कहते हैं, और यह है ध्यानस्थ सजगता।
क्या आप समझ रहे हैं मैं क्या कह रहा हूँ? तो जब आप सचेतन होते हैं तब क्या होता है? आप में एक बदलाव आने लगता है -आप दृश्य से हट कर दृष्टा की ओर जाने लगते हैं। अब आप ही दृष्टा और दृश्य हैं। आप मुझे देख रहे हैं और समझने की कोशिश कर रहे हैं कि मैं क्या कह रहा हूँ।
अब फिर से अपना ध्यान खुद की ओर ले जाइये। आप बैठे हैं, पढ़ रहे हैं..
अपना ध्यान अब अपनी साँस पर ले जाइये। आप्के मन में कुछ संवाद चल रहा है अपने आप से - ‘हाँ’ या ‘ना’ के रूप में। समझ रहे हैं न मेरी बात?
दृश्य से हट कर दृष्टा की ओर जाना योग द्वारा, उज्जई साँस और ध्यान से संभव होता है। इससे आपके भीतर एक करुणा का सागर उमड़ पडता है। इससे बुद्धि तीक्ष्ण और सचेत होती है। आप अधिक सजग और सूक्ष्म आभासी हो जाते हैं, और आपका मैत्रीभाव और आत्मविश्वास और अधिक बढ़ता है।
विश्वास के तीन स्तर
विश्वास के तीन स्तर होते हैं। पहला जब आप अपने में विश्वास रखते हैं तभी दूसरों में भी विश्वास रख सकते हैं। यह समाज में, लोगों की अच्छाई के प्रति विश्वास है। देखिये, यहाँ कितने अच्छे लोग बैठे हैं! ( हँसी)।
फिर, उसके प्रति जिसे देख नहीं सकते पर महसूस कर सकते हैं। यह बात समझना कठिन है पर इसे नज़र अन्दाज़ नहीं किया जा सकता।
और अंत में, दैवी शक्ति या ईश्वर में विश्वास। पर ईश्वर में विश्वास होने से पहले दुनिया के लोगों में विश्वास करना होगा। इस दुनिया में हम जितना सोचते हैं, उससे कहीं अधिक अच्छाई है। यहाँ केवल थोड़े से, गिनती के सिरफिरे, राह से भटके, तनाव से भरे लोग हैं, जो तरह तरह के हिंसात्मक कार्यों में लगे हुए हैं। साधारण तौर पर दुनिया में अच्छाई ही है।
आध्यात्म का पहला नियम
हम अधिकतर दुनिया को दोष देते हैं और उसके फलस्वरुप खुद को भी दोषी ठहराने लगते हैं।
आध्यात्म का पहला नियम है- स्वयं को दोषी मत मानो और न ही दूसरों को।
क्या आपने यह पहल कदम ले लिया है? क्या आप यह कर सकते हैं? इसके बिना आगे बढ़ना बेकार है। तो, ना खुद को दोष दो और ना ही अन्य किसी को। फिर देखो क्या परिवर्तन होता है खुद में - एक उत्साह और शक्ति उभर आती है! मेरे कहने का यह मतलब नहीं है कि तुम अपने दोषों को छुपाओ। गलती को जान कर उसे दूर करने की चेष्टा करो। अपनी गलती को मान कर आगे बढ़ते जाओ। यह बात अपने आप को दोषी मानते रहने से भिन्न है। खुद में और समाज की अच्छाई में विश्वास रखो। इस पूरी सृष्टि के मूल सार में विश्वास रखो।
क्या आप सेलफोन इस्तेमाल करते हैं? इसको चलाने के लिये सिम कार्ड लगता है। अगर सिम कार्ड नहीं है तो नंबर लगाये जाने पर भी किसी से बात नहीं कर पाओगे। इसी तरह हमारी कई प्रार्थनायें भी नहीं पहुँच पाती हैं और न ही उनका फल मिल पाता है, क्योंकि मेरे भाई तुमने सिम कार्ड नहीं डाला!
अब सिम कार्ड लगाने पर भी अगर कहीं ज़मीन के नीचे के तल हो, तो सिग्नल नहीं मिलता है। फिर बैटरी की भी ज़रूरत होती है। तो सिम कार्ड, सिग्नल और बैटरी हो, तो तुम किसी से बात कर सकते हो। उसी प्रकार से हमारी अपनी चेतना से जुड़ने के लिये, मन शांत, शुद्ध और स्थिर होना चाहिये।
ज्ञान, संगीत और मौन - ये तीन साधन हैं जीवन में पूर्णता लाने के लिये। तब हमारी प्रार्थना सुनी जाती है।
भावपूर्वक गाते रहो। श्रद्धा, विशवास, मौन और ज्ञान से प्रेरित प्रार्थना जरूर फलित होती है।
क्या आप सब यहीं हैं?
यह आत्मा क्या है?
हम इतना सुनते हैं आत्म साक्षात्कार के बारे में पर यह आत्मा है क्या?
क्या आप जानना चाहते हैं? आप में से कितनों ने भौतिक विज्ञान (फ़िज़िक्स) और रासयनिक विज्ञान (केमिस्ट्री) पढ़ा है? सबको भौतिक विज्ञान के विषय में थोड़ी जानकारी अवश्य होनी चाहिये। हमारा शरीर करोड़ों कोशिकाओं से बना है और प्रत्येक कोश में जीवन है। प्रतिदिन नयी कोषिकायें बनती और मिटती रहती हैं। जब रगड़ कर नहाते हो तो चमड़ी पर से मरी कोषिकायें धुल जाती हैं। तुम एक अकेले व्यक्ति नहीं हो। हमारे ऋषि मुनियों ने कहा है कि तुम एक ‘पुरुष’ हो, यानि कि चलती फिरती नगरी हो। संस्कृत में ‘पुर' का अर्थ नगरी होता है। हमारी आत्मा इस नगरी यानि हमारे इस चलते फिरते शरीर में वास करती है। और इस चलते फिरते शरीर में भी अनेक जीव जन्तु घूम रहें हैं साथ साथ। जानते हैं, हमारे शरीर की केवल आँतों में ही ५०,००० कीटाणु रहते हैं?!
तो, यह शरीर तो प्रतिदिन बदल रहा है, फिर भी इसमें एक कुछ है जो नहीं बदल रहा। यह समझने के लिये मधुमक्खी के छत्ते को जानना होगा। आपने देखा है कभी छत्ता? उसे थामे रखने वाला आधार कौन है? रानी मधु मक्खी। यदि रानी उड़ जाती है तो सब नष्ट हो जाता है।
वैसे ही हमारा शरीर भी अनेक परमाणुओं से बना है और इसमें एक रानी मधुमक्खी छुपी बैठी है। प्रत्येक शरीर मधु से भरे एक छत्ते के समान है। अपने शरीर रूपी छत्ते में छुपी रानी को ढ़ूँढ निकालो। यही ध्यान है। करोड़ों परमाणु जो हमारे शरीर में मौजूद हैं वैसे ही हाथी या अन्य प्राणी में भी हैं। बाहरी शरीर की बनावट का कोई महत्व नहीं है। अंदर वास करती आत्मा सबमें एक है और नित्य है, कभी बदलती नहीं। यह ज्ञान होने पर तुम्हें कुछ भी नहीं सता सकता है, तुम्हें सब अपने लगने लगेंगे, कोई बात तुम्हें विचलित नहीं कर पायेगी तब, और यही आध्यात्म का सार है।
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"मन आखिर है क्या?"
प्रश्न : आर्ट आफ़ लिविंग के एक शिक्षक ने कहा था कि, ‘ईशवर, उत्तम है। ईश्वर ने हमें बनाया है, इसलिये हम भी उत्तम हैं।’ यहाँ तक तो बात ठीक लगती है। पर जब हम उत्तम हैं, तो क्या एक इन्जीनियर का काम भी उत्तम नहीं होना चाहिये? पर ऐसा तो नहीं होता।
श्री श्री रवि शंकर : प्रश्न उत्तम है, और उत्तर और भी उत्तम है। सृष्टि में हरेक चीज़ उत्तमता के एक स्तर से दूसरे स्तर पर अग्रसर हो रही है। दूध उत्तम है, और जब वह दही बन जाता है, दही भी उत्तम है। आप दही से क्रीम निकाल सकते हैं, और वह भी उत्तम है। फिर आप मक्खन बनाते हैं और वह भी उत्तम है। ये एक दृष्टि हुई। दूसरी दृष्टि से देखें तो, दूध खराब हो गया तो आप ने उस से पनीर बनाया। जब दही खराब हो गया तो आप ने उस में से मक्खन निकाला। ये देखने का दूसरा तरीका हुआ। आप की दृष्टि पर निर्भर है कि आप कैसे देखें। अनुत्तमता से ही उत्तमता को महत्व मिलता है। है कि नहीं? आप किसी चीज़ को उत्तम कैसे कह सकते हैं?
किसी भी वस्तु को दोष रहित तभी समझ सकते हैं, जब कहीं पर दोष देख चुके हैं। इसलिये दोषयुक्त वस्तु का होना भी आवश्यक है, किसी दोषहीन उत्तम चीज़ को समझने के लिये। तो, दोष ही उत्तम को उत्तम बनाते हैं!
प्रश्न : मैं सोच रहा हूँ कि ये मन आखिर है क्या? क्या यह हमारे दिमाग में किसी एक जगह में है या यह पूरे जगत में व्याप्त है? हाँ, मैं यह भी कहना चाहता हूँ आप सर्वोत्तम हैं!
श्री श्री रवि शंकर : मन, ऊर्जा का स्वरूप है जो कि पूरे शरीर में व्याप्त है। हमारे शरीर के हर कोष से ऊर्जा प्रसारित होती है। आपके आस पास, पूरी ऊर्जा को सम्मिलित रूप से मन कहते हैं। मन, दिमाग के किसी एक भाग में नहीं स्थित है, अपितु शरीर में सभी जगह व्याप्त है।
चेतना विषयक ज्ञान बहुत गहरा है। हमें कभी कभी इस गहराई में जाना चाहिये। जितना गहराई में जायेंगे, उतना ही इसे समझ सकेंगे। जितना समझोगे, उतने ही चकित होते जाओगे! वाह!
तुम्हें पता लोगों का एक भूतिया हाथ होता है, जिसका अर्थ है कि सच में उनका हाथ नहीं है, पर उन्हें फिर भी उस हाथ में संवेदना होती है, पीड़ा और खुजली होती है! जो लोग अपना हाथ या पैर किसी दुर्घाटना वश खो देते हैं, उन्हें बाद में कभी कभी उस खोये हुये हाथ या पैर के अस्तित्व का अभास होता है। हालांकि वो सचमुच नहीं होता है। इस से ये साबित होता है कि मन, शरीर के किसी एक भाग में स्थित ना होकर, पूरे शरीर के इर्द गिर्द रहता है। शरीर का आभा-मण्डल ही मन है। हम सोचते हैं कि मन, शरीर के भीतर है, पर सत्य इसका उल्टा है - शरीर, मन के भीतर है। शरीर एक मोम्बत्ती की बाती की तरह है, और मन इसकी ज्योति है।
प्रश्न : गुरुजी, हम सब यहाँ मौन की गहराई की अनुभूति को समझने आये हैं। मुझे यहाँ बहुत अच्छा भी लग रहा है और मैं एकान्त व मौन में रहना पसंद करने लगा हूँ। पर जब मैं वापस ऑफ़िस या अन्य सामाजिक जगह पर जाऊँगा तो क्या बहुत मौन रखना वहाँ ठीक होगा?
श्री श्री रवि शंकर : संतुलन! जीवन में संतुलन रखो। किसी भी चीज में अति करना ठीक नहीं है। बहुत बोलना भी ठीक नहीं और बहुत मौन भी ठीक नहीं है तुम्हारे लिये इस वक्त।
प्रश्न : हम जानते हैं कि जीवन में भाग्य महत्व रखता है। जीवन में सफलता और असफलता भाग्य से ही संबंधित हैं तो फिर हमारा कार्य भार क्या रह जाता है जीवन में?
श्री श्री रवि शंकर : तुम अपना भाग्य खुद बनाते हो। तुमने कल जो किया वह आने वाले कल का भविष्य होगा और तुम आज जो करोगे वह आने वाले कल के बाद के दिनों का भाग्य बनेगा।
प्रश्न : प्राचीन भारत का इतिहास भरा पड़ा है सिद्ध ज्ञानियों और योगियों की गाथाओं से जिनमें थीं अद्भुत अलौकिक शक्तियाँ और सजगता। पर इन कहानियों को कैसे समझा जाये- केवल पौराणिक कहानियों के रूप में या फिर कोई संकेत है कि हम सभी में इस दैवी शक्ति के छुपे होने की सम्भावना है?
श्री श्री रवि शंकर : क्या आप को सबसे पहले उड़ने वाले हवाई जहाज़ के बारे में पता है? सबसे पहले हवाई जहाज़ किसने उड़ाया था? (जवाब आया - राइट ब्रदर्स) यही हम सब किताबों में भी पढ़ते आ रहे हैं, पर यह गलत है। राइट ब्रदर्स से ५० साल पहले, बंगलोर के सुब्रय शास्त्री ने यह कार्य किया था।
वे ध्यान और मौन के बाद एक योगी से मिले थे जिनकी सहायता से और गहरे ध्यान में जाने के बाद उन्हें विमान बनाने का ज्ञान प्राप्त हुआ और उन्होनें विमान बनाये। उसने ‘वैमानिक शास्त्र’ नामक पुस्तक भी लिखी थी और १८०० में एक पारसी व्यक्ति के साथ मिलकर पहला विमान उड़ाया था। पारसी लोग, ईरान से आकर भारत में बसने वाले लोग हैं जो जोरोस्ट्रियन धर्म को मानते हैं। उस पारसी व्यक्ति से मिली आर्थिक सहायता से वह पहला प्लेन बना था जिसमें उन दोनों ने उड़ान भरी थी चौपाटी पर मुम्बई (बॉम्बे) के समुद्र किनारे पर। यह खबर लंदन टाइम्स अखबार में भी छपी थी। परंतु अंग्रेजी हुकूमत के अंतर्गत दोनों को जेल में डाल दिया गया था, और विमान के सब नक्शे भी जब्त कर लिये गये थे। अभी हाल ही में टेलीविजन पर यह खबर दिखायी गयी थी लंदन के अखबार की छवि सहित, जिसमें विमान बनाने के नक्शे के साथ यह खबर छपी थी।
भारद्वाज वैमानिक शास्त्र’ विमान विज्ञान, जो कि ॠषि भारद्वाज द्वारा लिखा गया था उसमें पाँच अलग अलग तरह से विमान बनाने के तरीके आज भी मौजूद हैं। ऋषि भारद्वाज ने अलग अलग विमनों की इंजिन रचना बताई है - सीधा उड़ने वाले विमान हेलीकॉप्टर जैसे और अन्य विमान जो हवाई पट्टी पर दौड़ने के बाद उड़ान भरते हैं उन के लिये भी।
इसके बारे में आपको अधिक जानकारी www.bharathgyan.com वेबसाइट से मिल जायेगी।
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श्री श्री रवि शंकर : प्रश्न उत्तम है, और उत्तर और भी उत्तम है। सृष्टि में हरेक चीज़ उत्तमता के एक स्तर से दूसरे स्तर पर अग्रसर हो रही है। दूध उत्तम है, और जब वह दही बन जाता है, दही भी उत्तम है। आप दही से क्रीम निकाल सकते हैं, और वह भी उत्तम है। फिर आप मक्खन बनाते हैं और वह भी उत्तम है। ये एक दृष्टि हुई। दूसरी दृष्टि से देखें तो, दूध खराब हो गया तो आप ने उस से पनीर बनाया। जब दही खराब हो गया तो आप ने उस में से मक्खन निकाला। ये देखने का दूसरा तरीका हुआ। आप की दृष्टि पर निर्भर है कि आप कैसे देखें। अनुत्तमता से ही उत्तमता को महत्व मिलता है। है कि नहीं? आप किसी चीज़ को उत्तम कैसे कह सकते हैं?
किसी भी वस्तु को दोष रहित तभी समझ सकते हैं, जब कहीं पर दोष देख चुके हैं। इसलिये दोषयुक्त वस्तु का होना भी आवश्यक है, किसी दोषहीन उत्तम चीज़ को समझने के लिये। तो, दोष ही उत्तम को उत्तम बनाते हैं!
प्रश्न : मैं सोच रहा हूँ कि ये मन आखिर है क्या? क्या यह हमारे दिमाग में किसी एक जगह में है या यह पूरे जगत में व्याप्त है? हाँ, मैं यह भी कहना चाहता हूँ आप सर्वोत्तम हैं!
श्री श्री रवि शंकर : मन, ऊर्जा का स्वरूप है जो कि पूरे शरीर में व्याप्त है। हमारे शरीर के हर कोष से ऊर्जा प्रसारित होती है। आपके आस पास, पूरी ऊर्जा को सम्मिलित रूप से मन कहते हैं। मन, दिमाग के किसी एक भाग में नहीं स्थित है, अपितु शरीर में सभी जगह व्याप्त है।
चेतना विषयक ज्ञान बहुत गहरा है। हमें कभी कभी इस गहराई में जाना चाहिये। जितना गहराई में जायेंगे, उतना ही इसे समझ सकेंगे। जितना समझोगे, उतने ही चकित होते जाओगे! वाह!
तुम्हें पता लोगों का एक भूतिया हाथ होता है, जिसका अर्थ है कि सच में उनका हाथ नहीं है, पर उन्हें फिर भी उस हाथ में संवेदना होती है, पीड़ा और खुजली होती है! जो लोग अपना हाथ या पैर किसी दुर्घाटना वश खो देते हैं, उन्हें बाद में कभी कभी उस खोये हुये हाथ या पैर के अस्तित्व का अभास होता है। हालांकि वो सचमुच नहीं होता है। इस से ये साबित होता है कि मन, शरीर के किसी एक भाग में स्थित ना होकर, पूरे शरीर के इर्द गिर्द रहता है। शरीर का आभा-मण्डल ही मन है। हम सोचते हैं कि मन, शरीर के भीतर है, पर सत्य इसका उल्टा है - शरीर, मन के भीतर है। शरीर एक मोम्बत्ती की बाती की तरह है, और मन इसकी ज्योति है।
प्रश्न : गुरुजी, हम सब यहाँ मौन की गहराई की अनुभूति को समझने आये हैं। मुझे यहाँ बहुत अच्छा भी लग रहा है और मैं एकान्त व मौन में रहना पसंद करने लगा हूँ। पर जब मैं वापस ऑफ़िस या अन्य सामाजिक जगह पर जाऊँगा तो क्या बहुत मौन रखना वहाँ ठीक होगा?
श्री श्री रवि शंकर : संतुलन! जीवन में संतुलन रखो। किसी भी चीज में अति करना ठीक नहीं है। बहुत बोलना भी ठीक नहीं और बहुत मौन भी ठीक नहीं है तुम्हारे लिये इस वक्त।
प्रश्न : हम जानते हैं कि जीवन में भाग्य महत्व रखता है। जीवन में सफलता और असफलता भाग्य से ही संबंधित हैं तो फिर हमारा कार्य भार क्या रह जाता है जीवन में?
श्री श्री रवि शंकर : तुम अपना भाग्य खुद बनाते हो। तुमने कल जो किया वह आने वाले कल का भविष्य होगा और तुम आज जो करोगे वह आने वाले कल के बाद के दिनों का भाग्य बनेगा।
प्रश्न : प्राचीन भारत का इतिहास भरा पड़ा है सिद्ध ज्ञानियों और योगियों की गाथाओं से जिनमें थीं अद्भुत अलौकिक शक्तियाँ और सजगता। पर इन कहानियों को कैसे समझा जाये- केवल पौराणिक कहानियों के रूप में या फिर कोई संकेत है कि हम सभी में इस दैवी शक्ति के छुपे होने की सम्भावना है?
श्री श्री रवि शंकर : क्या आप को सबसे पहले उड़ने वाले हवाई जहाज़ के बारे में पता है? सबसे पहले हवाई जहाज़ किसने उड़ाया था? (जवाब आया - राइट ब्रदर्स) यही हम सब किताबों में भी पढ़ते आ रहे हैं, पर यह गलत है। राइट ब्रदर्स से ५० साल पहले, बंगलोर के सुब्रय शास्त्री ने यह कार्य किया था।
वे ध्यान और मौन के बाद एक योगी से मिले थे जिनकी सहायता से और गहरे ध्यान में जाने के बाद उन्हें विमान बनाने का ज्ञान प्राप्त हुआ और उन्होनें विमान बनाये। उसने ‘वैमानिक शास्त्र’ नामक पुस्तक भी लिखी थी और १८०० में एक पारसी व्यक्ति के साथ मिलकर पहला विमान उड़ाया था। पारसी लोग, ईरान से आकर भारत में बसने वाले लोग हैं जो जोरोस्ट्रियन धर्म को मानते हैं। उस पारसी व्यक्ति से मिली आर्थिक सहायता से वह पहला प्लेन बना था जिसमें उन दोनों ने उड़ान भरी थी चौपाटी पर मुम्बई (बॉम्बे) के समुद्र किनारे पर। यह खबर लंदन टाइम्स अखबार में भी छपी थी। परंतु अंग्रेजी हुकूमत के अंतर्गत दोनों को जेल में डाल दिया गया था, और विमान के सब नक्शे भी जब्त कर लिये गये थे। अभी हाल ही में टेलीविजन पर यह खबर दिखायी गयी थी लंदन के अखबार की छवि सहित, जिसमें विमान बनाने के नक्शे के साथ यह खबर छपी थी।
भारद्वाज वैमानिक शास्त्र’ विमान विज्ञान, जो कि ॠषि भारद्वाज द्वारा लिखा गया था उसमें पाँच अलग अलग तरह से विमान बनाने के तरीके आज भी मौजूद हैं। ऋषि भारद्वाज ने अलग अलग विमनों की इंजिन रचना बताई है - सीधा उड़ने वाले विमान हेलीकॉप्टर जैसे और अन्य विमान जो हवाई पट्टी पर दौड़ने के बाद उड़ान भरते हैं उन के लिये भी।
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"गुरु पूर्णिमा २०१० - गुरुदेव श्री श्री रवि शंकर का संदेश"
हार्टफ़ोर्ड, अमरीका
वर्ष की १२-१३ पूर्णिमाओं में से वैशाख पूर्णिमा, बुद्ध को समर्पित है (उनके जन्म और बुद्धत्व को), ज्येष्ठ पूर्णिमा पृथ्वी माता को समर्पित है, तथा आषाण पूर्णिमा गुरुओं की स्मृति में समर्पित है।
इस दिन शिष्य अपनी पूर्णता में जागृत होता है, और इस जागृत अवस्था में वह आभार प्रकट किये बिना रह ही नहीं सकता। ये आभार द्वैत का ना होकर, अद्वैत का है। ये एक नदी नहीं है जो एक स्थान से दूसरे स्थान पर जा रही है, ये एक सागर है जो अपने भीतर ही रमण करता है। कृत्ज्ञता, गुरु पूर्णिमा पर पूर्णता की अभिव्यक्ति है।
गुरु पूर्णिमा के उत्सव का ध्येय यह देखना है कि पिछले एक वर्ष में जीवन में कितना विकास हुआ है। एक साधक के लिये गुरु पूर्णिमा का दिन नव वर्ष के दिन की तरह महत्वपूर्ण है। इस दिन अवलोकन करें कि साधना के पथ पर आप ने कितनी तरक्की की है, और अगले वर्ष में जो करना चाहते हैं उसके लिए संकल्प लें। जैसे पूर्णिमा का चँद्रमा उदय और अस्त होता है, आभार के अश्रु बहते हैं। अपने अनंत विस्तार में विश्राम करें।
आप जानते हैं कि हमारे शरीर में लाखों कोषिकायें हैं, और हर एक कोषिका का अपना जीवन क्रम है। कई कोषिकायें प्रतिदिन जन्म ले रहीं हैं, और कई कोषिकायें मर रही हैं। तो, आप एक चलता फिरता शहर हैं! इस पृथ्वी पर कितने ही शहर हैं, और ये पृथ्वी सूर्य का चक्कर लगा रही है। उसी तरह आपके भीतर कितनी ही कोषिकायें और जीव जंतु हैं और आप चलायमान हैं। आप एक चलता फिरता शहर हैं। जैसे एक मधुमक्खी के छत्ते में कई मधुमक्खियां आकर बैठती हैं, पर रानी मक्खी चली जाये तो सभी मधुमक्खियां छत्ता छोड़ देती हैं। रानी मक्खी की ही तरह, हमारे शरीर में एक परमाणु है। अगर वो ना हो, तो बाकी सब चला जाता है। वह सूक्ष्म से भी सूक्ष्म है, वही आत्मा है, ईश्वर है। वो सब जगह व्याप्त है, फिर भी कहीं नहीं है।
तुम भी वही हो। वही परमात्मा है और वही गुरु तत्व है। जैसा मातृत्व होता है, पितृत्व होता है, गुरुत्व भी होता है। आप सब भी किसी ना किसी के गुरु बनो। जाने अनजाने आप ऐसा करते ही हैं,लोगों को सलाह देते हैं, उन्हें रास्ता दिखाते हैं, प्रेम देते हैं और देखरेख करते हैं। पर ऐसा करने में अपना १०० प्रतिशत दें और बदले में उनसे कुछ ना चाहें। यही है अपने जीवन में गुरुत्व को जीना, अपनी आत्मा में जीना। आप में, परमात्मा में, और गुरु तत्व में कोई अंतर नहीं है। ये सब उस एक में ही घुल जाना हैं, लुप्त हो जाना है।
ध्यान का अर्थ है विश्राम करना और उस अतिसूक्ष्म परमाणु में स्थित रहना। तो उन सब चीज़ों के बारे में सोचें जिनके लिये तुम आभारी हो, और जो चाहते हो वो मांग लो। और सब को आशीर्वाद दो। हमें बहुत कुछ मिलता है, पर लेना ही काफ़ी नहीं है। हमें देना भी चाहिये। उन्हें आशीर्वाद दें, जिन्हें इसकी ज़रूरत हो।
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वर्ष की १२-१३ पूर्णिमाओं में से वैशाख पूर्णिमा, बुद्ध को समर्पित है (उनके जन्म और बुद्धत्व को), ज्येष्ठ पूर्णिमा पृथ्वी माता को समर्पित है, तथा आषाण पूर्णिमा गुरुओं की स्मृति में समर्पित है।
इस दिन शिष्य अपनी पूर्णता में जागृत होता है, और इस जागृत अवस्था में वह आभार प्रकट किये बिना रह ही नहीं सकता। ये आभार द्वैत का ना होकर, अद्वैत का है। ये एक नदी नहीं है जो एक स्थान से दूसरे स्थान पर जा रही है, ये एक सागर है जो अपने भीतर ही रमण करता है। कृत्ज्ञता, गुरु पूर्णिमा पर पूर्णता की अभिव्यक्ति है।
गुरु पूर्णिमा के उत्सव का ध्येय यह देखना है कि पिछले एक वर्ष में जीवन में कितना विकास हुआ है। एक साधक के लिये गुरु पूर्णिमा का दिन नव वर्ष के दिन की तरह महत्वपूर्ण है। इस दिन अवलोकन करें कि साधना के पथ पर आप ने कितनी तरक्की की है, और अगले वर्ष में जो करना चाहते हैं उसके लिए संकल्प लें। जैसे पूर्णिमा का चँद्रमा उदय और अस्त होता है, आभार के अश्रु बहते हैं। अपने अनंत विस्तार में विश्राम करें।
आप जानते हैं कि हमारे शरीर में लाखों कोषिकायें हैं, और हर एक कोषिका का अपना जीवन क्रम है। कई कोषिकायें प्रतिदिन जन्म ले रहीं हैं, और कई कोषिकायें मर रही हैं। तो, आप एक चलता फिरता शहर हैं! इस पृथ्वी पर कितने ही शहर हैं, और ये पृथ्वी सूर्य का चक्कर लगा रही है। उसी तरह आपके भीतर कितनी ही कोषिकायें और जीव जंतु हैं और आप चलायमान हैं। आप एक चलता फिरता शहर हैं। जैसे एक मधुमक्खी के छत्ते में कई मधुमक्खियां आकर बैठती हैं, पर रानी मक्खी चली जाये तो सभी मधुमक्खियां छत्ता छोड़ देती हैं। रानी मक्खी की ही तरह, हमारे शरीर में एक परमाणु है। अगर वो ना हो, तो बाकी सब चला जाता है। वह सूक्ष्म से भी सूक्ष्म है, वही आत्मा है, ईश्वर है। वो सब जगह व्याप्त है, फिर भी कहीं नहीं है।
तुम भी वही हो। वही परमात्मा है और वही गुरु तत्व है। जैसा मातृत्व होता है, पितृत्व होता है, गुरुत्व भी होता है। आप सब भी किसी ना किसी के गुरु बनो। जाने अनजाने आप ऐसा करते ही हैं,लोगों को सलाह देते हैं, उन्हें रास्ता दिखाते हैं, प्रेम देते हैं और देखरेख करते हैं। पर ऐसा करने में अपना १०० प्रतिशत दें और बदले में उनसे कुछ ना चाहें। यही है अपने जीवन में गुरुत्व को जीना, अपनी आत्मा में जीना। आप में, परमात्मा में, और गुरु तत्व में कोई अंतर नहीं है। ये सब उस एक में ही घुल जाना हैं, लुप्त हो जाना है।
ध्यान का अर्थ है विश्राम करना और उस अतिसूक्ष्म परमाणु में स्थित रहना। तो उन सब चीज़ों के बारे में सोचें जिनके लिये तुम आभारी हो, और जो चाहते हो वो मांग लो। और सब को आशीर्वाद दो। हमें बहुत कुछ मिलता है, पर लेना ही काफ़ी नहीं है। हमें देना भी चाहिये। उन्हें आशीर्वाद दें, जिन्हें इसकी ज़रूरत हो।
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"प्रेम में ऐसा लग ही नहीं सकता कि इतना बहुत है"
१५ जुलाई, मोन्ट्रियल आश्रम
प्रश्न : जब सेना में सिपाही किसी को मारते हैं तो क्या बुरा कर्म बनता है?
श्री श्री रवि शंकर : एक पुलिस अधिकारी का उदाहरण लेते हैं। एक पुलिस वाला समाज में शांति बनाने का अपना काम करता है, तो यह बुरा नहीं है। सेना में सिपाही अपने आदेश का पालन कर रहा है, वह उसका काम है। जिसने आदेश दिया उसका कर्म बनता है।
प्रश्न : क्या आप solar plexus और सूरज के साथ हमारे संबंध के बारे में बताएंगे? इस संबंध को, हमारे nervous system को और शरीर की प्रतिरक्षा को कैसे बढ़ाया जा सकता है?
श्री श्री रवि शंकर : प्राणायाम और ध्यान से। बस इतना जान लो कि संबंध है। आप अपने आसपास की हवा से संबंधित हैं। आप चाहें जानते हैं यां नहीं, पर ऐसा है। हमारे शरीर में गुरुत्वाकर्षण का केन्द्र solar plexus है, और सौर मंडल का केन्द्र सूरज है।
प्रश्न : समाज के उत्थान का आपका लक्ष्य क्या आप पर कभी बोझिल लगता है? ऐसे में क्या आपकी मदद करता है?
श्री श्री रवि शंकर : आप सबका सहयोग मदद करता है। जब आप लोग लिखते हैं, इस बारे में बात करते हैं। संसार में पक्षपात को खत्म करना है। यह बहुत कम है पर इस अवरोध को मिटाना है। और आप सब इसे कम करने में सहायता कर सकते हैं।
प्रश्न : भगवद गीता मेरे दिल के बहुत पास है, पर फिर भी एक बात मुझे दुविधा में डालती है। और वो यह कि जब अर्जुन युद्ध छोड़ कर समाज से दूर जाना चाहता था तो श्री कृष्ण ने उसे अपनी ज़िम्मेदारी को निभाते हुए युद्ध में डटे रहने के लिए कहा। श्री कृष्ण का यह सुझाव अहिंसा के मार्ग पर चलने के विरोध में प्रतीत होता है। क्या यह इस्लाम और ईसाइ धर्म के 'Just War' के समान है?
श्री श्री रवि शंकर : गीता का सार यही है कि कृत में आस्क्त हुए बिना अपना काम करते रहना। यह योग के बारे में है, युद्ध के बारे में नहीं बल्कि आपके रवैये के बारे में। जब आपके सामने युद्ध जैसी कोई घटना आ जाए तो खुद को कैसे संभालते हैं? जीवन में सबसे बुरी घटना यही होगी कि आपको युद्ध करना पड़े, और वो भी किसी दुश्मन से नहीं पर अपने लोगों से। जब आपको अपने ही भाई, बहनों यां रिश्तेदारों से लड़ना पड़े तो परिस्तिथि कैसे संभालें? जिसे आप पसंद नहीं करते, जो आपको दुश्मन लगता है, उसके साथ युद्ध करना आसान है। पर किसी ऐसे के साथ लड़ना जो आपके परिवार का हिस्सा है, यह सबसे बुरा है। अगर आप ऐसी परिस्तिथि में भी अपने आपको संभाल सकते हैं तो आप किसी भी परिस्तिथि में अपने आपको संभाल सकेंगे। यही गीता का सार भी है। कार्य में कुशलता योगा है।
ऐसा ही ज्ञान अष्टावक्र द्वारा राजमहल में दिया गया था। जब आप में ऊर्जा है, उत्साह है और आप मुक्ति चाहते हैं, यह राजा जनक की स्थिति थी। पर जब आप पूर्ण उदास हैं और मन में हलचल है, तो यह अर्जुन की स्थिति थी। उस समय उसे वही ज्ञान भगवद गीता में दिया गया।
प्रश्न : क्या हम अपने पिछले कर्मों का प्रभाव मिटा सकते हैं? क्या गुरु ऐसा कर सकते हैं?
