बैंगलुरू आश्रम
प्रश्न: गुरुजी, मैं लगभग एक वर्ष से नियमित रूप से क्रिया कर रहा हूँ| मेरे पिछले कर्मों का कितना प्रतिशत चुकाया हो गया है?
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प्रश्न: गुरूजी, मोक्ष मिले, इसकी आवश्यकता ही क्यों है?
श्री श्री रविशंकर: मुक्त
होना मानकों का स्वाभाविक स्वभाव होता है| मुक्ति कोई विलासिता नहीं, बल्कि आवश्यकता है| सिर्फ बड़ों को नहीं, बच्चों को और, जानवरों को भी, स्वतंत्रता पसंद है| बच्चों के गले में कभी स्कार्फ
या चेन डालने पर आपने देखा होगा, वह
उसे तुरंत निकाल देना चाहते है| (यह अलग बात है कि) बड़े अपने
गले में हार डाल कर रखना चाहते हैं, बच्चे उससे मुक्त रहना चाहते है, इसीलिए वे अपना हाथ
ऊपर-नीचे हिलाते रहते है... मुक्त रहने की चाह प्रत्येक जीव के लिए सहज है, मोक्ष स्वतंत्रता ही है| हम एक श्वास लेते है, और उसे बाहर निकाल देना चाहते
हैं.. और तभी मुक्ति महसूस करते है.. श्वास निकाल देने के बाद हम
फिर श्वास अन्दर ले कर ही राहत पाते है... स्वतंत्र (रहने की चाह) प्राकृतिक रूप से आपके भीतर होते हुए भी मन
रोज़मर्रा की बातों के कारण आप, इसे भूल जाते है .. यह कुछ इस प्रकार है जैसे कोई सोना तो चाहे, पर कैसे सोना है - यह भूल जाए|
तो, मुक्त होने की तड़प आपके अन्दर ही है, यह असंभव है कि मुक्त होने की इच्छा नहीं हो|
मुक्त होने का अर्थ यह नहीं कि
घटनाओं या परिस्थितियों से दूर भागें| कभी-कभी स्थिति अप्रिय या सख्त (कठिन)
हो, और हम उससे दूर जाकर यह सोचने
लगे कि यह मुक्ति है, तो यह गलत है - घटनाओं परिस्थितियों और आस-पास के लोगों से अप्रभावित रहना, अपने भावुकता के 'गंद' से बचे रहना, विचारों के 'चक्र’ 'से ऊपर रहना, बंधनों से दूर रहना, और भय/चिंताओं से अप्रभावित रहना| यानी, जो भी आपको संकुचित करे, उससे बाहर आ जाने की चाह मुक्ति है|
पहले मुक्ति आती है फिर भक्ति
का उदय होता है क्योंकि मुक्त (ह्रदय में ही) प्रेम पनपता है| बंधन में कभी आभार या कृतज्ञता नहीं होती यदि आपको कोई मुक्ति प्रदान कर दे तो आनंद एवं केन्द्रीयता आ जाती है और
प्रेम के साथ-साथ बहुत आभार का अनुभव होता है|
फिर अगला प्रश्न यह हो सकता है कि
क्या प्रेम बाँधने वाला नहीं है? ज़रूर
है, परन्तु यह बंधन थोड़ा अलग
प्रकार का है| प्रेम अनंतता से बांध देता है; यह अंतिम बंधन है, और यह भी ज्ञान और विवेक से
शिथिल पड़ता जाता है| बंधन में रहना (भी आपकी) प्रवृत्ति
है| भावनाओं को कोई आसक्ति चाहिए| बंधन छोटी वस्तुओं से जब बहुत बड़े
प्रेम का हो जाएगा तो धीरे धीरे घुल जाएगा| वेदान्त में फिटकरी का उदहारण मिलता है - फिटकरी पहले पानी को साफ करता
है फिर स्वयं घुल जाता है| इसीलिए ईश्वर को 'मनमोहन' कहा गया है - वह जो हमारा ध्यान (मन) छोटी-मोटी
चीजों से हटा कर अपनी और आकर्षित कर ले|
स्थिरता और ध्यान इतना आकर्षक है कि
इसके सामने अन्य सारे आकर्षण तुच्छ लगते है| यह समझ में आने के बाद, और इसकी मादकता का अनुभव करने के बाद मदिरा एवं अन्य नशों से लोग बाहर आ पाते
है; क्योंकि ध्यान का आनंद अन्य
द्रव्यों से मिलाने वाले आनंद से कही अधिक
होता है, और फिर वे साधना कर अध्यात्म
में आगे बढ़ जाते है| सबसे अधिक आकर्षक है ईश्वर की
दिव्यता|
क्या आपको 'कृष्ण' का अर्थ मालूम है? वह जो प्रत्येक व्यक्ति और
वस्तु को अपनी और आकर्षित करता है, कृष्ण है| ऐसा आकर्षण जो रोका ही न जा
सके! पूरा भागवत यह बताता है कि कृष्ण
कितने मंत्रमुग्ध कर देने वाले थे| जब वे रथ में बैठ कर गलियों से गुजरते
थे तो लोग मूर्ति की तरह स्तब्ध हो कर उन्हें निहारते रह जाते थे...
