एक प्रेमी आनंदपूर्ण, शांत और उदार होता है!!!


११.०१.२०१२, बैंगलुरू आश्रम
सत्संग मतलब सत्य के साथ रहना| यह साधना भी कहलाता है|
सत्संग क्या है? हमारे जीवन में इस वर्तमान समय में सत्य क्या है; यह देखने की ज़रूरत है|
सत्य क्या है? मैं हूँ ही सत्य है|
शरीर का अस्तित्व है और साँस चल रही है| अपने शरीर और साँस पर ध्यान ले जाईये| अपने मन पर ध्यान ले जाईये| सत्य क्या है? मन में बहुत से विचार आ रहें हैं और जा रहें हैं| आ रहें है, जा रहें हैं, उठते हैं, और फिर शांत हो जाते हैं, मन की यही प्रवृत्ति है|
बुद्धि में कुछ तर्क वितर्क चल रहा है|
जीवन में क्या निर्णय थे? उनके क्या परिणाम थे? क्या सीखा था और क्या निष्कर्ष निकला? इन बातों पर विचार करना ही सत्संग है|
सिर्फ भजन करना ही सत्संग नहीं है| भजन करना भी सत्संग है, लेकिन सिर्फ वही नहीं है|
बैठिये और सोचिये, मैंने अपनी जिंदगी में क्या क्या सत्य खोजे हैं? मेरी कमियां क्या हैं और मेरी शक्तियां क्या हैं?
ध्यान दीजिए, कि किस तरह आपकी कमियां कम हो रहीं हैं, और शक्तियां बढ़ रही हैं| यही साधना है और यही वह सत्संग है जिसमें आपको रहना है|
आपका विवेक जागृत हो रहा है; पहले वह कम था, अब वह एक प्रतिशत ज्यादा हो गया है! इसलिए जीवन में प्रगति है| भले ही धीमे या जल्दी, मगर हो रही है|
जब आपका सारा ध्यान दुनिया पर है, तब आप भगवान को नहीं देखेंगे| और जब भगवान दिखाई दे रहें हों, तब दुनिया अदृश्य हो जाती है| आप दोनों में से एक को ही देख सकते हैं|
दुनिया को २४ घंटे पकड़ने के बजाय अगर आप भगवान का स्मरण सिर्फ २४ मिनट भी करेंगे तो उससे इतनी सांत्वना और आराम मिलता है| आप जीवन में जो भी कुछ करें, दिन के चौबीस घंटों में से कम से कम चौबीस मिनट, अगर आप शांत बैठें और सोचें, यह दुनिया कुछ नहीं है, मैं इससे कुछ नहीं चाहता| मेरी इस दुनिया से कोई उम्मीद नहीं है बस एक यही विचार मन को अंदर खींच लेता है|
मन का रुख अंदर की तरफ तब तक नहीं होगा, जब तक हम किसी पद, प्रतिष्ठा की, धन संपत्ति या फिर किसी से प्रशंसा की इच्छा रखेंगे| जब तक हम मन में कोई भी इच्छा रखेंगे, तो लालसा बनी रहेगी| अगर सिर्फ थोड़ी ही देर के लिए, हम कहें, मुझे इस दुनिया से कुछ नहीं चाहिए, तब उस समय विवेक जागृत होता है और मन खुश और शांत हो जाता है|
यह भगवान की दृष्टि का भी सूचक है: प्रसंतमानासम ह्येनं योगिनां सुखम उत्तमं उपैति संत राजसं ब्रह्मभूतम अकल्मासम
ब्रह्म चेतना, अज्ञानता, भ्रम या जहाँ कोई अशुद्धि नहीं है, ऐसी जागरूकता, थोड़ी देर के लिए हमारे अनुभव में आती है|
तो जब तक आप यहाँ ३-४ दिन के लिए हैं, तो दुनियादारी के किस्सों को छोड़ दीजिए, मन में मोह और द्वेष को छोड़ दीजिए| अगर वे आयें, तो उनकी परवाह मत करिये| जब वे आयें, बस उन्हें समर्पण कर दीजिए| बस इतना याद रखिये, कि वे जाने के लिए ही आयें हैं| यह जानते हुए, और स्वयं को इस सबसे विमुख रखते हुए, हमें अपने अंदर विश्राम करना चाहिए|
अगर हम इस सजगता से बैठें, शायद एक बार नहीं, दो या तीन बार या कुछ समय बाद, मन शांत हो जाएगा|