श्री श्री रवि शंकर : हाँ।
प्रश्न : क्या मानवता के दायरे के अंदर ईश्वर को उतना ही प्रेम करना संभव है जितना वो मुझे करते हैं। मैं ईश्वर को और प्रेम करना चाहता हूँ पर यह अहंकार, मन और शरीर बाधक बन जाते हैं। मैं इस अवरोध को कैसे पार सकता हूँ?
श्री श्री रवि शंकर : प्रेम का स्वभाव ही ऐसा है कि लगता है काफी नहीं है। प्रेम में ऐसा लग ही नहीं सकता कि इतना बहुत है। जब आप प्रेम में होते हैं तो आप सोचते हैं आपको और करना है, और देना है, और प्रेम करना है। कुछ और का भाव, कुछ अधूरा होने का भाव, यह प्रेम का स्वभाव है। इसीलिए प्रेम अनंत है। इसका कोई अंत नहीं है, कोई सीमा नहीं है। इससे कभी ऊब ही नहीं सकते।
प्रश्न : मैने आपको कहते हुए सुना और मैं ऐसा मानता भी हूँ कि ईश्वर सब जगह है। तो फिर पूजा का कितना मह्त्व है और ऋषिकेश जैसी धार्मिक जगह पर जाने का कितना महत्व है?
श्री श्री रवि शंकर : यह ऐसा है जैसे आप घर पर खाना खाते हैं और कभी आप किसी रेस्ट्रोरेंट में भी जाते हैं। आप रेस्ट्रोंरेंट में इसलिए नहीं जाते क्योंकि घर पर भोजन नहीं है। पर आप इसलिए जाते हैं क्योंकि आप सभी व्यंजनों का एक जैसा आनंद उठाते हैं।
प्रश्न : जीवन में दुर्घटनाओं और बीमारियों की क्या वजह है? हम अपना इतना ध्यान रखते हैं पर फिर भी यह सब जीवन में होता है। ऐसा क्यों?
श्री श्री रवि शंकर : जब हम नियम तोड़ते हैं तो ऐसा होता ही है। जैसे सिगनल पर लाल यां हरी बत्ती का नियम तोड़ते हैं तो दुर्घटना होने की संभावना अधिक ही होती है। किसी और के नियम तोड़ने से भी ऐसा होता है। आप अकेले नहीं है, हम जीवन में और बहुत से कारणों से जुड़े हुए हैं।
प्रश्न : क्या angels होती हैं? आप उनके बारे में कुछ बताएं।
श्री श्री रवि शंकर : हाँ, angels होती हैं और सबके लिए अच्छी कामनाओं से तृप्त होती हैं। वो यहाँ बैठे भौतिक शरीर वालों के रूप में ही नहीं बल्कि ईश्वरीय भी होती हैं।
प्रश्न : मैं बहुत अधिक भविष्य में ही उल्झा रहता हूँ। मन में कुछ ना कुछ भविष्य के बारे में चलता रहता है। मेरी बहुत कोशिश के बावजूद भी मैं इस से बाहर नहीं आ पा रहा हूँ। मुझे क्या करना चाहिए?
श्री श्री रवि शंकर : अधिक ज्ञान और ध्यान।
प्रश्न: एक युवक होते हुए मुझे अपने को वृद्धावस्था की ओर बढ़ते हुए देखना अच्छा लगता है, पर फिर भी मुझे वृद्धावस्था की कई बीमारियों और अन्य चीज़ों से डर लगता है। क्या किसी मानव के लिए यह संभव है कि वो इन सब बीमारियों से ऊपर उठ जाए?और अगर हाँ, तो यह कैसे संभव है?
श्री श्री रवि शंकर : तुम पहले ही सही काम कर रहे हो - यह ज्ञान, यह पथ, योग। जैसे जैसे तुम वृद्ध होते हो योगा करते रहो, सही आहार, सही विश्राम, और जीवन के प्रति सही नज़रिया रखो।
प्रश्न : क्या आप औरोबिन्दो के बारे में कुछ बता सकते हैं?
श्री श्री रवि शंकर : आपको पता है, जब आप औरोबिन्दों के बारे में पूछ रहे हैं, आप पहले ही उस बारे में जानते हैं। वो चाहते थे अधिक से अधिक लोग ध्यान करें। तो जो बीज उन्होने बोया था, उसका लक्ष्य था सामूहिक चेतना पर और अधिक पहुँच, यह अभी हो रहा है।
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प्रश्न : जब सेना में सिपाही किसी को मारते हैं तो क्या बुरा कर्म बनता है?
श्री श्री रवि शंकर : एक पुलिस अधिकारी का उदाहरण लेते हैं। एक पुलिस वाला समाज में शांति बनाने का अपना काम करता है, तो यह बुरा नहीं है। सेना में सिपाही अपने आदेश का पालन कर रहा है, वह उसका काम है। जिसने आदेश दिया उसका कर्म बनता है।
प्रश्न : क्या आप solar plexus और सूरज के साथ हमारे संबंध के बारे में बताएंगे? इस संबंध को, हमारे nervous system को और शरीर की प्रतिरक्षा को कैसे बढ़ाया जा सकता है?
श्री श्री रवि शंकर : प्राणायाम और ध्यान से। बस इतना जान लो कि संबंध है। आप अपने आसपास की हवा से संबंधित हैं। आप चाहें जानते हैं यां नहीं, पर ऐसा है। हमारे शरीर में गुरुत्वाकर्षण का केन्द्र solar plexus है, और सौर मंडल का केन्द्र सूरज है।
प्रश्न : समाज के उत्थान का आपका लक्ष्य क्या आप पर कभी बोझिल लगता है? ऐसे में क्या आपकी मदद करता है?
श्री श्री रवि शंकर : आप सबका सहयोग मदद करता है। जब आप लोग लिखते हैं, इस बारे में बात करते हैं। संसार में पक्षपात को खत्म करना है। यह बहुत कम है पर इस अवरोध को मिटाना है। और आप सब इसे कम करने में सहायता कर सकते हैं।
प्रश्न : भगवद गीता मेरे दिल के बहुत पास है, पर फिर भी एक बात मुझे दुविधा में डालती है। और वो यह कि जब अर्जुन युद्ध छोड़ कर समाज से दूर जाना चाहता था तो श्री कृष्ण ने उसे अपनी ज़िम्मेदारी को निभाते हुए युद्ध में डटे रहने के लिए कहा। श्री कृष्ण का यह सुझाव अहिंसा के मार्ग पर चलने के विरोध में प्रतीत होता है। क्या यह इस्लाम और ईसाइ धर्म के 'Just War' के समान है?
श्री श्री रवि शंकर : गीता का सार यही है कि कृत में आस्क्त हुए बिना अपना काम करते रहना। यह योग के बारे में है, युद्ध के बारे में नहीं बल्कि आपके रवैये के बारे में। जब आपके सामने युद्ध जैसी कोई घटना आ जाए तो खुद को कैसे संभालते हैं? जीवन में सबसे बुरी घटना यही होगी कि आपको युद्ध करना पड़े, और वो भी किसी दुश्मन से नहीं पर अपने लोगों से। जब आपको अपने ही भाई, बहनों यां रिश्तेदारों से लड़ना पड़े तो परिस्तिथि कैसे संभालें? जिसे आप पसंद नहीं करते, जो आपको दुश्मन लगता है, उसके साथ युद्ध करना आसान है। पर किसी ऐसे के साथ लड़ना जो आपके परिवार का हिस्सा है, यह सबसे बुरा है। अगर आप ऐसी परिस्तिथि में भी अपने आपको संभाल सकते हैं तो आप किसी भी परिस्तिथि में अपने आपको संभाल सकेंगे। यही गीता का सार भी है। कार्य में कुशलता योगा है।
ऐसा ही ज्ञान अष्टावक्र द्वारा राजमहल में दिया गया था। जब आप में ऊर्जा है, उत्साह है और आप मुक्ति चाहते हैं, यह राजा जनक की स्थिति थी। पर जब आप पूर्ण उदास हैं और मन में हलचल है, तो यह अर्जुन की स्थिति थी। उस समय उसे वही ज्ञान भगवद गीता में दिया गया।
प्रश्न : क्या हम अपने पिछले कर्मों का प्रभाव मिटा सकते हैं? क्या गुरु ऐसा कर सकते हैं?
श्री श्री रवि शंकर : हाँ।
प्रश्न : क्या मानवता के दायरे के अंदर ईश्वर को उतना ही प्रेम करना संभव है जितना वो मुझे करते हैं। मैं ईश्वर को और प्रेम करना चाहता हूँ पर यह अहंकार, मन और शरीर बाधक बन जाते हैं। मैं इस अवरोध को कैसे पार सकता हूँ?
श्री श्री रवि शंकर : प्रेम का स्वभाव ही ऐसा है कि लगता है काफी नहीं है। प्रेम में ऐसा लग ही नहीं सकता कि इतना बहुत है। जब आप प्रेम में होते हैं तो आप सोचते हैं आपको और करना है, और देना है, और प्रेम करना है। कुछ और का भाव, कुछ अधूरा होने का भाव, यह प्रेम का स्वभाव है। इसीलिए प्रेम अनंत है। इसका कोई अंत नहीं है, कोई सीमा नहीं है। इससे कभी ऊब ही नहीं सकते।
प्रश्न : मैने आपको कहते हुए सुना और मैं ऐसा मानता भी हूँ कि ईश्वर सब जगह है। तो फिर पूजा का कितना मह्त्व है और ऋषिकेश जैसी धार्मिक जगह पर जाने का कितना महत्व है?
श्री श्री रवि शंकर : यह ऐसा है जैसे आप घर पर खाना खाते हैं और कभी आप किसी रेस्ट्रोरेंट में भी जाते हैं। आप रेस्ट्रोंरेंट में इसलिए नहीं जाते क्योंकि घर पर भोजन नहीं है। पर आप इसलिए जाते हैं क्योंकि आप सभी व्यंजनों का एक जैसा आनंद उठाते हैं।
प्रश्न : जीवन में दुर्घटनाओं और बीमारियों की क्या वजह है? हम अपना इतना ध्यान रखते हैं पर फिर भी यह सब जीवन में होता है। ऐसा क्यों?
श्री श्री रवि शंकर : जब हम नियम तोड़ते हैं तो ऐसा होता ही है। जैसे सिगनल पर लाल यां हरी बत्ती का नियम तोड़ते हैं तो दुर्घटना होने की संभावना अधिक ही होती है। किसी और के नियम तोड़ने से भी ऐसा होता है। आप अकेले नहीं है, हम जीवन में और बहुत से कारणों से जुड़े हुए हैं।
प्रश्न : क्या angels होती हैं? आप उनके बारे में कुछ बताएं।
श्री श्री रवि शंकर : हाँ, angels होती हैं और सबके लिए अच्छी कामनाओं से तृप्त होती हैं। वो यहाँ बैठे भौतिक शरीर वालों के रूप में ही नहीं बल्कि ईश्वरीय भी होती हैं।
प्रश्न : मैं बहुत अधिक भविष्य में ही उल्झा रहता हूँ। मन में कुछ ना कुछ भविष्य के बारे में चलता रहता है। मेरी बहुत कोशिश के बावजूद भी मैं इस से बाहर नहीं आ पा रहा हूँ। मुझे क्या करना चाहिए?
श्री श्री रवि शंकर : अधिक ज्ञान और ध्यान।
प्रश्न: एक युवक होते हुए मुझे अपने को वृद्धावस्था की ओर बढ़ते हुए देखना अच्छा लगता है, पर फिर भी मुझे वृद्धावस्था की कई बीमारियों और अन्य चीज़ों से डर लगता है। क्या किसी मानव के लिए यह संभव है कि वो इन सब बीमारियों से ऊपर उठ जाए?और अगर हाँ, तो यह कैसे संभव है?
श्री श्री रवि शंकर : तुम पहले ही सही काम कर रहे हो - यह ज्ञान, यह पथ, योग। जैसे जैसे तुम वृद्ध होते हो योगा करते रहो, सही आहार, सही विश्राम, और जीवन के प्रति सही नज़रिया रखो।
प्रश्न : क्या आप औरोबिन्दो के बारे में कुछ बता सकते हैं?
श्री श्री रवि शंकर : आपको पता है, जब आप औरोबिन्दों के बारे में पूछ रहे हैं, आप पहले ही उस बारे में जानते हैं। वो चाहते थे अधिक से अधिक लोग ध्यान करें। तो जो बीज उन्होने बोया था, उसका लक्ष्य था सामूहिक चेतना पर और अधिक पहुँच, यह अभी हो रहा है।
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"सबके जीवन में खुशहाली बिखराएं, और ईश्वर को आपके जीवन की देखरेख करने दें"
जुलाई १०, वेनकोवर, कैनेडा :
कोई भी तकनीक काम नहीं करती! वो तुम हो जिसके कारण तकनीक काम करती है, तुम्हारी श्रद्धा। जब तुम्हारा इरादा है और उस पर तुम ध्यान देते हो तो वैसा होने लगता है। अगर तुम्हारा इरादा नहीं है, तो वो काम नहीं करेगी। सुदर्शन क्रिया का प्रभाव होता है क्योंकि उसके पीछे इरादा है। किसी भी काम की पूर्ति के लिए उसके लिए इरादा, फिर उस पर ध्यान देना और वो होने लगता है।
अब हम कुछ प्राणायाम करते हैं। नाड़ी शोधन प्राणायाम से शुरु करते हैं। जब हमारी बाहिनी नासिका सक्रिय होती है तो दिमाग का दाहिना हिस्सा सक्रिय होता है, और जब दाहिनी नासिका सक्रिय होती है तो दिमाग का बाहिना हिस्सा सक्रिय होता है। दिमाग का दाहिना हिस्सा संगीत है और दिमाग का बाहिना हिस्सा तर्क। तो जिनकी दाहिनी नासिका सक्रिय है वो मुझे बेहतर समझ सकते हैं। और अगर दोनो सक्रिय हैं तो आप ध्यान में है। केवल दाहिनी नासिका सक्रिय होने से ध्यान नहीं होता। जब भी आप अपनी आँखे बंद करते हैं यां खोलते हैं तो आपकी स्थिति बदल जाती है। भोजन के बाद दाहिनी नासिका सक्रिय होनी चाहिए। जब दाहिनी नासिका सक्रिय होती है तो पाचन प्रक्रिया ५० प्रतिशत तेज़ होती है।
बाहिनी यां दाहिनी नाड़ी की सक्रियता बदलती रहती है क्योंकि हम प्राणों के सागर में रहते हैं।किस समय कौन सी नासिका सक्रिय होगी यह स्थान और वातावरण पर निर्भर करता है। अगर आप किसी मंदिर, गुरुद्वारे, चर्च यां किसी भी ऐसी जगह के पास जाते हैं जहाँ आध्यात्मिक उर्जा अधिक है तो दोनो नासिकाएं सक्रिय होती हैं। जब किसी पूजा के स्थान पर लोग पूर्ण भक्ति में होते हैं तो ऐसा होता है। जब आप किसी आध्यात्मिक गुरु से मिलते हैं तो ऐसा होता है। जब आप किसी आध्यात्मिक व्यक्ति से मिलते हैं तो आपकी आवाज़ आपको स्वयं बता देगी।
प्रश्न : गुरुजी हमे वादा कीजिए कि आप हर साल वेनकौवर आएंगे?
श्री श्री रवि शंकर : आपको पता है, मेरे लिए साल में ७०० दिन हैं!
प्रश्न : आप कहते हैं ध्यान में बैठते समय कोई प्रयत्न नहीं करना, पर मन का एक हिस्सा कुछ प्रयत्न करना चाहता है क्योंकि कुछ ना करने का भाव मन में उठता है। उस भाव के साथ क्या करूँ?
श्री श्री रवि शंकर : भस्त्रिका और आसन करो। उसमे प्रयत्न लगाओ। जब आप ध्यान के लिए बैठते हैं तो कोई प्रयत्न लगाने की आवशयकता नहीं है। जैसे ट्रेन पकड़ने के लिए प्रयत्न करना पड़ता है पर एक बार जब आप ट्रेन में बैठ गए तो केवल आराम से बैठना ही होता है। ट्रेन में भागने से आप अपने लक्ष्य पर जल्दी नहीं पहुँचते। एक बार चढ़ने के बाद आप केवल विश्राम करते हैं।
प्रश्न : इच्छाओं पर नियंत्रन कैसे करें?
श्री श्री रवि शंकर : इस क्षण में रहो। इच्छा का अर्थ है किसी आने वाले क्षण में सुख मिलने की चाह। अभी इसी क्षण में खुश और आनंदित रहो, बच्चों की तरह। अगर आप एक बच्चे से पूछते हैं कि उन्हें क्या चाहिए तो वो सहज ही कहता/कहती है - ’कुछ नहीं’, क्योंकि वो वर्तमान क्षण से खुश हैं।
प्रश्न : क्या आप लोगों का औरा देख सकते हैं?
श्री श्री रवि शंकर : इसमें कौन सी बड़ी बात है? तुम भी देख सकते हो।
प्रश्न : सिर दर्द और थकान से कैसे मुक्त हो सकते हैं?
श्री श्री रवि शंकर : योगा और प्राणायाम से।
प्रश्न : आप कैसे जान सकते हैं कि कोई उत्तर भीतर से आ रहा है यां तर्कसंगत मन से?
श्री श्री रवि शंकर : इसका कोई मापदंड नहीं है।मन जितना शांत होता है, तुम्हे सही उत्तर मिलता है।
प्रश्न : नकारात्मक विचारों के प्रवाह को कैसे रोक सकते हैं?
श्री श्री रवि शंकर : नकारात्मक विचार तीन कारणों से होते हैं - अगर रक्त का प्रवाह सही नहीं है,लसीका प्रणाली (lymphatic system) सही नहीं है यां मल त्याग (bowel moment) अनियमित है। आप फल आहार से अपनी आत्रें साफ कर सकते हैं। प्राणायाम से भी मदद मिलेगी। कुछ दिनों के लिए त्रिफला (आयुर्वेदिक परिशिष्ट) ले सकते हैं। योगा, प्राणायाम और ध्यान करो। तुम्हे फर्क अवश्य महसूस होगा। सामुहिक साधना से भी मदद मिलेगी।
प्रश्न: विचार अंदरूनी हैं यां बाहरी?
श्री श्री रवि शंकर : विचार मन में है। मन तुम्हारे चारों और है - अंदर भी और बाहर भी।
प्रश्न : हम ईश्वर के सामने रोते क्यों हैं? हम स्वयं को ईश्वर के पास कैसे ला सकते हैं?
श्री श्री रवि शंकर : जब तुम आंसु बहाते हो तो तुम्हे राहत महसूस होती है। मन की छाप धुल जाती है।
ईश्वर से निकटता के लिए तुम्हे कोई चेष्टा करने की आवश्यकता नहीं है। ईश्वर तुम्हारे सब से पास है। तुम खुद को कुछ भी मानते हो - अच्छा यां बुरा, ईश्वर तुम्हारे चारों और है। जैसे हवा तुम्हारे चारों और है। ईश्वर से कोई बचाव नहीं है, जैसे हवा तुम्हारे चारों और है चाहे तुम जाग्रित हो यां सुप्त हो। जब तुम्हे गर्मी लगती है तो तुम पंखे के सामने खड़े हो जाते हो। पंखा केवल उसी हवा को प्रवाह में लाता है जो वहाँ पहले से ही है। सत्संग पंखे की तरह हैं। मास्टर यां गुरु पंखे की तरह है। उसी से तुम हवा का प्रवाह महसूस करते हो।
प्रश्न : कृप्या सत चित आनंद का अर्थ बताएं?
श्री श्री रवि शंकर : सत का अर्थ है ’जो है’, चित वो है जो जानता है और आनंद का अर्थ है भीतरी खुशी।
प्रश्न : कोई अपने बचपन की छाप से कैसे बाहर आता है?
श्री श्री रवि शंकर : उसकी छाप पहले ही जा चुकी है। अगर तुम सोचत्ते हो कि उसकी छाप अभी भी मन पर है, तो उसे झाड़दो। स्मृति से दर्द को अलग करो। पर अगर तुम ऐसा करने के लिए प्रयत्न करते हो तो तुम स्मृति में उसे वापिस लकर आते हो। पर ध्यान में तुम दर्द को किसी घटना से जुड़ा हुआ नहीं बल्कि एक स्पंदन के रूप में अनुभव करते हो। जीवन का पहला अनुभव दर्द का ही था जब, एक छोटे से रास्ते के ज़रिए, माँ के गर्भ से बाहर आए थे। उससे पहले आप संपूर्ण आनंद में थे, आपको कुछ खाने की भी ज़रुरत नहीं पड़ती थी। फिर अचानक आप रोते हुए बाहर आए। आपने एक नए जन्में शिशु के चेहरे का भाव देखा है? यह ऐसा है जैसे वो १० घंटे के कड़े श्रम के बाद बाहर आया होता है। पहला अनुभव दर्द का होता है। और फिर बच्चा अपनी माँ की आँखों में देखता है और प्रेम का अनुभव करता है। तो दर्द को किसी घटना के साथ मत जोड़ो।
प्रश्न: किसी से बिछड़ने के दर्द से कैसे बाहर आ सकते हैं?
श्री श्री रवि शंकर : उज्जई श्वास।
प्रश्न : जब किसी की मृत्यु हो जाती है तो रिश्ते का क्या होता है? क्या उसी व्यक्ति से कोई रिश्ता अगले जन्म में फिर बनता है?
श्री श्री रवि शंकर : दोनों संभावनाएं हैं। कुछ रिश्ते खत्म हो जाते हैं और कुछ अगले जन्म तक चलते हैं।
प्रश्न : हम मन में चल रहे हाँ और ना के द्वंद से कैसे बाहर आ सकते हैं?
श्री श्री रवि शंकर : केवल मुस्कुराओ। जैसे परिस्तिथि आती है उसे स्वीकार करो।
प्रश्न : क्या यह हमारी ज़िम्मेदारी है कि हम बच्चे को जन्म दें? यां यह हम ईश्वर की इच्छा पर छोड़ सकते हैं?
श्री श्री रवि शंकर : अगर आप संतान चाहते हैं तो यह आप पर है। यह बहुत सीधा है। संतान चाहने का विचार भी सृष्टि के किसी नियम के आधार पर आ सकता है।
प्रश्न : कोई हमेशा प्रतिबद्ध कैसे रह सकता है?
श्री श्री रवि शंकर : क्या आपको उत्तर चाहिए? क्या उत्तर लेने के लिए प्रतिबद्ध हैं? चलो देखते हैं आप कितनी देर उत्तर लेने के लिए प्रतिबद्ध रह सकते हैं? आपको पता है, केवल एक प्रतिबद्धता जैसा कुछ नहीं है। समय समय पर आपको प्रतिबद्धताएं लेनी होती हैं जीवन में। यह आपके स्वभाव का हिस्सा है। अगर आप कमज़ोर हैं तो आप हर रोज़ अपनी प्रतिबद्धता तोड़ते हैं। अगर आप मज़बूत हैं तो आप उस पर डटे रहते हैं। कोई मज़बूत कैसे होता है? प्राणायाम और ध्यान से।
प्रश्न : ध्यान में नींद आ जाना गलत है क्या?
श्री श्री रवि शंकर : जब तक आप खर्राटे नहीं लेते और औरों को परेशानी नहीं होती, तब तक ठीक है! ध्यान गहरा विश्राम है। समाधि क्या है? एक मिलियन वर्षों के विश्राम जितना है यह। अगर एक क्षण के लिए भी ध्यान होता है, और आप उससे पहले यां बाद में सोए भी रहें तो कोई बात नहीं।
प्रश्न : कृप्या अपने और दूसरों के प्रति क्षमा भाव के बारे में बताएं?
श्री श्री रवि शंकर : अगर तुम्हे लगता है कि क्षमा करना मुश्किल है तो मत करो। जो आसान लगे उसे करो। अगर माफ करना मुश्किल है तो कभी माफ मत करो। अगर किसी के प्रति कोई शिकायत है तो सारा जीवन उसे अपने अंदर रखो। फिर तो तुम्हे उस भाव के साथ खुश रहना चाहिए। क्या किसी के लिए घृणा के भाव से तुम खुश रह सकते हो? अगर किसी ने कोई गल्ती की तो यह उनकी मुश्किल है, तुम्हारी नहीं। तुम्हे जो आसान लगे वो करो।
संघर्ष तब है जब हम क्षमा करना चाहते हैं पर कर नहीं पाते। हमे हर अपराधी को एक विपत्ति - ग्रस्त यां हालात के शिकार के रूप में देखना चाहिए। अगर किसी ने तुम्हारे साथ कुछ गलत किया तो निश्चय ही वो खुश नहीं था। नहीं तो उसने वैसा नहीं किया होता। वो तुम्हारी तरह सभ्य और परिष्कृत नहीं था। यह किसकी गल्ती है? अगर उसमें ज्ञान होता तो वो वैसा नहीं करता। इसलिए करुणा का भाव रखो।
प्रश्न : घरेलु हिंसा के बारे में बताएं औए कोई इसके साथ कैसे रह सकता है?
श्री श्री रवि शंकर : घरेलु और सामाजिक हिंसा, दोनो ही तनाव के कारण होती हैं। लोगों को कभी यह नहीं सिखाया गया कि तनाव से किस तरह मुक्त हों। किसी को आध्यात्म का ज्ञान नहीं दिया गया। क्या आपको नहीं लगता ध्यान और सुदर्शन क्रिया का यह ज्ञान सब तक पहुँचना चाहिए? अहिंसा का यह ज्ञान सब तक पहुँचना चाहिए?
लोगों तक यह ज्ञान पहुँचाना है। आप घरेलु हिंसा को ऐसे ही स्वीकार नहीं सकते। लोगों में ज्ञान लेकर आओ, उन्हे शिक्षित करो। इसके लिए अपना शत प्रतिशत लगादो। फिर आप देखेंगे उनका पूर्ण व्यवहार बदल गया है।
भारत में ७०० परिवारों का एक गाँव है नान्देड़। उसमें गाँवों में होने वाली आम चुनौतियाँ थी - शराब, कर्ज़ा आदि। एक ’आर्ट ऑफ लिविंग’ के अध्यापक ने इसे एक चुनौती की तरह लिया और छोटे समुहों में कोर्स लेने शुरु किए। कुछ ही महिनों में गाँव में एक विशाल बदलाव आया। अब सब लोग इकट्ठा होकर वहाँ सत्संग करते हैं। कोई भी शराब, सिगरेट यां किसी तरह का नशा नहीं करता। वहाँ किसी तरह का कोई जुर्म नहीं है। गाँव में एक दुकान है जो विश्वास पर चलती है, उसमें कोई दुकानदार नहीं है और लोग ज़रुरत का सामान लेकर पैसे डिब्बों में छोड़ जाते हैं। यह पिछले तीन साल से बिना किसी चोरी के ऐसे चल रहा है। सारा गाँव ऑरगैनिक है, और वहाँ कोई भी बिना रोज़गार के नहीं है। सारे गाँव में किसी दरवाज़े पर लौक नहीं है। एकता दर्शाने के लिए सभी घरों में गुलाबी रंग का पेंट है। गाँव में सभी स्वावलंबी हैं और वातावरण के प्रति सम्मान रखते हैं। उन्हें सबसे आदर्श गाँव का इनाम भी मिला। कर्नाटक में १८० गाँव और कुल ५०० गाँव इसी राह पर चल रहें हैं।
प्रश्न : मृत्यु के भय से कैसे बाहर आएं?
श्री श्री रवि शंकर : अगर तुम एकांत होकर केवल अपने बारे में ही सोचते रहोगे तो तुम्हे मृत्यु का भय लगेगा। जब तुम एक बार सेवा में लग जाते हो तो मृत्यु का कोई भय नहीं रहता। एक आतंकवादी किसी ध्येय के लिए प्रतिबद्ध होता है, इसलिए वो मत्यु से नहीं डरते। अगर तुम दूसरों का भला करना चाहते हो, तो इसके लिए तुम्हारी प्रतिबद्धता इस भय से तुम्हे दूर रखेगी।
प्रश्न : पृथ्वि पर रहने वालों के लिए आपकी क्या सलाह है? हम किस तरह रह सकते हैं कि ५० - १०० साल बाद भी ताज़ा हवा उपल्ब्ध हो?
श्री श्री रवि शंकर : कुदरत की देखभाल करो। कुदरत के लिए सम्मान रखो जैसे हर देश के मूल समुदाय कुदरत का सम्मान करते हैं। वातावरण का सम्मान करो। एक जगह ऐसी है जहाँ एक पेड़ काटो तो उसके बदले अगले ४० दिनो में ५ पेड़ लगाने की ज़िम्मेदारी ली जाती है। हमे कुदरत का सरंक्षण करना ही है।
प्रश्न : ऐसे में क्या करना चाहिए जब आप किसी से प्रेम करें पर वो आपसे प्रेम ना करे?
श्री श्री रवि शंकर : उन्हे यह पूछने की बजाए कि वो आपसे प्रेम क्यों नहीं करते, आप यह पूँछे कि वो आपसे इतना प्रेम क्यों करते हैं। आप उनसे कहें कि जितना प्रेम वो आपसे करते हैं आप उसके लायक नहीं हैं। जीवन में किसी भी मुश्किल का सामना एक अंदाज़ से करें।
पूरा जीवन एक खेल की तरह हैं। जीवन संघर्ष नहीं है। कुछ भी आपको खत्म नहीं कर सकता। आप अमर हैं। आपकी आत्मा अमर है। अगर अभी यह समझ नहीं आ रहा तो कोई बात नहीं। मैं वही कहुँगा जो मुझे पता है और किसी दिन आप भी इससे सहमत हो सकें। किसी भी चीज़ से डरने की ज़रुरत नहीं है। हमारे पास कोई विकल्प ही नहीं है।
प्रश्न : आप पाकिस्तान में तीन सेंटर स्थापित करने में कैसे सफल हो सके?
श्री श्री रवि शंकर : पाकिस्तान में लोग बहुत अच्छे हैं। वो बस सुदर्शन क्रिया करते हैं। हमारे अध्यापक हैं वहाँ। जब आप किन्ही धारणाओं में फंस जाते हैं तो यह एक पिजरें में कैद हो जाने जैसा है। जब आपका अनुभव होता है तभी आप पिंजरे से बाहर आ पाते हैं।
प्रश्न : कृप्या हमें बताएं कि २०१२ में क्या होगा?
श्री श्री रवि शंकर : वर्ष 2012 एक आकर्षण का केन्द्र बन गया है। यह एक सनसनी बन गई है। कोई भी ख़बर बिना सनसनी के अच्छी नहीं मानी जाती। हमारे पास और काम होगा करने को। लोग और आध्यात्मिक होंगे। यह एक फैशन ही नहीं पर एक ज़रुरत होगी। सुनहरा समय आ ही गया है।
मुझे लगता है मैने अब सब कह दिया है। बहुत बातें बिना शब्दों के कही जाती हैं। कुछ बातें शब्दों से भी नहीं कही जाती, कही भी जाएं तो समझ में नहीं आएगा।
जब आप घर जाएं तो यह सोचकर जाएं कि आप बहुत भाग्यशाली हैं। आप बहुत सुंदर हैं। इस ज्ञान को याद रखें और मुस्कुराहट फैलाएं। चिंता कम करके सबके जीवन में खुशहाली बिखराएं। आप यह काम करें और ईश्वर को आपके जीवन की देखरेख करने दें|
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कोई भी तकनीक काम नहीं करती! वो तुम हो जिसके कारण तकनीक काम करती है, तुम्हारी श्रद्धा। जब तुम्हारा इरादा है और उस पर तुम ध्यान देते हो तो वैसा होने लगता है। अगर तुम्हारा इरादा नहीं है, तो वो काम नहीं करेगी। सुदर्शन क्रिया का प्रभाव होता है क्योंकि उसके पीछे इरादा है। किसी भी काम की पूर्ति के लिए उसके लिए इरादा, फिर उस पर ध्यान देना और वो होने लगता है।
अब हम कुछ प्राणायाम करते हैं। नाड़ी शोधन प्राणायाम से शुरु करते हैं। जब हमारी बाहिनी नासिका सक्रिय होती है तो दिमाग का दाहिना हिस्सा सक्रिय होता है, और जब दाहिनी नासिका सक्रिय होती है तो दिमाग का बाहिना हिस्सा सक्रिय होता है। दिमाग का दाहिना हिस्सा संगीत है और दिमाग का बाहिना हिस्सा तर्क। तो जिनकी दाहिनी नासिका सक्रिय है वो मुझे बेहतर समझ सकते हैं। और अगर दोनो सक्रिय हैं तो आप ध्यान में है। केवल दाहिनी नासिका सक्रिय होने से ध्यान नहीं होता। जब भी आप अपनी आँखे बंद करते हैं यां खोलते हैं तो आपकी स्थिति बदल जाती है। भोजन के बाद दाहिनी नासिका सक्रिय होनी चाहिए। जब दाहिनी नासिका सक्रिय होती है तो पाचन प्रक्रिया ५० प्रतिशत तेज़ होती है।
बाहिनी यां दाहिनी नाड़ी की सक्रियता बदलती रहती है क्योंकि हम प्राणों के सागर में रहते हैं।किस समय कौन सी नासिका सक्रिय होगी यह स्थान और वातावरण पर निर्भर करता है। अगर आप किसी मंदिर, गुरुद्वारे, चर्च यां किसी भी ऐसी जगह के पास जाते हैं जहाँ आध्यात्मिक उर्जा अधिक है तो दोनो नासिकाएं सक्रिय होती हैं। जब किसी पूजा के स्थान पर लोग पूर्ण भक्ति में होते हैं तो ऐसा होता है। जब आप किसी आध्यात्मिक गुरु से मिलते हैं तो ऐसा होता है। जब आप किसी आध्यात्मिक व्यक्ति से मिलते हैं तो आपकी आवाज़ आपको स्वयं बता देगी।
प्रश्न : गुरुजी हमे वादा कीजिए कि आप हर साल वेनकौवर आएंगे?