उनके निकल जाने के बाद भी वे बस वहां खड़े रह जाते थे... गोपियाँ कहती 'जाते जाते वे मेरी नज़रे ही ले
गए...'| यानी, ऐसे स्थिति, जब दर्शक और दृश्य एक हो जाए..|
ऐसे बहुत से वृत्तांत हैं... एक
गोपी, जो श्रृंगार कर रही थी; कृष्ण के आने की खबर सुनकर, एक ही आंख में प्रसाधन लगे हुए
उन्हें देखने दौड़ पड़ी.. दिव्यता अत्यंत आकर्षक है.. (ताकि) हमारा मन तुच्छ बन्धनों से ऊपर उठ सके.. इसीलिए इसे 'मोहन' कहा गया है; मोहन ह्रदय को आकर्षित करता है, मोहित करता है और प्रीति से भर देता है...|
अतः ज्ञान के साथ बंधन, विलासिता के साथ बंधन से एकदम
अलग है, जो पीड़ा देने वाला होता है.. प्रेम के लिए
झुकाव हमें अनंतता से, दिव्यता से जोड़ देती है जिससे जीवन में मस्ती आ
जाती है| इसके साथ ज्ञान के मेल से जीवन
में स्थिरता आ जाती है..| भावनाओं के बिना जीवन सूखा
होता है..यह आवेग या तो लौकिक, अल्पकालिक चीजों के लिए हो
सकता है, या स्थायी तत्वों के लिए: स्थायी प्रसन्नता, स्थायी आनंद के लिये!
प्रश्न: गुरूजी, प्रज्ञा का विकास क्या (हमारे)
प्रयास से होता है,
या
कृपा से...?
श्री श्री रविशंकर: विवेक प्राकृतिक है| बस, जब यह उभरे तो इसे पहचानिए, अनदेखा नहीं कर दीजिये| सिर्फ इतना करना है| 'प्रत्याभिग्न्य हृदयं' अर्थात ह्रदय जिसमे अभिज्ञान (परखने की समझ) है..|
प्रश्न: गुरूजी, जब स्थितियां 'मै करना चाहता हूँ' से 'मुझे करना होगा' में बदल जाती है तो काम करना
मुश्किल हो जाता है| ऐसी
परिस्थिति से कैसे निपटें?
श्री श्री रवि शंकर: यदि प्रतिबद्धता है तो काम कर ही
डालें! यदि हम अपने मन के सहारे चलते रहे, जिस पर भरोसा नहीं किया जा सकता; तो कभी कुछ भी नहीं कर पाएंगे| मन अभी कुछ, थोड़ी देर में कुछ और कहता
है...| कटिबद्ध हो जाए, जब आप कहते है 'मुझे यह काम पूरा करना है और
मैं करूंगा' तो जीवन सही दिशा में चलने
लगता है| पूरे समय अपनी सनक या पसंद से
ही चलने से कही पहुंचा नहीं जा
सकता| यदि आपने मेडिकल कोंलेज में
प्रवेश लिया और दो वर्षों बाद आपको वहां
ठीक नहीं लग रहा तो कहिये '
मुझे यह पूरा करना है'| नहीं तो स्वयं सोचिये, दो साल मेडिकल, एक साल इन्जिनीरिंग एक साल कानून और एक साल रसायनशास्त्र
पढकर क्या कुछ बन सकेंगे?