प्रश्न: गुरूजी, सत्य का अस्तित्व है, फिर उसके प्रमाणीकरण की क्या आवश्यकता है?
श्री श्री रविशंकर: प्रमाण माँगना मन की विशेषता है| भावनाएँ प्रमाण नहीं मांगतीं, मन मांगता है| मन की तसल्ली के लिए, और उसे शांत करने के लिए प्रमाण की ज़रूरत होती है| मगर सिर्फ उसे पकड़ कर रखना भी एक बाधा है| इसीलिए, मन की प्रवृत्तियों में प्रमाण, विपर्यया, विकल्प, निद्रा, स्मृति, ये सब प्रवृत्तियां मानी जाती हैं, और इन सबसे अलग होना पड़ता है| इन पर संयम ही योग है| आप प्रमाण को खारिज नहीं कर सकते| क्योंकि जब तक बुद्धि है, वह प्रमाण तो मांगेगी ही| और इसे खारिज करने की ज़रूरत भी नहीं है| बस इसके प्रति सजग हो जाएँ, और आगे बढ़ें|
योग बुद्धि परतात्त्व सह, आत्मा या ईश्वर तत्व बुद्धि के परे है|

प्रश्न: गुरूजी, मध्यप्रदेश में मुस्लिम नेताओं ने सूर्य नमस्कार के विरूद्ध फतवा जारी कर दिया है| क्या आप इस पर टिप्पणी कर सकते हैं?
श्री श्री रविशंकर: शायद उन्हें लगता है कि सूर्य ईश्वर या अल्लाह से अलग है| ऐसा नहीं है| नमस्कार का मतलब क्या? धन्यवाद देना| इसको ऐसे समझना चाहिए|
सूर्य को और पृथ्वी को धन्यवाद दीजिए| प्रकृति में सभी कुछ, घास से लेकर सूर्य तक, जीवन के लिए लाभकारी हैं| जो भी जीवन के लिए लाभकारी है, हम उसके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हैं| आपको सूर्य को भगवान मानने की ज़रूरत नहीं है| फिर भी, सूर्य वह शक्ति है, जो हर एक चीज़ को सहारा देती है, और इस सूर्य का निर्माणकर्ता वह एक ईश्वर ही है|
हम कहते हैं, कि इस टेलीफोन या मोबाइल के अविष्कार से हम सबको बहुत आराम मिला है| जब हम फोन का शुक्रिया करते हैं, तब हम किसी निर्जीव वस्तु के प्रति कृतज्ञ नहीं हैं, बल्कि उस व्यक्ति के प्रति हैं, जिसने उसका अविष्कार किया|
इसीलिए हम कहते हैं,सर्व देव नमस्कारम केशवं प्रति गच्छति, कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि आप किसको धन्यवाद करते हैं, सारी कृतज्ञता सिर्फ एक और एक ईश्वर को जाती है| यहीं बात है|
सूर्य नमस्कार कुछ आसनों की श्रेणी है, जिसे सूर्योदय के समय किया जाता है, इससे शरीर के रक्तसंचार में सुधार होता है, सेहत अच्छी रहती है और व्यक्ति निरोग रहता है| तो इस तरह सूर्य नमस्कार के बहुतेरे लाभ हैं| हृदय, लीवर, आंतें, पेट, छाती, गला, पैर के लिए| सिर से पांव तक शरीर का हर एक अंग सूर्य नमस्कार से लाभान्वित होता है|
कितने सारे मुस्लिम भाई हैं, जिन्होंने सूर्य नमस्कार से इतना लाभ उठाया है| दुनिया भर में लोग सूर्य नमस्कार कर रहें हैं और अपनी सेहत अच्छी कर रहें हैं| उनकी नेत्र दृष्टि अच्छी हो रही है| तो मैं नहीं मानता कि मुस्लिम समुदाय को इससे वंचित रखना न्याययुक्त होगा|
जिस चीज़ से सेहत अच्छी होती है और लोगों की भलाई होती है, तो समाज में किसी को भी उसका अभ्यास करने से रोकना उचित नहीं है|
हमें समझना चाहिए, कि इस दुनिया में सिर्फ एक ही ईश्वर है, दो नहीं हैं| जब दो नहीं हैं, तो ये मात्र उसे पूजने के अलग अलग माध्यम हैं| अगर आप उसे पूजा करने का माध्यम भी नहीं मान सकते, तो कम से कम उसे मात्र एक व्यायाम की तरह मानें| और मुझे नहीं लगता कि वह ईश्वर की निंदा होगी|