श्री श्री रवि शंकर : आपको पता है, मेरे लिए साल में ७०० दिन हैं!
प्रश्न : आप कहते हैं ध्यान में बैठते समय कोई प्रयत्न नहीं करना, पर मन का एक हिस्सा कुछ प्रयत्न करना चाहता है क्योंकि कुछ ना करने का भाव मन में उठता है। उस भाव के साथ क्या करूँ?
श्री श्री रवि शंकर : भस्त्रिका और आसन करो। उसमे प्रयत्न लगाओ। जब आप ध्यान के लिए बैठते हैं तो कोई प्रयत्न लगाने की आवशयकता नहीं है। जैसे ट्रेन पकड़ने के लिए प्रयत्न करना पड़ता है पर एक बार जब आप ट्रेन में बैठ गए तो केवल आराम से बैठना ही होता है। ट्रेन में भागने से आप अपने लक्ष्य पर जल्दी नहीं पहुँचते। एक बार चढ़ने के बाद आप केवल विश्राम करते हैं।
प्रश्न : इच्छाओं पर नियंत्रन कैसे करें?
श्री श्री रवि शंकर : इस क्षण में रहो। इच्छा का अर्थ है किसी आने वाले क्षण में सुख मिलने की चाह। अभी इसी क्षण में खुश और आनंदित रहो, बच्चों की तरह। अगर आप एक बच्चे से पूछते हैं कि उन्हें क्या चाहिए तो वो सहज ही कहता/कहती है - ’कुछ नहीं’, क्योंकि वो वर्तमान क्षण से खुश हैं।
प्रश्न : क्या आप लोगों का औरा देख सकते हैं?
श्री श्री रवि शंकर : इसमें कौन सी बड़ी बात है? तुम भी देख सकते हो।
प्रश्न : सिर दर्द और थकान से कैसे मुक्त हो सकते हैं?
श्री श्री रवि शंकर : योगा और प्राणायाम से।
प्रश्न : आप कैसे जान सकते हैं कि कोई उत्तर भीतर से आ रहा है यां तर्कसंगत मन से?
श्री श्री रवि शंकर : इसका कोई मापदंड नहीं है।मन जितना शांत होता है, तुम्हे सही उत्तर मिलता है।
प्रश्न : नकारात्मक विचारों के प्रवाह को कैसे रोक सकते हैं?
श्री श्री रवि शंकर : नकारात्मक विचार तीन कारणों से होते हैं - अगर रक्त का प्रवाह सही नहीं है,लसीका प्रणाली (lymphatic system) सही नहीं है यां मल त्याग (bowel moment) अनियमित है। आप फल आहार से अपनी आत्रें साफ कर सकते हैं। प्राणायाम से भी मदद मिलेगी। कुछ दिनों के लिए त्रिफला (आयुर्वेदिक परिशिष्ट) ले सकते हैं। योगा, प्राणायाम और ध्यान करो। तुम्हे फर्क अवश्य महसूस होगा। सामुहिक साधना से भी मदद मिलेगी।
प्रश्न: विचार अंदरूनी हैं यां बाहरी?
श्री श्री रवि शंकर : विचार मन में है। मन तुम्हारे चारों और है - अंदर भी और बाहर भी।
प्रश्न : हम ईश्वर के सामने रोते क्यों हैं? हम स्वयं को ईश्वर के पास कैसे ला सकते हैं?
श्री श्री रवि शंकर : जब तुम आंसु बहाते हो तो तुम्हे राहत महसूस होती है। मन की छाप धुल जाती है।
ईश्वर से निकटता के लिए तुम्हे कोई चेष्टा करने की आवश्यकता नहीं है। ईश्वर तुम्हारे सब से पास है। तुम खुद को कुछ भी मानते हो - अच्छा यां बुरा, ईश्वर तुम्हारे चारों और है। जैसे हवा तुम्हारे चारों और है। ईश्वर से कोई बचाव नहीं है, जैसे हवा तुम्हारे चारों और है चाहे तुम जाग्रित हो यां सुप्त हो। जब तुम्हे गर्मी लगती है तो तुम पंखे के सामने खड़े हो जाते हो। पंखा केवल उसी हवा को प्रवाह में लाता है जो वहाँ पहले से ही है। सत्संग पंखे की तरह हैं। मास्टर यां गुरु पंखे की तरह है। उसी से तुम हवा का प्रवाह महसूस करते हो।
प्रश्न : कृप्या सत चित आनंद का अर्थ बताएं?
श्री श्री रवि शंकर : सत का अर्थ है ’जो है’, चित वो है जो जानता है और आनंद का अर्थ है भीतरी खुशी।
प्रश्न : कोई अपने बचपन की छाप से कैसे बाहर आता है?
श्री श्री रवि शंकर : उसकी छाप पहले ही जा चुकी है। अगर तुम सोचत्ते हो कि उसकी छाप अभी भी मन पर है, तो उसे झाड़दो। स्मृति से दर्द को अलग करो। पर अगर तुम ऐसा करने के लिए प्रयत्न करते हो तो तुम स्मृति में उसे वापिस लकर आते हो। पर ध्यान में तुम दर्द को किसी घटना से जुड़ा हुआ नहीं बल्कि एक स्पंदन के रूप में अनुभव करते हो। जीवन का पहला अनुभव दर्द का ही था जब, एक छोटे से रास्ते के ज़रिए, माँ के गर्भ से बाहर आए थे। उससे पहले आप संपूर्ण आनंद में थे, आपको कुछ खाने की भी ज़रुरत नहीं पड़ती थी। फिर अचानक आप रोते हुए बाहर आए। आपने एक नए जन्में शिशु के चेहरे का भाव देखा है? यह ऐसा है जैसे वो १० घंटे के कड़े श्रम के बाद बाहर आया होता है। पहला अनुभव दर्द का होता है। और फिर बच्चा अपनी माँ की आँखों में देखता है और प्रेम का अनुभव करता है। तो दर्द को किसी घटना के साथ मत जोड़ो।
प्रश्न: किसी से बिछड़ने के दर्द से कैसे बाहर आ सकते हैं?
श्री श्री रवि शंकर : उज्जई श्वास।
प्रश्न : जब किसी की मृत्यु हो जाती है तो रिश्ते का क्या होता है? क्या उसी व्यक्ति से कोई रिश्ता अगले जन्म में फिर बनता है?
श्री श्री रवि शंकर : दोनों संभावनाएं हैं। कुछ रिश्ते खत्म हो जाते हैं और कुछ अगले जन्म तक चलते हैं।
प्रश्न : हम मन में चल रहे हाँ और ना के द्वंद से कैसे बाहर आ सकते हैं?
श्री श्री रवि शंकर : केवल मुस्कुराओ। जैसे परिस्तिथि आती है उसे स्वीकार करो।
प्रश्न : क्या यह हमारी ज़िम्मेदारी है कि हम बच्चे को जन्म दें? यां यह हम ईश्वर की इच्छा पर छोड़ सकते हैं?
श्री श्री रवि शंकर : अगर आप संतान चाहते हैं तो यह आप पर है। यह बहुत सीधा है। संतान चाहने का विचार भी सृष्टि के किसी नियम के आधार पर आ सकता है।
प्रश्न : कोई हमेशा प्रतिबद्ध कैसे रह सकता है?
श्री श्री रवि शंकर : क्या आपको उत्तर चाहिए? क्या उत्तर लेने के लिए प्रतिबद्ध हैं? चलो देखते हैं आप कितनी देर उत्तर लेने के लिए प्रतिबद्ध रह सकते हैं? आपको पता है, केवल एक प्रतिबद्धता जैसा कुछ नहीं है। समय समय पर आपको प्रतिबद्धताएं लेनी होती हैं जीवन में। यह आपके स्वभाव का हिस्सा है। अगर आप कमज़ोर हैं तो आप हर रोज़ अपनी प्रतिबद्धता तोड़ते हैं। अगर आप मज़बूत हैं तो आप उस पर डटे रहते हैं। कोई मज़बूत कैसे होता है? प्राणायाम और ध्यान से।
प्रश्न : ध्यान में नींद आ जाना गलत है क्या?
श्री श्री रवि शंकर : जब तक आप खर्राटे नहीं लेते और औरों को परेशानी नहीं होती, तब तक ठीक है! ध्यान गहरा विश्राम है। समाधि क्या है? एक मिलियन वर्षों के विश्राम जितना है यह। अगर एक क्षण के लिए भी ध्यान होता है, और आप उससे पहले यां बाद में सोए भी रहें तो कोई बात नहीं।
प्रश्न : कृप्या अपने और दूसरों के प्रति क्षमा भाव के बारे में बताएं?
श्री श्री रवि शंकर : अगर तुम्हे लगता है कि क्षमा करना मुश्किल है तो मत करो। जो आसान लगे उसे करो। अगर माफ करना मुश्किल है तो कभी माफ मत करो। अगर किसी के प्रति कोई शिकायत है तो सारा जीवन उसे अपने अंदर रखो। फिर तो तुम्हे उस भाव के साथ खुश रहना चाहिए। क्या किसी के लिए घृणा के भाव से तुम खुश रह सकते हो? अगर किसी ने कोई गल्ती की तो यह उनकी मुश्किल है, तुम्हारी नहीं। तुम्हे जो आसान लगे वो करो।
संघर्ष तब है जब हम क्षमा करना चाहते हैं पर कर नहीं पाते। हमे हर अपराधी को एक विपत्ति - ग्रस्त यां हालात के शिकार के रूप में देखना चाहिए। अगर किसी ने तुम्हारे साथ कुछ गलत किया तो निश्चय ही वो खुश नहीं था। नहीं तो उसने वैसा नहीं किया होता। वो तुम्हारी तरह सभ्य और परिष्कृत नहीं था। यह किसकी गल्ती है? अगर उसमें ज्ञान होता तो वो वैसा नहीं करता। इसलिए करुणा का भाव रखो।
प्रश्न : घरेलु हिंसा के बारे में बताएं औए कोई इसके साथ कैसे रह सकता है?
श्री श्री रवि शंकर : घरेलु और सामाजिक हिंसा, दोनो ही तनाव के कारण होती हैं। लोगों को कभी यह नहीं सिखाया गया कि तनाव से किस तरह मुक्त हों। किसी को आध्यात्म का ज्ञान नहीं दिया गया। क्या आपको नहीं लगता ध्यान और सुदर्शन क्रिया का यह ज्ञान सब तक पहुँचना चाहिए? अहिंसा का यह ज्ञान सब तक पहुँचना चाहिए?
लोगों तक यह ज्ञान पहुँचाना है। आप घरेलु हिंसा को ऐसे ही स्वीकार नहीं सकते। लोगों में ज्ञान लेकर आओ, उन्हे शिक्षित करो। इसके लिए अपना शत प्रतिशत लगादो। फिर आप देखेंगे उनका पूर्ण व्यवहार बदल गया है।
भारत में ७०० परिवारों का एक गाँव है नान्देड़। उसमें गाँवों में होने वाली आम चुनौतियाँ थी - शराब, कर्ज़ा आदि। एक ’आर्ट ऑफ लिविंग’ के अध्यापक ने इसे एक चुनौती की तरह लिया और छोटे समुहों में कोर्स लेने शुरु किए। कुछ ही महिनों में गाँव में एक विशाल बदलाव आया। अब सब लोग इकट्ठा होकर वहाँ सत्संग करते हैं। कोई भी शराब, सिगरेट यां किसी तरह का नशा नहीं करता। वहाँ किसी तरह का कोई जुर्म नहीं है। गाँव में एक दुकान है जो विश्वास पर चलती है, उसमें कोई दुकानदार नहीं है और लोग ज़रुरत का सामान लेकर पैसे डिब्बों में छोड़ जाते हैं। यह पिछले तीन साल से बिना किसी चोरी के ऐसे चल रहा है। सारा गाँव ऑरगैनिक है, और वहाँ कोई भी बिना रोज़गार के नहीं है। सारे गाँव में किसी दरवाज़े पर लौक नहीं है। एकता दर्शाने के लिए सभी घरों में गुलाबी रंग का पेंट है। गाँव में सभी स्वावलंबी हैं और वातावरण के प्रति सम्मान रखते हैं। उन्हें सबसे आदर्श गाँव का इनाम भी मिला। कर्नाटक में १८० गाँव और कुल ५०० गाँव इसी राह पर चल रहें हैं।
प्रश्न : मृत्यु के भय से कैसे बाहर आएं?
श्री श्री रवि शंकर : अगर तुम एकांत होकर केवल अपने बारे में ही सोचते रहोगे तो तुम्हे मृत्यु का भय लगेगा। जब तुम एक बार सेवा में लग जाते हो तो मृत्यु का कोई भय नहीं रहता। एक आतंकवादी किसी ध्येय के लिए प्रतिबद्ध होता है, इसलिए वो मत्यु से नहीं डरते। अगर तुम दूसरों का भला करना चाहते हो, तो इसके लिए तुम्हारी प्रतिबद्धता इस भय से तुम्हे दूर रखेगी।
प्रश्न : पृथ्वि पर रहने वालों के लिए आपकी क्या सलाह है? हम किस तरह रह सकते हैं कि ५० - १०० साल बाद भी ताज़ा हवा उपल्ब्ध हो?
श्री श्री रवि शंकर : कुदरत की देखभाल करो। कुदरत के लिए सम्मान रखो जैसे हर देश के मूल समुदाय कुदरत का सम्मान करते हैं। वातावरण का सम्मान करो। एक जगह ऐसी है जहाँ एक पेड़ काटो तो उसके बदले अगले ४० दिनो में ५ पेड़ लगाने की ज़िम्मेदारी ली जाती है। हमे कुदरत का सरंक्षण करना ही है।
प्रश्न : ऐसे में क्या करना चाहिए जब आप किसी से प्रेम करें पर वो आपसे प्रेम ना करे?
श्री श्री रवि शंकर : उन्हे यह पूछने की बजाए कि वो आपसे प्रेम क्यों नहीं करते, आप यह पूँछे कि वो आपसे इतना प्रेम क्यों करते हैं। आप उनसे कहें कि जितना प्रेम वो आपसे करते हैं आप उसके लायक नहीं हैं। जीवन में किसी भी मुश्किल का सामना एक अंदाज़ से करें।
पूरा जीवन एक खेल की तरह हैं। जीवन संघर्ष नहीं है। कुछ भी आपको खत्म नहीं कर सकता। आप अमर हैं। आपकी आत्मा अमर है। अगर अभी यह समझ नहीं आ रहा तो कोई बात नहीं। मैं वही कहुँगा जो मुझे पता है और किसी दिन आप भी इससे सहमत हो सकें। किसी भी चीज़ से डरने की ज़रुरत नहीं है। हमारे पास कोई विकल्प ही नहीं है।
प्रश्न : आप पाकिस्तान में तीन सेंटर स्थापित करने में कैसे सफल हो सके?
श्री श्री रवि शंकर : पाकिस्तान में लोग बहुत अच्छे हैं। वो बस सुदर्शन क्रिया करते हैं। हमारे अध्यापक हैं वहाँ। जब आप किन्ही धारणाओं में फंस जाते हैं तो यह एक पिजरें में कैद हो जाने जैसा है। जब आपका अनुभव होता है तभी आप पिंजरे से बाहर आ पाते हैं।
प्रश्न : कृप्या हमें बताएं कि २०१२ में क्या होगा?
श्री श्री रवि शंकर : वर्ष 2012 एक आकर्षण का केन्द्र बन गया है। यह एक सनसनी बन गई है। कोई भी ख़बर बिना सनसनी के अच्छी नहीं मानी जाती। हमारे पास और काम होगा करने को। लोग और आध्यात्मिक होंगे। यह एक फैशन ही नहीं पर एक ज़रुरत होगी। सुनहरा समय आ ही गया है।
मुझे लगता है मैने अब सब कह दिया है। बहुत बातें बिना शब्दों के कही जाती हैं। कुछ बातें शब्दों से भी नहीं कही जाती, कही भी जाएं तो समझ में नहीं आएगा।
जब आप घर जाएं तो यह सोचकर जाएं कि आप बहुत भाग्यशाली हैं। आप बहुत सुंदर हैं। इस ज्ञान को याद रखें और मुस्कुराहट फैलाएं। चिंता कम करके सबके जीवन में खुशहाली बिखराएं। आप यह काम करें और ईश्वर को आपके जीवन की देखरेख करने दें|
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"मन की उत्तमता का अर्थ है मन को शांत रखना"
ग्रेटर वेनकोवर,
ब्रिटिश कोलम्बिया, जुलाई ९:
लक्ष्मी नारायण मंदिर में श्री श्री रवि शंकर द्वारा दिए गए ज्ञान के अंश :
हमारी आवाज़ दृढ़ होनी चाहिए। सत्य और धर्म की आवाज़ धीमि है। जब हिंसा की आवाज़ मज़बूत होती है तो वो मुश्किल का कारण बनती है। जब प्रेम की आवाज़ मज़बूत और हिंसा की आवाज़ धीमि होती है तो उसे सत्युग कहते हैं। श्री राम की आवाज़ रावण की आवाज़ से अधिक दृढ़ होनी चाहिए, तभी सत्य की विज्य होती है। श्री कष्ण के साथ भी ऐसा ही है।
जब जीवन संघर्ष लगे तो हमे ज्ञान में केन्द्रित होने की ज़रुरत है। यहाँ तक कि अर्जुन को भी शुरु में ध्यान करने के लिए और ज्ञान मे रहने के लिए कहा गया था। उसके बाद ही हमे काम करना चाहिए। हमेशा ज्ञान मे रहकर काम करो।
तीन तरह की उत्तमता है :
१. मन की उत्तमता है मन को शांत रखना।
२. बोली की उत्तमता है केवल आवश्यक्ता होने पर ही बोलना। लड़ाई में पड़ने की कोई ज़रुरत नहीं है।
३. फिर कृत में उत्तमता। कृत में शत प्रतिशत उत्तमता संभव नहीं है।
पर साधना, सेवा और सत्संग से मन और वाणी में उत्तमता लाई जा सकती है। एक बार मन और वाणी उत्त्म हो जाएं तो कृत में सहज ही उत्तमता आ जाती है।
मैं बहुत खुश हूँ कि यहाँ मंदिर की देखरेख करने वाले अधिकारी भारतीय सभ्यता का संरक्षण कर रहे हैं। सबको साथ में लेकर चलना और गले लगाना भारत की सभ्यता में है। कोई भी अलग नहीं है। हमने सबको अपना बनाया है। उदाहरण के लिए गुरु ग्रंथ साहिब में ब्रह्मज्ञान को आसान शब्दों में बताया है। यह भारत की विशेषता है। हमे ज्ञान केवल अपने तक सीमित ना रखकर सबके साथ बांटना चाहिए, जिससे सबका हित हो सके। यह भी बहुत ज़रुरी है।
अक्सर लोग पूछते हैं हम इतने देवी यां देवताओं की पूजा क्यों करते हैं। परमात्मा एक है पर फिर भी उसे बहुत नामों से बुलाते हैं। जैसे उसी आटे से कभी हम नूडल्ज़ और कभी समोसा बनाते हैं। पर है तो वो वही आटा। इसी तरह वो एक ही परमात्मा है जिसे हम विभिन्न रूप और रंग में जानते हैं।
आरती का अर्थ है पूर्ण आनंद। जब हमारे जीवन की ज्योति ईश्वर के इर्द गिर्द होती है तो हम पूर्ण खुशी अनुभव करते हैं। हमे रीति-रिवाज़ों के गहरे अर्थ को समझना चाहिए और तभी हम स्वयं खुश रह पाएंगे और औरों को भी खुश कर सकेंगे। हमें दुख और अप्रसन्नता से बाहर आना ही है। हम सबको प्राणायाम करना चाहिए। हमे अपने श्वास पर रोज़ कुछ मिनट ध्यान देना चाहिए। इसे प्राणायाम और क्रिया कहते हैं। इससे लोग आनंद अनुभव कर सकते हैं। भीतर से आनंदित रहना पूर्ण विश्राम है। क्रिया हमे सेहतमंद रहने में, और मन, भावना और बुद्धि को शुद्ध रखने में भी सहायक है। यह हमे ग्लानि से बाहर लाती है और वर्तमान क्षण में रहने में सहायक होती है।
क्या आप मोबाइल का इस्तेमाल करते हैं? अगर आप अंक दबाते रहें पर अंदर सिम कार्ड ना हो तो क्या कोई फायदा होगा? अगर सिम कार्ड है पर रेंज नहीं है तो क्या कुछ होगा? अगर रेंज भी है पर बैटरी नहीं है तो क्या कुछ होगा? साधना सिम कार्ड है, रेंज श्रद्धा है। अगर आप प्रार्थना करते हैं और आपको लगता है कि ईश्वर आपकी प्रार्थना नहीं सुन रहे तो आपके पास सिम कार्ड ही नहीं है। किसी प्रार्थना का असर नहीं होगा ऐसे में। सत्संग चार्ज की तरह है। मंदिर और गुरुद्वारा सोकेट की तरह हैं जहाँ बैटरी चार्ज होती है। अगर हम मंदिर यां गुरुद्वारों में ही झगड़ा करते हैं तो वो शुद्ध चेतना तो रह ही नहीं जाती। वहाँ ईश्वर का वास कैसे होगा?
जहाँ सब खुश होते हैं, वहाँ ईश्वर का वास होता है। जब मन खुश होता है तो हमारा भी काम होता है और हम में दूसरो को ब्लेस करने की क्षमता भी आती है। आत्मा में सब गुण निहित हैं। आत्म ज्ञान से यह सब गुण उजागर होते हैं। अगर आप लोगों को ब्लेस करते हैं, लोगों का शुभ चाहते हैं तो सब होने लगता है।
अगर आपके पास मोबाइल है पर आप नंबर नहीं मिलाते तो क्या कुछ होगा? आपको अपने को प्रकृति से, परमात्मा से और अपनी आत्मा से जोड़ना है। और फ़िर सब कुछ होने लेगेगा।
इसलिए हमने बहुत से लोगों को बलेसर्ज बनाया है जिन्होने ब्लेसिंग कोर्स किया है। वो खुश ही होते हैं और लोगों को ब्लेस कर सकते हैं।
महाराष्ट्र में एक गाँव अपनी बुराई के लिए कुख्यात था और आज वही एक आदर्श गाँव बना है। पहले लोग वहाँ जाने से डरते थे और आज वहीं पर ६०० लोग एक साथ रोज संत्संग कर रहें हैं। उस गाँव मे किसी तरह की कोई बुराई नहीं है। वहाँ कोई नशे नहीं लेता। वहाँ एक दुकान हैं जहाँ कोई दुकानदार नहीं है। लोग वहाँ से सामान लेते हैं और अपने आप पैसे छोड़ देते हैं। वहाँ सब कुछ जैविक(ऑरगैनिक) है। कोई रासायनिक खेती नहीं है और सब के पास रोजगार है। पिछले तीन साल से यह गाँव ऐसा चल रहा है। १८० गाँव इसी दिशा में चल रहे हैं।
हम इस स्वपन को सच का रूप दे सकते हैं। हमारे पास इसे संभव करने के लिए सब कुछ है। आप सब यहाँ इतने खुश हैं। आप इसी खुशी के साथ वापिस जाएं। आप यहाँ अपनी चिन्ताओं के साथ आ तो सकते हैं पर वापिस नहीं ले जा सकते। एक ही शर्त है कि आप अपनी सब चिंताएं यहीं छोड़ कर मुस्कुराते हुए घर जाएं। मैं आपको यह याद दिलाने के लिए हूँ कि ईश्वर हैं और आपके बहुत अपने हैं।
केवल ३० मिनट के ध्यान से ही आप इतने खिल जाते हैं। हम सबको रोज़ ३० मिनट ध्यान करना चाहिए। हम सबको मंदिर जाकर कुछ समय आंखे बंद करके ध्यान करना चाहिए। मंदिर से बिना ध्यान किए वापिस ना जाएं।
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ब्रिटिश कोलम्बिया, जुलाई ९:
लक्ष्मी नारायण मंदिर में श्री श्री रवि शंकर द्वारा दिए गए ज्ञान के अंश :
हमारी आवाज़ दृढ़ होनी चाहिए। सत्य और धर्म की आवाज़ धीमि है। जब हिंसा की आवाज़ मज़बूत होती है तो वो मुश्किल का कारण बनती है। जब प्रेम की आवाज़ मज़बूत और हिंसा की आवाज़ धीमि होती है तो उसे सत्युग कहते हैं। श्री राम की आवाज़ रावण की आवाज़ से अधिक दृढ़ होनी चाहिए, तभी सत्य की विज्य होती है। श्री कष्ण के साथ भी ऐसा ही है।
जब जीवन संघर्ष लगे तो हमे ज्ञान में केन्द्रित होने की ज़रुरत है। यहाँ तक कि अर्जुन को भी शुरु में ध्यान करने के लिए और ज्ञान मे रहने के लिए कहा गया था। उसके बाद ही हमे काम करना चाहिए। हमेशा ज्ञान मे रहकर काम करो।
तीन तरह की उत्तमता है :
१. मन की उत्तमता है मन को शांत रखना।
२. बोली की उत्तमता है केवल आवश्यक्ता होने पर ही बोलना। लड़ाई में पड़ने की कोई ज़रुरत नहीं है।
३. फिर कृत में उत्तमता। कृत में शत प्रतिशत उत्तमता संभव नहीं है।
पर साधना, सेवा और सत्संग से मन और वाणी में उत्तमता लाई जा सकती है। एक बार मन और वाणी उत्त्म हो जाएं तो कृत में सहज ही उत्तमता आ जाती है।
मैं बहुत खुश हूँ कि यहाँ मंदिर की देखरेख करने वाले अधिकारी भारतीय सभ्यता का संरक्षण कर रहे हैं। सबको साथ में लेकर चलना और गले लगाना भारत की सभ्यता में है। कोई भी अलग नहीं है। हमने सबको अपना बनाया है। उदाहरण के लिए गुरु ग्रंथ साहिब में ब्रह्मज्ञान को आसान शब्दों में बताया है। यह भारत की विशेषता है। हमे ज्ञान केवल अपने तक सीमित ना रखकर सबके साथ बांटना चाहिए, जिससे सबका हित हो सके। यह भी बहुत ज़रुरी है।
अक्सर लोग पूछते हैं हम इतने देवी यां देवताओं की पूजा क्यों करते हैं। परमात्मा एक है पर फिर भी उसे बहुत नामों से बुलाते हैं। जैसे उसी आटे से कभी हम नूडल्ज़ और कभी समोसा बनाते हैं। पर है तो वो वही आटा। इसी तरह वो एक ही परमात्मा है जिसे हम विभिन्न रूप और रंग में जानते हैं।
आरती का अर्थ है पूर्ण आनंद। जब हमारे जीवन की ज्योति ईश्वर के इर्द गिर्द होती है तो हम पूर्ण खुशी अनुभव करते हैं। हमे रीति-रिवाज़ों के गहरे अर्थ को समझना चाहिए और तभी हम स्वयं खुश रह पाएंगे और औरों को भी खुश कर सकेंगे। हमें दुख और अप्रसन्नता से बाहर आना ही है। हम सबको प्राणायाम करना चाहिए। हमे अपने श्वास पर रोज़ कुछ मिनट ध्यान देना चाहिए। इसे प्राणायाम और क्रिया कहते हैं। इससे लोग आनंद अनुभव कर सकते हैं। भीतर से आनंदित रहना पूर्ण विश्राम है। क्रिया हमे सेहतमंद रहने में, और मन, भावना और बुद्धि को शुद्ध रखने में भी सहायक है। यह हमे ग्लानि से बाहर लाती है और वर्तमान क्षण में रहने में सहायक होती है।
क्या आप मोबाइल का इस्तेमाल करते हैं? अगर आप अंक दबाते रहें पर अंदर सिम कार्ड ना हो तो क्या कोई फायदा होगा? अगर सिम कार्ड है पर रेंज नहीं है तो क्या कुछ होगा? अगर रेंज भी है पर बैटरी नहीं है तो क्या कुछ होगा? साधना सिम कार्ड है, रेंज श्रद्धा है। अगर आप प्रार्थना करते हैं और आपको लगता है कि ईश्वर आपकी प्रार्थना नहीं सुन रहे तो आपके पास सिम कार्ड ही नहीं है। किसी प्रार्थना का असर नहीं होगा ऐसे में। सत्संग चार्ज की तरह है। मंदिर और गुरुद्वारा सोकेट की तरह हैं जहाँ बैटरी चार्ज होती है। अगर हम मंदिर यां गुरुद्वारों में ही झगड़ा करते हैं तो वो शुद्ध चेतना तो रह ही नहीं जाती। वहाँ ईश्वर का वास कैसे होगा?
