"क्या मुझमें इच्छा होनी चाहिए?"

दो विचारधाराएं हैं। एक के अनुसार आप अपना लक्ष्य रखते हैं और उसके लिए काम करते हैं। दूसरी के अनुसार इस विश्वास के साथ कि ईश्वर जो करेगा आपकी बेहतरी के लिए होगा आप सब कुछ ईश्वर पर समर्पण कर देते हैं। यह दोनो विचारधाराएं एक दूसरे की विरोधी लगती हैं पर मेरे अनुसार ऐसा नहीं है। संकल्प यां लक्ष्य रखना अच्छा है, पर २४ घंटे हम उसी के बारे में नहीं सोचते रहते। बिना किसी ज्वर के उसके लिए कार्यरत रहते हुए उसको ईश्वर पर छोड़ देते हैं। दोनो विचारधाराओं के जोड़ से ही काम होगा।

हमारे वेदों मे इसको बड़ा सुन्दर बताया गया है - संकल्प लेकर और उसके लिए कार्यरत रहते हुए उसे ईश्वर पर छोड़ देते हैं - "मुझे यह चाहिए और आप मुझसे बेहतर जानते हैं मेरे लिए क्या श्रेष्ठ है" - यह यां इससे बेहतर।
कई बार आप जानते ही नहीं है आपको क्या चाहिए। अगर आप सच में जानते हैं आपको क्या चाहिए तो उसे पाना कोई मुश्किल नहीं है। बहुत से समय तो हम अनिश्चित होते हैं। कई बार जब आप किसी वस्तु के लिए लगातर कुछ प्रयत्न करते हैं तो आप पाते हैं कि अगले हफ़्ते, यां अगले महीने यां अगले साल आपको वो नहीं चाहिए होता। इसलिए कुछ संकल्प करने से पहले अपनी सजगता बढ़ानी चाहिए।

इस ब्रह्मांड में अपना संकल्प डालो - मुझे यह चाहिए यां इससे बेहतर।

अब प्रश्न यह है कि एक इच्छा और संकल्प में क्या भेद है? मानलो तुम्हे बैंगलोर से मुम्बई जाना है। तुम टिकट खरीदते हो और तीन घंटे का सफ़र तय करके मुम्बई जाते हो। पर अगर तुम इस सारे समय में मन में यही दोहराते रहो कि तुम्हे मुम्बई जाना है और तुम मुम्बई जा रहे हो, तो हो सकता है तुम कहीं और ही पहुँच जाओ! जब संकल्प के साथ ज्वर जुड़ जाता है तो वो इच्छा है। बिना ज्वर की इच्छा संकल्प है। और फिर उसके लिए कार्यरत रहते हुए यह विश्वास की जो भी प्रकृति तुम्हे दे रही है वो तुम्हारे विकास के लिए ही है।

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