"हमे बच्चों से सीखना भी है और उन्हे सीखाना भी है"

बैंगलोर आश्रम, भारत

श्री श्री द्वारा माता-पिता के साथ वार्ता के अंश

मेरे लिए बच्चों के पालन पोषण की बात करना कठिन है। मुझे इसका कोई अनुभव नहीं है। पर मैं अपने निरीक्षण के अनुसार सुझाव दे सकता हूँ। आप अपने अनुभव से देखें, अगर आप बहुत व्यवस्थित हैं तो बच्चें आपको अराजक बना देते हैं। आपकी सीमाओं को तोड़ने के लिए बच्चे सबसे श्रेष्ठ हैं। मुझे याद है मेरे एक अंकल मुझे और मेरी बहिन को बहुत अनुशासित करते थे। पर जब उनका पुत्र हुआ तो उनके पुत्र ने उनकी सभी सीमाओं को तोड़ दिया। तो आपके बच्चे आपको बहुत कुछ ऐसा सिखा सकते हैं जो शायद अन्य नहीं सिखा सकते। पहली चीज़ जिसपर हमें ध्यान देने की ज़रुरत है कि हम यह देखे बच्चे की क्या प्रवृतियाँ हैं और वो कौन सी दिशा ले रहा है। यह दोनो तरफ की यात्रा है। आप उनसे क्या सीखना चाहते हैं और आप उन्हे क्या सिखाना चाहते हैं? उन्हें अपनी दृष्टि के हिसाब से ढालने की कोशिश मत करो पर आप अपने दृष्टि उनके साथ सांझी करें। अगर वो किसी गलत दिशा में जा रहें हो तो आप बिना अशांत हुए उन्हे समझाएं।हर बच्चा कुछ मूल प्रवृत्तियाँ लेकर इस धरती पर आया है जिन्हे आप बदल नहीं सकते। और वह कुछ ऐसी चीज़ें ग्रहण करता है जिन्हे नियंत्रित किया जा सकता है।
हमे संवेदनशील होने की आवश्यकता है। अगर हम उन्हे झूठ ना बोलने को कहते हैं और घर पर होते हुए आप उन्हे किसी से कहने को कहते हैं कि आप घर पर नहीं हैं, तो आप का उन्हे समझाना पूर्णता व्यर्थ है। बच्चों के सामने विवाद यां झगड़ा करना उनके मन पर और गलत असर डालता है। अगर आप अपने पति/पत्नि के साथ कोई विवाद यां झगड़ा करना चाहते ही हैं तो बच्चों को किसी से काम से बाहर भेंजदे, और यह देखें कि उनके घर पर आने पर आप दोनो में पुन: समझौता हो जाए।
हम बच्चों में किसी को चीज़े ना देने की प्रवृति को उत्साहित करते हैं। एक सीमा के बाद यह घुटन का कारण बन जाता है। उनमें चीज़ों को अपने पास रखने की प्रवृति बन जाती है। यह उनका व्यक्तित्व खिलने में बाधक है। ऐसी छोटी छोटी बातें ही उनका व्यक्तित्व झलकाती हैं। देने और बाँटने का भाव उनका व्यक्तित्व निखारता है। उनमें ऐसी प्रवृत्तियों को प्रेरित करके उनकी अर्जित प्रवृत्तियों को बदला जा सकता है। पर जिन प्रवृतियों के साथ बच्चा जन्मा है, आप उनके लिए कुछ नहीं कर सकते। वो उसमें रहती ही हैं। इन दोनो में अंतर जानना ही विवेक है। और अगर आप अंतर जान पाते हैं तो आधा काम तो ही गया। शेष आधा हिस्सा आप ईश्वर पर ही छोड़ सकते हैं। आपका उसपर कोई नियंत्रण नहीं है। इस सारी प्रक्रिया में आप संयम और धैर्य सीखते हैं।
बच्चों को एक सपना देना और फिर उन्हे उस सपने की ओर बढ़ाना माता-पिता के लिए एक बड़ी चुनौती है। उन्हें विविध क्षेत्रों की गतिविधियों से अवगत कराएं। यह दस या ग्यारह साल से पहले बच्चे में कराना चाहिए। उन्हे विज्ञान, कला, सेवा सभी क्षेत्रों की जानकारी दें। किसी रविवार को उन्हे चॉकलेट दें और उन्हे गरीब बच्चों मे बाँटने को कहें। साल में एक यां दो बार उन्हे किसी बस्ती में लेजाकर सेवा करने के लिए प्रोत्साहित करें। इससे उनका व्यक्तित्व खिलेगा।