जहाँ सब खुश होते हैं, वहाँ ईश्वर का वास होता है। जब मन खुश होता है तो हमारा भी काम होता है और हम में दूसरो को ब्लेस करने की क्षमता भी आती है। आत्मा में सब गुण निहित हैं। आत्म ज्ञान से यह सब गुण उजागर होते हैं। अगर आप लोगों को ब्लेस करते हैं, लोगों का शुभ चाहते हैं तो सब होने लगता है।
अगर आपके पास मोबाइल है पर आप नंबर नहीं मिलाते तो क्या कुछ होगा? आपको अपने को प्रकृति से, परमात्मा से और अपनी आत्मा से जोड़ना है। और फ़िर सब कुछ होने लेगेगा।
इसलिए हमने बहुत से लोगों को बलेसर्ज बनाया है जिन्होने ब्लेसिंग कोर्स किया है। वो खुश ही होते हैं और लोगों को ब्लेस कर सकते हैं।
महाराष्ट्र में एक गाँव अपनी बुराई के लिए कुख्यात था और आज वही एक आदर्श गाँव बना है। पहले लोग वहाँ जाने से डरते थे और आज वहीं पर ६०० लोग एक साथ रोज संत्संग कर रहें हैं। उस गाँव मे किसी तरह की कोई बुराई नहीं है। वहाँ कोई नशे नहीं लेता। वहाँ एक दुकान हैं जहाँ कोई दुकानदार नहीं है। लोग वहाँ से सामान लेते हैं और अपने आप पैसे छोड़ देते हैं। वहाँ सब कुछ जैविक(ऑरगैनिक) है। कोई रासायनिक खेती नहीं है और सब के पास रोजगार है। पिछले तीन साल से यह गाँव ऐसा चल रहा है। १८० गाँव इसी दिशा में चल रहे हैं।
हम इस स्वपन को सच का रूप दे सकते हैं। हमारे पास इसे संभव करने के लिए सब कुछ है। आप सब यहाँ इतने खुश हैं। आप इसी खुशी के साथ वापिस जाएं। आप यहाँ अपनी चिन्ताओं के साथ आ तो सकते हैं पर वापिस नहीं ले जा सकते। एक ही शर्त है कि आप अपनी सब चिंताएं यहीं छोड़ कर मुस्कुराते हुए घर जाएं। मैं आपको यह याद दिलाने के लिए हूँ कि ईश्वर हैं और आपके बहुत अपने हैं।
केवल ३० मिनट के ध्यान से ही आप इतने खिल जाते हैं। हम सबको रोज़ ३० मिनट ध्यान करना चाहिए। हम सबको मंदिर जाकर कुछ समय आंखे बंद करके ध्यान करना चाहिए। मंदिर से बिना ध्यान किए वापिस ना जाएं।
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"प्रकृति के साथ हमारा संबंध"
सत्य की खोज में आमतौर पर विज्ञान और आध्यात्म को एक दूसरे से भिन्न माना जाता है। दोनो का ही आधार स्तंभ है जिज्ञासा। आधुनिक विज्ञान वस्तुनिष्ठ विश्लेषण का तरीका अपनाता है, और आध्यात्म आत्मपरक विश्लेषण करता है। 'ये क्या है? जगत में ये क्या है?' इन प्रश्नों के साथ विज्ञान बाहरी जगत को जानने में रत रहता है। जबकि आध्यात्म की शुरुवात होती 'मैं कौन हूं?' प्रश्न से।
प्राचीन समय के जगत में इन दोनों प्रकार के ज्ञान में कोई संघर्ष नहीं था। मनुष्य का स्वयं के बारे में ज्ञान और ब्रह्माण्ड के बारे में ज्ञान, एक दूसरे के पूरक थे, और ये ज्ञान मनुष्य का सृष्टि के साथ एक सुदृढ़ और स्वस्थ संबंध बनाने का आधार था। इन दो प्रकार के ज्ञान को अलग मानने की वजह से आज विश्व के सामने कई चुनौतियां खड़ी हो गई हैं।
प्राचीन ज्ञान के मुताबिक मनुष्य के अनुभव में ५ परतें आती हैं, जो कि हैं – पर्यावरण, शरीर, मन, अंतर्ज्ञान और आत्मा।
पर्यावरण के साथ हमारा संबंध हमारे अनुभव की सर्वप्रथम और सब से महत्वपूर्ण परत है। अगर हमारा पर्यावरण स्वच्छ और सकरात्मक है तो हमारे अनुभव की बाकी सभी परतों पर इसका सकरात्मक प्रभाव पड़ता है, और वे संतुलित हो जाती हैं और हम अपने और अपने जीवन में आये व्यक्तियों के साथ अधिक शांति और जुड़ाव महसूस करते हैं।
मनुष्य की मानसिकता के साथ पर्यावरण का एक नज़दीकी रिश्ता है। प्राचीन समय की सभ्यताओं में प्रकृति को सम्मान के भाव से देखा गया है - पहाड़, नदियां, वृक्ष, सूर्य, चँद्र...। जब हम प्रकृति और अपनी आत्मा के साथ अपने संबंध से दूर जाने लगते हैं, तब हम पर्यावरण को प्रदूषित करने लगते हैं और पर्यावरण का नाश करने लगते हैं। हमे उस प्राचीन व्यवस्था को पुनर्जीवित करना होगा जिससे की प्रकृति के साथ हमारा संबध सुदृढ़ बनता है।
आज के जगत में ऐसे कई व्यक्ति हैं जो कि लालचवश, जल्द मुनाफ़ा और जल्द नतीजे प्राप्त करना चाहते हैं। उनके कृत्य जगत के पर्यावरण को नुक्सान पँहुचाते हैं। केवल बाहरी पर्यावरण ही नहीं, वे सूक्ष्म रूप से अपने भीतर और अपने आस पास के लोगों में नकरात्मक भावनाओं का प्रदूषण भी फैलाते हैं। ये नकरात्मक भावनायें फैलते फैलते जगत में हिंसा और दुख का कारण बनती हैं।
अधिकतर युद्ध और संघर्ष इन्हीं भावनाओं से ही शुरु होते हैं। जिसके परिणाम में पर्यावरण को नुक्सान होता है, और उसे स्वस्थ करने में बहुत समय लगता है। हमें मनुष्य के मानसिकता पर ध्यान देने की आवश्यकता है। यह मानसिकता ही प्रदूषण की जड़ है - स्थूल तथा भावनात्मक। अगर हमारे भीतर करुणा और परवाह जग जाते हैं, तो वे आधार बनते हैं एक गहरे संबंध का जिस में कि हम पर्यावरण की और व्यक्तियों की देखभाल करते हैं।
प्राचीन समय में अगर एक व्यक्ति एक वृक्ष काटता था तो साथ ही ५ नये वृक्ष लगाता था। प्राचीन समय में लोग पवित्र नदियों में कपड़े नहीं धोते थे। केवल शरीर के अग्नि-संस्कार के बाद बची हुई राख को नदी में बहाते थे ताकि सब कुछ प्रकृति में वापिस लय हो जाये। हमें प्रकृति और पर्यावरण को सम्मान और सुरक्षा के भाव से देखने वाली प्राचीन प्रणालियों को पुनर्जीवित करना होगा।
प्रकृति के पास संतुलन बनाये रखने के अपने तरीके हैं। प्रकृति को ध्यान से देखो तो तुम पाओगे कि जो पंचतत्व इसका आधार हैं, उनका मूल स्वभाव एक दूसरे के विरोधात्मक है। जल अग्नि का नाश करता है। अग्नि वायु का नाश करती है...। और प्रकृति में कई प्रजातियां हैं - पक्षी, सरीसृप, स्तनधारी...। भिन्न प्रजातियां एक दूसरे से वैर रखती हैं, फिर भी प्रकृति एक संतुलन बना कर रखती है। प्रकृति से हमे ये सीखने की आवश्यकता है कि अपने भीतर, अपने परिवेश में और जगत में विरोधी शक्तियों का संतुलन कैसे बनाये रखें।
सबसे अधिक आवश्यक है कि हमारा मन तनाव मुक्त हो और हम इस खुले मन से जगत का अनुभव कर सकें। ऐसी मनस्थिति से हम इस सुंदर पृथ्वी का संरक्षण करने के उपाय बना सकेंगे। आध्यात्म से हमे अपने असल स्वभाव का अनुभव होता है और खुद से और अपने परिवेश से एक जुड़ाव का एहसास होता है। अपने असल स्वभाव के साथ परिचय होने पर नकारात्मक भावनायें मिट जाती हैं, चेतना ऊर्ध्वगामी होती है और पूरी पृथ्वी की देखभाल के लिये एक दृढ़ संकल्प उपजता है।
हमारी चेतना को ऊर्ध्वगामी बनाने में और अपने आप से और अपने परिवेश से अपने संबंध को सुदृढ़ करने के लिये क्या करना चाहिये? ये कुछ सक्षम सूत्र हैं -
संदर्भ..
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प्राचीन समय के जगत में इन दोनों प्रकार के ज्ञान में कोई संघर्ष नहीं था। मनुष्य का स्वयं के बारे में ज्ञान और ब्रह्माण्ड के बारे में ज्ञान, एक दूसरे के पूरक थे, और ये ज्ञान मनुष्य का सृष्टि के साथ एक सुदृढ़ और स्वस्थ संबंध बनाने का आधार था। इन दो प्रकार के ज्ञान को अलग मानने की वजह से आज विश्व के सामने कई चुनौतियां खड़ी हो गई हैं।
प्राचीन ज्ञान के मुताबिक मनुष्य के अनुभव में ५ परतें आती हैं, जो कि हैं – पर्यावरण, शरीर, मन, अंतर्ज्ञान और आत्मा।
पर्यावरण के साथ हमारा संबंध हमारे अनुभव की सर्वप्रथम और सब से महत्वपूर्ण परत है। अगर हमारा पर्यावरण स्वच्छ और सकरात्मक है तो हमारे अनुभव की बाकी सभी परतों पर इसका सकरात्मक प्रभाव पड़ता है, और वे संतुलित हो जाती हैं और हम अपने और अपने जीवन में आये व्यक्तियों के साथ अधिक शांति और जुड़ाव महसूस करते हैं।
मनुष्य की मानसिकता के साथ पर्यावरण का एक नज़दीकी रिश्ता है। प्राचीन समय की सभ्यताओं में प्रकृति को सम्मान के भाव से देखा गया है - पहाड़, नदियां, वृक्ष, सूर्य, चँद्र...। जब हम प्रकृति और अपनी आत्मा के साथ अपने संबंध से दूर जाने लगते हैं, तब हम पर्यावरण को प्रदूषित करने लगते हैं और पर्यावरण का नाश करने लगते हैं। हमे उस प्राचीन व्यवस्था को पुनर्जीवित करना होगा जिससे की प्रकृति के साथ हमारा संबध सुदृढ़ बनता है।
आज के जगत में ऐसे कई व्यक्ति हैं जो कि लालचवश, जल्द मुनाफ़ा और जल्द नतीजे प्राप्त करना चाहते हैं। उनके कृत्य जगत के पर्यावरण को नुक्सान पँहुचाते हैं। केवल बाहरी पर्यावरण ही नहीं, वे सूक्ष्म रूप से अपने भीतर और अपने आस पास के लोगों में नकरात्मक भावनाओं का प्रदूषण भी फैलाते हैं। ये नकरात्मक भावनायें फैलते फैलते जगत में हिंसा और दुख का कारण बनती हैं।
अधिकतर युद्ध और संघर्ष इन्हीं भावनाओं से ही शुरु होते हैं। जिसके परिणाम में पर्यावरण को नुक्सान होता है, और उसे स्वस्थ करने में बहुत समय लगता है। हमें मनुष्य के मानसिकता पर ध्यान देने की आवश्यकता है। यह मानसिकता ही प्रदूषण की जड़ है - स्थूल तथा भावनात्मक। अगर हमारे भीतर करुणा और परवाह जग जाते हैं, तो वे आधार बनते हैं एक गहरे संबंध का जिस में कि हम पर्यावरण की और व्यक्तियों की देखभाल करते हैं।
प्राचीन समय में अगर एक व्यक्ति एक वृक्ष काटता था तो साथ ही ५ नये वृक्ष लगाता था। प्राचीन समय में लोग पवित्र नदियों में कपड़े नहीं धोते थे। केवल शरीर के अग्नि-संस्कार के बाद बची हुई राख को नदी में बहाते थे ताकि सब कुछ प्रकृति में वापिस लय हो जाये। हमें प्रकृति और पर्यावरण को सम्मान और सुरक्षा के भाव से देखने वाली प्राचीन प्रणालियों को पुनर्जीवित करना होगा।
प्रकृति के पास संतुलन बनाये रखने के अपने तरीके हैं। प्रकृति को ध्यान से देखो तो तुम पाओगे कि जो पंचतत्व इसका आधार हैं, उनका मूल स्वभाव एक दूसरे के विरोधात्मक है। जल अग्नि का नाश करता है। अग्नि वायु का नाश करती है...। और प्रकृति में कई प्रजातियां हैं - पक्षी, सरीसृप, स्तनधारी...। भिन्न प्रजातियां एक दूसरे से वैर रखती हैं, फिर भी प्रकृति एक संतुलन बना कर रखती है। प्रकृति से हमे ये सीखने की आवश्यकता है कि अपने भीतर, अपने परिवेश में और जगत में विरोधी शक्तियों का संतुलन कैसे बनाये रखें।
सबसे अधिक आवश्यक है कि हमारा मन तनाव मुक्त हो और हम इस खुले मन से जगत का अनुभव कर सकें। ऐसी मनस्थिति से हम इस सुंदर पृथ्वी का संरक्षण करने के उपाय बना सकेंगे। आध्यात्म से हमे अपने असल स्वभाव का अनुभव होता है और खुद से और अपने परिवेश से एक जुड़ाव का एहसास होता है। अपने असल स्वभाव के साथ परिचय होने पर नकारात्मक भावनायें मिट जाती हैं, चेतना ऊर्ध्वगामी होती है और पूरी पृथ्वी की देखभाल के लिये एक दृढ़ संकल्प उपजता है।
हमारी चेतना को ऊर्ध्वगामी बनाने में और अपने आप से और अपने परिवेश से अपने संबंध को सुदृढ़ करने के लिये क्या करना चाहिये? ये कुछ सक्षम सूत्र हैं -
- उप्युक्त भोजन : भोजन से हमारे मन पर असर पड़ता है। जैन परंपरा में मन पर भोजन के प्रभाव के विषय में बहुत शोध किया है । आयुर्वेद, चीनी चिकित्सा पद्दति एवं विश्व की अन्य कई प्राचीन परंपराओं में भोजन से होने वाले मन पर प्रभाव को पहचाना था। आधुनिक विज्ञान भी इस बात की पुष्टि करता है कि भोजन से हमारी भावनाओं पर सीधा प्रभाव पड़ता है। भावनात्म्क रूप से परेशान बच्चे अधिक भोजन लेते हैं और मोटापे के शिकार हो जाते हैं। एक संतुलित आहार का हमारी भावनाओं पर सकारात्मक प्रभाव होता है और इसका असर हमारी चेतना पर होता है।
- हल्का या मध्यम व्यायाम|
- पंचकर्म : आयुर्वेद की प्राचीन चिकित्सा परंपरा में भीतरी सफ़ाई की एक प्रक्रिया है जिसे पंचकर्म कहते हैं। पंचकर्म में शामिल होती हैं - मालिश प्रक्रिया, निर्धारित भोजन, और शरीर की भीतरी सफ़ाई। इससे हज़ारों लोगों को तनाव से मुक्त होने में और अपने व्यवहार में आये विकारों से मुक्त होने में सहायता मिली है। साथ ही, ये कई बीमारियों से छुटकारा दिलाता है।
- योग, ध्यान और प्राणायाम : योग, ध्यान और प्राणायाम। अपने शरीर और पर्यावरण को सम्मान की दृष्टि से देखने में ये बहुत सहायक हैं। ये अपने शरीर और पर्यावरण को प्रदूषण से मुक्त रखने में सहायक होता है और भावनात्मक असंतुलन से भी मुक्त करता है।
- संगीत और नृत्य : इनसे शरीर और मन में तारतम्यता और समतुलना आती है। खासतौर पर उस संगीत से जो कि बहुत तेज़ और कोलाहलपूर्ण ना हो। शांतिदायक संगीत हमारे मन और शरीर में एक स्पंदन पैदा करता है जो कि समतुलना लाता है, जैसे कि शास्त्रीय और लोक संगीत।
- प्रकृति : प्रकृति के साथ समय बिताना, मौन रहना, प्रार्थना करना..ये बहुत सहायक हैं अपने मन के साथ रहने में।
- और फिर सेवा। यह जीवन में संतुष्टि के लिए अनिवार्य है।
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"जीवन में बुद्धि और भावना का सन्तुलन रखना चाहिये।"
प्रश्न : सेवा से थक जाते हैं, उत्साह नहीं रहता तो खुशी से उत्सव कैसे मनायें?
श्री श्री रविशंकर : तब तो तुम्हारी सेवा में कोई कमी रह गयी होगी। जब सेवा उत्सव मनाने के भाव से करते हैं तो न थकावट और न ही मुर्झाहट लगती है। देखो भई, तुम सब लोग पिछ्ले दो तीन दिन कितने उत्साहित रहे पूरे दिनभर, और कल रात आप लोग देर रात तक जगे थे, पर मुझे तो कोई भी थका हुआ नज़र नहीं आ रहा ! आप को जो भी इतना लाभ मौन और ध्यान से मिल रहा है उसको सुरक्षित रखिये। हर एक काम में संयम का पालन करना चाहिये, कार्य में, बातचीत में, व्यवहार में - सब में। किसी बात में अतिश्योक्ति न हो, इसका ध्यान रखना चाहिये।
प्रश्न : जीवन में बहुत कुछ मिलता है पर अधूरी इच्छाओं के रहते एक असंतुष्टता की भावना रह जाती है मन में। इससे दुख पहुँचता है, क्या करें, इनसे कैसे निपटें?
श्री श्री रविशंकर : आपने बेसिक कोर्स किया है न? उसमें क्या सीखा? जीवन में कभी सफलता तो कभी असफलता मिलती है और दोनों को साथ लेकर चलना है। असफलता से आप को कभी खुशी नहीं मिल सकती, उस से दुख ही मिलेगा। तो फ़िर उस समय क्या करें? उसके लिये अपने पास दो उपाय हैं - ’सो वट?’(तो क्या?) और ’सोहम’! अब तुम्हारे पास ये दो कुंजियाँ हैं परिस्तिथि को सम्भालने के लिये!
प्रश्न : गुरुजी,आज मैं सेवा कर रहा था पर ये भूल स्वीकार करना चाहता हूँ कि वह मैं आप का ध्यान आकर्षित करने के लिये कर रहा था।
श्री श्री रविशंकर : कोई बात नहीं, इतनी ग्लानि महसूस मत करो कि तुमने मेरा ध्यान आकर्षित करने के लिये सेवा की थी। माना गलती हुई पर तुमने सेवा भी तो करी ना! और जैसे जैसे तुम आगे बढ़ोगे सुधार होता जायेगा। बहुत बार लोग प्रश्न भी ध्यान आकर्षित करने के लिये पूछते हैं। मैं जानता हूँ! इसीलिये केवल ध्यान आकर्षित करने में ही रुचि मत रखो - दोनों काम करो।
प्रश्न : हम ने सुना है कि यहाँ कृपा भरपूर मिल रही है पर हम कितना ले सकते हैं ये हमारे पात्र पर निर्भर है, तो हम ज्यादा मिलने के लिये अपने पात्र का आकार कैसे बढ़ायें?
श्री श्री रविशंकर : योग से योग्यता और पात्रता बढ़ती है। योग, प्राणायाम आदि जो भी तुम सब यहाँ कर रहे हो, वे सभी तरह के गुण कुशलता और पात्रता बढ़ाते हैं। सेवा से भी ये सब बढ़ता है।
प्रश्न : साँस कैसी हो, लंबी, गहरी या धीमी, शांत?
श्री श्री रविशंकर : आपको कभी लंबी और कभी धीमी दोनों सांस लेनी चाहिए। जब लंबी गहरी साँस लेते हो तो प्राण की ऊर्जा बढ़ती है, और धीमी और शांत साँस से विश्राम मिलता है।
प्रश्न : आज के युग में बहुत लोग शर्करा(Diabetes) की बीमारी से पीड़ित हैं जो सामान्य दवाइयों से दूर नहीं हो सकती है। क्या योग से ठीक हो सकती है?
श्री श्री रविशंकर : हाँ, कुछ तरह की शर्करा की बीमरी योग और आयुर्वेद के साथ दूर हो सकती हैं, सब प्रकार की नहीं। यहाँ के अनुसंधान केन्द्र में डाक्टर वेदमूर्ताचार्य ने कुछ शोध किया है और ४३ शोध पत्र भी लिखे हैं। आप लोग उनसे बात कर लीजिये। इन्होंने १००० शर्करा के मरीजों पर शोध किया है जो सुदर्शन क्रिया व संतुलित भोजन से इस बीमारी से मुक्त हो गये हैं।
प्रश्न : मुझे हर काम के लिये बहुत प्रयत्न करना पड़ता है और सन्तोष जनक फल भी नहीं मिलता है।
श्री श्री रविशंकर : तुमने अपने मन में ऐसा संकल्प क्यों धारण कर लिया कि तुम्हे सब काम के लिये बहुत प्रयत्न करना पड़ता है, यां तुम ठीक से कार्य नहीं कर पाते इत्यादि? ऐसी मान्यता तुमने स्वयं अपने ऊपर लाद रखी है। किसी समय ऐसा हुआ होगा पर आगे भविष्य में भी ऐसा ही हो यह ज़रुरी नहीं है।
प्रश्न : चित्त की एकाग्रता बढ़ाने के लिये क्या करना चाहिये?
श्री श्री रविशंकर : और अधिक एडवान्स कोर्स करो।
प्रश्न : मैं बोध कैसे हासिल करूँ? मुझे भगवान से साक्षात्कार करना है, मुझे बोध प्राप्त करना है।
श्री श्री रविशंकर : बोध प्राप्त करना है? भगवान से साक्षात्कार करना है? तो सेवा करो और विश्राम करो।
प्रश्न : मैं हर रोज़ अपनी साधना करता हूँ पर हर समय आपके साथ रहूँ यह एक प्रबल इच्छा बनी रहती है और जब दूसरों को आपके साथ बात करते देखता हूँ तो मतिभ्रम में पड़ कर सोचने लगता हूँ कि आप केवल मेरे से ही बात कर रहे हैं- एक बीमरी सी लगने लगी है। अगर मैं आपको देख लेता हूँ या आपका कुछ इशारा देखता हूँ तो कुछ ठीक पाता हूँ खुद को। पर आज सबको मिलते समय आपने मुझे देखा भी नहीं तो मुझे बुरा लगा। अब ये बुरा लगना और ये आपके पास रहने की बीमारी को कैसे दूर करूँ?
श्री श्री रविशंकर : देखो जिस वक्त तुम्हें यह अहसास हुआ कि ये मोह बीमरी स्वरूप बन रहा है तो तुम उसी वक्त इस से बाहर आ गये। ठीक है कुछ वक्त के लिये किसी का ध्यान आकर्षित करना, पर हर समय ऐसा नहीं करना। तुम अपनी साधना, सेवा, सत्संग करते जाओ, खुश रहो और केन्द्रित रहो। ठीक है, बैठ कर उसका विश्लेषण मत करो- ये भक्ति थी यां मोह? ज्यादा विश्लेषण से परिणाम और भी खराब होंगे। बस सहज रहो, आगे चलते रहो, जो भी हो रहा है उसे स्वीकार करते जाओ, समझे? हमें हमेशा उस चीज़ की प्राप्ति होती है जिसकी हमें सही में जरूरत होती है, है ना? यह एक निर्धारित नियम है, यह जान कर आगे बढ़ते रहो।
प्रश्न : कुछ काम करते समय मैं ये सुनता हूँ कि यह कार्य गुरुजी ने मुझसे करने को कहा, इस से मेरे सामन्य जीवन पर असर पड़ने लगा है, मैं क्या करूँ?
श्री श्री रविशंकर : संतुलन होना चाहिये तुम्हारे अंतरात्मा की आवाज़ और अपनी आन्तरिक शक्ति पर। जो तुम्हें परेशान कर रही है उसे योग माया कहते हैं। कभी कभी योग माया से भ्रमित मन में विचार आते हैं जो गलत भी होते हैं। इसलिये हमें अपने विवेक और बुद्धि को तीक्ष्ण और स्पष्ट रखना चाहिये। आन्तरिक चेतना के स्तर पर दिखने वाले दृश्य यां झलक और सुनाई पड़ने वाली आवाज़ को सही समझने के लिये विवेक और बुद्धि मे तीक्ष्णता चाहिए। राम कृष्ण परमहंस को भी ऐसी कई झलकियाँ, दृश्य दिखते थे। दुनिया में और भी कई सत्पुरुषों को ऐसे कई झलक दिखने या आन्तरिक आवाज़ सुनने का आभास हुआ है। इसलिये सन्तुलन रखो और धीमी गति से बुद्धि और भावों में समता से आगे बड़ों। जीवन में दोनों- बुद्धि और भावना का, दिमाग और दिल का सन्तुलन होना चाहिये।
प्रश्न : गीता में श्री कृष्ण ने ये संसार गुणों का खेल कहा है - इसका क्या अर्थ है?
श्री श्री रविशंकर : गीता पर बहस करने में बहुत वक्त लगेगा, तो अभी नहीं करेंगे। फिर से पढ़ो, क्योंकि कभी कभी पढ़ते ही तुरंत समझ आ जाता है, और कभी अनेक बार पढ़ने पर समझ आता है।
प्रश्न : कभी मुझे अच्छा लगता है और कभी बुरा- दोनों में संतुलन कैसे लाऊँ?
श्री श्री रविशंकर : कुछ दिन मौन रखो और देखो जो उचित है वही भावना प्रेक्षित होंगी।
प्रश्न : मैं पिछले छह साल से सुदर्शन क्रिया कर रहा हूँ और एक नयी जिंदगी जी रहा हूँ। खुशीपूर्वक नकारात्मक विचार रहित जीवन जी रहा हूं पर एक समस्या है - मेरी स्मरण शक्ति पहले जैसी नहीं है अब तो कुछ उपाय करूँ यां ऐसे ही छोड़ दूँ?
श्री श्री रविशंकर : उम्र के हिसाब से तुम्हें आयुर्वेदिक दवाई लेनी चाहिये जैसे ब्राह्मी, शंख पुष्पी आदि जिससे लाभ मिलेगा। हमारे देश में आजकल जो हमने भोजन प्रणाली बना रखी है वह स्मरणशक्ति के लिये उपयुक्त नहीं है, उसमें स्टार्च, कार्बोहाईड्रेट्स ज्यादा हैं व सब्जी, प्रोटीन्स, फल इत्यादि कम। अपने भोजन में बदलाव करो और देखो कि इनकी मात्रा ज्यादा हो। इसके साथ आयुर्वेदिक दवाइयाँ (ब्राह्मी आदि), प्राणायाम, योग से लाभ होगा।
प्रश्न : आप कहते हैं चुनाव या निर्णय हमारा है और आशीर्वाद आपका पर मैं क्या नौकरी करूं, यह समझ नहीं पा रही। एक नौकरी लेती हूँ और कुछ समय बाद छोड़ देती हूँ - क्या आप मेरे लिये निर्णय ले सकते हैं?
श्री श्री रविशंकर : जब हम कभी भी कोई काम लेते हैं तो कुछ समय बाद लगता है ये नहीं कुछ और ठीक रहता। जो लोग डाक्टर बने हैं वे सोचते हैं एन्जिनीयर बनते तो अच्छा था, और जो एन्जिनीयर हैं वे सोचते हैं अरे वकील बनते तो अच्छी कमाई रहती! तो हर नियुक्त कार्य में कोई दोष तो मिलेगा ही। इसीलिये मैं कहता हूँ अपनी पसंद का काम हाथ में लो और उसके साथ निभाओ। और मैं आपके लिए कार्यक्षेत्र नहीं चुनूंगा। आप सब अपना कार्य क्षेत्र खुद तय करें, मेरा आशीर्वाद साथ में है ही।
प्रश्न : गुरुजी, समय क्या है? क्या इसको और इसकी गति को बदला जा सकता है?
श्री श्री रविशंकर : दो घटनाओं के बीच जो दूरी है वह समय है। दुख में समय लंबा और सुख में छोटा प्रतीत होता है, इसकी गति में बदलाव मौन द्वारा किया जा सकता है।
प्रश्न : आपने नारद भक्ति सूत्र में कहा कि सब माया है, तो क्या इसका मतलब है कि हम कोई कार्य नहीं करें?
श्री श्री रविशंकर : पहले तुम पूरे भक्ति सूत्र की व्याख्या सुनो, आधा यां एक टेप सुन कर कोई धारणा बनाना उचित नहीं है।
प्रश्न : आप से मिल कर भी मैं संतुष्ट नहीं होता - मुझे लगता है आप दूसरों को ज़्यादा वक्त देते हैं। आज भी दर्शन कतार में आप मुझे बिना देखे आगे निकल गये। और मुझे जब आप से बात करने का मौका भी मिलता है तब मैं बोल ही नहीं पाता, क्या बोलूं समझ ही नहीं पाता! फिर लगता है ’अरे मैं ये कहना भूल गया’, ’ये पूछना भूल गया’-और इस तरह अपने दिमाग में विश्लेषण करने लगता हूँ- अब क्या करूँ?
श्री श्री रविशंकर : कैसे सोचा कि तुम्हें नहीं देखा? मैं हर एक जो दर्शन के लिये आता है उसे देखता हूँ, किसी को भी नहीं छोड़ता! और तुम मिलने पर कुछ भी पूछना भूल जाते हो तो वो भी ठीक है- अब बोल दिये ना!
प्रश्न : सुना है कि अभिमन्यु ने युद्ध की एक कठिन कला "चक्रव्यूह" तोड़ने की कला, गर्भ में ही सीख ली थी। क्या ये सम्भव है कि कोई गर्भ में भी सीख सकता है?
श्री श्री रविशंकर : हाँ, यह सत्य है।
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श्री श्री रविशंकर : तब तो तुम्हारी सेवा में कोई कमी रह गयी होगी। जब सेवा उत्सव मनाने के भाव से करते हैं तो न थकावट और न ही मुर्झाहट लगती है। देखो भई, तुम सब लोग पिछ्ले दो तीन दिन कितने उत्साहित रहे पूरे दिनभर, और कल रात आप लोग देर रात तक जगे थे, पर मुझे तो कोई भी थका हुआ नज़र नहीं आ रहा ! आप को जो भी इतना लाभ मौन और ध्यान से मिल रहा है उसको सुरक्षित रखिये। हर एक काम में संयम का पालन करना चाहिये, कार्य में, बातचीत में, व्यवहार में - सब में। किसी बात में अतिश्योक्ति न हो, इसका ध्यान रखना चाहिये।
प्रश्न : जीवन में बहुत कुछ मिलता है पर अधूरी इच्छाओं के रहते एक असंतुष्टता की भावना रह जाती है मन में। इससे दुख पहुँचता है, क्या करें, इनसे कैसे निपटें?
श्री श्री रविशंकर : आपने बेसिक कोर्स किया है न? उसमें क्या सीखा? जीवन में कभी सफलता तो कभी असफलता मिलती है और दोनों को साथ लेकर चलना है। असफलता से आप को कभी खुशी नहीं मिल सकती, उस से दुख ही मिलेगा। तो फ़िर उस समय क्या करें? उसके लिये अपने पास दो उपाय हैं - ’सो वट?’(तो क्या?) और ’सोहम’! अब तुम्हारे पास ये दो कुंजियाँ हैं परिस्तिथि को सम्भालने के लिये!
प्रश्न : गुरुजी,आज मैं सेवा कर रहा था पर ये भूल स्वीकार करना चाहता हूँ कि वह मैं आप का ध्यान आकर्षित करने के लिये कर रहा था।
श्री श्री रविशंकर : कोई बात नहीं, इतनी ग्लानि महसूस मत करो कि तुमने मेरा ध्यान आकर्षित करने के लिये सेवा की थी। माना गलती हुई पर तुमने सेवा भी तो करी ना! और जैसे जैसे तुम आगे बढ़ोगे सुधार होता जायेगा। बहुत बार लोग प्रश्न भी ध्यान आकर्षित करने के लिये पूछते हैं। मैं जानता हूँ! इसीलिये केवल ध्यान आकर्षित करने में ही रुचि मत रखो - दोनों काम करो।
प्रश्न : हम ने सुना है कि यहाँ कृपा भरपूर मिल रही है पर हम कितना ले सकते हैं ये हमारे पात्र पर निर्भर है, तो हम ज्यादा मिलने के लिये अपने पात्र का आकार कैसे बढ़ायें?
श्री श्री रविशंकर : योग से योग्यता और पात्रता बढ़ती है। योग, प्राणायाम आदि जो भी तुम सब यहाँ कर रहे हो, वे सभी तरह के गुण कुशलता और पात्रता बढ़ाते हैं। सेवा से भी ये सब बढ़ता है।
प्रश्न : साँस कैसी हो, लंबी, गहरी या धीमी, शांत?
श्री श्री रविशंकर : आपको कभी लंबी और कभी धीमी दोनों सांस लेनी चाहिए। जब लंबी गहरी साँस लेते हो तो प्राण की ऊर्जा बढ़ती है, और धीमी और शांत साँस से विश्राम मिलता है।
प्रश्न : आज के युग में बहुत लोग शर्करा(Diabetes) की बीमारी से पीड़ित हैं जो सामान्य दवाइयों से दूर नहीं हो सकती है। क्या योग से ठीक हो सकती है?
श्री श्री रविशंकर : हाँ, कुछ तरह की शर्करा की बीमरी योग और आयुर्वेद के साथ दूर हो सकती हैं, सब प्रकार की नहीं। यहाँ के अनुसंधान केन्द्र में डाक्टर वेदमूर्ताचार्य ने कुछ शोध किया है और ४३ शोध पत्र भी लिखे हैं। आप लोग उनसे बात कर लीजिये। इन्होंने १००० शर्करा के मरीजों पर शोध किया है जो सुदर्शन क्रिया व संतुलित भोजन से इस बीमारी से मुक्त हो गये हैं।
प्रश्न : मुझे हर काम के लिये बहुत प्रयत्न करना पड़ता है और सन्तोष जनक फल भी नहीं मिलता है।
श्री श्री रविशंकर : तुमने अपने मन में ऐसा संकल्प क्यों धारण कर लिया कि तुम्हे सब काम के लिये बहुत प्रयत्न करना पड़ता है, यां तुम ठीक से कार्य नहीं कर पाते इत्यादि? ऐसी मान्यता तुमने स्वयं अपने ऊपर लाद रखी है। किसी समय ऐसा हुआ होगा पर आगे भविष्य में भी ऐसा ही हो यह ज़रुरी नहीं है।
प्रश्न : चित्त की एकाग्रता बढ़ाने के लिये क्या करना चाहिये?
श्री श्री रविशंकर : और अधिक एडवान्स कोर्स करो।
प्रश्न : मैं बोध कैसे हासिल करूँ? मुझे भगवान से साक्षात्कार करना है, मुझे बोध प्राप्त करना है।
श्री श्री रविशंकर : बोध प्राप्त करना है? भगवान से साक्षात्कार करना है? तो सेवा करो और विश्राम करो।
प्रश्न : मैं हर रोज़ अपनी साधना करता हूँ पर हर समय आपके साथ रहूँ यह एक प्रबल इच्छा बनी रहती है और जब दूसरों को आपके साथ बात करते देखता हूँ तो मतिभ्रम में पड़ कर सोचने लगता हूँ कि आप केवल मेरे से ही बात कर रहे हैं- एक बीमरी सी लगने लगी है। अगर मैं आपको देख लेता हूँ या आपका कुछ इशारा देखता हूँ तो कुछ ठीक पाता हूँ खुद को। पर आज सबको मिलते समय आपने मुझे देखा भी नहीं तो मुझे बुरा लगा। अब ये बुरा लगना और ये आपके पास रहने की बीमारी को कैसे दूर करूँ?
