"कुछ देकर और बाँटकर मिलने वाला आनंद कुछ लेकर मिलने वाले आनंद से कई हुना बेहतर है"

श्री श्री रवि शंकर द्वारा हैम्बर्ग, जर्मनी मे दिए गए संवाद के कुछ अंश:

क्या आप जानते हैं सारे विश्व में बच्चे इतने आकर्षक क्यों होते हैं? क्योंकि उनका अस्तित्व इतना साकारात्मक, पवित्र और साफ़ होता है। जैसे जैसे हम बड़े होते हैं हम अपने अस्तित्व को साकारात्मक कैसे रखना है यह भूल जाते हैं। हम अपने अस्तित्व में चिंता और तनाव लेके घूमते हैं। ऐसे में श्वास की प्रक्रियाएं, सुदर्शन क्रिया, प्राणायाम और ध्यान हमारे लिए सहायक हैं। इन सबसे हमारी उर्जा बड़ती है और हम अच्छा और साकारात्मक अनुभव करते हैं।
जब हमारा मन पूरी तरह से विश्राम पाता है तो हम अपने आपको पूरी सृष्टि के साथ एक महसूस करते हैं। मैं जहाँ भी जाता हूँ मुझे घर जैसा ही लगता है और मुझे पूरा विश्वास है कि हम सभी के पास ऐसा महसूस करने की क्षमता है। हर बच्चे में ऐसी क्षमता होती है। हमें अपने में फिर से बच्चों जैसा भोलाभाव उदय करना है। ऐसा करने में सर्वप्रथम तो हमारे मन में संशय उठता है, "क्या यह संभव है?" यह बिलकुल संभव है। फिर संशय उठता है, " क्या मेरे लिए ऐसा करना संभव है? क्या पता यह मेरे लिए है भी के नहीं?" मैं कहूँगा, "हमें कुछ असंभव का सोचना चाहिए"। जब हम कुछ असंभव का स्वपन रखते हैं तो वो संभव होने लगता है।
८० के दशल में मै यहाँ आया था तो हम कुछ २०० लोगो के साथ ध्यान शिविर कर रहे थे। तब मैने कहा था हम संकल्प लेते हैं कि पूर्व और पश्चिम जर्मनी एक हो जाएं। डोक्टर अबेर हर्ट, कार्ल फेतरा, रिकेता - सब वहाँ मौजूद थे और उनका मानना था कि पूर्व और पश्चिम जर्मनी एक हो ही नहीं सकते। उनको लगा कि मैं भारत से हूँ और इसलिए जर्मनी की परिस्तिथि से अज्ञात हूँ। पर मैने तब भी कहा था कि ऐसा दो साल के भीतर में अवश्य होगा, और इस संकल्प की पूर्ती हुई भी। जब हमारा हृदय पवित्र और मन शांत होता है, संकल्प लेकर उस पर ध्यान देने से उसकी सिद्धि अवश्य होती है। प्रकृति ने हमारी चेतना में, हमारे दिमाग में इतनी शक्ति दी है। प्राचीन ऋषि इसे संकल्प सिद्धि कहते थे, जिसका अर्थ है संकल्प की पूर्ती होना। और ऐसा कब संभव है? जब हमारा मन पूर्णत: शांत होता है। यह शक्ति हम सब के पास है पर हमने अपने मन को शांत करना नहीं सीखा। मन को शांत करने का ज्ञान प्राचीन लोगों के पास था पर वो दुनिया में हर किसी को यह ज्ञान नहीं देते थे। वे सही पात्र, सही साकारत्मक दृष्टिकोण रखने वाले शिष्य को ही यह ज्ञान देते थे। मेरा मानना है कि यह ज्ञान सबको उपलब्ध होना चाहिए ताकि सबका दृष्टिकोण साकारात्मक हो सके।
’वर्ल्ड हेल्थ ओरगनाइज़ेशन’ (WHO) का कहना है कि आने वाले दशक में अवसाद दुनिया में दूसरे नंबर पर जानलेवा रोग होगा। इसका कारण दुनिया में इतनी चिंता और अनिश्चितता है। लोगों को इसके बीच में अपने मन को शांत कैसे रखें, इसका ज्ञान नहीं है। तभी ध्यान, श्वास और मन के इस ज्ञान का इतना महत्व है, इससे हम अपने आप को किन्ही भी हालात में प्रसन्न चित्त रख सकते हैं। हमें शक्ति की ज़रुरत कब पड़ती है? जब हमें लगता है कि हमारे आसपास कुछ भी ठीक नहीं हो रहा। और वो शक्ति हमे मिलती है अपनी श्वास और मन पर ध्यान देके। कितने ही लोगों का अनुभव है जब उन्होने अपने श्वास पर ध्यान देना सिखा तो उनमें कितना बदलाव था, वो अपने भीतर आनंद अनुभव करने लगे औए उनमें एक ज़िम्मेदारी का भाव उदय हुआ।
क्या आप इस बात से सजग हैं कि दो प्रकार का आनंद होता है। एक जो हमे कुछ पाकर मिलता है। बचपन से ही हम कुछ पाकर प्रसन्न होते रहे हैं - कभी चोकलेट, कभी तोहफ़ा..। पर एक पक्व आनंद है जो हमें कुछ देकर और बाँटकर मिलता है। जब आप कोई अच्छी फिल्म देखते हैं तो अपने मित्रों को कई बार ज़बरदस्ती ही वो दिखाने ले जाते हैं। आपको फिल्म निर्देशक से कुछ नहीं मिलता पर आप फिर भी ऐसा करते हैं। क्यों? क्योंकि आपने कुछ अच्छा अनुभव किया और आप वो आनंद अपने दोस्तों के साथ बाँटना चाहते हैं। अपने प्रियजनों से और औरों से बाँट के मिलने वाला आनंद कई गुना बेहतर है। इस आनंद की अनुभूती आज हम भूलते जा रहे हैं। हमें यह पुन: लेके आना है। इसके लिए बस कुछ जागरुकता की ज़रुरत है क्योंकि हमारे भीतर देने और बाँटने का स्वभाव पहले से ही मौजूद है। बस इसे प्रोत्साहन की आवश्यकता है।

संवाद के शेष अंश अगली पोस्ट में सम्मिलित किए जाएंगे:


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