परम् पूज्य श्री श्री रविशंकरजी
के द्वारा
विश्व का हर पहलू चेतना की
अभिव्यक्ति है। इस विश्व में हर चीज गतिशील है। पर्वत भी स्थिर नहीं है। हर अणु का
गतिशील स्वभाव होता है। वे सब विकास के कुछ चरण से गुरजते हैं।
पूरी सृष्टि
पांच तत्वों और दस इंद्रियों से बनी है। पाँच अंग अनुभव के लिए और पाँच अंग कार्य करने
के लिए होते हैं। यह सारी सृष्टि आपको सुख और सहायता देने के लिए होती है। जो कुछ आपको
सुख देता है, वह आपको राहत भी देगा। नहीं तो अत्याधिक सुख भी पीड़ा
बन जायेगा। मैं आपको एक उदाहरण देना चाहूंगा। आपको सेव की कचौड़ी पसंद होगी परन्तु एक समय में पाँच कचौड़ी आपके
लिए काफी अधिक होगी। जो चीज आपको सुख दे रही है, वही आपको पीड़ा देगी। सारी
सृष्टि आपको सुख और मुक्ति देती है। आपको इन सबसे किसी क्षण तो मुक्त होना ही है नहीं
तो सुख पीड़ा बन जाता है।
जिन लोगों
का ज्ञानोदय हो गया है, उनके लिए इस दुनिया का अस्तित्व अलग होता है| उन लोगों की तुलना
में, जिनका ज्ञानोदय नहीं हुआ है परन्तु यह दुनिया विरोधाभास के साथ
अस्तित्व में बनी रहती है। जो ज्ञान में जागृत हो चुका है उसके लिए कोई पीड़ा नहीं
रह जाती है। उसे यह दुनिया बिलकुल अलग लगने लगती है। उसे इस दुनिया का हर छोटा अंश
आनंद से भरा हुआ लगता है या स्वयं का हिस्सा लगता है। परन्तु अन्य लोगों को वह वैसा
लगता है, जैसा उसका अस्तित्व है।
आपका शरीर
तीन गुणों से बना है- सत्व, रजस और तमस और आपके विचार और व्यवहार
के स्वरूप में उसके अनुसार परिवर्तन होता है। तमस से सुस्ती, निद्रा और आलस का सृजन होता है और राजस गुण से बेचैनी,
इच्छा और वेदना
उत्पन्न होती है। यदि मन पर सत्व प्रबल है तो वह आनंदपूर्ण, सतर्क और उत्साहपूर्ण होता है। जब यह गुण अपने स्वभाव के जैसा कार्य करता है तो
फिर कई विशिष्ट गुण प्रबल हो जाते हैं। आप में जो भी प्रवृत्ति उत्पन्न हो रही है उसका
अवलोकन करें और यह न सोचें कि आप वह प्रवृत्ति है।
एक कहानी
है; एक महान संत थे जो हिमालय पर रहते थे। वह जहाँ पर भी जाते थे उनका मुफ्त में आवागमन
होता था। लोग उनसे प्रेम करते थे और उनका स्वागत करते थे। हर दिन वह संत राजा के महल
में दोपहर का भोजन ग्रहण करने जाते थे। रानी उन्हें सोने की थाली और कटोरे में भोजन
परोसती थी। वे भोजन करने के उपरांत, निकल जाते थे। एक दिन भोजन
के उपरान्त उन्होने एक चांदी का ग्लास और सोने का चम्मच अपने पास रखा और निकल गये उन्होंने
किसी को नहीं बताया कि उन्हें उसकी आवश्यकता थी।
महल में लोग अचंभित थे “कि संत को क्या हुआ है? उन्होंने कभी कोई भी चीज इस तरह से
नहीं ली तो फिर आज क्या हुआ, और उन्होने किसी को बताया भी नही?” यह सब सोच रहे थे। तीन दिन के उपरान्त
उन्होंने वह चीजें वापस ला दी। यह और भी आश्चर्यजनक घटना थी|
राजन ने कुछ बुद्धिमान लोगों
को बुलवाया और संत के इस व्यवहार की समीक्षा करने को कहा। पंडितों और विद्वानों ने
यह जांच की उस दिन संत को भोजन में क्या परोसा गया था उनको यह पता चला की कुछ खाघ चोरों
और डकैतों से जप्त किया गया था, उसे पकाने के उपरान्त उसे संत को परोसा गया जिसके कारण
उन्होंने चोरी करी।
इसलिए पीड़ा
के मूल कारण को दूर करने के लिए निश्चित समझ की आवश्यकता होती है। शरीर, मन और सम्पूर्ण विश्व हर समय परिवर्तित हो रहा है। सारे ब्रम्हाण का तरलता जैसा
स्वरूप है। यह निश्चित ज्ञान है कि मैं सिर्फ शरीर नहीं हूँ मैं स्वमेय हूँ। मेरे चारों
ओर की दुनिया में आकाश है। मैं अविनाशी हूँ, मैं अछूता, बेदाग हूँ। शरीर का हर कण बदल रहा
है और मन भी बदल रहा है।
यह निश्चित ज्ञान ही इस चक्र
से निकलने का तरीका है।
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