श्री श्री रविशंकर : देखो जिस वक्त तुम्हें यह अहसास हुआ कि ये मोह बीमरी स्वरूप बन रहा है तो तुम उसी वक्त इस से बाहर आ गये। ठीक है कुछ वक्त के लिये किसी का ध्यान आकर्षित करना, पर हर समय ऐसा नहीं करना। तुम अपनी साधना, सेवा, सत्संग करते जाओ, खुश रहो और केन्द्रित रहो। ठीक है, बैठ कर उसका विश्लेषण मत करो- ये भक्ति थी यां मोह? ज्यादा विश्लेषण से परिणाम और भी खराब होंगे। बस सहज रहो, आगे चलते रहो, जो भी हो रहा है उसे स्वीकार करते जाओ, समझे? हमें हमेशा उस चीज़ की प्राप्ति होती है जिसकी हमें सही में जरूरत होती है, है ना? यह एक निर्धारित नियम है, यह जान कर आगे बढ़ते रहो।
प्रश्न : कुछ काम करते समय मैं ये सुनता हूँ कि यह कार्य गुरुजी ने मुझसे करने को कहा, इस से मेरे सामन्य जीवन पर असर पड़ने लगा है, मैं क्या करूँ?
श्री श्री रविशंकर : संतुलन होना चाहिये तुम्हारे अंतरात्मा की आवाज़ और अपनी आन्तरिक शक्ति पर। जो तुम्हें परेशान कर रही है उसे योग माया कहते हैं। कभी कभी योग माया से भ्रमित मन में विचार आते हैं जो गलत भी होते हैं। इसलिये हमें अपने विवेक और बुद्धि को तीक्ष्ण और स्पष्ट रखना चाहिये। आन्तरिक चेतना के स्तर पर दिखने वाले दृश्य यां झलक और सुनाई पड़ने वाली आवाज़ को सही समझने के लिये विवेक और बुद्धि मे तीक्ष्णता चाहिए। राम कृष्ण परमहंस को भी ऐसी कई झलकियाँ, दृश्य दिखते थे। दुनिया में और भी कई सत्पुरुषों को ऐसे कई झलक दिखने या आन्तरिक आवाज़ सुनने का आभास हुआ है। इसलिये सन्तुलन रखो और धीमी गति से बुद्धि और भावों में समता से आगे बड़ों। जीवन में दोनों- बुद्धि और भावना का, दिमाग और दिल का सन्तुलन होना चाहिये।
प्रश्न : गीता में श्री कृष्ण ने ये संसार गुणों का खेल कहा है - इसका क्या अर्थ है?
श्री श्री रविशंकर : गीता पर बहस करने में बहुत वक्त लगेगा, तो अभी नहीं करेंगे। फिर से पढ़ो, क्योंकि कभी कभी पढ़ते ही तुरंत समझ आ जाता है, और कभी अनेक बार पढ़ने पर समझ आता है।
प्रश्न : कभी मुझे अच्छा लगता है और कभी बुरा- दोनों में संतुलन कैसे लाऊँ?
श्री श्री रविशंकर : कुछ दिन मौन रखो और देखो जो उचित है वही भावना प्रेक्षित होंगी।
प्रश्न : मैं पिछले छह साल से सुदर्शन क्रिया कर रहा हूँ और एक नयी जिंदगी जी रहा हूँ। खुशीपूर्वक नकारात्मक विचार रहित जीवन जी रहा हूं पर एक समस्या है - मेरी स्मरण शक्ति पहले जैसी नहीं है अब तो कुछ उपाय करूँ यां ऐसे ही छोड़ दूँ?
श्री श्री रविशंकर : उम्र के हिसाब से तुम्हें आयुर्वेदिक दवाई लेनी चाहिये जैसे ब्राह्मी, शंख पुष्पी आदि जिससे लाभ मिलेगा। हमारे देश में आजकल जो हमने भोजन प्रणाली बना रखी है वह स्मरणशक्ति के लिये उपयुक्त नहीं है, उसमें स्टार्च, कार्बोहाईड्रेट्स ज्यादा हैं व सब्जी, प्रोटीन्स, फल इत्यादि कम। अपने भोजन में बदलाव करो और देखो कि इनकी मात्रा ज्यादा हो। इसके साथ आयुर्वेदिक दवाइयाँ (ब्राह्मी आदि), प्राणायाम, योग से लाभ होगा।
प्रश्न : आप कहते हैं चुनाव या निर्णय हमारा है और आशीर्वाद आपका पर मैं क्या नौकरी करूं, यह समझ नहीं पा रही। एक नौकरी लेती हूँ और कुछ समय बाद छोड़ देती हूँ - क्या आप मेरे लिये निर्णय ले सकते हैं?
श्री श्री रविशंकर : जब हम कभी भी कोई काम लेते हैं तो कुछ समय बाद लगता है ये नहीं कुछ और ठीक रहता। जो लोग डाक्टर बने हैं वे सोचते हैं एन्जिनीयर बनते तो अच्छा था, और जो एन्जिनीयर हैं वे सोचते हैं अरे वकील बनते तो अच्छी कमाई रहती! तो हर नियुक्त कार्य में कोई दोष तो मिलेगा ही। इसीलिये मैं कहता हूँ अपनी पसंद का काम हाथ में लो और उसके साथ निभाओ। और मैं आपके लिए कार्यक्षेत्र नहीं चुनूंगा। आप सब अपना कार्य क्षेत्र खुद तय करें, मेरा आशीर्वाद साथ में है ही।
प्रश्न : गुरुजी, समय क्या है? क्या इसको और इसकी गति को बदला जा सकता है?
श्री श्री रविशंकर : दो घटनाओं के बीच जो दूरी है वह समय है। दुख में समय लंबा और सुख में छोटा प्रतीत होता है, इसकी गति में बदलाव मौन द्वारा किया जा सकता है।
प्रश्न : आपने नारद भक्ति सूत्र में कहा कि सब माया है, तो क्या इसका मतलब है कि हम कोई कार्य नहीं करें?
श्री श्री रविशंकर : पहले तुम पूरे भक्ति सूत्र की व्याख्या सुनो, आधा यां एक टेप सुन कर कोई धारणा बनाना उचित नहीं है।
प्रश्न : आप से मिल कर भी मैं संतुष्ट नहीं होता - मुझे लगता है आप दूसरों को ज़्यादा वक्त देते हैं। आज भी दर्शन कतार में आप मुझे बिना देखे आगे निकल गये। और मुझे जब आप से बात करने का मौका भी मिलता है तब मैं बोल ही नहीं पाता, क्या बोलूं समझ ही नहीं पाता! फिर लगता है ’अरे मैं ये कहना भूल गया’, ’ये पूछना भूल गया’-और इस तरह अपने दिमाग में विश्लेषण करने लगता हूँ- अब क्या करूँ?
श्री श्री रविशंकर : कैसे सोचा कि तुम्हें नहीं देखा? मैं हर एक जो दर्शन के लिये आता है उसे देखता हूँ, किसी को भी नहीं छोड़ता! और तुम मिलने पर कुछ भी पूछना भूल जाते हो तो वो भी ठीक है- अब बोल दिये ना!
प्रश्न : सुना है कि अभिमन्यु ने युद्ध की एक कठिन कला "चक्रव्यूह" तोड़ने की कला, गर्भ में ही सीख ली थी। क्या ये सम्भव है कि कोई गर्भ में भी सीख सकता है?
श्री श्री रविशंकर : हाँ, यह सत्य है।
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"कोई घटना तुम्हारे केन्द्र को छू नहीं सकती"
वैन्कूवर,
१० जुलाई
कुछ क्षण अपने साथ बैठे व्यक्ति के साथ पहचान करते हैं। हम शब्दों से ज़्यादा अपनी मौजूदगी से अभिव्यक्त करते हैं। शब्दों से ज़्यादा हम अपनी उर्जा से अभिव्यक्त करते हैं। कई बार हम कहते हैं - मुझे अच्छा स्फुरण महसूस नहीं हो रहा। यह बात सत्य है, सही में हम उर्जा का लेन देन ही करते हैं। मैं यहाँ दो घंटे खड़ा होकर प्रेम के विषय में व्याख्या दे सकता हूँ पर हो सकता है वह किसी के दिल में उतरे ही नहीं। पर शिशु की एक नज़र सब कुछ कह जाती है। इसी प्रकार जब हम क्रोधित होते हैं, तनाव में होते हैं तो वही तरंगें दूसरों को प्रतिपादित करते हैं। न घर में और न बाहर किसी ने हमें इन तरंगों को शुद्ध रखने की शिक्षा दी। अपनी उर्जा को शुद्ध रखने के लिए जीवन को विशाल रूप से देखने की आव्श्यकता है। हमारे शरीर में प्रतिदिन लाखों नए कोष पैदा होते हैं और मरते हैं। जब आप मुँह रगड़ कर धोते हो तो मरे हुए कोष दूर करते हो। इतने कोष प्रतिदिन मरते और पैदा हैं पर आप वही रहते हैं।
ऐसे ही, संसार को भी एक बदलते हुए दृश्य स्वरूप देखो। जीवन घटनाओं का क्रम है जिसमें घटनाएँ आती हैं, विलीन होती हैं, तुम अछूते उनमें से गुजर जाओ। तुम एक अनमोल हीरा हो। तुम्हें कोई घटना हिला नहीं सकती, तुम्हारा प्रेम नष्ट नहीं कर सकती। हम घटनाओं से ऊपर हैं, उनसे बढ़कर हैं। चाहे प्रशंसा हो यां निंदा - तुम्हें कुछ छू नहीं सकता, तुम अछूते हो।
तुम एक प्रज्जवलित दीपक हो, एक ऐसा फूल जो सदा सुगंधित है। क्या आप सब यहीं पर हैं? सुन रहे हैं, यां ये बातें काल्पनिक लग रही हैं? ये बातें स्वपन स्वरूप, मिथ्या जैसी लग सकती हैं पर सत्य हैं।
हम सब एक दूसरे के साथ इस सृष्टि में जुड़े हुए हैं, चाहे लोग माने यां न माने, तुम विश्व की आत्मा हो, तुम सृष्टि के केन्द्र हो। और आध्यातमिकता यही है - अपने आप को समस्त सृष्टि से जुड़ा पाना। तुम छोटा अहम नहीं हो, तुम विशाल चेतना हो जिसकी कोई सीमा नहीं, वह असीम चेतना तुम हो।
यह विशाल चेतना हम सब में शिशु रूप में जन्म के साथ होती है, किंतु हम समय के साथ अपने आप को छोटी बड़ी उपाधियों के आवरण से ढकते जाते हैं। हमे आवरण के परे अपना सच्चा स्वरूप देखना होगा, और इसको हासिल करने के लिये उत्तम साधन है, ध्यान।
क्या आप लोगों का ध्यान इधर ही है? अब क्या चल रहा है मन में? और कुछ सुनना है, आगे क्या होगा आदि।
सच्चा ज्ञान वह नहीं जो हम शब्दों से व्यक्त करते हैं। क्या आप लोग सुन रहे हैं? शब्दों से प्रतिपादन केवल घटना मात्र है, अंतराल भरने का माध्यम।
ध्यान के लिये तीन स्वर्णिम नियम हैं :
१) पहले सुखपूर्वक शरीर को ढीला छोड़ कर बैठ जायें। अगले कुछ मिनट में सिर्फ इस एक विचार से बैठें, ’मुझे कुछ नहीं चाहिये’, अगर आपके मन में उठा- मुझे प्यास लगी है, पानी पीना है इत्यादि, तो आप ध्यान नहीं कर रहे।
२) दूसरा नियम यह कि अगले १०-१५ मिनट के लिए ’मैं कुछ नहीं कर रहा हूँ’।
३) और तीसरा - ’मैं कुछ नहीं हूँ’। अगले १०-१५ मिनट के लिए मैं कुछ नहीं हूँ। यदि तुम समझते हो तुम बहुत बुद्धिमान हो तो ध्यान के बारे में भूल जाओ, और अगर समझते हो कि बेवकूफ़ हो तो भी आप उसी किश्ती में स्वार हैं। अगले कुछ क्षंणों के लिए सब धारणाएं जैसे मैं अमीर हूँ, गरीब हूँ, बहुत धार्मिक हूँ यां पापी हूँ इत्यादि सब भूल जाओ, तो आप कुछ नहीं हो!
तुम्हें कुछ नही चाहिये-(अचाह), तुम कुछ नहीं कर रहे हो (अप्रयत्न), और तुम कुछ नहीं हो (अकर्ता)- ये तीन उपाय हैं ध्यान करने के लिये।
प्रश्न : इस ईर्ष्या और घृणा से भरे जगत में विनम्रता और शांति के पथ पर कैसे चला जाये?
श्री श्री रवि शंकर : जगत को ऐसी मान्यता और उपाधि से मत बाँधो। कुछ लोग वैसे हो सकते हैं, उन पर ध्यान न देते हुए आगे बढ़ जाओ। वे अपनी ईर्ष्या में जलते हैं तो जलने दो, तुम उस पर ध्यान न दो। तुम जिस पर ध्यान देते हो, महत्व देते हो - वही बात बढ़ने लगती है। किसी भी संकल्प पर ध्यान देने से वो फलीभूत होने लगता है।
मैंने अपने ५५ साल के जीवन में किसी के लिये अपशब्द नहीं कहे हैं। यह मेरा स्वभाव है। अधिकतम किसी को बेवकूफ कहा होगा पर किसी को बुरा न कहा है, न बुरा चाहा है। यदि तुम्हारा उद्देश्य ठीक है तो मै कहता हूँ, तुम्हें आगे बढ़ने से कोई रोक नहीं सकता है।
यदि कोई ईर्ष्या करे तो क्या करें? आगे बढ़ते जाओ। तुम्हारा ध्यान विशालता की ओर हो, अपने विकास कि ओर हो।
प्रश्न : मैंने आपके सानिध्य में रहने वालों को उनकी क्षमता से भी अधिक विकसित होते देखा है। आप कैसे इन सब लोगों को प्रभावित करते है, प्रेरणा देते हैं?
श्री श्री रवि शंकर : वर्ल्ड बैंक के प्रैज़ीडेंट ने भी यह सवाल मुझसे पूछा था, ’आपकी इतनी सारी योजनाएँ सफलता कैसे पाती हैं? हम भी बहुत से प्रयोजन करते हैं पर हर किसी को सफलता नहीं मिलती।’
सफलता केवल धन पर ही नहीं, अपितु आपके सही उद्देश्य, उस पर ध्यान देने से और स्पष्टता पर निर्भर करती है। हम अपनी दृष्टि को बदल कर देखें तो पायेंगे सब कुछ भीतर से उत्पन्न हो रहा है। अगर मन के भीतर का वातावरण सुखद है, तो बाहर भी अच्छा लगेगा। तो तुम ही इस बदलाव के प्रतिनिधि (कार्यकर्ता) बनो।
प्रश्न : शरीर को आवश्यक्ता से अधिक चलायमन मन के विचारों से कैसे मुक्त किया जाये?
श्री श्री रवि शंकर : सुदर्शन क्रिया, ध्यान, योग और सही भोजन आदि करने से यह ठीक हो सकता है।
प्रश्न : आपने मुझ पर जो इतनी कृपा की है, मैं उसका आभारी हूँ। पर मैं जब भी आपसे मिलता हूँ तो बहुत आँसूं निकलते हैं। ऐसा क्यों होता है?
श्री श्री रवि शंकर : हे भगवान! तुम तो मेरी ये प्रतिष्ठा खत्म कर रहे हो कि जो भी मुझे देखता है वह मुस्कराता है! जब दिल खिलता है तो आँसू निकल पड़ते हैं।प्रेम और आभार के आँसू बहुत कीमती हैं।
प्रश्न : जीवन का उद्देश्य क्या है, इसे कैसे जाना जा सकता है?
श्री श्री रवि शंकर : शांतचित्त होकर अपनी अंतरात्मा को सुनो। आप सबके पास मोबाइल फोन है न? उसको काम में लाने के लिये क्या क्या होना चाहिये? अगर सिम कार्ड नहीं है तो कार्य करेगा क्या? सिम कार्ड है पर तुम बहुत दूर हो तब सिग्नल नहीं पकड़ता है तो क्या वो काम करेगा? और तुम्हें सिम कार्ड, सिग्नल ठीक पकड़ने के साथ यह भी देखना होगा कि बैट्री पूरी है। तो तीनों चीज़ें चाहिये- बैट्री, सिम कार्ड व टावर की नज़दीकी। पर यह तीनों के होने के बाद भी यदि तुम नंबर नहीं लगाओगे तो भी काम नहीं चलेगा। तो ये सब करना पड़ेगा तुम्हें - आध्यात्मिक संबंध टावर समान है, आपका अपना प्रयत्न नंबर घुमाने समान है और ध्यान करना बैट्री चार्ज करने समान है। ये सब हो तो प्रार्थना की सुनवाई होती है। तुम्हारे में भी दूसरों को आशीर्वाद देने और दूसरों की मनोकामना पूरी करने की क्षमता हो सकती है यदि मन शांत और स्थिर हो।
प्रश्न : मुझे कई लोगों के साथ अटपटा सा लगता है, व्यग्रता महसूस होती है, चाहे वो अजनबी ही हों। ऎसा क्यों होता है?
श्री श्री रवि शंकर : इसे एक परीक्षण के रूप में लो और ध्यान करो। ध्यान की गहराई में जाकर देखोगे कि ये व्यग्रता मिट जायेगी। तुम इस संवेदना को अधिक महत्व देते हो। यह जान लो कि तुम इन सब से अधिक विशाल हो। जब तुम अपना दृष्टिकोण बदल लोगे तो ये संवेदनाएँ भी मिट जायेंगी।
प्रश्न : आत्मसम्मान खोने पर जीने का उद्देश्य कैसे ढूँढा जा सकता है?
श्री श्री रवि शंकर : आत्मा नहीं खोई है तो अत्मसम्मान भी कैसे खो सकता है! उठो जागो! तुम को कई अनेक स्वीकार करते हैं और प्रेम करते हैं। तुम इस धरती के एक कीमती फूल हो। कुछ उपयोगी कार्य करो। हर समय केवल अपने बारे में ही विचार मत करो।
प्रश्न : क्रोध क्यों आता है?
श्री श्री रवि शंकर : सब कार्य में निपुणता की इच्छा रखना ही क्रोध का कारण होता है। कुछ हद तक दोष भी स्वीकार करो। किसी भी कार्य में परिपूर्णता असंभव है। किसी भी कार्य में केवल ९५ प्रतिशत पूर्णता हासिल हो सकती है। हाँ, वचन और विचार में १०० प्रतिशत पूर्णता हासिल हो सकती है।
प्रश्न : अफगानिस्तान में शांति के लिये क्या मार्ग है?
श्री श्री रवि शंकर :ये याद रहे कि वहाँ पहले बौद्ध और हिन्दू धर्म के लोग रहते थे, व अफगानियों के पूर्वज योग और ध्यान के साधक थे। यह बात समझने पर लोग कट्टरपंथि भाव छोड़कर विशाल दृष्टिकोण रख सकते हैं। उनका यह सोचना कि ’वे ही स्वर्ग में जायेंगे और अन्य लोग नरक में’, दूसरों के लिये नरक उत्पन्न कर देता है। सबको विशाल दृष्टिकोण रखना होगा। प्रत्येक विध्यार्थी को थोड़ा बहुत उपनिषद, कुरान, गुरु ग्रंथ साहिब आदि का ज्ञान होना चाहिये। जैसे सिख धर्म के गुरु ग्रन्थ सहिब में उपनिषदों का सार है। यह महत्वपूर्ण है कि सब बच्चे इसके बारे में जाने, तब वे विशाल भाव रख सकेंगे। जो बलिदान सिख गुरुओं ने दिया वह अवर्नणीय है। उसके बिना योग और ध्यान इस भूमी से कब के मिटा दिये जाते। सिख गुरुओं ने बलिदान का जीवन बिताया। उन्होंने इस ब्रह्मज्ञान की सुरक्षा की जो सम्पूर्ण विश्व के लिये है। सब को हर धर्म के बारे में थोड़ी जानकारी अवश्य होनी चहिये।
प्रश्न : ध्यान लगाने में सहायक क्या बातें हो सकती हैं?
श्री श्री रवि शंकर : किसी भी अच्छी बात की शुरुआत के लिए ये तीन बातें सहायक हो सकती हैं: लोभ, भय और प्रेम।
कोई आपको लोभ दे कर कहे कि आपको साधना नियमित करने पर लाख डालर मिलेंगे, तो आप करोगे क्या? यह सुन आप पाँच दिन ज्यादा भी करने को तैयार हो जाओगे!
जिससे प्रेम करते हो वह यदि सिगरेट पीने को मना करे, तो आप तैयार हो जाओगे, उनकी बात रख लोगे। भय से भी आप सिगरेट पीना छोड़ दोगे। यदि डाक्टर ने कहा सिगरेट पीना छोड़ दो वर्ना मर जाओगे, तो आप क्या करेंगे? इन तीनों उपायों में से मैं प्रेम का उपाय बेहतर समझता हूँ।
गुरु प्रेम और प्रतिबद्धता का प्रतीक है।
प्रश्न : स्त्री-पुरुष का सम्बंध कैसे मजबूत हो सकता है?
श्री श्री रवि शंकर :मैं कुछ सुझाव दे सकता हूँ।
पहले महिलाओं के लिये: आप सब तैयार हैं? तो पहिली बात, अपने पति के अहम पर कभी चोट न पहुँचायें। कभी यह न दरशायें कि वे किसी काम के नहीं है। यदि आप ऐसा कहती हैं तो वे वैसे ही बन जायेंगे। सब समय प्रशंसा करो और कहो वे सबसे उत्तम हैं, उनकी सराहना करो।
अब पुरुषों के लिये: कभी भी स्त्री की भावना पर चोट न पहुँचायें, न ही उसके परिवार के ऊपर टिप्पणी करें। वो चाहे अपने परिवार के बारे में शिकायत करे, आप चुप ही रहना बेहतर समझें। जिस क्षण आपने अवहेलना में साथ दिया वो पलट कर आप पर ही क्रोध कर सकती है। उसकी भावनाओं का सम्मान करें। उसे खरीददारी पर यां किसी आध्यात्मिक सम्मेलन में जाने से मना ना करें। खरीदारी पर जाना चाहें तो अपना क्रेडिट कार्ड देदें! उसकी भावनओं का ध्यान रखें।
अब पुरुष और महिलाओं के लिए: प्रेम का प्रमाण न माँगें, जैसे-क्या तुम मुझसे सच्चा प्यार करते हो? सोचो कितना बोझिल है यह सिद्ध करना कि तुम किसी से प्रेम करते हो, सच्चा प्यार करते हो। अगर आपको लगे भी कि आप के पति यां पत्नि का प्रेम कम हो गया है तो भी आप यही कहें कि ’तुम मुझे इतना प्रेम क्यों करते हो?’ तब रिश्तों मे मुर्झाहट आ भी गयी हो तो फिर से खिलाहट आजायेगी। प्रश्न वही पूछो जो उपयोगी हो। कभी भी किसी से प्रेम का प्रमाण नहीं मांगो, इसे मान कर चलो कि प्रेम है!
© The Art of Living Foundation For Global Spirituality
१० जुलाई
कुछ क्षण अपने साथ बैठे व्यक्ति के साथ पहचान करते हैं। हम शब्दों से ज़्यादा अपनी मौजूदगी से अभिव्यक्त करते हैं। शब्दों से ज़्यादा हम अपनी उर्जा से अभिव्यक्त करते हैं। कई बार हम कहते हैं - मुझे अच्छा स्फुरण महसूस नहीं हो रहा। यह बात सत्य है, सही में हम उर्जा का लेन देन ही करते हैं। मैं यहाँ दो घंटे खड़ा होकर प्रेम के विषय में व्याख्या दे सकता हूँ पर हो सकता है वह किसी के दिल में उतरे ही नहीं। पर शिशु की एक नज़र सब कुछ कह जाती है। इसी प्रकार जब हम क्रोधित होते हैं, तनाव में होते हैं तो वही तरंगें दूसरों को प्रतिपादित करते हैं। न घर में और न बाहर किसी ने हमें इन तरंगों को शुद्ध रखने की शिक्षा दी। अपनी उर्जा को शुद्ध रखने के लिए जीवन को विशाल रूप से देखने की आव्श्यकता है। हमारे शरीर में प्रतिदिन लाखों नए कोष पैदा होते हैं और मरते हैं। जब आप मुँह रगड़ कर धोते हो तो मरे हुए कोष दूर करते हो। इतने कोष प्रतिदिन मरते और पैदा हैं पर आप वही रहते हैं।
ऐसे ही, संसार को भी एक बदलते हुए दृश्य स्वरूप देखो। जीवन घटनाओं का क्रम है जिसमें घटनाएँ आती हैं, विलीन होती हैं, तुम अछूते उनमें से गुजर जाओ। तुम एक अनमोल हीरा हो। तुम्हें कोई घटना हिला नहीं सकती, तुम्हारा प्रेम नष्ट नहीं कर सकती। हम घटनाओं से ऊपर हैं, उनसे बढ़कर हैं। चाहे प्रशंसा हो यां निंदा - तुम्हें कुछ छू नहीं सकता, तुम अछूते हो।
तुम एक प्रज्जवलित दीपक हो, एक ऐसा फूल जो सदा सुगंधित है। क्या आप सब यहीं पर हैं? सुन रहे हैं, यां ये बातें काल्पनिक लग रही हैं? ये बातें स्वपन स्वरूप, मिथ्या जैसी लग सकती हैं पर सत्य हैं।
हम सब एक दूसरे के साथ इस सृष्टि में जुड़े हुए हैं, चाहे लोग माने यां न माने, तुम विश्व की आत्मा हो, तुम सृष्टि के केन्द्र हो। और आध्यातमिकता यही है - अपने आप को समस्त सृष्टि से जुड़ा पाना। तुम छोटा अहम नहीं हो, तुम विशाल चेतना हो जिसकी कोई सीमा नहीं, वह असीम चेतना तुम हो।
यह विशाल चेतना हम सब में शिशु रूप में जन्म के साथ होती है, किंतु हम समय के साथ अपने आप को छोटी बड़ी उपाधियों के आवरण से ढकते जाते हैं। हमे आवरण के परे अपना सच्चा स्वरूप देखना होगा, और इसको हासिल करने के लिये उत्तम साधन है, ध्यान।
क्या आप लोगों का ध्यान इधर ही है? अब क्या चल रहा है मन में? और कुछ सुनना है, आगे क्या होगा आदि।
सच्चा ज्ञान वह नहीं जो हम शब्दों से व्यक्त करते हैं। क्या आप लोग सुन रहे हैं? शब्दों से प्रतिपादन केवल घटना मात्र है, अंतराल भरने का माध्यम।
ध्यान के लिये तीन स्वर्णिम नियम हैं :
१) पहले सुखपूर्वक शरीर को ढीला छोड़ कर बैठ जायें। अगले कुछ मिनट में सिर्फ इस एक विचार से बैठें, ’मुझे कुछ नहीं चाहिये’, अगर आपके मन में उठा- मुझे प्यास लगी है, पानी पीना है इत्यादि, तो आप ध्यान नहीं कर रहे।
२) दूसरा नियम यह कि अगले १०-१५ मिनट के लिए ’मैं कुछ नहीं कर रहा हूँ’।
३) और तीसरा - ’मैं कुछ नहीं हूँ’। अगले १०-१५ मिनट के लिए मैं कुछ नहीं हूँ। यदि तुम समझते हो तुम बहुत बुद्धिमान हो तो ध्यान के बारे में भूल जाओ, और अगर समझते हो कि बेवकूफ़ हो तो भी आप उसी किश्ती में स्वार हैं। अगले कुछ क्षंणों के लिए सब धारणाएं जैसे मैं अमीर हूँ, गरीब हूँ, बहुत धार्मिक हूँ यां पापी हूँ इत्यादि सब भूल जाओ, तो आप कुछ नहीं हो!
तुम्हें कुछ नही चाहिये-(अचाह), तुम कुछ नहीं कर रहे हो (अप्रयत्न), और तुम कुछ नहीं हो (अकर्ता)- ये तीन उपाय हैं ध्यान करने के लिये।
प्रश्न : इस ईर्ष्या और घृणा से भरे जगत में विनम्रता और शांति के पथ पर कैसे चला जाये?
श्री श्री रवि शंकर : जगत को ऐसी मान्यता और उपाधि से मत बाँधो। कुछ लोग वैसे हो सकते हैं, उन पर ध्यान न देते हुए आगे बढ़ जाओ। वे अपनी ईर्ष्या में जलते हैं तो जलने दो, तुम उस पर ध्यान न दो। तुम जिस पर ध्यान देते हो, महत्व देते हो - वही बात बढ़ने लगती है। किसी भी संकल्प पर ध्यान देने से वो फलीभूत होने लगता है।
मैंने अपने ५५ साल के जीवन में किसी के लिये अपशब्द नहीं कहे हैं। यह मेरा स्वभाव है। अधिकतम किसी को बेवकूफ कहा होगा पर किसी को बुरा न कहा है, न बुरा चाहा है। यदि तुम्हारा उद्देश्य ठीक है तो मै कहता हूँ, तुम्हें आगे बढ़ने से कोई रोक नहीं सकता है।
यदि कोई ईर्ष्या करे तो क्या करें? आगे बढ़ते जाओ। तुम्हारा ध्यान विशालता की ओर हो, अपने विकास कि ओर हो।
प्रश्न : मैंने आपके सानिध्य में रहने वालों को उनकी क्षमता से भी अधिक विकसित होते देखा है। आप कैसे इन सब लोगों को प्रभावित करते है, प्रेरणा देते हैं?
श्री श्री रवि शंकर : वर्ल्ड बैंक के प्रैज़ीडेंट ने भी यह सवाल मुझसे पूछा था, ’आपकी इतनी सारी योजनाएँ सफलता कैसे पाती हैं? हम भी बहुत से प्रयोजन करते हैं पर हर किसी को सफलता नहीं मिलती।’
सफलता केवल धन पर ही नहीं, अपितु आपके सही उद्देश्य, उस पर ध्यान देने से और स्पष्टता पर निर्भर करती है। हम अपनी दृष्टि को बदल कर देखें तो पायेंगे सब कुछ भीतर से उत्पन्न हो रहा है। अगर मन के भीतर का वातावरण सुखद है, तो बाहर भी अच्छा लगेगा। तो तुम ही इस बदलाव के प्रतिनिधि (कार्यकर्ता) बनो।
प्रश्न : शरीर को आवश्यक्ता से अधिक चलायमन मन के विचारों से कैसे मुक्त किया जाये?
श्री श्री रवि शंकर : सुदर्शन क्रिया, ध्यान, योग और सही भोजन आदि करने से यह ठीक हो सकता है।
प्रश्न : आपने मुझ पर जो इतनी कृपा की है, मैं उसका आभारी हूँ। पर मैं जब भी आपसे मिलता हूँ तो बहुत आँसूं निकलते हैं। ऐसा क्यों होता है?
श्री श्री रवि शंकर : हे भगवान! तुम तो मेरी ये प्रतिष्ठा खत्म कर रहे हो कि जो भी मुझे देखता है वह मुस्कराता है! जब दिल खिलता है तो आँसू निकल पड़ते हैं।प्रेम और आभार के आँसू बहुत कीमती हैं।
प्रश्न : जीवन का उद्देश्य क्या है, इसे कैसे जाना जा सकता है?
श्री श्री रवि शंकर : शांतचित्त होकर अपनी अंतरात्मा को सुनो। आप सबके पास मोबाइल फोन है न? उसको काम में लाने के लिये क्या क्या होना चाहिये? अगर सिम कार्ड नहीं है तो कार्य करेगा क्या? सिम कार्ड है पर तुम बहुत दूर हो तब सिग्नल नहीं पकड़ता है तो क्या वो काम करेगा? और तुम्हें सिम कार्ड, सिग्नल ठीक पकड़ने के साथ यह भी देखना होगा कि बैट्री पूरी है। तो तीनों चीज़ें चाहिये- बैट्री, सिम कार्ड व टावर की नज़दीकी। पर यह तीनों के होने के बाद भी यदि तुम नंबर नहीं लगाओगे तो भी काम नहीं चलेगा। तो ये सब करना पड़ेगा तुम्हें - आध्यात्मिक संबंध टावर समान है, आपका अपना प्रयत्न नंबर घुमाने समान है और ध्यान करना बैट्री चार्ज करने समान है। ये सब हो तो प्रार्थना की सुनवाई होती है। तुम्हारे में भी दूसरों को आशीर्वाद देने और दूसरों की मनोकामना पूरी करने की क्षमता हो सकती है यदि मन शांत और स्थिर हो।
प्रश्न : मुझे कई लोगों के साथ अटपटा सा लगता है, व्यग्रता महसूस होती है, चाहे वो अजनबी ही हों। ऎसा क्यों होता है?
