प्रार्थना की शक्ति


परम पूज्य श्री श्री रविशंकर जी के द्वारा
कई बार लोग कहते हैं कि एक सफल पुरूष के पीछे महिला होती है। परंतु मैं कहता हूँ हर सफलता के पीछे दैव की एक कहावत है ‘‘मैं तुम्हारे पीछे हूँ’’। जब आप उनकी प्रार्थना करते हैं और उनको पुकारते हैं तो आप में दैव का भोर होता है।
आपको प्रार्थना करने के लिए कोई विशेष योग्यता या सामर्थ की आवश्यकता नहीं होती है, आप ज्ञानी व्यक्ति हैं या नहीं, या आप धनी हैं या निर्धन हैं परंतु तब भी आप प्रार्थना कर सकते हैं।
प्रार्थना आपकी जिदंगी को सुधारने के लिए एक महत्वपूर्ण शस्त्र है। यदि आप महसूस करते हैं कि यदि किसी रूकावट से मुकाबला करना काफी कठिन है तो गहरी प्रार्थना कई बार चमत्कार कर सकती है। आप जो कर सकते हैं, वो आप करते हैं। जो आप नहीं कर सकते हैं, आप उसके लिए प्रार्थना कर सकते हैं! जब भी आप कुछ करते हैं, तो ये जान लें कि सर्वोत्तम शक्ति ही अंतिम हैं और आप उस सर्वोत्तम शक्ति से अपनी प्रार्थना के द्वारा संपर्क में रह सकते हैं।
प्रार्थना का अर्थ यह नहीं होता है कि सिर्फ बैठकर कुछ शब्दों का उच्चारण किया जाये। इसका अर्थ है कि आप स्वच्छ, शांत और ध्यान की अवस्था में हैं। इसीलिये वैदिक पद्धति में प्रार्थना के पहले ध्यान होता है और प्रार्थना के उपरांत भी ध्यान होता है। जब मन केन्द्रित होता है तो प्रार्थना और भी शक्तिशाली हो जाती है।
जब आप प्रार्थना करते हैं तो उसमें आपको संपूर्ण रूप से सम्मिलित होना होता है। यदि मन कहीं और है या मन पहले से ही कहीं व्यस्त है तो फिर वहां प्रार्थना होती ही नहीं है। जब आपको पीड़ा होती है तो फिर वहां आप अधिक सम्मिलित हो जाते हैं। इसीलिये लोगों का प्रार्थना के प्रति झुकाव तभी होता है, जब वे पीड़ा में होते हैं। प्रार्थना आत्मा की पुकार होती है। प्रार्थना तब होती है जब आप आभार युक्त महसूस कर रहे होते हैं या आप अत्यंत कमजोर या निर्बल महसूस कर रहे होते हैं। इन दोनों ही परिस्थितियों में आपकी प्रार्थना का उत्तर दिया जायेगा। जब आप कमजोर या निर्बल महसूस कर रहे होते हैं तो प्रार्थना अपने आप ही हो जाती है। इसीलिये हम कहते हैं ‘‘निर्बल तो बलराम’’ यदि आप कमजोर हैं तो ईश्वर आपके साथ है। प्रार्थना वह क्षण है जब आप अपनी परिसीमा और सीमाओं के संपर्क में आ जाते हैं।
आप किसकी प्रार्थना करते हैं, यह महत्वपूर्ण नहीं है। जैसे धर्म प्रार्थना में शब्द दे देता है और उसमें चिन्ह और धर्माविधि को जोड़ देते हैं परंतु प्रार्थना उन सब को संजोग करके उन सब से परे होती है। ये भावनाओं के सूक्ष्म अवस्थाओं में होता है और भावनायें शब्द और धर्म को संजोए हुए हैं। प्रार्थना करने के कृत्य में ही बदलाव लाने की शक्ति होती है।
अपनी प्रार्थना में सच्चे रहें। और दैव के साथ छल-कपट करने की कोशिश न करें। अधिकतर आप उन्हें वो समय देते हैं जो बच जाता है, जब आपके पास और कोई काम नहीं होता, किसी अतिथि की सेवा नहीं करनी होती है या किसी पार्टी में नहीं जाना होता है, फिर आप दैव के पास जाते हैं। यह उनके पास जाने का उत्तम समय नहीं है। आप अपना सर्वोच्च या श्रेष्ठ समय दैव को दें तो निश्चय ही आपको पुरस्कृत किया जायेगा। यदि आपकी प्रार्थना का उत्तर नहीं दिया जा रहा है तो आपने अपना सर्वोच्च या श्रेष्ठ समय उन्हें नहीं दिया है। यदि आप चाहते हैं कि आपकी प्रार्थनाओं का उत्तर दिया जाये तो आपकी इच्छा अत्यंत ही तीव्र होना चाहिए। तीव्र इच्छा आपको भक्ति की तरफ ले जाती है। भक्ति तब उत्पन्न होती है जब आपमें विश्वास होता है और आप दैव की उपस्थिति का अनुभव अपने आस-पास करते हैं।
आप जो दैव से चाहते हैं उसको पाने की जल्दी ना करें। यदि आपका दैव से वरदान पाने का आशय है, तो आप जल्दी में है परंतु आप यह जानते हैं कि आप स्वयं भगवान हैं, तो फिर आप भगवान से कुछ पाने के लिए जल्दी में नहीं रहते। आपको कुछ पाने की जल्दी आपको अपने संतुलन से अलग कर देती है और आपको बहुत छोटा बना देती है। आजकल की तेज रफ्तार दुनिया में लोग अधिकतर भय और लोभ के कारण प्रार्थना करते हैं। यदि आप किसी से प्रेम करते हैं, तो फिर आप उसे पाना चाहते हैं और उसके लिए आप प्रार्थना करते हैं। सही प्रार्थना, यद्यपि इसका उल्टा है जिसमें आप कुछ भी पाना नहीं चाहते। यह सब कुछ दैव के प्रति सम्मान और दान करना होता है। सम्मान देने से भक्ति आती है जिससे समर्पण उत्पन्न होता है। जीवन के प्रति भक्ति एक अच्छा सम्पर्क लाती है। भक्ति और श्रद्धा प्रार्थना का केन्द्र होते हैं।
भक्ति और श्रद्धा के बिना सही प्रार्थना हो ही नहीं सकती है। श्रद्धा के होने से आप यह महसूस करते हैं कि ईश्वर की सुरक्षा आपके साथ है। भक्ति भीतर के फूल होते हैं। जब तक आप दैव की भक्ति में खिलेंगे नहीं, तो आपका जीवन अशांतपूर्ण होगा। भक्ति में आप में दीर्घता उत्पन्न होगी। और जब दीर्घता होगी तो सही प्रार्थना अपने आप उत्पन्न हो जाएगी।
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