सिर्फ
मन की सुनने से ऐसा होता है| प्रतिबद्धता अत्यावश्यक है
जीवन में..|
जब आप यहाँ एडवांस कोर्स में आते
है तो पहले दिन तो अच्छा लगता है परन्तु दूसरे दिन कहते है ' हे भगवान, ये कितना बोरिंग है.. यह 'खाली और खोखला..' किसे पड़ी है यह जानने की कि क्या
खाली है, क्या खोखला है... मैं
अपने आप को इन ध्यान आदि से कष्ट क्यों
दूं..? क्यों न बाहर जा कर थोड़ी मस्ती की जाए..| नहीं! यदि निर्णय लिया है तो
उसे पूरा करें..
अब यदि अपने निर्णय का पालन करना
असंभव ही हो जाए तो अपना सौ प्रतिशत दे कर ही उससे बाहर आए| कभी-कभी अनभिज्ञता में लिए गए
निर्णय, ऐसे निर्णय जो आपको कही ले नहीं जा रहे, जिससे जीवन में दुर्दशा बढ़ती
ही जा रही है.. तब अपना
सौ प्रतिशत दे देने के बाद आगे चल पड़ें..|
(लेकिन) वहां से बाहर आ कर अपने
आप को अगली प्रतिबद्धता से जोड़ लें....|
प्रश्न: गुरुजी, आप कहते हैं कि विपरीत चीजे एक दूसरे की पूरक हैं| तो हम अच्छे समय के दौरान खुश कैसे हो सकते हैं जब कि हम जानते हैं कि बुरा समय आने वाला है?
श्री श्री रविशंकर: हिंदी में एक सुंदर दोहा है:
'दुख में सुमिरन सब करे सुख में करे ना कोए;
सुख में जो सुमिरन करे दुख काहे को होए| '
हर कोई तब प्रार्थना करता है जब वह दुखी हैं|जब वह कहीं नहीं जा सकता है और जब सभी दरवाजे बंद होते हैं, तब दुख में हर कोई प्रार्थना करता है| लेकिन खुशी में अगर कोई प्रार्थना करता है, दुख उन पर क्यों घटित होगा?
योग का उद्देश्य दुख से बचना है| ‘हेयम दुखम अनागतम‘| योग सूत्र में, महर्षि पतंजलि कहते हैं कि योग का उद्देश्य आप पर दुख आने से रोकना है| योग सिर्फ आसन नहीं लेकिन ध्यान भी है|
तो जब आप खुश और आभारी हैं तो सेवा करे| और जब आप दुखी हैं आत्मसमर्पण करे, और भगवान पर छोड दे| लेकिन क्या होता है, जब आप परेशान होते हैं, यह बहुत मुश्किल है की आप भगवान पर छोड दे और जब आप खुश होते हैं तब आप सेवा नहीं करना चाहते| यही कारण है कि आप दुखी हो जाते हैं|
यह एक दुखी व्यक्ति के लिए बहुत महत्वपूर्ण है की उसमे आत्मसमर्पण करने की हिम्मत हो| कभी कभी लोग अपने दुख का आनंद ले रहे होते हैं क्योंकि वे भगवान पर नहीं छोडते|
तो दुख में त्याग और खुशी में सेवा| जब आप खुश होते हैं, खुशी में नहीं खो जाये| बाहर आये और कुछ सेवा करे और वह समय प्रार्थना है|
श्री श्री रविशंकर: हिंदी में एक सुंदर दोहा है:
'दुख में सुमिरन सब करे सुख में करे ना कोए;
सुख में जो सुमिरन करे दुख काहे को होए| '
हर कोई तब प्रार्थना करता है जब वह दुखी हैं|जब वह कहीं नहीं जा सकता है और जब सभी दरवाजे बंद होते हैं, तब दुख में हर कोई प्रार्थना करता है| लेकिन खुशी में अगर कोई प्रार्थना करता है, दुख उन पर क्यों घटित होगा?
योग का उद्देश्य दुख से बचना है| ‘हेयम दुखम अनागतम‘| योग सूत्र में, महर्षि पतंजलि कहते हैं कि योग का उद्देश्य आप पर दुख आने से रोकना है| योग सिर्फ आसन नहीं लेकिन ध्यान भी है|
तो जब आप खुश और आभारी हैं तो सेवा करे| और जब आप दुखी हैं आत्मसमर्पण करे, और भगवान पर छोड दे| लेकिन क्या होता है, जब आप परेशान होते हैं, यह बहुत मुश्किल है की आप भगवान पर छोड दे और जब आप खुश होते हैं तब आप सेवा नहीं करना चाहते| यही कारण है कि आप दुखी हो जाते हैं|
यह एक दुखी व्यक्ति के लिए बहुत महत्वपूर्ण है की उसमे आत्मसमर्पण करने की हिम्मत हो| कभी कभी लोग अपने दुख का आनंद ले रहे होते हैं क्योंकि वे भगवान पर नहीं छोडते|
तो दुख में त्याग और खुशी में सेवा| जब आप खुश होते हैं, खुशी में नहीं खो जाये| बाहर आये और कुछ सेवा करे और वह समय प्रार्थना है|
प्रश्न: गुरुजी, मैं लगभग एक वर्ष से नियमित रूप से क्रिया कर रहा हूँ| मेरे पिछले कर्मों का कितना प्रतिशत चुकाया हो गया है?