प्रश्न: गुरूजी, अगर हम अपने पूर्व जन्मों के कर्म के फल इस जन्म में मिल रहें हैं, तो हमें इस जन्म के कर्मों के फल कब प्राप्त होंगे?
श्री श्री रविशंकर: ये ऐसे नहीं होता है! हमारे कुछ कर्मों के परिणाम इस जन्म में भी अनुभव होते हैं|
मैं आपको एक उदाहरण देता हूँ जब आप मूंग दाल भिगोते हैं, तो दो-तीन दिन में वह अंकुरित होती दिखने लगती है| अगर आप मूंगफली बोते हैं, तो तीन से चार महीने में उसमे मूंगफली आती है| लेकिन, अगर आप नारियल का पेड़ लगाते हैं, तो उसमे फल लगने में तीन से चार साल लग जाते हैं, और अगर आम का पेड़ लगाते हैं, तो उसमे और अधिक समय लगता है| इसी तरह, कुछ कर्मों का फल आपको फ़ौरन मिल जाता है| जैसे अगर आप अपना हाथ आग में डालेंगे, तो वह फ़ौरन जल जायेगा, कल नहीं जलेगा| लेकिन अगर आप खेत में अनार का पेड़ लगाते हैं, तो उसे फल देने में कुछ समय लगेगा| तो कुछ कर्मों का फल फ़ौरन मिल जाता है, जबकि कुछ कर्म कुछ समय बाद फल देते हैं|
उदाहरण के तौर पर, अगर कोई एक फैक्ट्री लगाना चाहता है, तो भगवान जाने उन्हें कितना समय लग जाता है| आज कल तो लाइसेन्स मिलने में ही इतना समय लग जाता है| आपको फैक्ट्री लगानी है, और दस लाइसेन्स की ज़रूरत पड़ती है और उस बीच, आपको कितने लोगों को घूंस देनी पड़ती है|
हम जैसे लोग जो घूँस देने से इनकार करते हैं, उन्हें तो बीस साल रुकना पड़ेगा लाइसेन्स पाने के लिए| तो जो व्यक्ति इतनी मेहनत के बाद फैक्ट्री लगता है, उसके बच्चे उसकी मेहनत का फल पाते हैं| अपनी जिंदगी में तो वह मुश्किल से खर्चा चला पाता है| सारे अच्छे और ईमानदार व्यापारी, उनमें से शायद ही कोई ऐसा होगा जिसका व्यापार चुटकी में स्थापित हो गया| काफी व्यापारों को स्थापित होने में कई कई दशक लग जाते हैं | दस, बीस, पचास साल बाद किसी को अपनी मेहनत का फल मिलता है|

प्रश्न: गुरूजी, क्या यह सही है कि पति पत्नी का रिश्ता सात जन्मों तक होता है? अगर यह सही है, तो मुझे इसी जन्म में मोक्ष चाहिए, नहीं तो सात जन्मों में बहुत कुंठाग्रस्त हो जाऊँगा!
श्री श्री रविशंकर: मेरे प्रिय, आपको यह कैसे पता कि यह पहले से ही आपका सातवाँ जन्म नहीं है! यह छंटा या पहला भी हो सकता है| प्रार्थना करिये! अपनी पत्नी से भी पूछिए, कि वे कैसी हैं| अगर आप इतना परेशान हैं, तो अपने पार्टनर से भी पूछिए कि वे कितनी परेशान या खुश हैं| यह तो असंभव है, कि एक परेशान हो और एक खुश हो| दोनों ही परेशान होते हैं| जो भी है, उसका उत्सव मनाईये|

प्रश्न: गुरूजी, आप भगवान हैं| क्या आप भी क्रिया करते हैं?
श्री श्री रविशंकर: कभी कभी! अगर मुझे किसी को सिखाना है, तो कम से कम मुझे याद तो होनी चाहिए!