श्री श्री रवि शंकर : इसे एक परीक्षण के रूप में लो और ध्यान करो। ध्यान की गहराई में जाकर देखोगे कि ये व्यग्रता मिट जायेगी। तुम इस संवेदना को अधिक महत्व देते हो। यह जान लो कि तुम इन सब से अधिक विशाल हो। जब तुम अपना दृष्टिकोण बदल लोगे तो ये संवेदनाएँ भी मिट जायेंगी।
प्रश्न : आत्मसम्मान खोने पर जीने का उद्देश्य कैसे ढूँढा जा सकता है?
श्री श्री रवि शंकर : आत्मा नहीं खोई है तो अत्मसम्मान भी कैसे खो सकता है! उठो जागो! तुम को कई अनेक स्वीकार करते हैं और प्रेम करते हैं। तुम इस धरती के एक कीमती फूल हो। कुछ उपयोगी कार्य करो। हर समय केवल अपने बारे में ही विचार मत करो।
प्रश्न : क्रोध क्यों आता है?
श्री श्री रवि शंकर : सब कार्य में निपुणता की इच्छा रखना ही क्रोध का कारण होता है। कुछ हद तक दोष भी स्वीकार करो। किसी भी कार्य में परिपूर्णता असंभव है। किसी भी कार्य में केवल ९५ प्रतिशत पूर्णता हासिल हो सकती है। हाँ, वचन और विचार में १०० प्रतिशत पूर्णता हासिल हो सकती है।
प्रश्न : अफगानिस्तान में शांति के लिये क्या मार्ग है?
श्री श्री रवि शंकर :ये याद रहे कि वहाँ पहले बौद्ध और हिन्दू धर्म के लोग रहते थे, व अफगानियों के पूर्वज योग और ध्यान के साधक थे। यह बात समझने पर लोग कट्टरपंथि भाव छोड़कर विशाल दृष्टिकोण रख सकते हैं। उनका यह सोचना कि ’वे ही स्वर्ग में जायेंगे और अन्य लोग नरक में’, दूसरों के लिये नरक उत्पन्न कर देता है। सबको विशाल दृष्टिकोण रखना होगा। प्रत्येक विध्यार्थी को थोड़ा बहुत उपनिषद, कुरान, गुरु ग्रंथ साहिब आदि का ज्ञान होना चाहिये। जैसे सिख धर्म के गुरु ग्रन्थ सहिब में उपनिषदों का सार है। यह महत्वपूर्ण है कि सब बच्चे इसके बारे में जाने, तब वे विशाल भाव रख सकेंगे। जो बलिदान सिख गुरुओं ने दिया वह अवर्नणीय है। उसके बिना योग और ध्यान इस भूमी से कब के मिटा दिये जाते। सिख गुरुओं ने बलिदान का जीवन बिताया। उन्होंने इस ब्रह्मज्ञान की सुरक्षा की जो सम्पूर्ण विश्व के लिये है। सब को हर धर्म के बारे में थोड़ी जानकारी अवश्य होनी चहिये।
प्रश्न : ध्यान लगाने में सहायक क्या बातें हो सकती हैं?
श्री श्री रवि शंकर : किसी भी अच्छी बात की शुरुआत के लिए ये तीन बातें सहायक हो सकती हैं: लोभ, भय और प्रेम।
कोई आपको लोभ दे कर कहे कि आपको साधना नियमित करने पर लाख डालर मिलेंगे, तो आप करोगे क्या? यह सुन आप पाँच दिन ज्यादा भी करने को तैयार हो जाओगे!
जिससे प्रेम करते हो वह यदि सिगरेट पीने को मना करे, तो आप तैयार हो जाओगे, उनकी बात रख लोगे। भय से भी आप सिगरेट पीना छोड़ दोगे। यदि डाक्टर ने कहा सिगरेट पीना छोड़ दो वर्ना मर जाओगे, तो आप क्या करेंगे? इन तीनों उपायों में से मैं प्रेम का उपाय बेहतर समझता हूँ।
गुरु प्रेम और प्रतिबद्धता का प्रतीक है।
प्रश्न : स्त्री-पुरुष का सम्बंध कैसे मजबूत हो सकता है?
श्री श्री रवि शंकर :मैं कुछ सुझाव दे सकता हूँ।
पहले महिलाओं के लिये: आप सब तैयार हैं? तो पहिली बात, अपने पति के अहम पर कभी चोट न पहुँचायें। कभी यह न दरशायें कि वे किसी काम के नहीं है। यदि आप ऐसा कहती हैं तो वे वैसे ही बन जायेंगे। सब समय प्रशंसा करो और कहो वे सबसे उत्तम हैं, उनकी सराहना करो।
अब पुरुषों के लिये: कभी भी स्त्री की भावना पर चोट न पहुँचायें, न ही उसके परिवार के ऊपर टिप्पणी करें। वो चाहे अपने परिवार के बारे में शिकायत करे, आप चुप ही रहना बेहतर समझें। जिस क्षण आपने अवहेलना में साथ दिया वो पलट कर आप पर ही क्रोध कर सकती है। उसकी भावनाओं का सम्मान करें। उसे खरीददारी पर यां किसी आध्यात्मिक सम्मेलन में जाने से मना ना करें। खरीदारी पर जाना चाहें तो अपना क्रेडिट कार्ड देदें! उसकी भावनओं का ध्यान रखें।
अब पुरुष और महिलाओं के लिए: प्रेम का प्रमाण न माँगें, जैसे-क्या तुम मुझसे सच्चा प्यार करते हो? सोचो कितना बोझिल है यह सिद्ध करना कि तुम किसी से प्रेम करते हो, सच्चा प्यार करते हो। अगर आपको लगे भी कि आप के पति यां पत्नि का प्रेम कम हो गया है तो भी आप यही कहें कि ’तुम मुझे इतना प्रेम क्यों करते हो?’ तब रिश्तों मे मुर्झाहट आ भी गयी हो तो फिर से खिलाहट आजायेगी। प्रश्न वही पूछो जो उपयोगी हो। कभी भी किसी से प्रेम का प्रमाण नहीं मांगो, इसे मान कर चलो कि प्रेम है!
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"आर्ट ऑफ लिविंग अंतरराष्ट्रीय केन्द्र- सेवा और आध्यात्म"
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अपनी युवावस्था में ही श्री श्री को वैदिक ज्ञान पर विचार विमर्श करने के लिए विश्व के विभिन्न हिस्सों से निमंत्रण मिलने शुरु हो गए थे। श्री श्री ने यूरोप के विभिन्न विश्व विद्दालयों में जाकर कई विद्वान और प्रोफ़ेसरों से मुलाकात की। ऐसे ही एक उपलक्ष पर जर्मन विश्वविद्दालय ने श्री श्री को आमंत्रित किया, जहाँ उनकी लाइबरेरी में संस्कृत में कई पुस्तकें थी और वे चाहते थे श्री श्री उनके विषय पर रोशनी डालें। श्री श्री ने इसके लिए भारत से संस्कृत विद्वानों को इसका भाग बनाने का निर्णय लिया। भारत आकर उन्होने संस्कृत के विद्वानों की खोज शुरु की। पर उन्हे रूढ़िवादी विद्वानो में वैज्ञानिक दृष्टिकोण की कमी लगी। इस कमी को पूरा करने के लिए उन्होने एक कमेटी बनाई जिसमें संस्कृत के निपुण पंडित समाज के सम्मानित जनों, जैसे भारत के पिछले चीफ जस्टिस वी र कृष्ण अय्यिर, जसटिस पी एन भगवती, चीप्फ़ सेक्रेटरी नरसिम्हा राओ और बैंगलोर मुन्सिपल कोर्पोरेशन की पिछली अध्यक्षा एन लक्ष्मी राओ शामिल थे। कमेटी का लक्ष्य विज्ञान और वेदों का पुन: उत्थान था। इसी आधार पर गुरुजी की दृष्टि को आगे बढ़ाने के लिए १९८१ में बैंगलोर के कुछ सम्मानित लोग और गुरुजी के पिता श्री र एस वी रत्नम ने मिलकर वेद विज्ञान महा विद्दापीठ की स्थापना की। १९८५ में वेद विज्ञान महा विद्दापीठ ने बनेरघट्टा रोड पर १०० एकड़ उपजाऊ भूमि के लिए अर्ज़ी दी। गुन्डु राओ, बैंगलोर के मुख्य मंत्री बनेरघट्टा में ज़मीन देने के लिए माने। आगे चलकर यह मालूम पड़ा कि वो भूमि इस्लामिया संस्था को दे दी गई है। फिर मुख्य मंत्री ने कनकपुरा रोड के पास भूमि दी।
यह भूमि बंजर ज़मीन दी जहाँ केवल पत्थर ही थे। वही धरती जहाँ कोई पेड़-पौधा नहीं था, आज एक हरे-भरे और खूबसूरत आश्रम में परिवर्तित हो गई है, और यहाँ देश-विदेश से हज़ारों लोग आकर जीवन में आनंद और शांति का अनुभव करते हैं। भूमि के बंजर होने के बावजूद भी VVMVP तीस वर्ष की अवधि के लिए पट्टे पर इसे लेने के लिए सहमत हुए। पूर्ण भुक्तान करने के बावजूद भी भूमि का अधिकार प्राप्त करने के लिए VVMVP को दो वर्ष इंतज़ार करना पड़ा। इस दौरान कुछ स्थानीय लोग अवैधिक ढंग से घुस आए, और जब तक अधिकारियों ने इस भूमि का अधिकार दिया केवल २४ एकड़ भूमि ही बची थी। जब अधिकारी इन लोगों को हटाने के लिए पहुँचे तो गुरुजी ने न केवल उन अवैधिक वासियों को वहाँ रहने की अनुमति दी, बल्कि उन्हें उस जगह की ज़मीन का वैधिक अधिकार लेने की भी अनुमति दी!तत्पश्चात संस्था ने सरकार से बाकी बची जमीन देने की बात की जिसके फल स्वरूप १९९५ में अधीकार रूप में १९.५ एकड़ ज़मीन आश्रम के बाहर सरकार से मिली, और यह भी बन्जर पहाड़ की जमीन थी। आज भी संस्था को १९८५ में दी जाने वाली निर्धरित पूरी ६० एकड़ जमीन हासिल नहीं हुई है और बची १६.५ एकड़ जमीन मिलना अभी भी बाकी है।
आश्रम के पास कोई स्कूल न होने से गुरुजी ने वहाँ आस पास के ग्रामीण वासियों के लिये एक स्कूल खोला और ग्राम वासियों के लिए एक पानी का टैंक भी बनवाया । इस स्कूल में दसवीं कक्षा तक पढ़ने के लिये नि:शुल्क शिक्षा दी जाती है और करीब २००० बच्चे पढ़ रहे हैं। गुरुजी के आदेश पर आश्रम की ओर से पास के गांव वालों की झोपड़ियों के बदले उनके लिये शौचालय समेत पक्के मकान बनवाये गये हैं।
उदिपालिया सबसे पहला गाँव था जहाँ आर्ट ऑफ़ लिविंग ने अपना सामजिक सेवा कार्य शुरु किया। अब तो संस्था के स्वयं सेवक देश भर में और अन्य अंडर डेवेलप्ड व प्रगतिशील देशों में हज़ारों गावों मे पहुँच कर कार्य कर रहे हैं। आश्रम की गतिविधियों से आश्रम के आस पास की जगह को स्थानिय आर्थिक लाभ भी हुआ है। पर गुरुजी के मुताबिक ये सब सागर में एक बूंद समान है, अभी तो बहुत और करना बाकी है।
आजकल आश्रम द्वारा गरीबों की जमीन हड़पने के बारे में कुछ कहानियाँ प्रसारित कराई जा रही हैं, इसलिये संस्था आश्रम के अधिकार में ज़मीन के हर भाग के बारे में बताने का अपना कर्तव्य समझती है। गुरुजी ने ही अवैधिक रूप से रहने वाले गाँव वालों को वैधिक तरीके से उनके नाम जमीन कराने में सहयता की थी। संस्था ने ८ एकड़ जमीन आश्रम के पास झील के किनारे रहने वालों से खरीदी थी जो वहाँ मुर्गीखाना बनाना चहते थे।
कर्नाटक फ़ाइनेन्शियल कोर्पोरेशन ने आश्रम के पास उत्तर में जो जमीन थी उसे दो बार नीलाम किया था और हमारी संस्था की बोली मानी गयी थी। इसका किन्हीं गोपाल कृष्ण और आरती कृष्ण ने विरोध किया, और अदालत में भी इस खरीदारी के खिलाफ़ आवाज़ उठाई, पर दोनों अदालतों (हाई कोर्ट व सुप्रीम कोर्ट) में उनकी याचिका खारिज़ हुई।
२००५ में आर्ट ऑफ़ लिविंग के २५ वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में उत्सव होने की तैयारियाँ चल रहीं थीं। उत्सव में भाग लेने के लिये लाखों लोगों के बंगलौर में व आश्रम में आने की अपेक्षा थी। इसको देखते हुए आश्रम ने पास में ही रहते विजय नाम के एक व्यक्ति से उसकी १४ एकड़ जमीन खरीदी। यह जाँचने के लिए कि किसी को कोई आपत्ति नहीं है, इस बारे में अखबार में नोटिस भी छपवाये गये थे। इसके बाद ही वो ज़मीन विजय से बाज़ार में चलते भाव में खरीदी गई थी। न्यायिक रूप से ज़मीन हासिल करने के बाद किसी मि. पौल ने जमीन की खरीदारी पर आपत्ति उठाई। उसके मुताबिक विजय के पिता उसके कारोबार में हिस्सेदार थे और पौल के कर्जदार थे।तत्पश्चात एक मि. अग्नि श्रीधर, जो पहले अपराधी गतिविधियों से जुड़े थे, और अब अपनी छोटी समाचार पत्रिका को चलाने और छापने का काम करते हैं, अचानक दलितों का उद्धार करने वाला मसीह बन कर सामने आये! उसने इल्जाम लगाया है कि आश्रम ने दलित विजय की ज़मीन हड़प ली है। असल में विजय एक ब्राह्मण है! और मि. पौल ने जो टी.वी. पर आकर आश्रम द्वारा ज़मीन हड़प लेने की बात कही है बिना सबूत के है, और बेबुनियाद है। हमने तो यह सलाह भी दी थी कि विजय और पौल के बीच जो अनबन चल रही थी, वे उसे शान्ति पूर्वक सुलझा लें। पर हम किसी भी तरह अनैतिकतापूर्ण कार्य करने वालों के दबाव में नहीं आ सकते और अदालत के फैसले का सम्मान करते हैं।
जमीन हड़पने की बात ही कैसे उठ सकती है? हमने सदा ज़मीन खरीदारी, सब तरह की जाँच पड़ताल के बाद बाज़ार में लागू मूल्यों से की है। कर्नाटक में जमीन खरीदारी के लिये कड़े नियम है, और पूर्ण रूप से न्यायिक कार्य होने में समय लगता है। जब तक ज़मीन पंजीकृत होती है, कई वर्ष निकल जाते हैं और दाम भी बढ़ जाते हैं। इसलिये जब बात पक्की होती है और जब ज़मीन हासिल होती है तो कई बार दस गुना बढ़ा हुआ दाम देना पड़ जाता है! जो भी दाम थे, हमने पूरे दाम दिये जमीन के लिये। कभी कभी हमे जमीन खोनी भी पड़ी क्योंकि हम घूस नहीं देते हैं। हाल ही में, आश्रम में अधिक गतिविधियाँ बढ़ने से, ज्यादा लोगों के आने से, रहने की व्यवस्था के लिये जगह की कमी महसूस होती है। इसी कमी को पूरा करने हेतु, कुछ सालों में संस्था और संचालकों ने २२ एकड़ जमीन मि. काशीनाथ से, ८ एकड़ कर्नल सोबती से, १६ एकड़ मि. मधुसूदन बालिगा से, १३ एकड़ मि. शिव कुमर से और १५ एकड़ जमीन विभिन्न किसानों से खरीदी। फ़िलहाल, हम कुछ एकड़ जमीन हमारे आयुर्वेदिक अस्पताल और शैक्षनिक संस्थानों के लिये खरीदने के प्रयास में हैं और इसके लिये न्यायिक कागज़ात और अनुमति आदि अग्रिम कार्यवाही शुरु कर रहे हैं।
संस्था का विकास कोई आसान कार्य नहीं, पर पूरी सफ़लता से कार्य सम्पन्न हुआ है, और सबके लिये एक जीवंत उदाहरण है कि कैसे एक संस्था विद्यमान बाधाओं के होते हुए भी निरंतर विकसित हो सकती है। बिना भ्रष्टाचार और घूस के, और बिना जल्दबाजी किये भी विकास हो सकता है-यह ज्वलन्त उदाहरण हमने अग्रसर हो कर दिया है!
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अपनी युवावस्था में ही श्री श्री को वैदिक ज्ञान पर विचार विमर्श करने के लिए विश्व के विभिन्न हिस्सों से निमंत्रण मिलने शुरु हो गए थे। श्री श्री ने यूरोप के विभिन्न विश्व विद्दालयों में जाकर कई विद्वान और प्रोफ़ेसरों से मुलाकात की। ऐसे ही एक उपलक्ष पर जर्मन विश्वविद्दालय ने श्री श्री को आमंत्रित किया, जहाँ उनकी लाइबरेरी में संस्कृत में कई पुस्तकें थी और वे चाहते थे श्री श्री उनके विषय पर रोशनी डालें। श्री श्री ने इसके लिए भारत से संस्कृत विद्वानों को इसका भाग बनाने का निर्णय लिया। भारत आकर उन्होने संस्कृत के विद्वानों की खोज शुरु की। पर उन्हे रूढ़िवादी विद्वानो में वैज्ञानिक दृष्टिकोण की कमी लगी। इस कमी को पूरा करने के लिए उन्होने एक कमेटी बनाई जिसमें संस्कृत के निपुण पंडित समाज के सम्मानित जनों, जैसे भारत के पिछले चीफ जस्टिस वी र कृष्ण अय्यिर, जसटिस पी एन भगवती, चीप्फ़ सेक्रेटरी नरसिम्हा राओ और बैंगलोर मुन्सिपल कोर्पोरेशन की पिछली अध्यक्षा एन लक्ष्मी राओ शामिल थे। कमेटी का लक्ष्य विज्ञान और वेदों का पुन: उत्थान था। इसी आधार पर गुरुजी की दृष्टि को आगे बढ़ाने के लिए १९८१ में बैंगलोर के कुछ सम्मानित लोग और गुरुजी के पिता श्री र एस वी रत्नम ने मिलकर वेद विज्ञान महा विद्दापीठ की स्थापना की। १९८५ में वेद विज्ञान महा विद्दापीठ ने बनेरघट्टा रोड पर १०० एकड़ उपजाऊ भूमि के लिए अर्ज़ी दी। गुन्डु राओ, बैंगलोर के मुख्य मंत्री बनेरघट्टा में ज़मीन देने के लिए माने। आगे चलकर यह मालूम पड़ा कि वो भूमि इस्लामिया संस्था को दे दी गई है। फिर मुख्य मंत्री ने कनकपुरा रोड के पास भूमि दी।
यह भूमि बंजर ज़मीन दी जहाँ केवल पत्थर ही थे। वही धरती जहाँ कोई पेड़-पौधा नहीं था, आज एक हरे-भरे और खूबसूरत आश्रम में परिवर्तित हो गई है, और यहाँ देश-विदेश से हज़ारों लोग आकर जीवन में आनंद और शांति का अनुभव करते हैं। भूमि के बंजर होने के बावजूद भी VVMVP तीस वर्ष की अवधि के लिए पट्टे पर इसे लेने के लिए सहमत हुए। पूर्ण भुक्तान करने के बावजूद भी भूमि का अधिकार प्राप्त करने के लिए VVMVP को दो वर्ष इंतज़ार करना पड़ा। इस दौरान कुछ स्थानीय लोग अवैधिक ढंग से घुस आए, और जब तक अधिकारियों ने इस भूमि का अधिकार दिया केवल २४ एकड़ भूमि ही बची थी। जब अधिकारी इन लोगों को हटाने के लिए पहुँचे तो गुरुजी ने न केवल उन अवैधिक वासियों को वहाँ रहने की अनुमति दी, बल्कि उन्हें उस जगह की ज़मीन का वैधिक अधिकार लेने की भी अनुमति दी!तत्पश्चात संस्था ने सरकार से बाकी बची जमीन देने की बात की जिसके फल स्वरूप १९९५ में अधीकार रूप में १९.५ एकड़ ज़मीन आश्रम के बाहर सरकार से मिली, और यह भी बन्जर पहाड़ की जमीन थी। आज भी संस्था को १९८५ में दी जाने वाली निर्धरित पूरी ६० एकड़ जमीन हासिल नहीं हुई है और बची १६.५ एकड़ जमीन मिलना अभी भी बाकी है।
आश्रम के पास कोई स्कूल न होने से गुरुजी ने वहाँ आस पास के ग्रामीण वासियों के लिये एक स्कूल खोला और ग्राम वासियों के लिए एक पानी का टैंक भी बनवाया । इस स्कूल में दसवीं कक्षा तक पढ़ने के लिये नि:शुल्क शिक्षा दी जाती है और करीब २००० बच्चे पढ़ रहे हैं। गुरुजी के आदेश पर आश्रम की ओर से पास के गांव वालों की झोपड़ियों के बदले उनके लिये शौचालय समेत पक्के मकान बनवाये गये हैं।
उदिपालिया सबसे पहला गाँव था जहाँ आर्ट ऑफ़ लिविंग ने अपना सामजिक सेवा कार्य शुरु किया। अब तो संस्था के स्वयं सेवक देश भर में और अन्य अंडर डेवेलप्ड व प्रगतिशील देशों में हज़ारों गावों मे पहुँच कर कार्य कर रहे हैं। आश्रम की गतिविधियों से आश्रम के आस पास की जगह को स्थानिय आर्थिक लाभ भी हुआ है। पर गुरुजी के मुताबिक ये सब सागर में एक बूंद समान है, अभी तो बहुत और करना बाकी है।
आजकल आश्रम द्वारा गरीबों की जमीन हड़पने के बारे में कुछ कहानियाँ प्रसारित कराई जा रही हैं, इसलिये संस्था आश्रम के अधिकार में ज़मीन के हर भाग के बारे में बताने का अपना कर्तव्य समझती है। गुरुजी ने ही अवैधिक रूप से रहने वाले गाँव वालों को वैधिक तरीके से उनके नाम जमीन कराने में सहयता की थी। संस्था ने ८ एकड़ जमीन आश्रम के पास झील के किनारे रहने वालों से खरीदी थी जो वहाँ मुर्गीखाना बनाना चहते थे।
कर्नाटक फ़ाइनेन्शियल कोर्पोरेशन ने आश्रम के पास उत्तर में जो जमीन थी उसे दो बार नीलाम किया था और हमारी संस्था की बोली मानी गयी थी। इसका किन्हीं गोपाल कृष्ण और आरती कृष्ण ने विरोध किया, और अदालत में भी इस खरीदारी के खिलाफ़ आवाज़ उठाई, पर दोनों अदालतों (हाई कोर्ट व सुप्रीम कोर्ट) में उनकी याचिका खारिज़ हुई।
२००५ में आर्ट ऑफ़ लिविंग के २५ वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में उत्सव होने की तैयारियाँ चल रहीं थीं। उत्सव में भाग लेने के लिये लाखों लोगों के बंगलौर में व आश्रम में आने की अपेक्षा थी। इसको देखते हुए आश्रम ने पास में ही रहते विजय नाम के एक व्यक्ति से उसकी १४ एकड़ जमीन खरीदी। यह जाँचने के लिए कि किसी को कोई आपत्ति नहीं है, इस बारे में अखबार में नोटिस भी छपवाये गये थे। इसके बाद ही वो ज़मीन विजय से बाज़ार में चलते भाव में खरीदी गई थी। न्यायिक रूप से ज़मीन हासिल करने के बाद किसी मि. पौल ने जमीन की खरीदारी पर आपत्ति उठाई। उसके मुताबिक विजय के पिता उसके कारोबार में हिस्सेदार थे और पौल के कर्जदार थे।तत्पश्चात एक मि. अग्नि श्रीधर, जो पहले अपराधी गतिविधियों से जुड़े थे, और अब अपनी छोटी समाचार पत्रिका को चलाने और छापने का काम करते हैं, अचानक दलितों का उद्धार करने वाला मसीह बन कर सामने आये! उसने इल्जाम लगाया है कि आश्रम ने दलित विजय की ज़मीन हड़प ली है। असल में विजय एक ब्राह्मण है! और मि. पौल ने जो टी.वी. पर आकर आश्रम द्वारा ज़मीन हड़प लेने की बात कही है बिना सबूत के है, और बेबुनियाद है। हमने तो यह सलाह भी दी थी कि विजय और पौल के बीच जो अनबन चल रही थी, वे उसे शान्ति पूर्वक सुलझा लें। पर हम किसी भी तरह अनैतिकतापूर्ण कार्य करने वालों के दबाव में नहीं आ सकते और अदालत के फैसले का सम्मान करते हैं।
जमीन हड़पने की बात ही कैसे उठ सकती है? हमने सदा ज़मीन खरीदारी, सब तरह की जाँच पड़ताल के बाद बाज़ार में लागू मूल्यों से की है। कर्नाटक में जमीन खरीदारी के लिये कड़े नियम है, और पूर्ण रूप से न्यायिक कार्य होने में समय लगता है। जब तक ज़मीन पंजीकृत होती है, कई वर्ष निकल जाते हैं और दाम भी बढ़ जाते हैं। इसलिये जब बात पक्की होती है और जब ज़मीन हासिल होती है तो कई बार दस गुना बढ़ा हुआ दाम देना पड़ जाता है! जो भी दाम थे, हमने पूरे दाम दिये जमीन के लिये। कभी कभी हमे जमीन खोनी भी पड़ी क्योंकि हम घूस नहीं देते हैं। हाल ही में, आश्रम में अधिक गतिविधियाँ बढ़ने से, ज्यादा लोगों के आने से, रहने की व्यवस्था के लिये जगह की कमी महसूस होती है। इसी कमी को पूरा करने हेतु, कुछ सालों में संस्था और संचालकों ने २२ एकड़ जमीन मि. काशीनाथ से, ८ एकड़ कर्नल सोबती से, १६ एकड़ मि. मधुसूदन बालिगा से, १३ एकड़ मि. शिव कुमर से और १५ एकड़ जमीन विभिन्न किसानों से खरीदी। फ़िलहाल, हम कुछ एकड़ जमीन हमारे आयुर्वेदिक अस्पताल और शैक्षनिक संस्थानों के लिये खरीदने के प्रयास में हैं और इसके लिये न्यायिक कागज़ात और अनुमति आदि अग्रिम कार्यवाही शुरु कर रहे हैं।
संस्था का विकास कोई आसान कार्य नहीं, पर पूरी सफ़लता से कार्य सम्पन्न हुआ है, और सबके लिये एक जीवंत उदाहरण है कि कैसे एक संस्था विद्यमान बाधाओं के होते हुए भी निरंतर विकसित हो सकती है। बिना भ्रष्टाचार और घूस के, और बिना जल्दबाजी किये भी विकास हो सकता है-यह ज्वलन्त उदाहरण हमने अग्रसर हो कर दिया है!
© The Art of Living Foundation For Global Spirituality
"हमारा विस्तार हमारे शरीर से कई अधिक है"
पिछली पोस्ट के शेष अंश..
जीवन प्रेम है, जीवन उत्साह है, जीवन उर्जा का फव्वारा है।
मध्यम भोजन, मध्यम गतिविधि, और मध्यम कृत्य से आप अपने को सर्वव्यापी चेतना से जुड़ा हुआ पाते हैं। फिर आप अपने को केवल एक इंसान के रूप में नहीं देखते, बल्कि आप अपना विस्तार बहुत बड़ा और फैला हुआ पाते हैं। शरीर केवल एक सूत्र है, मन बहुत बड़ा है। हमारा मन पूरी सृष्टि में फैला हुआ है। मन बहुत बड़ा है, और चेतना का विस्तार बहुत विस्तृत है।
हम टी वी पर बहुत से कार्यकम देखते हैं। टी वी कवल एक डिब्बा है जो तरंग बाहर उत्सर्जित करता है। हमारा शरीर भी ऐसा ही है जो सारी दुनिया से तरंग प्रतिबिंबित करता है। इसी तरह तुम हर जगह व्यापक हो, मैं हर जगह व्यापक हूँ। यह तुम्हे आत्मीय स्तर से जोड़ता है।
तुम इतने व्यापक हो।
तुम ज्ञान से इतने स्थिर हो।
तुम शांतिपूर्ण ज्वलित उर्जा हो।
तुम पत्थर की तरह मज़बूत और फूल की तरह नाज़ुक हो।
तुम्हारी पूर्ण चेतना खिली हुई है।
बहुत से लोग प्रार्थना करते हैं और उन्हे लगता है कि उनकी प्रार्थना सुनी नहीं जा रही है। ऐसा कयों होता है? क्योंकि वो ध्यान नहीं करते। यह बिना सिम कार्ड के मोबाइल फोन जैसा है। तुम बार बार डायल कर सकते हो पर उसका फैदा नहीं होगा। हमे समाज के लिए कोई ना कोई कार्य करना ही चाहिए तांकि बैटरी चार्ज रहे, और एक बेहतर नेटवर्क के लिए ध्यान और साधना। सिम कार्ड के लिए पथ पर होना ज़रुरी है।
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जीवन प्रेम है, जीवन उत्साह है, जीवन उर्जा का फव्वारा है।
मध्यम भोजन, मध्यम गतिविधि, और मध्यम कृत्य से आप अपने को सर्वव्यापी चेतना से जुड़ा हुआ पाते हैं। फिर आप अपने को केवल एक इंसान के रूप में नहीं देखते, बल्कि आप अपना विस्तार बहुत बड़ा और फैला हुआ पाते हैं। शरीर केवल एक सूत्र है, मन बहुत बड़ा है। हमारा मन पूरी सृष्टि में फैला हुआ है। मन बहुत बड़ा है, और चेतना का विस्तार बहुत विस्तृत है।
हम टी वी पर बहुत से कार्यकम देखते हैं। टी वी कवल एक डिब्बा है जो तरंग बाहर उत्सर्जित करता है। हमारा शरीर भी ऐसा ही है जो सारी दुनिया से तरंग प्रतिबिंबित करता है। इसी तरह तुम हर जगह व्यापक हो, मैं हर जगह व्यापक हूँ। यह तुम्हे आत्मीय स्तर से जोड़ता है।
तुम इतने व्यापक हो।
तुम ज्ञान से इतने स्थिर हो।
तुम शांतिपूर्ण ज्वलित उर्जा हो।
तुम पत्थर की तरह मज़बूत और फूल की तरह नाज़ुक हो।
तुम्हारी पूर्ण चेतना खिली हुई है।
बहुत से लोग प्रार्थना करते हैं और उन्हे लगता है कि उनकी प्रार्थना सुनी नहीं जा रही है। ऐसा कयों होता है? क्योंकि वो ध्यान नहीं करते। यह बिना सिम कार्ड के मोबाइल फोन जैसा है। तुम बार बार डायल कर सकते हो पर उसका फैदा नहीं होगा। हमे समाज के लिए कोई ना कोई कार्य करना ही चाहिए तांकि बैटरी चार्ज रहे, और एक बेहतर नेटवर्क के लिए ध्यान और साधना। सिम कार्ड के लिए पथ पर होना ज़रुरी है।
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"शांति और अहिंसा की आवाज़ ऊँची और स्पष्ट होनी चाहिए"
हांगकांग, ५ जुलाई
आप जो भी देते हैं, वो आपके पास वापिस आता है। कुदरत ऐसी ही है। हम जो दुनिया को देते हैं, वही हमारे पास वापिस आता है।
क्या आप मुझे सुन सकते हैं? (बहुत ही धीमे स्वर में)
हमारी बोली में भी इतना ही प्रभाव होता है, और हमारी आवाज़ अनसुनी रह जाती है। धर्म, शांति और अहिंसा की आवाज़ ऊँची और स्पष्ट होनी चाहिए। तनाव का मुख्य कारण होता है जब हम समझते हैं कि हमे दूसरे ठीक से नहीं समझ रहे हैं। हम सोचते हैं हमें हमारे घर के सदस्य, पति-पत्नि, भाई, बहन, माँ-बाप, यां रिश्तेदार ठीक से नहीं समझ रहे हैं। इस वार्तालाभ की मुश्किल के कारण भावानात्मक तूफान उठता रहता है। बच्चों की शिकायत होती है कि माँ-बाप उन्हे नहीं समझते और माँ-बाप की शिकायत रहती है कि बच्चे उन्हे नहीं समझते। कितने माँ-बाप का यह अनुभव है?