श्री श्री रवि शंकर: मैं इसका उत्तर देता हूँ, अगर आप मुझे बताओ की आपके सिर पर कितने बाल हैं| जब तक वहाँ बाल है और आपके पास एक कंघी है, काम हो गया|
बाल की गिनती या कंघी पर दांत की गिनती का क्या मतलब है?
कर्म अथाह है| कोई नहीं जानता की वहाँ कितना कर्म है और हर रोज नए कर्म किए जा रहे हैं|
तो एक व्यक्तिगत कर्म है, एक परिवार का कर्म है, एक सामूहिक कर्म है| आजकल डॉक्टर कहते हैं एक परिवार का इतिहास है, प्राचीन चिकित्सा भाषा में वे इसे परिवार का कर्म कहते थे| तो विभिन्न प्रकार के कर्म होते हैं और आपको हर दिन इन कर्मों से छुटकारा मिलता है जब हम साधना करते हैं| बुरा कर्म जाता है और अच्छे कर्मों में वृद्धि होती है|
जब आप अच्छे कर्म करते हैं, उनका एक हिस्सा आपके आसपास के लोगों को जाता है| आपके परिवार, दोस्तों और सबको इस का एक हिस्सा मिलता है|
कर्म के दायरे में जाना एकदम आकर्षक है क्योंकि यह अथाह है| वहाँ की गहराई का कोई अंत नहीं है|यह लगभग सागर की गहराई को मापने की कोशिश करने की तरह है जो की इतना विशाल है| लेकिन जब आप सागर को पार करते हैं हो आपको सागर की गहराई जानने की जरूरत नहीं है| गहराई मापने में क्या मतलब है? आप वैसे भी नाव में जा रहे हैं|
ज्ञान और भक्ति नाव की तरह है जिसमें आप कर्म के सागर पार कर रहे हैं| आपको यह पता करने की जरूरत नहीं है कि यह कितना गहरा है| वैसे भी आप तैरने या पानी में चलने नहीं जा रहे हैं|
प्रश्न: गुरुजी, सभी समुदायों में दुनिया भर में एक सप्ताह में सात दिन और एक साल में बारह महीने क्यों हैं?
श्री श्री रवि शंकर: यह भारत में वैदिक समय में शुरू हुआ था|'शून्य', 'सात दिन' और 'बारह महीने' पहली बार भारत ने दिये थे| तब मिस्र ने भारत से नकल की और वहाँ से यह दुनिया भर में चला गया| भारत में सात प्रमुख ग्रह हैं|हालांकि नौ ग्रह है, उनमें से दो चाँद की छाया में है और उन्का कोई अस्तित्व नहीं है|
तो प्रत्येक ग्रह के लिए एक दिन दिया गया था| छाया ग्रहों के लिए उन्हें एक पूरा दिन आवंटित करने के बजाय, दिन का एक और आधा घंटा आवंटित किया गया, तो यह लौकिक कैलेंडर के साथ बहुत अच्छी तरह से ठीक है| यही कारण है कि यह राहु काल और गुलिक काल है| वे सूक्ष्म दर्शन और जहान के बीच गठन करते हैं| और उन्होंने कहा कि पृथ्वी बारह महीनों में सूर्य के चारों ओर एक चक्र पूर्ण करती है और फिर इसे विभाजित किया| यह कुछ तीस से चालीस हजार साल पहले किया गया था या उससे भी पहले हो सकता है| कोई नहीं जानता|
बाल की गिनती या कंघी पर दांत की गिनती का क्या मतलब है?