प्रश्न: गुरूजी, जब आपको सुदर्शन क्रिया प्राप्त हुई थी, तब वह कौन सा प्रथम व्यक्ति था जिसको आपने उसका अनुभव कराया?
श्री श्री रविशंकर: हाँ, सबसे पहले, कुछ लोग थे, यही कुछ पचास के आसपास| वे सब आये थे और सुदर्शन क्रिया का अनुभव किया था|

प्रश्न: गुरूजी, मेरा मन दुविधा में है और व्याकुल है| जब आँखें आपको देखना चाहती हैं, तब आप ध्यान करने के लिए आँखें बंद करवा देतें हैं| यहाँ आने से पहले आपने हमारा मौन शुरू करा दिया, और मौन तोड़ने से पहले आप जा रहें हैं| हमारे बारे में सोचिये गुरूजी, मन बहुत दुखी है|
श्री श्री रविशंकर: तीव्र इच्छा ही भगवान है| बहुत अच्छा है कि आपमें तड़प है| और यह तड़प ऐसी होती है, कि इसका कोई समाधान नहीं है| यह कभी फीकी नहीं पड़ती| यह प्यास ही ऐसी है, कि यह कभी बुझ नहीं सकती|

प्रश्न: गुरूजी, क्या आपकी माताजी आपको डांटती थी? कृपया मुझे बताएं कि मैं अपना गुस्से पर कैसे काबू रखूँ? मैं अपनी माँ पर बहुत गुस्सा हो जाता हूँ|
श्री श्री रविशंकर: हाँ, मेरी माँ भी मुझे बहुत डांटती थीं| एक काम करिये| हर दिन जाईये, और अपनी माँ के पैर छूइए| अगर आप एक दिन उन पर गुस्सा करेंगे, तब भी आपको अगले दिन प्रणाम तो करना ही है| अगर आप हर दिन अपनी माँ के पैर छूएंगे और उनका आशीर्वाद लेंगे, तो हर दिन का गुस्सा उसी दिन पिघल जाएगा|

प्रश्न: गुरूजी, जब से मैं आर्ट ऑफ लिविंग को ज्यादा समय देने लगा हूँ, ऐसा लगता है कि मेरी पत्नी को इससे भयंकर ईर्ष्या हो गयी है| इसका क्या समाधान है?
श्री श्री रविशंकर: आपको पता है कि साइकिल कैसे चलाते हैं? उसी तरह जिंदगी की गाड़ी चलाईये! जीवन में संतुलन बना के चलिए| जो आपको पसंद है वह करिये, लेकिन दूसरे लोगों को जो पसंद है, वह भी करिये|

प्रश्न: गुरूजी, क्या आप कृपया योग वशिष्ठ की व्याख्या भी कर सकते हैं, जैसे आपने अष्टवक्र गीता पर करी है? बहुत बार पढ़ते हुए, उसके कुछ भागों को समझना काफी कठिन होता है|
श्री श्री रविशंकर: हाँ, आपको उसे पढ़ते रहना है| आपको एक बार पढ़ के योग वशिष्ठ समझ नहीं आएगी| जैसे जैसे आपकी सजगता बढ़ती है, आपको और ज्यादा समझ आने लगेगा| तो इसलिए आपको उसे निरंतर पढ़ते रहना है, पढ़ते रहिये| बार बार पढ़ने से, नए विचार खिलने लगते हैं|