बच्चे के दाहिने दिमाग और बाहिने दिमाग दोनो का विकास ज़रुरी है। भारत में ज्ञान की धारणा विश्व में सर्वश्रेष्ठ है। अगर आप ज्ञाण की देवी का चित्र देखें तो पाएंगे - उनके एक हाथ में किताब, एक में संगीत वाद्य और एक में जप माला है। किताब मस्तिष्क के बाहिने हिस्से के पोषण का प्रतीक है, संगीत वाद्य दाहिने हिस्से का और जप माला ध्यान को दर्शाता है। ज्ञान, संगीत और ध्यान - तीनों को मिलाकर ही शिक्षा पूर्ण होती है। और तभी आप बच्चे को सभ्य और शिक्षित कह सकते हैं। तो आप इस बात पर ध्यान दें कि बच्चे संगीत और योगा सीखें। और यह भी सुनिश्चित करें कि बच्चों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण है। उन्हे प्रश्न पूछने के लिए प्रेरित करें। एक बच्चा तीन साल की उम्र में सवाल पूछने शुरू करता है। फिर वह सवाल पूछते रहता है। कई बार उनके सवालों का आपके पास कोई जवाब नहीं होता। कितने माता पिता को इसका अनुभव है? वे तुम्हें आश्चर्य में डाल देते हैं। वे तुम्हें वास्तविकता पर विचार करने के लिए प्रेरित कर देते हैं।. इसलिए यह उनके लिए बहुत आवश्यक है कि वे विज्ञान और संगीत दोनो की तरफ ध्यान दें।
फिर अपने बच्चे के व्यक्तित्व पर ध्यान दें। यह देखें कि वो सभी उम्र के लोगों से बात करे। इस पर ध्यान दें कि वो अपने से छोटों, अपने से बड़ों और अपनी उम्र के लोगों से कैसे व्यवहार करता है। इससे आप यह देख सकते हैं कि उनमें कोई श्रेष्ठ या हीन भावना नहीं आ रही है, यां वे ज़रुरत से ज़्यादा अंतर्मुखी या बहिर्मुखी हो रहे हैं। इसमें आपकी एक महत्वपूर्ण भूमिका है। आप उनके साथ कुछ खेल खेलें और उन्हें सभी उम्र के लोगों से बातचीत करने के लिए प्रोत्साहित करें।हम उनमें एक केन्द्रित और प्रतिभावान व्यक्तित्व का विकास कर सकते हैं।जिन बच्चों में हीन भावना आ जाती है वो अपने से छोटों के साथ ही व्यवहार करने में आराम महसूस करते हैं। वे अपने से बड़ों यां अपने बराबर वालों का संग पसंद नहीं करते। और जिन बच्चों में श्रेष्ठता की भावना पनप जाती है वो केवल अपने से बड़ों से बात करना पसन्द करते हैं। दोनो ही सूरतों में बच्चे में बातचीत करने की कुशलता नहीं विकसित होती। माता पिता उन्हे संचार कौशल सिखा सकते हैं। उनके लिए सही ढंग से बात-चीत की कला सीखना बहुत अनिवार्य है।
अब मैं आप सबको एक प्रयोग करवाना चाहूँगा। आप के बगल में बैठे व्यक्ति से कहो, "मैं तुम पर विश्वास नहीं करता"। यह एक अच्छा मौका है अगर वह व्यक्ति आपकी पति यां पत्नि है(मज़ाक करते हुए)! (कुछ समय के बाद) आप ऐसा नहीं कर पाए। आपने देखा यह कितना मुश्किल है किसे से कहना कि आप उन पर विश्वास नहीं करते। किसी से यह कहना कि आप उनपर विश्वास करते हैं मुश्किल है। पर किसी से यह कहना कि आप उनपर विश्वास नहीं करते और भी अधिक मुश्किल है। आपने आज कुछ ऐसा किया जो आपने पहले कभी नहीं किया। आपने किसे से कहा कि आप उन पर विश्वास नहीं करते और आप हँसने लगे। आप दिल से नहीं कह पाए। क्या ऐसा पहले कभी हुआ है। विश्वास करना बच्चों के स्वभाव में है, पर यह कहीं खो जाता है। हमे यह देखने की ज़रुरत है। क्या बच्चे को खुद पर विश्वास है? तीन तरह का विश्वास होना एक पुष्ट बच्चे के लक्षण हैं।

(वार्ता के शेष अंग और माता-पिता के प्रश्न अगली पोस्ट में सम्मिलित किए जाएंगे)

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