कर्म अथाह है| कोई नहीं जानता की वहाँ कितना कर्म है और हर रोज नए कर्म किए जा रहे हैं|
तो एक व्यक्तिगत कर्म है, एक परिवार का कर्म है, एक सामूहिक कर्म है| आजकल डॉक्टर कहते हैं एक परिवार का इतिहास है, प्राचीन चिकित्सा भाषा में वे इसे परिवार का कर्म कहते थे| तो विभिन्न प्रकार के कर्म होते हैं और आपको हर दिन इन कर्मों से छुटकारा मिलता है जब हम साधना करते हैं| बुरा कर्म जाता है और अच्छे कर्मों में वृद्धि होती है|
जब आप अच्छे कर्म करते हैं, उनका एक हिस्सा आपके आसपास के लोगों को जाता है| आपके परिवार, दोस्तों और सबको इस का एक हिस्सा मिलता है|
कर्म के दायरे में जाना एकदम आकर्षक है क्योंकि यह अथाह है| वहाँ की गहराई का कोई अंत नहीं है|यह लगभग सागर की गहराई को मापने की कोशिश करने की तरह है जो की इतना विशाल है| लेकिन जब आप सागर को पार करते हैं हो आपको सागर की गहराई जानने की जरूरत नहीं है| गहराई मापने में क्या मतलब है? आप वैसे भी नाव में जा रहे हैं|
ज्ञान और भक्ति नाव की तरह है जिसमें आप कर्म के सागर पार कर रहे हैं| आपको यह पता करने की जरूरत नहीं है कि यह कितना गहरा है| वैसे भी आप तैरने या पानी में चलने नहीं जा रहे हैं|
प्रश्न: गुरुजी, सभी समुदायों में दुनिया भर में एक सप्ताह में सात दिन और एक साल में बारह महीने क्यों हैं?
श्री श्री रवि शंकर: यह भारत में वैदिक समय में शुरू हुआ था|'शून्य', 'सात दिन' और 'बारह महीने' पहली बार भारत ने दिये थे| तब मिस्र ने भारत से नकल की और वहाँ से यह दुनिया भर में चला गया| भारत में सात प्रमुख ग्रह हैं|हालांकि नौ ग्रह है, उनमें से दो चाँद की छाया में है और उन्का कोई अस्तित्व नहीं है|
तो प्रत्येक ग्रह के लिए एक दिन दिया गया था| छाया ग्रहों के लिए उन्हें एक पूरा दिन आवंटित करने के बजाय, दिन का एक और आधा घंटा आवंटित किया गया, तो यह लौकिक कैलेंडर के साथ बहुत अच्छी तरह से ठीक है| यही कारण है कि यह राहु काल और गुलिक काल है| वे सूक्ष्म दर्शन और जहान के बीच गठन करते हैं| और उन्होंने कहा कि पृथ्वी बारह महीनों में सूर्य के चारों ओर एक चक्र पूर्ण करती है और फिर इसे विभाजित किया| यह कुछ तीस से चालीस हजार साल पहले किया गया था या उससे भी पहले हो सकता है| कोई नहीं जानता|
प्रश्न: गुरुजी, रामजी के गुरु वशिष्ठ थे और कृष्ण जी के गुरु सन्दिपनि थे, आप के गुरु कौन है?
श्री श्री रविशंकर: सन्दिपनि और सभी गुरु सर्वव्यापी गुरु तत्त्व में अब भी वहाँ हैं|आदि शंकराचार्य गुरुओं के वंश के बीच है| मेरे बचपन और जवानी में, मैं कई महान संतों के सत्संग में था| महर्षि महेश योगी थे, शंकराचार्य और कुछ बहुत सीखे और प्रसिद्ध संत, स्वामी शरण आनन्द जी| मेरा बचपन सभी बुजुर्ग लोगों के साथ बिता है|
प्रश्न: गुरुजी, जब हम शाम को संध्या वंदन करते हैं, सूरज पश्चिम में होता है| तो फिर हम जाप (जप) उत्तर की तरफ़ सामना करके क्यों करते हैं?
श्री श्री रविशंकर: सन्दिपनि और सभी गुरु सर्वव्यापी गुरु तत्त्व में अब भी वहाँ हैं|आदि शंकराचार्य गुरुओं के वंश के बीच है| मेरे बचपन और जवानी में, मैं कई महान संतों के सत्संग में था| महर्षि महेश योगी थे, शंकराचार्य और कुछ बहुत सीखे और प्रसिद्ध संत, स्वामी शरण आनन्द जी| मेरा बचपन सभी बुजुर्ग लोगों के साथ बिता है|
प्रश्न: गुरुजी, जब हम शाम को संध्या वंदन करते हैं, सूरज पश्चिम में होता है| तो फिर हम जाप (जप) उत्तर की तरफ़ सामना करके क्यों करते हैं?