प्रश्न: कहते हैं, कि विजेता हमेशा अलग खड़े रहते हैं| अगर आप सबसे ऊंचाई पर अकेले खड़े हैं, तो क्या वह वास्तव में विजय है?
श्री श्री रविशंकर: सबसे पहले तो यह ऊंचाई और निचाई की धारणा अपने मन से निकाल दीजिए| हर जगह अपने आप में अनोखी है| अगर किसी ने आपको चोटी पर रखा है, तो यह उन सबकी मेहनत है जो खुद नीचे हैं| वे नींव हैं|
एक बिल्डिंग में, सबसे ऊपर वाली मंजिल उतनी महत्वपूर्ण नहीं है, जितना उसका निचला खंड| अगर निम्नतल (बेसमेंट) मज़बूत है, तो ऊपर कितनी ही मंजिलें खड़ी कर लीजिए| तो इसलिए, अगर आप चोटी पर हैं, तो पूरी तरह से नम्र रहिये| उस विनम्रता का होना ज़रूरी है, सिर्फ तभी आप चोटी पर हैं|
आप जितना ऊपर जाते हैं, उतने नम्र बनते हैं| नम्रता ही सफलता की निशानी है| और जब नम्रता होती है, तब कोई बाधा नहीं होती| सब कुछ अपने आप ही सहजता से होते जाता है|

प्रश्न: मैं अकसर सोचता हूँ, कि भगवान ने हमें इतना जटिल क्यों बनाया है? पहले तो हमें एक ऐसा मन दिया जो भटकता है, और फिर हम उसे वश में करते हैं| पहले से ही वश में किया हुआ मन क्यों नहीं दिया?
श्री श्री रविशंकर: आप इतने आलसी क्यों हैं, कि आप कुछ करना ही नहीं चाहते? प्रकृति चाहती है कि आप कुछ करें, कोई जिम्मेदारी लें|
यह तो आप ऐसे पूछ रहें हैं, आप जिगसॉ पहेली क्यों बना रहें हैं? बनी बनाई ले आईये, जिसमें सब पहले से जुड़ा हो| जिगसॉ पहेली है आपके खेलने के लिए, ताकि आप उसे जोड़े और उसका कुछ बनाएँ| जीवन भी ऐसा ही है| एक खेल है और मन सबसे बड़ा खिलाड़ी है|

प्रश्न: गुरूजी, आपने हमें बताया है, कि रिश्ता कैसे बनाया जाता है| कृपया यह बताईये, कि रिश्ते से बाहर कैसे आया जाता है?
श्री श्री रविशंकर: आप तो उससे बाहर आ ही चुके हैं! जब आप उससे बाहर आना चाहते हैं, तो वह तो चला ही गया है, हो ही चुका है! है न?
असली बात है, कि आप अपना सम्बन्ध इस ब्रह्माण्ड और दैवियता से बना लें| अगर दैवियता से आपका रिश्ता है, तो आपका हर एक के साथ रिश्ता है| तब किसी के साथ रिश्ता जोड़ने या तोड़ने का सवाल ही नहीं उठता| रिश्ता तोड़ने की कोशिश में भी, कोई बुरी तरह फँस सकता है| जितना मन तोड़ने की कोशिश करता है, उतना ही वह उस रिश्ते में खिंचता है, और दर्द पाता है| आप न छोड़ना चाहते हैं, और न रहना चाहते हैं|
छोड़ने में आपको लगेगा जैसे कोई आराम छूट रहा है, और रहने में दर्द इतना होता है कि रहा नहीं जाता| इसलिए बेहतर है, कि सिर्फ एक के साथ रिश्ता बनाया जाए| ऐसा करने से, बाकी सब के साथ अपने आप रिश्ता बन जाता है|

प्रश्न: गुरूजी, आप कहते हैं कि हम आपके साथ इस दुनिया में बहुत बार आये हैं, और फिर बिछड गयें हैं; बस इतना है कि हम भूल गयें हैं, लेकिन आपको याद है| क्या बिछड़ने पर आपको दर्द नहीं हुआ?
श्री श्री रविशंकर: मैं आपसे कहाँ बिछड़ा हूँ? नहीं तो आप मेरे कैसे होते? यहाँ कोई पराया नहीं है| मेरे अलावा और कोई नहीं है, बस मैं हूँ और मैं ही हूँ|

प्रश्न: गुरूजी, जब मैं अपने घनिष्ट दोस्तों के साथ होता हूँ, और वे हमेशा दूसरों को दोष देते रहते हैं, तब में क्या करूँ? वे कहते हैं कि वे बातें मिल बाँट रहें है, लेकिन मैं उन्हें बिल्कुल भी नहीं सुनना चाहता| क्या करूँ?
श्री श्री रविशंकर: कानों में रुई लगाकर उनकी बातें सुनिए| वे कहना चाहते हैं, क्योंकि उन्हें हल्का महसूस होता है, तो इसलिए उन्हें कहने दीजिए| आप उस सबको अपने अंदर मत लीजिए| ये ज़रूरी है|