हम सभी को कहीं न कहीं वार्तालाभ में मुश्किल अनुभव होती ही है। कितने लोग इससे सहमत हैं? पति-पत्नि को हाथ उठाने की ज़रुरत नहीं है, मैं नहीं चाहता कि उनके घर पर कोई तूफान आए! यह एक बहुत आम समस्या है कि हम सोचते हैं लोग हमे गलत समझ रहे हैं। पर दूसरों पर इलज़ाम लगाने की बजाए हमें अपने को बेहतर ढंग से अभिव्यक्त करने की आवश्यकता है। यह ऐसा है जैसे अगर मैं आपसे स्वाहिली में बात करूं तो आप समझ नहीं पाएंगे। एक ऐसी भाषा भी है जो सभी समझते हैं, पेड़-पौधे और जानवर भी, और वो भाषा है हृदय की भाषा। उसके लिए आपको शब्दों की ज़रुरत नहीं है, आपका अस्तित्व ही काफी है। अगर आपके पास कोई पिल्ला यां कुत्ता है तो उसको आपके प्रति प्रेम अभिव्यक्त करने के लिए शब्दों की ज़रुरत नहीं पड़ती, केवल उसकी मौजूदगी यां हाव भाव से ही प्रेम झलकता है।
हम इस प्रेम और मासुमियत के साथ ही पैदा हुए थे पर कहीं हमने वो खो दिया है। आप जितने अच्छे हैं, समाज आपको उससे अधिक अच्छा मानता है। अगर आपमें १०० प्रतिशत अच्छाई है तो समाज आपको २०० प्रतिशत अच्छा मानता है। दुनिया आपका सम्मान करती है। आप दुनिया का सम्मान करते हैं तो वही आपके पास वापिस आता है। जीवन में आपकी परिस्तिथि आपके मन में चल रहे भावों का प्रतिबिंब है। मैंने ५४ सालों में कभी किसी के लिए बुरे शब्दों का प्रयोग नहीं किया, कभी किसी को अपमानित भी नहीं किया।
आध्यात्म के सूत्र
१. अपने आप पर इलज़ाम मत दो-अपने आपको यां दूसरों पर इलज़ाम मत दो। ’मैं अच्छा/अच्छी नहीं हूँ, मुझ में यह अवगुण है’ - अगर आप ऐसा करते हैं तो आप कभी आध्यात्मिक नहीं हो सकते। जीवन में अच्छी और बुरी दोनो चीज़ें होती हैं। अगर आप अपने पर ही इलज़ाम देते रहते हैं तो आपकी मुस्कान और आत्म-विश्वास चला जाता है। आप में क्रोध और चिढ़ चिढ़ा पन आ जाता है जो आगे चल कर हिंसा का रूप ले लेता है। हिंसा से मन में आत्म हत्या के विचार आते हैं।
२. दूसरों पर इल्ज़ाम मत दो - हर कोई केवल एक डाकिया है जो आपकी चिट्ठी यां पार्सल आप तक पहुँचाता है। अगर आपने मिर्ची का ऑडर दिया और मिठाई की अपेक्षा कर रहे हैं तो यह देने वाले की गलती नहीं है। यदि आप किसी को उनकी गलती बताना चाहते हैं तो क्रोध से नहीं बल्कि करुणा से बताओ। एक दृढ़ता के साथ मुस्कान और करुणा से गलती बताओ।
३. पूरा विश्व आपका परिवार है और आपका कोई दुश्मन नहीं है - यह आध्यात्म का तीसरा सूत्र है। अगर आप सारे विश्व को अपने परिवार के रूप में नहीं स्वीकार कर सकते तो शुरुआत इससे करो - ’मेरा कोई दुश्मन नहीं है’। ऐसा करते ही जीवन में ऐसी शांति का उदय होगा जिसे आपसे कोई नहीं ले सकता।
प्रश्न : पति-पत्नि के रिश्ते की कामयाबी के लिए क्या ज़रुरी है?
श्री श्री रवि शंकर : मैं महिलाओं और पुरुषों को एक सुझाव देना चाहूंगा, और एक सुझाव दोनो के लिए:
महिलाओं के लिए : अपने पति के अहम को कभी ठेस मत पहुँचाओ। आपको उनके अहम को हमेशा बढ़ावा देना चाहिए। चाहे सारा संसार ही आपके पति के बारे में कुछ भी कहे पर आपको कभी अपने पति को नीचा नहीं दिखाना चाहिए। अगर आपका व्यवहार उन्हे यह दर्शाएगा कि वो किसी काम के नहीं हैं तो वो वैसे ही बन जाएंगे। पुरुष अभिव्यक्त करने में इतने अच्छे नहीं होते, इसलिए महिलाओं को उनसे तारीफ सुनने की अपेक्षा करने की बज़ाए उनकी तारीफ करनी चाहिए।
पुरुषों के लिए : अपनी पत्नि की भावनाओं को कभी ठेस मत पहुँचाओ। वो अपने परिवार के बारे में कभी कुछ भला बुरा कह सकती है पर आप कभी इस विषय में उनका पक्ष मत लेना। अगर आप भी इसमें शामिल हो जाते हैं तो आप पर ही मुश्किल आ जाएगी। अगर वो खरीदारी यां आध्यात्मिक सभा में जाना चाहे तो उसे मत रोको। अगर वो कहीं खरीदारी पर जाना चाहे तो आप उसे अपना क्रेडिट कार्ड दे दो।
दोनों के लिए एक सुझाव : एक दूसरे से अपने प्रति प्रेम का प्रमाण मत मांगो। कभी एक दूसरे से ऐसे प्रश्न मत पूछो, "क्या तुम मुझे सच में प्रेम करते/करती हो? तुम अब पहले जैसा प्रेम नहीं करते/करती?" किसी को अपने प्रेम का प्रमाण देना सिर पर पड़े भारी बोझ के समान है।
शेष अंश अगली पोस्ट में..
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आप जो भी देते हैं, वो आपके पास वापिस आता है। कुदरत ऐसी ही है। हम जो दुनिया को देते हैं, वही हमारे पास वापिस आता है।
क्या आप मुझे सुन सकते हैं? (बहुत ही धीमे स्वर में)
हमारी बोली में भी इतना ही प्रभाव होता है, और हमारी आवाज़ अनसुनी रह जाती है। धर्म, शांति और अहिंसा की आवाज़ ऊँची और स्पष्ट होनी चाहिए। तनाव का मुख्य कारण होता है जब हम समझते हैं कि हमे दूसरे ठीक से नहीं समझ रहे हैं। हम सोचते हैं हमें हमारे घर के सदस्य, पति-पत्नि, भाई, बहन, माँ-बाप, यां रिश्तेदार ठीक से नहीं समझ रहे हैं। इस वार्तालाभ की मुश्किल के कारण भावानात्मक तूफान उठता रहता है। बच्चों की शिकायत होती है कि माँ-बाप उन्हे नहीं समझते और माँ-बाप की शिकायत रहती है कि बच्चे उन्हे नहीं समझते। कितने माँ-बाप का यह अनुभव है?
हम सभी को कहीं न कहीं वार्तालाभ में मुश्किल अनुभव होती ही है। कितने लोग इससे सहमत हैं? पति-पत्नि को हाथ उठाने की ज़रुरत नहीं है, मैं नहीं चाहता कि उनके घर पर कोई तूफान आए! यह एक बहुत आम समस्या है कि हम सोचते हैं लोग हमे गलत समझ रहे हैं। पर दूसरों पर इलज़ाम लगाने की बजाए हमें अपने को बेहतर ढंग से अभिव्यक्त करने की आवश्यकता है। यह ऐसा है जैसे अगर मैं आपसे स्वाहिली में बात करूं तो आप समझ नहीं पाएंगे। एक ऐसी भाषा भी है जो सभी समझते हैं, पेड़-पौधे और जानवर भी, और वो भाषा है हृदय की भाषा। उसके लिए आपको शब्दों की ज़रुरत नहीं है, आपका अस्तित्व ही काफी है। अगर आपके पास कोई पिल्ला यां कुत्ता है तो उसको आपके प्रति प्रेम अभिव्यक्त करने के लिए शब्दों की ज़रुरत नहीं पड़ती, केवल उसकी मौजूदगी यां हाव भाव से ही प्रेम झलकता है।
हम इस प्रेम और मासुमियत के साथ ही पैदा हुए थे पर कहीं हमने वो खो दिया है। आप जितने अच्छे हैं, समाज आपको उससे अधिक अच्छा मानता है। अगर आपमें १०० प्रतिशत अच्छाई है तो समाज आपको २०० प्रतिशत अच्छा मानता है। दुनिया आपका सम्मान करती है। आप दुनिया का सम्मान करते हैं तो वही आपके पास वापिस आता है। जीवन में आपकी परिस्तिथि आपके मन में चल रहे भावों का प्रतिबिंब है। मैंने ५४ सालों में कभी किसी के लिए बुरे शब्दों का प्रयोग नहीं किया, कभी किसी को अपमानित भी नहीं किया।
आध्यात्म के सूत्र
१. अपने आप पर इलज़ाम मत दो-अपने आपको यां दूसरों पर इलज़ाम मत दो। ’मैं अच्छा/अच्छी नहीं हूँ, मुझ में यह अवगुण है’ - अगर आप ऐसा करते हैं तो आप कभी आध्यात्मिक नहीं हो सकते। जीवन में अच्छी और बुरी दोनो चीज़ें होती हैं। अगर आप अपने पर ही इलज़ाम देते रहते हैं तो आपकी मुस्कान और आत्म-विश्वास चला जाता है। आप में क्रोध और चिढ़ चिढ़ा पन आ जाता है जो आगे चल कर हिंसा का रूप ले लेता है। हिंसा से मन में आत्म हत्या के विचार आते हैं।
२. दूसरों पर इल्ज़ाम मत दो - हर कोई केवल एक डाकिया है जो आपकी चिट्ठी यां पार्सल आप तक पहुँचाता है। अगर आपने मिर्ची का ऑडर दिया और मिठाई की अपेक्षा कर रहे हैं तो यह देने वाले की गलती नहीं है। यदि आप किसी को उनकी गलती बताना चाहते हैं तो क्रोध से नहीं बल्कि करुणा से बताओ। एक दृढ़ता के साथ मुस्कान और करुणा से गलती बताओ।
३. पूरा विश्व आपका परिवार है और आपका कोई दुश्मन नहीं है - यह आध्यात्म का तीसरा सूत्र है। अगर आप सारे विश्व को अपने परिवार के रूप में नहीं स्वीकार कर सकते तो शुरुआत इससे करो - ’मेरा कोई दुश्मन नहीं है’। ऐसा करते ही जीवन में ऐसी शांति का उदय होगा जिसे आपसे कोई नहीं ले सकता।
प्रश्न : पति-पत्नि के रिश्ते की कामयाबी के लिए क्या ज़रुरी है?
श्री श्री रवि शंकर : मैं महिलाओं और पुरुषों को एक सुझाव देना चाहूंगा, और एक सुझाव दोनो के लिए:
महिलाओं के लिए : अपने पति के अहम को कभी ठेस मत पहुँचाओ। आपको उनके अहम को हमेशा बढ़ावा देना चाहिए। चाहे सारा संसार ही आपके पति के बारे में कुछ भी कहे पर आपको कभी अपने पति को नीचा नहीं दिखाना चाहिए। अगर आपका व्यवहार उन्हे यह दर्शाएगा कि वो किसी काम के नहीं हैं तो वो वैसे ही बन जाएंगे। पुरुष अभिव्यक्त करने में इतने अच्छे नहीं होते, इसलिए महिलाओं को उनसे तारीफ सुनने की अपेक्षा करने की बज़ाए उनकी तारीफ करनी चाहिए।
पुरुषों के लिए : अपनी पत्नि की भावनाओं को कभी ठेस मत पहुँचाओ। वो अपने परिवार के बारे में कभी कुछ भला बुरा कह सकती है पर आप कभी इस विषय में उनका पक्ष मत लेना। अगर आप भी इसमें शामिल हो जाते हैं तो आप पर ही मुश्किल आ जाएगी। अगर वो खरीदारी यां आध्यात्मिक सभा में जाना चाहे तो उसे मत रोको। अगर वो कहीं खरीदारी पर जाना चाहे तो आप उसे अपना क्रेडिट कार्ड दे दो।
दोनों के लिए एक सुझाव : एक दूसरे से अपने प्रति प्रेम का प्रमाण मत मांगो। कभी एक दूसरे से ऐसे प्रश्न मत पूछो, "क्या तुम मुझे सच में प्रेम करते/करती हो? तुम अब पहले जैसा प्रेम नहीं करते/करती?" किसी को अपने प्रेम का प्रमाण देना सिर पर पड़े भारी बोझ के समान है।
शेष अंश अगली पोस्ट में..
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"मुस्कान हमारा ट्रेड मार्क है"
२६ जून २०१०,
बैंगलोर आश्रम, भारत
प्रश्न : मैने अभी हाल ही में अपना बेसिक कोर्स खत्म किया है, और एडवांस कोर्स के बारे में बहुत सुना है। क्या आप मुझे एडवांस कोर्स के बारे में बता सकते हैं?
श्री श्री रवि शंकर : मन की सुप्त शक्तियाँ जाग्रत होती हैं, आत्म बल बढ़ता है, शरीर पुष्ट होता है, बुद्धि तीक्ष्ण होती है। लाभ ही लाभ हैं।
प्रश्न : मैं पहली बार यहाँ आया हूँ पर मुझे ऐसा तीव्र भास हो रहा है जैसे मैं यहाँ पहले भी आया हूँ। क्या आप मुझे इसके बारे में कुछ बता सकते हैं?
श्री श्री रवि शंकर : चेतना के स्तर पर कई ऐसे अनुभव होते हैं जिनके लिए लगता है ऐसी अनुभूति पहले भी हो चुकी है। आज वैज्ञानिक कहते हैं सब कुछ पहले ही घटित हो चुका है और सबकुछ केवल परदे पर परिबिंबित हो रहा है। स्ट्रिंग थियुरी के अनुसार सबकुछ केवल उर्जा ही है। यह बात किसी दार्शनिक के मुख से नहीं बल्कि वैज्ञानिक के मुख से आ रही है।
प्रश्न : आपने कभी झूठ बोला है, यदि हाँ तो क्यों?
श्री श्री रवि शंकर : बचपन में मैं अपने दोस्तों से कहा करता था कि मेरा परिवार सारे विश्व में है। मेरे दोस्त मेरे माँ-बाप से कह देते कि मै ऐसा झूठ बोल रहा हूँ और फिर मुझे डांट पड़ती। पर, अब तो यह सच हो ही गया!
प्रश्न : मैं अपने मोबाइल फोन से अत्याधिक जुड़ा हुआ हूँ? वो नहीं भी बजता तो भी मैं उस पर आश्रित हूँ। कृपया मुझे इससे बाहर आने में सहायता कीजिए।
श्री श्री रवि शंकर : तुम सही जगह पर हो। अपना फोन बंद कर के आराम करो। हमारे शरीर को सबसे अधिक नुकसान पहुँचाने वाली चीज़ों में से मोबाइल फोन एक मुख्य चीज़ है। आपने सुना ही होगा कि कैलीफोर्निया में एक नियम बन गया है जिसके अनुसार हर मोबाइल फोन पर यह अंकित होना चाहिए कि ’यह सेहत के लिए हानिकारक है’, जिस तरह से सिगरेट पर लिखा होता है।
प्रश्न : मैनें हाल ही में येस प्लस किया है, और मैं आपका बहुत आभारी हूँ। मैं अपने सभी प्रिय जनो को यह करवाना चाहता हूँ।
श्री श्री रवि शंकर : हाँ, बहुत से देशों में युवकों को इससे बहुत फ़ायदा हुआ है। अमरीका के ४३ विश्व विद्दालयों में येस प्लस क्लब हैं और कई विश्व विद्दालयों में येस प्लस करने से पढ़ाई में क्रेडिट भी मिलता है। मैं चाहता हूँ कि आप में से बहुत से सहभागी आएं जो विश्व के कोने कोने में इस ज्ञान को फैलाएं।
प्रश्न : योगा भारत की देन है, पर अमरीका जैसे देशों में इसका इतना खूबसूरत स्वागत किया जाता है। आप इस पर क्या कहेंगे?
श्री श्री रवि शंकर : योगा भारत से फैला है, और भारत का ट्रेड मार्क तो रहना ही चाहिए। नहीं तो आने वाले १०० वर्षों में भारत में इसका परिचय पश्चिम से फैलने का होगा।
प्रश्न : ’आर्ट ओफ़ लिविंग’ का ट्रेड मार्क क्या है?
श्री श्री रवि शंकर : मुस्कान! यदि कोई कहे उसने ’आर्ट ओफ़ लिविंग’ का कोर्स किया है और वो मुस्कुरा नहीं रहे तो उसका यकीन मत करना। उसने सही माइनो में कोर्स किया ही नहीं है।
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"जिसे आप नहीं जानते उसके प्रति प्रेम श्रद्धा है"
किसी भी कार्यक्षेत्र में संघर्ष हो सकता है। जब ऐसा होता है तो उसके प्रति indifference का भाव रखो। यह आपका प्रेम कितना दृढ़ है, इसका संकेत है। जब आप गलती के पीछे सही अंदेशा देखते हैं तो किसी की यां आपकी गलती आपको परेशान नहीं करती। यह ज्ञान का अलग ही नज़रिया है। आपको याद हो तो मैने आपसे एक बार कहा था कि दूसरों की गलती के पीछे वजह मत देखो। पर अब मैं कह रहा हूँ कि गलती के पीछे वजह देखो। जब कोई सही भाव से अच्छा काम करता है, पर कृत गलत हो जाता है तो यह आपको परेशान नहीं करता। एक डाक्टर मरीज़ का इलाज उसे ठीक करने की भावना से करता है, पर अगर इसके दौरान मरीज़ की मृत्यु हो जाए तो डाक्टर पर आरोप नहीं लगाते। पर एक डाकू यां आतंकवादी को इस तरह से माफ नहीं किया जा सकता। मगर यदि आप इतने बुद्धिमान हैं कि आप यह देख सकें उनका गलत करने की वजह का कारण तनाव और अज्ञानता है, तो आप करुणा का भाव रखते हैं। जब आप दूसरों की गलती के पीछे वजह देखते हैं, और आप वजह को ठीक पर कृत को गलत देख पाते हैं तो किसी की गलती आपके मन को विचलित नहीं करती। जैसे एक परिवार में बच्चा अगर कोई गलती करता है तो आप जानते हैं कि वो ऐसा जानबूझ कर नहीं कर रहा है।
किसी भी क्षेत्र में हमें श्रद्धा अपनाने की आवश्यकता है। अगर श्रद्धा नहीं है तो कोई भी काम अच्छे से नहीं किया जा सकता। आज यह श्रद्धा भाव कार्य क्षेत्र में अत्याधिक अनिवार्य है। अगर अपने काम के प्रति श्रद्धा ही नहीं है तो कोई भी काम सही ढंग से कैसे किया जा सकता है? श्रद्धा ना होने के कारण काम पर बुरा प्रभाव पड़ता है, और ऐसा क्या है जो श्रद्धा को छीन लेता है। संघर्ष, श्रद्धा में संघर्ष के कारण ही श्रद्धा खो जाती है। जब भी आपका सामना संघर्ष से हो, चाहे वो काम में हो, दोस्तों के साथ हो, परिवार में हो, यां किसी भी क्षेत्र में हो, उसके प्रति indifferent रहो, जैसे कुछ हुआ ही नहीं।
किसी धार्मिक यां आध्यात्मिक क्रिया के साथ भी। कभी कभी आपकी ध्यान करने की, साधना करने की यां प्रार्थना करने की इच्छा नहीं होती। आपको यह ऊबाने वाला लग सकता है। और जब ऐसा महसूस हो तो क्या करें? जब आप किसी कृत से प्रेम करते हैं तो आप उसका निरंतर अभ्यास करते रहते हैं। और जब प्रेम समाप्त हो जाता है तो संघर्ष पैदा हो जाता है। कुछ ऐसे से प्रेम करो जिसे आप नहीं जानते। जिसे आप नहीं जानते उसके प्रति प्रेम श्रद्धा है, भक्ति है।
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किसी भी क्षेत्र में हमें श्रद्धा अपनाने की आवश्यकता है। अगर श्रद्धा नहीं है तो कोई भी काम अच्छे से नहीं किया जा सकता। आज यह श्रद्धा भाव कार्य क्षेत्र में अत्याधिक अनिवार्य है। अगर अपने काम के प्रति श्रद्धा ही नहीं है तो कोई भी काम सही ढंग से कैसे किया जा सकता है? श्रद्धा ना होने के कारण काम पर बुरा प्रभाव पड़ता है, और ऐसा क्या है जो श्रद्धा को छीन लेता है। संघर्ष, श्रद्धा में संघर्ष के कारण ही श्रद्धा खो जाती है। जब भी आपका सामना संघर्ष से हो, चाहे वो काम में हो, दोस्तों के साथ हो, परिवार में हो, यां किसी भी क्षेत्र में हो, उसके प्रति indifferent रहो, जैसे कुछ हुआ ही नहीं।
किसी धार्मिक यां आध्यात्मिक क्रिया के साथ भी। कभी कभी आपकी ध्यान करने की, साधना करने की यां प्रार्थना करने की इच्छा नहीं होती। आपको यह ऊबाने वाला लग सकता है। और जब ऐसा महसूस हो तो क्या करें? जब आप किसी कृत से प्रेम करते हैं तो आप उसका निरंतर अभ्यास करते रहते हैं। और जब प्रेम समाप्त हो जाता है तो संघर्ष पैदा हो जाता है। कुछ ऐसे से प्रेम करो जिसे आप नहीं जानते। जिसे आप नहीं जानते उसके प्रति प्रेम श्रद्धा है, भक्ति है।
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"हर दिन एक नया अध्याय है"
प्रश्न : एक दिन आपने पंचतत्व के बारे में बताया था। क्या आप पंचतत्वों के बारे में और प्रकाश डालेंगे?
श्री श्री रवि शंकर : पूर्ण सृष्टि पाँच तत्वों से बनी है।
नदियों का सम्मान करने की एक महान परंपरा रही है। नदी नहीं चाहती कि तुम उसे फूल यां फल दो। ये पूजा का तरीका नहीं है। और नदी में कूड़ा और गंदगी के नाले डाल कर, तुम ये कैसे कह सकते हो कि तुम नदी की पूजा कर रहे हो? पूजा का अर्थ है सम्मान देना। और हम तभी सम्मान दे पाएंगे जब हम नदियों में गंदे नाले, कूड़ा, प्लास्टिक डालना बंद करेंगे। कुछ साल पहले तक, नदी से जल लेकर सीधे ही पी सकते थे। पर आज, किसी भी नदी का जल अपने उद्गम स्थान से १०० किलोमीटर दूर भी पीने लायक साफ़ नहीं है!पहले समय में अपने उद्गम स्थान से हज़ारों किलोमीटर दूर भी नदी का पानी पीने लायक साफ़ हुआ करता था। इस देश में लोग बर्तन साफ़ करने के लिये लकड़ी की राख का प्रयोग करते थे, ना कि साबुन का। हल्दी और दूसरी प्राकृतिक वनस्पतियों का प्रयोग होता था जो कि bio-degradable होती हैं। हम नदियों में बहुत ज़्यादा औद्योगिक कूड़ा डाल रहे हैं। ये जल तत्व के प्रति असम्मान दर्शाता है।
पृथ्वी तत्व का सम्मान करने का अर्थ है कि हम धरती में प्लास्टिक, विषैली खाद और रसायन डाल कर प्रदूषण ना करे। पर्यावरण के लिये सजग होना, पृथ्वी का सम्मान करना है।
फिर वायु तत्व आता है। हमें स्वच्छ ऊर्जा चाहिये। हमने महाराष्ट्र के गाँवों में धूम्ररहित चूल्हों का इंतज़ाम किया है, जो एक बहुत ही सफल प्रयोग रहा। हमे वायु का सम्मान करना है और इसके स्वच्छ वायु के लिये हमें जो भी करने की आवश्यकता हो, करें।
आकाश तत्व है जो कि अमूर्त है। आप आकाश को पकड़ नहीं सकते हैं। जब आप अपने मन को नकारात्मक भावों से बचाते हैं तो आप इर्द गिर्द आकाश को आनंद से भर रहे हैं। तब आसपास की वायु भी आनंदित हो जाती है। तुम एक स्थान को अविश्वास, क्रोध, लालच, और खुदगर्ज़ी से भर सकते हो, यां एक एक ऐसा स्थान बना सकते हो जहाँ मस्ती हो, आत्मविश्वास हो, आपसी समझ हो, अपनापन हो। अगर तुम हर समय गल्तियों के बारे में नकारात्मक भाव व्यक्त करते रहोगे तो तुम इस पृथ्वी पर कहीं भी नहीं जी पाओगे। हर किसी में कोई ना कोई दोष है।
जब हम दूसरों में देखने का प्रयास करते हैं तो हम अपनी कमियों को देखना भूल जाते हैं।
पंचतत्व, सृष्टि का हिस्सा हैं। और इस सुंदर सृष्टि को बनाये रखने के लिये हमे इनका सम्मान करना होगा।
प्रश्न : मैं ऐसी बहुत सी चीज़े पाता हूँ जो मुझे ठीक नहीं लगती। मुझे नहीं पता कि जो मुझे ठीक नहीं लगता, उसे मैं कैसे ठीक करूँ। कृपया मेरा मार्गदर्शन कीजिये।
श्री श्री रवि शंकर : जब तुम कहते हो, ‘ये ठीक नहीं है,’ तो तुम्हारे मन में इस ‘ये ठीक नहीं है’ का बीज घर कर जाता है जो मन को विश्राम नहीं करने देता है। जब तुम बेचैनी को पकड़ कर बैठे हो, तो मन को चैन कैसे आयेगा? जो जैसा है तुम्हें उसे वैसा ही स्वीकार करना होगा। ‘ये ठीक नहीं है, ये ठीक नहीं है,’ तुम्हें बाहर रखता है। जो दोष तुम्हें दिख रहा है वो किसी कारण से है। वो ठीक हो जायेगा, कुछ समय लगेगा।
इस वक्त जो जैसा है, ठीक है। भविष्य में भी वो ठीक होगा। जो भूतकाल में हुआ है, वो भी ठीक था।
जब तुम ये समझ जाओगे, तुम विश्राम कर सकोगे, और उस विश्राम में तुम ध्यान कर सकोगे। जब तुम विराम लेते हो तो ये निवृत्ति है, और जब तुम उस विराम से बाहर आते हो तो वह प्रवृत्ति है। तब तुम कर्म कर सकते हो। जब तुम थके हुये हो और तुम इस बात पर केंद्रित हो कि, ‘ये ठीक नहीं है,’ तब तुम विश्राम नहीं कर सकते हो। जब तुम मस्ती में होते हो, तो क्या कहते हो? ‘सब बढ़िया है!’ नहीं तो तुम मस्त नहीं हो सकते हो, कर्म नहीं कर सकते हो - ये ना प्रवृत्ति है और ना ही निवृत्ति।
ध्यान योग निवृत्ति है। कर्म योग प्रवृत्ति है। बहुत से लोग, ‘ये ठीक नहीं है,’ विचार को पकड़े हुये हैं जिस वजह से वे विश्राम नहीं कर पाते है, जीवन में आनंदित नहीं हो पाते हैं, मस्त नहीं हो पाते हैं। वो व्यक्ति, सरकार, शासन, सब कुछ ठीक नहीं है।’ तब ये तुम्हारे अंदर भी आ जाता है - ‘मैं ठीक नहीं हूँ।’ सूक्ष्म रूप से ये भाव तुम में समा जाता है कि, ‘मैं ठीक नहीं हूँ।’ तब तुम्हें ऐसा महसूस करना अच्छा नहीं लगता है, और तुम उसे छिपाने की कोशिश करते हो, मन में कई सफ़ाइयां गढ़ लेते हो, और मन भ्रमित हो जाता है।
अगर तमोगुण अधिक हो तो तुम प्रवृत्ति यां निवृत्ति नहीं जानते हो। जब सत्व गुण अधिक होता है तो तुम जानते हो कि तुम्हें क्या करना है, कब करना है, कार्य करना है यां नहीं करना है। जब रजोगुण बढ़ जाता है तो ये बीच का बिंदु है - तुम कर्म करते हो और फिर पछताते हो। हम में से कई लोग कर्म करते हैं और फिर पछताते हैं। मां अपने बच्चे को डांटती है और बाद में पछताती है, और फिर बच्चे से अच्छा व्यवहार करती है।
सत्वगुण में तुम पछताते नहीं हो, विराम और विश्राम करते हो, और तुम्हारी सोच एकदम साफ़ और पारदर्शी होती है।
रजोगुण में भ्रम और अस्तव्यस्तता होती है।
तमोगुण में एकदम आलस और कर्म करने की अनिच्छा होती है।
इन तीनों गुणों के बीच कोई गहरी रेखा नहीं है, ये आपस में घुल मिल जाते हैं, और हम एक गुण से दूसरे गुण में सहज ही आ जाते हैं।
प्रश्न : अपने मन की रक्षा कैसे करें?
श्री श्री रवि शंकर : ये बहुत बड़ा काम है। गीता में कहा गया है कि बहुत बुद्धिमान लोग भी भ्रमित हो जाते हैं कि क्या करें और क्या ना करें, और मन को कैसे संभाले। मन की रक्षा करना एक बहुत बड़ा काम है, और इसके लिये हमें ज्ञान की आवश्यकता है। ये देखो कि आज के इस क्षण तक जो भी कुछ हुआ है, वो सब चला गया है!
जागो!
जब तुम प्राण से भरे हुये होते हो तो तुम अचानक ये देखते हो कि सब चला गया है. अभी! जो भी कुछ हो गया, ठीक था। ये सोचो कि अब क्या करना है। कभी कभी जो भी तुम करते हो १००% सफल होता है, कभी ऐसा नहीं भी होता है। एक किसान जानता है कि वो जो बीज उगाता है, उन में से हर बीज अंकुरित नहीं होता है। वो बीज लेकर खेत में बो देता है और ये नहीं सोचता कि ये बीज उगेगा यां नहीं उगेगा।
इसी समय से एक नया अध्याय शुरु हुआ है। हर दिन एक नया अध्याय है। ये जागरूकता बार बार अपने भीतर लाओ। ये पूरा विश्व मेरी ही आत्मा से भरा है। ये सब मैं ही हूँ। एक ही चेतना है। ये एक चेतना एक व्यक्ति के भीतर एक तरह से अभिव्यक्त होती है, किसी दूसरे व्यक्ति से दूसरी तरह अभिव्यक्त होती है। ये एक सागर की लहरों के समान है। अगर ये बात तुम्हें ५ सेकंड के लिये भी समझ आ गयी तो तुम्हारे शरीर और मन में समूल परिवर्तन आ जायेगा। तब तुम अनुभूत करोगे, ‘अहो!’ सब चिंतायें धुल जायेंगी। बस एक सेकंड के लिये ये पहचान लो कि मेरे दुश्मन में भी मैं ही हूँ। मैंने ही ये खेल शुरु किया है। ये समझ लो लेकिन ऐसा करने के लिए मूड बनाने की आवश्यकता नेहीं है।ये समझ केवल निवृत्ति में रखनी है, प्रवृत्ति में नहीं। अगर हम व्यवहार में अद्वैत को ले आयेंगे तो इससे भ्रम और बढ़ेगा। प्रवृत्ति में हम द्वैत को देखते हैं। द्वैत के बिना मानव शरीर धारण करना असंभव है। कितनी प्रवृत्ति और कितनी निवृत्ति होनी चाहिये ये एक नाज़ुक विषय है। जब प्रवृत्ति अधिक हो जाती है तो नकारात्मक भाव बढ़ जाता है और व्यक्ति को निवृत्ति में जाने को कहा जाता है।
प्रश : मैं एक नया काम हाथ में ले रहा हूँ। कृपया मुझे आशीर्वाद दीजिये।
श्री श्री रवि शंकर : मैं बिना किसी रोक के बहुत आशीर्वाद देता हूँ। ये तुम पर है कि तुम कितना लेना चाहते हो। यहाँ बहुत पानी है। तुम्हारे पात्र की जो क्षमता है, तुम उतना ही ले पाओगे।
प्रश्न : गुरुजी, यहाँ पर इतनी संदर गौशाला है, वहाँ जाकर ऐसा लगता है मानो प्राचीन भारत में आ गए हों। पर अन्य जगह हम देख रहे हैं कि गायें विलुप्त होती जा रही हैं। हमे क्या करना चाहिए?