प्रश्न: गुरूजी, आप सबको प्यार करते हैं| फिर मुझे ऐसा क्यों लगता है कि आप सबसे ज्यादा मुझे प्यार करते हैं?
श्री श्री रविशंकर: यह एक गुप्त बात है| किसी को मत बताईये| यह सच है, मगर ये सबके साथ बाँटने के लिए नहीं है! यही परम सत्य है !

प्रश्न: गुरूजी, मैं एक लड़की से प्रेम करता हूँ, जो महंगे तोहफे मांगकर मुझे अपने प्यार का प्रमाण देने को कहती है| आपने कहा था कि प्यार मुफ्त होता है, मगर मुझे तो यह बहुत महंगा पड़ रहा है!
श्री श्री रविशंकर: आप सबक सीख लीजिए! प्यार और दोस्ती क्या होती है, आप कुछ दिनों में सीख जायेंगे, जैसे आप बड़े होंगे| शायद वो आपको परख रही है, कि आप कितना न्योछावर कर सकते हैं| प्यार थोड़ा त्याग तो मांगता ही है| तो हो सकता है, कि वह देखना चाहती हो, कि आप कितने कंजूस या उदार हैं| सच्चा प्रेमी कभी भी लोभी नहीं हो सकता| एक प्रेमी तो आनंदपूर्ण, शांत और उदार होता है| लेकिन इसका मतलब यह नहीं है, कि आप अपना सब कुछ लुटा दें| अपना विवेक भी लगाये|

प्रश्न: (अश्राव्य )
श्री श्री रविशंकर: मैंने जो भी कहा आप वह सुन भी रहें हैं और पूछ भी रहें हैं और| अगर आपके अंदर कोई चेतना नहीं थी, तो फिर आप यह प्रश्न कैसे पूछ पाए? आप कैसे देख पाए, सुना और समझा कैसे? वह जो आपके भीतर बैठा सुन रहा है, समझ रहा है, साक्षी है, अनुभव कर रहा है, वह चित्त है|
मन, बुद्धि, स्मृति, अहंकार, शरीर और प्राण का मुख्य बिजलीघर है; ऊर्जा की वह लहर ही चेतना है| जो है वही सत्य है|
आपका अस्तित्व है न, सही है? इस बिल्डिंग का अस्तित्व भी है? यह बिल्डिंग सत्य है| लेकिन ऐसा नहीं लगता कि जो बोला जा रहा है उसे ये खम्भे सुन पा रहें हैं, इसलिए इस बिल्डिंग में चेतना नहीं है|
हालाँकि, हम ऐसा कह नहीं सकते, क्योंकि थोड़ी थोड़ी चेतना तो सबमें होती ही है, पत्थरों में भी होती है| लेकिन आपमें, चेतना ज्यादा स्पष्ट है| पेड़ों में थोड़ी कम स्पष्ट होती है, जबकि पेड़ पौधे सुन सकते हैं| लेकिन आपमें चेतना कहीं ज्यादा है|
जब वह चेतना आनंद में परिवर्तित हो जाती है, तब वह होता है परमात्मा| इस ब्रह्माण्ड में केवल सत्य है| चेतना के भीतर, ब्रह्माण्ड और जीवन दोनों का अस्तित्व है| और ईश्वर में, सत्य, चेतना और आनंद, ये तीनो मौजूद हैं| और आनंद हमारे भीतर छुपा है| साधना के द्वारा वह आनंद फूट पड़ता है|
जो ईश्वर आपके अंदर सोया हुआ है, छुपा हुआ है, उसे जगाईए!
इसी को जागरण कहते है| माता को जगाना, आपके अंदर बैठी हुई माता, उन्हें जगाईए! शिव जी आपके अंदर बैठे हैं, उन्हें जगाईए| श्री हरि आपके अंदर बैठे हैं, उन्हें भी जगाईए!

प्रश्न: गुरूजी, अध्यात्म के मार्ग पर कौन सा दृष्टिकोण बेहतर है, वैराग्य या जोश?
श्री श्री रविशंकर: दोनों आवश्यक हैं| इसीलिए, भगवान श्री कृष्ण ने पहले अर्जुन में जोश जगाया, यह कहकर कि, देखो, लोग क्या कहेंगे? वे कहेंगे, यह कितना बड़ा डरपोक है| अपमान की जिंदगी जीने का क्या फ़ायदा; बेहतर होगा कि मर जाओ| फिर उन्होंने कहा, क्या एक क्षत्रिय के लिए यह उचित है कि वह इस तरह बैठा रहे? एक तरफ तुम रो रहे हो, काँप रहें हो और दूसरी तरफ तुम बड़े ज्ञानी की तरह बात कर रहे हो| क्या धर्म के बारे में बात करते हुए कोई काँपता है?
भगवान श्री कृष्ण ने आगे कहा, तुम किस प्रकार के व्यक्ति हो? मैं तो तुम्हें बहादुर और शूरवीर समझता था| और तुम ऐसे व्यवहार कर रहे हो? तुम कह रहे हो, कि तुम्हें यह सब कुछ नहीं चाहिए!
ऐसे तानों के साथ भगवान श्री कृष्ण अर्जुन के अंदर के जोश और ज्वाला को जागते हैं|
फिर भगवान श्री कृष्ण आगे कहते हैं, यह सब कुछ नहीं है| अनित्यम असुख़म लोकं! यह दुनिया नश्वर है, यह सदैव नहीं रहती| सब कुछ विनाश की ओर जा रहा है| इसलिए दुनिया से कोई उम्मीद नहीं रखना|
ऐसा कहते हुए, भगवान श्री कृष्ण धीरे से अर्जुन को वैराग्य में ले आये|
उन्होंने जोश और वैराग्य दोनों जगाए, और फिर कहा, अब जाओ और लड़ो| अर्जुन में उन्होंने कितना ज़बरदस्त लड़ने का जोश जगाया| उत्साह में, काम करने का जोश हो; वैराग्य के साथ उसे जोड़कर उन्होंने जो मार्ग दिखाया वह अद्भुत था!

प्रश्न: गुरूजी, जिनको इस जन्म में गुरु मिल गए हैं, किसी कारणवश अगर उन्हें मुक्ति नहीं मिल पाती है, तो क्या अगले जन्म में उन्हें गुरु मिल पाते हैं, या वे इधर उधर भटकते हैं?
श्री श्री रविशंकर: नहीं, नहीं! अर्जुन ने भी यही प्रश्न पूछा था, क्या होगा यदि मैं इस जन्म में योग के इस मार्ग पर नहीं चल पाऊंगा?
तब भगवान श्री कृष्ण ने कहा था, नहि कल्याण कृत कश्चित दुर्गतिम तात गच्छति ,जो अच्छे कर्म करता है, वे कभी भी नीचे नहीं जा सकता, वह कभी भी कष्ट नहीं भोगेगा, न इस दुनिया में न किसी और दुनिया में| तुम हमेशा अस्तित्व के ऊंचे स्तरों पर ही उठोगे| तुम एक अच्छे धनी परिवार में ही जन्म लोगे, और अपने पुराने जन्मों की स्मृतियों के कारण, तुम वही से शुरुआत करोगे, जहाँ तुमने छोड़ा था| इसलिए परेशान मत होइये| आपकी क्रिया और साधना कभी निष्फल नहीं जायेगी|

टिप्पणी: गुरूजी, मैंने सपनों में स्वर्ग देखा था, और सोचता था, कि पृथ्वी से जाने के बाद मैं स्वर्ग जाऊँगा| लेकिन आश्रम आने से पहले मैंने उम्मीद नहीं करी थी कि मुझे इस धरती पर ही स्वर्ग मिल जाएगा|
श्री श्री रविशंकर: बिल्कुल सही! बस तृप्त रहिये| यह स्वर्ग से भी उत्तम है| ऐसा कहते हैं कि स्वर्ग में प्रेम नहीं होता, जबकि बाकी सब कुछ होता है| यहाँ प्रेम और ज्ञान दोनों ही मौजूद हैं|

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