श्री श्री रवि शंकर : प्रति १००० व्यक्ति पर हमारे पास १२० गायें रह गयी हैं। १२० गायें १००० व्यक्तियों के लिये पर्याप्त दूध नहीं दे सकती। जब भारत आज़ाद हुआ था तब १००० व्यक्तियों के लिये ४५० गायें थी। अब ये संख्या गिर कर १२० हो गयी है। दो-तीन सालों में से संख्या २० हो जायेगी। ये आज की आवश्यकता है कि गायों की रक्षा की जाये। लोगों को इस बारे में जागरूक होना चाहिये, नहीं तो भारत के लोग दूध, दही, घी की कमी झेलेंगे। हमें गायों का संरक्षण करना होगा।
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श्री श्री रवि शंकर : पूर्ण सृष्टि पाँच तत्वों से बनी है।
नदियों का सम्मान करने की एक महान परंपरा रही है। नदी नहीं चाहती कि तुम उसे फूल यां फल दो। ये पूजा का तरीका नहीं है। और नदी में कूड़ा और गंदगी के नाले डाल कर, तुम ये कैसे कह सकते हो कि तुम नदी की पूजा कर रहे हो? पूजा का अर्थ है सम्मान देना। और हम तभी सम्मान दे पाएंगे जब हम नदियों में गंदे नाले, कूड़ा, प्लास्टिक डालना बंद करेंगे। कुछ साल पहले तक, नदी से जल लेकर सीधे ही पी सकते थे। पर आज, किसी भी नदी का जल अपने उद्गम स्थान से १०० किलोमीटर दूर भी पीने लायक साफ़ नहीं है!पहले समय में अपने उद्गम स्थान से हज़ारों किलोमीटर दूर भी नदी का पानी पीने लायक साफ़ हुआ करता था। इस देश में लोग बर्तन साफ़ करने के लिये लकड़ी की राख का प्रयोग करते थे, ना कि साबुन का। हल्दी और दूसरी प्राकृतिक वनस्पतियों का प्रयोग होता था जो कि bio-degradable होती हैं। हम नदियों में बहुत ज़्यादा औद्योगिक कूड़ा डाल रहे हैं। ये जल तत्व के प्रति असम्मान दर्शाता है।
पृथ्वी तत्व का सम्मान करने का अर्थ है कि हम धरती में प्लास्टिक, विषैली खाद और रसायन डाल कर प्रदूषण ना करे। पर्यावरण के लिये सजग होना, पृथ्वी का सम्मान करना है।
फिर वायु तत्व आता है। हमें स्वच्छ ऊर्जा चाहिये। हमने महाराष्ट्र के गाँवों में धूम्ररहित चूल्हों का इंतज़ाम किया है, जो एक बहुत ही सफल प्रयोग रहा। हमे वायु का सम्मान करना है और इसके स्वच्छ वायु के लिये हमें जो भी करने की आवश्यकता हो, करें।
आकाश तत्व है जो कि अमूर्त है। आप आकाश को पकड़ नहीं सकते हैं। जब आप अपने मन को नकारात्मक भावों से बचाते हैं तो आप इर्द गिर्द आकाश को आनंद से भर रहे हैं। तब आसपास की वायु भी आनंदित हो जाती है। तुम एक स्थान को अविश्वास, क्रोध, लालच, और खुदगर्ज़ी से भर सकते हो, यां एक एक ऐसा स्थान बना सकते हो जहाँ मस्ती हो, आत्मविश्वास हो, आपसी समझ हो, अपनापन हो। अगर तुम हर समय गल्तियों के बारे में नकारात्मक भाव व्यक्त करते रहोगे तो तुम इस पृथ्वी पर कहीं भी नहीं जी पाओगे। हर किसी में कोई ना कोई दोष है।
जब हम दूसरों में देखने का प्रयास करते हैं तो हम अपनी कमियों को देखना भूल जाते हैं।
पंचतत्व, सृष्टि का हिस्सा हैं। और इस सुंदर सृष्टि को बनाये रखने के लिये हमे इनका सम्मान करना होगा।
प्रश्न : मैं ऐसी बहुत सी चीज़े पाता हूँ जो मुझे ठीक नहीं लगती। मुझे नहीं पता कि जो मुझे ठीक नहीं लगता, उसे मैं कैसे ठीक करूँ। कृपया मेरा मार्गदर्शन कीजिये।
श्री श्री रवि शंकर : जब तुम कहते हो, ‘ये ठीक नहीं है,’ तो तुम्हारे मन में इस ‘ये ठीक नहीं है’ का बीज घर कर जाता है जो मन को विश्राम नहीं करने देता है। जब तुम बेचैनी को पकड़ कर बैठे हो, तो मन को चैन कैसे आयेगा? जो जैसा है तुम्हें उसे वैसा ही स्वीकार करना होगा। ‘ये ठीक नहीं है, ये ठीक नहीं है,’ तुम्हें बाहर रखता है। जो दोष तुम्हें दिख रहा है वो किसी कारण से है। वो ठीक हो जायेगा, कुछ समय लगेगा।
इस वक्त जो जैसा है, ठीक है। भविष्य में भी वो ठीक होगा। जो भूतकाल में हुआ है, वो भी ठीक था।
जब तुम ये समझ जाओगे, तुम विश्राम कर सकोगे, और उस विश्राम में तुम ध्यान कर सकोगे। जब तुम विराम लेते हो तो ये निवृत्ति है, और जब तुम उस विराम से बाहर आते हो तो वह प्रवृत्ति है। तब तुम कर्म कर सकते हो। जब तुम थके हुये हो और तुम इस बात पर केंद्रित हो कि, ‘ये ठीक नहीं है,’ तब तुम विश्राम नहीं कर सकते हो। जब तुम मस्ती में होते हो, तो क्या कहते हो? ‘सब बढ़िया है!’ नहीं तो तुम मस्त नहीं हो सकते हो, कर्म नहीं कर सकते हो - ये ना प्रवृत्ति है और ना ही निवृत्ति।
ध्यान योग निवृत्ति है। कर्म योग प्रवृत्ति है। बहुत से लोग, ‘ये ठीक नहीं है,’ विचार को पकड़े हुये हैं जिस वजह से वे विश्राम नहीं कर पाते है, जीवन में आनंदित नहीं हो पाते हैं, मस्त नहीं हो पाते हैं। वो व्यक्ति, सरकार, शासन, सब कुछ ठीक नहीं है।’ तब ये तुम्हारे अंदर भी आ जाता है - ‘मैं ठीक नहीं हूँ।’ सूक्ष्म रूप से ये भाव तुम में समा जाता है कि, ‘मैं ठीक नहीं हूँ।’ तब तुम्हें ऐसा महसूस करना अच्छा नहीं लगता है, और तुम उसे छिपाने की कोशिश करते हो, मन में कई सफ़ाइयां गढ़ लेते हो, और मन भ्रमित हो जाता है।
अगर तमोगुण अधिक हो तो तुम प्रवृत्ति यां निवृत्ति नहीं जानते हो। जब सत्व गुण अधिक होता है तो तुम जानते हो कि तुम्हें क्या करना है, कब करना है, कार्य करना है यां नहीं करना है। जब रजोगुण बढ़ जाता है तो ये बीच का बिंदु है - तुम कर्म करते हो और फिर पछताते हो। हम में से कई लोग कर्म करते हैं और फिर पछताते हैं। मां अपने बच्चे को डांटती है और बाद में पछताती है, और फिर बच्चे से अच्छा व्यवहार करती है।
सत्वगुण में तुम पछताते नहीं हो, विराम और विश्राम करते हो, और तुम्हारी सोच एकदम साफ़ और पारदर्शी होती है।
रजोगुण में भ्रम और अस्तव्यस्तता होती है।
तमोगुण में एकदम आलस और कर्म करने की अनिच्छा होती है।
इन तीनों गुणों के बीच कोई गहरी रेखा नहीं है, ये आपस में घुल मिल जाते हैं, और हम एक गुण से दूसरे गुण में सहज ही आ जाते हैं।
प्रश्न : अपने मन की रक्षा कैसे करें?
श्री श्री रवि शंकर : ये बहुत बड़ा काम है। गीता में कहा गया है कि बहुत बुद्धिमान लोग भी भ्रमित हो जाते हैं कि क्या करें और क्या ना करें, और मन को कैसे संभाले। मन की रक्षा करना एक बहुत बड़ा काम है, और इसके लिये हमें ज्ञान की आवश्यकता है। ये देखो कि आज के इस क्षण तक जो भी कुछ हुआ है, वो सब चला गया है!
जागो!
जब तुम प्राण से भरे हुये होते हो तो तुम अचानक ये देखते हो कि सब चला गया है. अभी! जो भी कुछ हो गया, ठीक था। ये सोचो कि अब क्या करना है। कभी कभी जो भी तुम करते हो १००% सफल होता है, कभी ऐसा नहीं भी होता है। एक किसान जानता है कि वो जो बीज उगाता है, उन में से हर बीज अंकुरित नहीं होता है। वो बीज लेकर खेत में बो देता है और ये नहीं सोचता कि ये बीज उगेगा यां नहीं उगेगा।
इसी समय से एक नया अध्याय शुरु हुआ है। हर दिन एक नया अध्याय है। ये जागरूकता बार बार अपने भीतर लाओ। ये पूरा विश्व मेरी ही आत्मा से भरा है। ये सब मैं ही हूँ। एक ही चेतना है। ये एक चेतना एक व्यक्ति के भीतर एक तरह से अभिव्यक्त होती है, किसी दूसरे व्यक्ति से दूसरी तरह अभिव्यक्त होती है। ये एक सागर की लहरों के समान है। अगर ये बात तुम्हें ५ सेकंड के लिये भी समझ आ गयी तो तुम्हारे शरीर और मन में समूल परिवर्तन आ जायेगा। तब तुम अनुभूत करोगे, ‘अहो!’ सब चिंतायें धुल जायेंगी। बस एक सेकंड के लिये ये पहचान लो कि मेरे दुश्मन में भी मैं ही हूँ। मैंने ही ये खेल शुरु किया है। ये समझ लो लेकिन ऐसा करने के लिए मूड बनाने की आवश्यकता नेहीं है।ये समझ केवल निवृत्ति में रखनी है, प्रवृत्ति में नहीं। अगर हम व्यवहार में अद्वैत को ले आयेंगे तो इससे भ्रम और बढ़ेगा। प्रवृत्ति में हम द्वैत को देखते हैं। द्वैत के बिना मानव शरीर धारण करना असंभव है। कितनी प्रवृत्ति और कितनी निवृत्ति होनी चाहिये ये एक नाज़ुक विषय है। जब प्रवृत्ति अधिक हो जाती है तो नकारात्मक भाव बढ़ जाता है और व्यक्ति को निवृत्ति में जाने को कहा जाता है।
प्रश : मैं एक नया काम हाथ में ले रहा हूँ। कृपया मुझे आशीर्वाद दीजिये।
श्री श्री रवि शंकर : मैं बिना किसी रोक के बहुत आशीर्वाद देता हूँ। ये तुम पर है कि तुम कितना लेना चाहते हो। यहाँ बहुत पानी है। तुम्हारे पात्र की जो क्षमता है, तुम उतना ही ले पाओगे।
प्रश्न : गुरुजी, यहाँ पर इतनी संदर गौशाला है, वहाँ जाकर ऐसा लगता है मानो प्राचीन भारत में आ गए हों। पर अन्य जगह हम देख रहे हैं कि गायें विलुप्त होती जा रही हैं। हमे क्या करना चाहिए?
श्री श्री रवि शंकर : प्रति १००० व्यक्ति पर हमारे पास १२० गायें रह गयी हैं। १२० गायें १००० व्यक्तियों के लिये पर्याप्त दूध नहीं दे सकती। जब भारत आज़ाद हुआ था तब १००० व्यक्तियों के लिये ४५० गायें थी। अब ये संख्या गिर कर १२० हो गयी है। दो-तीन सालों में से संख्या २० हो जायेगी। ये आज की आवश्यकता है कि गायों की रक्षा की जाये। लोगों को इस बारे में जागरूक होना चाहिये, नहीं तो भारत के लोग दूध, दही, घी की कमी झेलेंगे। हमें गायों का संरक्षण करना होगा।
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"हमारे लिए जो ज़रूरी है वो हमको मिलता है"
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बैंगलोर आश्रम, भारत
प्रश्न : गुरुजी, महात्मा गांधी के अहिंसावादी सिद्धांत को जीवन में कितना उतारना चाहिये?
श्री श्री रवि शंकर : अहिंसा का सिद्धांत अत्यंत प्राचीन समय से चल रहा है। जीवन में अहिंसा तो रहनी ही चाहिए। कभी किसी के भले के लिये अगर उसे थप्पड़ भी मारना पड़ता है, तो मुस्कुराते मुस्कराते मारना चाहिए। देखो, भैंस को आगे बढ़ाने के लिये उसे छ्ड़ी से धक्का भी देना पड़ता है। गाय तो केवल आवाज़ से चल पड़ती है।पर भैंस और गधे के लिये लाठी ज़रुरी हो जाती है। इसे हिंसा नहीं मानते। हिंसा किसे कहते हैं? जब भीतर आक्रोश है, द्वेश है, क्रोध है, उससे जो काम करते हैं वो हिंसा होता है।
प्रश्न : क्या कोई हमें थप्पड़ मारे तो क्या हमें दूसरा गाल भी आगे कर देना चाहिये?
श्री श्री रवि शंकर : अगर वह व्यक्ति संवेदनशील है, तो दूसरा गाल भी आगे कर दो, वह तुम्हें दोबारा थप्पड़ नहीं मार पायेगा। पर अगर कोई असंवेदनशील हो तो तुम भी उसे दो-तीन लगा सकते हो!
प्रश्न : कभी कभी लोग पूछते हैं कि तुम सिर्फ़ भगवान को क्यों नहीं मानते, गुरु को क्यों मानते हो? मेरा जवाब होता है कि मेरे गुरु ही मेरे भगवान हैं। पर क्या भगवान और गुरु में कोई अंतर है?
श्री श्री रवि शंकर : ठीक है, तुम्हें लोगों को सफ़ाई देने की ज़रूरत नहीं है। बस मुस्कुराओ। तुम कह सकते हो, ‘क्या तुम नहीं जानते कि आत्मा, भगवान और गुरु, एक ही हैं।’ ये पूरा ब्रह्माण्ड एक ही तत्व से बना है। जैसे, बिजली तो एक ही है, पर वह अलग अलग उपकरणों में अलग दिखती है - बल्ब, पंखा, वातानुकूल, इत्यादि। वैसे ही अलग अलग शरीर और तौर तरीके हो सकते हैं, पर हम सब एक ही तत्व से बने हैं।
प्रश्न : अगर भगवान हमारी कोई प्रार्थना पूरी नहीं कर रहे हैं, तो क्या क्रिया और साधना में मज़बूत करने से वो पूरी हो जायेगी?
श्री श्री रवि शंकर : धीरज रखो। आशा रखो कि वह पूरी हो सकती है। हमारे लिए जो ज़रूरी है वो हमको मिलता है।
प्रश्न : कभी कभी अपने आप पर मेरा नियंत्रण ढीला पड़ जाता है। ऐसी स्थिति में क्या करूं?
श्री श्री रवि शंकर : ऐसा कभी कभी होता है तो कोई बात नहीं है। ऐसा हर समय तो नहीं होता है ना? तुम पीछे मुड़कर देखो। (प्रश्नकर्ता अपने पीछे मुड़ कर देखता है, और सभी लोग हँसने लगे।) अभी नहीं! अपने जीवन में पीछे मुड़कर देखो - एक साल, दो साल, तीन साल पहले जाकर देखो कि तुम तब क्या थे और आज क्या हो। तुमने कोई फ़र्क देखा? कितना फ़र्क देखा? तुम कह रहे हो एक महीने में जब से तुम सुदर्शन क्रिया कर रहे हो तुमने बहुत फ़र्क देखा है। तुम आगे भी बहुत फ़र्क देखोगे।
प्रश्न : Art of Living में हम कौन से योग का अभ्यास करते हैं - हठ योग, राज योग, कर्म योग यां ध्यान योग?
श्री श्री रवि शंकर : Art of Living में सब है। सब योग मिलकर Art of Living में हैं। भक्ति योग, कर्म योग, ध्यान योग सब हैं।
प्रश्न : क्या मैं हठ योग का अभ्यास कर सकता हूँ?
श्री श्री रवि शंकर : तुम जिस भी योग का अभ्यास करो, सहजता और असानी से करो। अपने शरीर को बहुत कष्ट देने की आवश्यकता नहीं है। साधारण और सहज रहो। हठ योग के अभ्यास के लिये कई सावधानियां बरतनी पड़ती हैं।
प्रश्न : गुरुजी, मैं बहुत सारा काम करना चाहता हूँ, पर वह मेरे अधिकार क्षेत्र के बाहर आता है। क्या फिर भी मैं इस बारे में सोचूं और स्वप्न लूँ?
श्री श्री रवि शंकर : हाँ, तुम्हें ऐसा स्वप्न रखना चाहिये।
प्रश्न: हम राष्ट्र के प्रति अपनी कृतज्ञता जताने के लिये क्या करें?
श्री श्री रवि शंकर : अपने राष्ट्र के प्रति अपना प्रेम और कृतज्ञता दर्शाने के लिये तुम्हें समाज में बहुत काम करना चाहिये ताकि हमारे गाँव विकास करे और स्वावलंबी बने। समाज को भ्रष्टाचार और हिंसा से मुक्त करने के लिये हमें पूरे दिल से काम करना है। ठीक है?
प्रश्न : मैंने अपने अंतिम साल की परीक्षा दी है और मैं आगे और पढ़ना चाहता हूँ। मैं आगे पढ़ना चाहता हूँ, पर एकाग्रता से पढ़ाई नहीं कर पाता हूँ। मैं क्या करूँ?
श्री श्री रवि शंकर : अगर तुम एकाग्रता से पढ़ाई नहीं कर पा रहे हो तो इन तीन बातों पर ध्यान दो -
१. तुम्हारा भोजन. अपने भोजन पर ध्यान दो। इस पर ध्यान दो कि तुम क्या खाते हो।
२. क्या तुम कोई शारीरिक व्यायाम करते हो? अगर तुम केवल बैठ कर टी वी देखते रहते हो या कम्प्यूटर पर इन्टरनेट पर काम करते रहते हो, तो शरीर में ऊर्जा का संचार कम होता है। तब तुम आलसी हो जाते हो, और पढ़ने में मन नहीं लगता। तो, कुछ शारीरिक व्यायाम करना आवश्यक है।
३. योग, प्राणायाम, ध्यान और सत्संग में भाग लेना, इत्यादि। इतना करने से तुम्हारे शरीर की सभी आवश्यकतायें पूरी हो जायेंगी। और फिर तुम बैठ कर पढ़ने के लिये अच्छा समय दे सकते हो। इससे तुम्हारी समझने की शक्ति और याद्दाश्त भी बढ़ जायेगी, और तुम कम समय में अधिक ग्रहण कर सकोगे। आगे पढ़ने की तुम्हारे इच्छा है तो पढ़ो, निर्णय तुम्हारा है, और मेरा आशीर्वाद है।
प्रश्न : भगवान शंकर और कृष्ण में क्या फ़र्क है? कुछ लोग शिव की पूजा करते हैं और कुछ लोग कृष्ण की।
श्री श्री रवि शंकर : नाम और रूप अनेक हैं, पर सब एक ही है।
प्रश्न : इनमें से क्या ज़्यादा महत्वपूर्ण हैं - हमारे संस्कार या जाति? जो लोग जातिवाद और धर्मवाद का समर्थन करते हैं, अन्तर्जातीय विवाह का विरोध करते हैं। दोनों में क्या अधिक महत्वपूर्ण है - मानवीय गुणं या व्यक्ति का धर्म और जाति?
श्री श्री रवि शंकर : मानवीयता को अधिक महत्व देना चाहिये।
प्रश्न: क्या विवाह संबंधों से पहले जन्म-पत्री मिलानी चाहिये? क्या इस में विश्वास करना चाहिये? क्या मांगलिक होने से कोई फ़र्क पड़ता है?
श्री श्री रवि शंकर :> ये विज्ञान है, पर ये इस पर निर्भर करता है कि बताने वाला कैसा है। कई बार ज्योतिष के नाम पर लोग ठग लेते हैं। जन्म-पत्री मिलाने में कुछ तो है, अगर तुम्हे लगे तो कर सकते हो । ॐ नमः शिवाय का जप करना सब कमियों का उपाय है।
प्रश्न : आप हमारे Art of living के गुरु हैं, पर परिवार में भी गुरु हैं, पारंपरिक धार्मिक क्रियायें हैं, उपासना की अलग पद्दति है, क्या हमें उन्हें भी निभाना चाहिये?
श्री श्री रवि शंकर : देखो, अगर परिवार में एक परंपरा चली आ रही है बहुत समय से तो उसे करने में क्या हर्ज है? पारिवारिक परंपराओं को निभाना चाहिये।
प्रश्न : असफलता को कैसे स्वीकार करें?
श्री श्री रवि शंकर : ये जान कर कि ये भविष्य में सफलता की तरफ़ एक कदम है।
प्रश्न : कोर्स करने के बाद आप तीन बार मेरे सपने में आये। दूसरी बार जब आप सपने में आये तो मैंने देखा कि अब आप इस दुनिया में नहीं रहे।
श्री श्री रवि शंकर : ठीक है। इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता है। अभी उस बात को होने में बहुत समय बाकी है!
प्रश्न : Art of Living में बहुत सारे अध्यापक हैं जो कि प्रेरणास्रोत हैं। अच्छा अध्यापक होने के लिये क्या योग्यता चाहिये?
श्री श्री रवि शंकर : हाँ, टीचर्ज़ ट्रेनिंग ले लो, और अच्छी तरह से अपने आप को तैयार कर लो।
प्रश्न : मेरे गुरु होने के लिये धन्यवाद। मैं एक सिख हूँ, और हमारे धर्म में हमारे अंतिम गुरु ने कहा था कि अब कोई गुरु नहीं होगा, गुरु ग्रंथ साहिब ही गुरु का स्वरूप है। तो, मेरे परिवार के लोग नहीं चाहते कि मैं किसी को गुरु मानूँ। मैं उन्हें कैसे समझाऊं?
श्री श्री रवि शंकर : सब ठीक है। वाहे गुरु वाहे गुरु कहो। जो भी धर्म है उन्हें वो निभाने दो, पर वो कोर्स कर सकते हैं और सब से मित्रता कर सकते हैं।
प्रश्न : Art of living के कुछ स्वयंसेवी आपके आशीर्वाद से राजनीति में जाना चाहते हैं।
श्री श्री रवि शंकर : हाँ, ठीक है। उन्हें राजनीति में जाना चाहिये। राजनीति की सफ़ाई करनी चाहिए जैसे कि Art of Living के स्वयंसेवियों ने यमुना की सफ़ाई की!
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प्रश्न : गुरुजी, महात्मा गांधी के अहिंसावादी सिद्धांत को जीवन में कितना उतारना चाहिये?
श्री श्री रवि शंकर : अहिंसा का सिद्धांत अत्यंत प्राचीन समय से चल रहा है। जीवन में अहिंसा तो रहनी ही चाहिए। कभी किसी के भले के लिये अगर उसे थप्पड़ भी मारना पड़ता है, तो मुस्कुराते मुस्कराते मारना चाहिए। देखो, भैंस को आगे बढ़ाने के लिये उसे छ्ड़ी से धक्का भी देना पड़ता है। गाय तो केवल आवाज़ से चल पड़ती है।पर भैंस और गधे के लिये लाठी ज़रुरी हो जाती है। इसे हिंसा नहीं मानते। हिंसा किसे कहते हैं? जब भीतर आक्रोश है, द्वेश है, क्रोध है, उससे जो काम करते हैं वो हिंसा होता है।
प्रश्न : क्या कोई हमें थप्पड़ मारे तो क्या हमें दूसरा गाल भी आगे कर देना चाहिये?
श्री श्री रवि शंकर : अगर वह व्यक्ति संवेदनशील है, तो दूसरा गाल भी आगे कर दो, वह तुम्हें दोबारा थप्पड़ नहीं मार पायेगा। पर अगर कोई असंवेदनशील हो तो तुम भी उसे दो-तीन लगा सकते हो!
प्रश्न : कभी कभी लोग पूछते हैं कि तुम सिर्फ़ भगवान को क्यों नहीं मानते, गुरु को क्यों मानते हो? मेरा जवाब होता है कि मेरे गुरु ही मेरे भगवान हैं। पर क्या भगवान और गुरु में कोई अंतर है?
श्री श्री रवि शंकर : ठीक है, तुम्हें लोगों को सफ़ाई देने की ज़रूरत नहीं है। बस मुस्कुराओ। तुम कह सकते हो, ‘क्या तुम नहीं जानते कि आत्मा, भगवान और गुरु, एक ही हैं।’ ये पूरा ब्रह्माण्ड एक ही तत्व से बना है। जैसे, बिजली तो एक ही है, पर वह अलग अलग उपकरणों में अलग दिखती है - बल्ब, पंखा, वातानुकूल, इत्यादि। वैसे ही अलग अलग शरीर और तौर तरीके हो सकते हैं, पर हम सब एक ही तत्व से बने हैं।
प्रश्न : अगर भगवान हमारी कोई प्रार्थना पूरी नहीं कर रहे हैं, तो क्या क्रिया और साधना में मज़बूत करने से वो पूरी हो जायेगी?
श्री श्री रवि शंकर : धीरज रखो। आशा रखो कि वह पूरी हो सकती है। हमारे लिए जो ज़रूरी है वो हमको मिलता है।
प्रश्न : कभी कभी अपने आप पर मेरा नियंत्रण ढीला पड़ जाता है। ऐसी स्थिति में क्या करूं?
श्री श्री रवि शंकर : ऐसा कभी कभी होता है तो कोई बात नहीं है। ऐसा हर समय तो नहीं होता है ना? तुम पीछे मुड़कर देखो। (प्रश्नकर्ता अपने पीछे मुड़ कर देखता है, और सभी लोग हँसने लगे।) अभी नहीं! अपने जीवन में पीछे मुड़कर देखो - एक साल, दो साल, तीन साल पहले जाकर देखो कि तुम तब क्या थे और आज क्या हो। तुमने कोई फ़र्क देखा? कितना फ़र्क देखा? तुम कह रहे हो एक महीने में जब से तुम सुदर्शन क्रिया कर रहे हो तुमने बहुत फ़र्क देखा है। तुम आगे भी बहुत फ़र्क देखोगे।
प्रश्न : Art of Living में हम कौन से योग का अभ्यास करते हैं - हठ योग, राज योग, कर्म योग यां ध्यान योग?
श्री श्री रवि शंकर : Art of Living में सब है। सब योग मिलकर Art of Living में हैं। भक्ति योग, कर्म योग, ध्यान योग सब हैं।
प्रश्न : क्या मैं हठ योग का अभ्यास कर सकता हूँ?
श्री श्री रवि शंकर : तुम जिस भी योग का अभ्यास करो, सहजता और असानी से करो। अपने शरीर को बहुत कष्ट देने की आवश्यकता नहीं है। साधारण और सहज रहो। हठ योग के अभ्यास के लिये कई सावधानियां बरतनी पड़ती हैं।
प्रश्न : गुरुजी, मैं बहुत सारा काम करना चाहता हूँ, पर वह मेरे अधिकार क्षेत्र के बाहर आता है। क्या फिर भी मैं इस बारे में सोचूं और स्वप्न लूँ?
श्री श्री रवि शंकर : हाँ, तुम्हें ऐसा स्वप्न रखना चाहिये।
प्रश्न: हम राष्ट्र के प्रति अपनी कृतज्ञता जताने के लिये क्या करें?
श्री श्री रवि शंकर : अपने राष्ट्र के प्रति अपना प्रेम और कृतज्ञता दर्शाने के लिये तुम्हें समाज में बहुत काम करना चाहिये ताकि हमारे गाँव विकास करे और स्वावलंबी बने। समाज को भ्रष्टाचार और हिंसा से मुक्त करने के लिये हमें पूरे दिल से काम करना है। ठीक है?
प्रश्न : मैंने अपने अंतिम साल की परीक्षा दी है और मैं आगे और पढ़ना चाहता हूँ। मैं आगे पढ़ना चाहता हूँ, पर एकाग्रता से पढ़ाई नहीं कर पाता हूँ। मैं क्या करूँ?
श्री श्री रवि शंकर : अगर तुम एकाग्रता से पढ़ाई नहीं कर पा रहे हो तो इन तीन बातों पर ध्यान दो -
१. तुम्हारा भोजन. अपने भोजन पर ध्यान दो। इस पर ध्यान दो कि तुम क्या खाते हो।
२. क्या तुम कोई शारीरिक व्यायाम करते हो? अगर तुम केवल बैठ कर टी वी देखते रहते हो या कम्प्यूटर पर इन्टरनेट पर काम करते रहते हो, तो शरीर में ऊर्जा का संचार कम होता है। तब तुम आलसी हो जाते हो, और पढ़ने में मन नहीं लगता। तो, कुछ शारीरिक व्यायाम करना आवश्यक है।
३. योग, प्राणायाम, ध्यान और सत्संग में भाग लेना, इत्यादि। इतना करने से तुम्हारे शरीर की सभी आवश्यकतायें पूरी हो जायेंगी। और फिर तुम बैठ कर पढ़ने के लिये अच्छा समय दे सकते हो। इससे तुम्हारी समझने की शक्ति और याद्दाश्त भी बढ़ जायेगी, और तुम कम समय में अधिक ग्रहण कर सकोगे। आगे पढ़ने की तुम्हारे इच्छा है तो पढ़ो, निर्णय तुम्हारा है, और मेरा आशीर्वाद है।
प्रश्न : भगवान शंकर और कृष्ण में क्या फ़र्क है? कुछ लोग शिव की पूजा करते हैं और कुछ लोग कृष्ण की।
श्री श्री रवि शंकर : नाम और रूप अनेक हैं, पर सब एक ही है।
प्रश्न : इनमें से क्या ज़्यादा महत्वपूर्ण हैं - हमारे संस्कार या जाति? जो लोग जातिवाद और धर्मवाद का समर्थन करते हैं, अन्तर्जातीय विवाह का विरोध करते हैं। दोनों में क्या अधिक महत्वपूर्ण है - मानवीय गुणं या व्यक्ति का धर्म और जाति?
श्री श्री रवि शंकर : मानवीयता को अधिक महत्व देना चाहिये।
प्रश्न: क्या विवाह संबंधों से पहले जन्म-पत्री मिलानी चाहिये? क्या इस में विश्वास करना चाहिये? क्या मांगलिक होने से कोई फ़र्क पड़ता है?
श्री श्री रवि शंकर :> ये विज्ञान है, पर ये इस पर निर्भर करता है कि बताने वाला कैसा है। कई बार ज्योतिष के नाम पर लोग ठग लेते हैं। जन्म-पत्री मिलाने में कुछ तो है, अगर तुम्हे लगे तो कर सकते हो । ॐ नमः शिवाय का जप करना सब कमियों का उपाय है।
प्रश्न : आप हमारे Art of living के गुरु हैं, पर परिवार में भी गुरु हैं, पारंपरिक धार्मिक क्रियायें हैं, उपासना की अलग पद्दति है, क्या हमें उन्हें भी निभाना चाहिये?
श्री श्री रवि शंकर : देखो, अगर परिवार में एक परंपरा चली आ रही है बहुत समय से तो उसे करने में क्या हर्ज है? पारिवारिक परंपराओं को निभाना चाहिये।
प्रश्न : असफलता को कैसे स्वीकार करें?
श्री श्री रवि शंकर : ये जान कर कि ये भविष्य में सफलता की तरफ़ एक कदम है।
प्रश्न : कोर्स करने के बाद आप तीन बार मेरे सपने में आये। दूसरी बार जब आप सपने में आये तो मैंने देखा कि अब आप इस दुनिया में नहीं रहे।
श्री श्री रवि शंकर : ठीक है। इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता है। अभी उस बात को होने में बहुत समय बाकी है!
प्रश्न : Art of Living में बहुत सारे अध्यापक हैं जो कि प्रेरणास्रोत हैं। अच्छा अध्यापक होने के लिये क्या योग्यता चाहिये?
श्री श्री रवि शंकर : हाँ, टीचर्ज़ ट्रेनिंग ले लो, और अच्छी तरह से अपने आप को तैयार कर लो।
प्रश्न : मेरे गुरु होने के लिये धन्यवाद। मैं एक सिख हूँ, और हमारे धर्म में हमारे अंतिम गुरु ने कहा था कि अब कोई गुरु नहीं होगा, गुरु ग्रंथ साहिब ही गुरु का स्वरूप है। तो, मेरे परिवार के लोग नहीं चाहते कि मैं किसी को गुरु मानूँ। मैं उन्हें कैसे समझाऊं?
श्री श्री रवि शंकर : सब ठीक है। वाहे गुरु वाहे गुरु कहो। जो भी धर्म है उन्हें वो निभाने दो, पर वो कोर्स कर सकते हैं और सब से मित्रता कर सकते हैं।
प्रश्न : Art of living के कुछ स्वयंसेवी आपके आशीर्वाद से राजनीति में जाना चाहते हैं।
श्री श्री रवि शंकर : हाँ, ठीक है। उन्हें राजनीति में जाना चाहिये। राजनीति की सफ़ाई करनी चाहिए जैसे कि Art of Living के स्वयंसेवियों ने यमुना की सफ़ाई की!
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