श्री श्री रविशंकर: सूर्यास्त के बाद सबसे बड़ी शक्ति चुंबकीय ध्रुवों की है, उत्तर और दक्षिण ध्रुव की| जब तक सूरज है, सूरज की दिशा में शक्ति है, लेकिन सूरज छिपने के बाद उत्तर और दक्षिण ध्रुव की शक्ति प्रमुख है| इसलिए सुबह में संध्या वंदन कर श्रद्धांजलि पूर्व में सूरज को दी जाती है, लेकिन शाम के समय जप खत्म होने तक सूरज डूब जाता है और हम उत्तर का सामना कर जप करते है| प्राचीन लोगों ने एक बहुत ही वैज्ञानिक तरीके से सब कुछ सोचा| इस को अधिक महत्व मत दो|
क्या होगा अगर आप नॉर्वे जैसी एक जगह में हैं जहाँ सूरज दो महीने के लिए नहीं छिपता है, तो आपको किस दिशा का सामना करना चाहिए?
’दैवम सर्वतो मुख’, भगवान हर जगह है, तो आप अपनी प्रार्थना और ध्यान के लिए कहीं भी, किसी भी दिशा में बैठ सकते हैं| ये वैज्ञानिक स्पष्टीकरण उष्णकटिबंधीय देशों के लिए मुख्य रूप से अच्छा हैं| यदि संतों ने आर्कटिक क्षेत्र के अनुसार देखा होता, तो वे सिफारिश करते कि प्रार्थना और ध्यान दक्षिण दिशा की ओर किया जा सकता है|इसी तरह, वास्तु शास्त्र है जो भारत के लिए उपयुक्त है शायद रूस के लिए उपयुक्त नहीं हो| आप जहां इसे लागू करते है, पृथ्वी के क्षेत्र के आधार पर इन सिफारिशों में कुछ सुधार करने की जरूरत है|
क्या होगा अगर आप नॉर्वे जैसी एक जगह में हैं जहाँ सूरज दो महीने के लिए नहीं छिपता है, तो आपको किस दिशा का सामना करना चाहिए?
’दैवम सर्वतो मुख’, भगवान हर जगह है, तो आप अपनी प्रार्थना और ध्यान के लिए कहीं भी, किसी भी दिशा में बैठ सकते हैं| ये वैज्ञानिक स्पष्टीकरण उष्णकटिबंधीय देशों के लिए मुख्य रूप से अच्छा हैं| यदि संतों ने आर्कटिक क्षेत्र के अनुसार देखा होता, तो वे सिफारिश करते कि प्रार्थना और ध्यान दक्षिण दिशा की ओर किया जा सकता है|इसी तरह, वास्तु शास्त्र है जो भारत के लिए उपयुक्त है शायद रूस के लिए उपयुक्त नहीं हो| आप जहां इसे लागू करते है, पृथ्वी के क्षेत्र के आधार पर इन सिफारिशों में कुछ सुधार करने की जरूरत है|
यह भारत में सिफारिश की है कि घर के मुख्य प्रवेश द्वार को दक्षिण का सामना नहीं करना चाहिए, क्योंकि योजना के अनुसार श्मशान भूमि शहर के दक्षिण में बनाई जाती थी, और उस दिशा से उड़ने वाली हवा दक्षिण का सामना करने वाले दरवाजे और खिड़कियो के माध्यम से घर में प्रवेश करेगी, तो वास्तु तदनुसार तैयार की गई थी |
लेकिन अगर आप रूस और स्कैंडिनेवियाई देशों मे जाते है, वहाँ सूर्य दक्षिण में और अधिक तीव्र है, और दक्षिण से सुखद हवा चल रही है, तो यह ठीक है के मुख्य प्रवेश द्वार दक्षिण का सामना करे| यदि आपका दरवाजा है जो दक्षिण में खुले, आपको सूरज सारे वर्ष मिल जाएगा| इसलिए, वास्तु शास्त्र सुधार किये बिना आँख बंद करके लागू करना सही नहीं है| कई लोगों को यह पता नहीं है|वे इस ज्ञान की गहराई में नहीं जाते| वे हैं 'लकीर के फ़कीर‘ - वे जो लिखा है उसकी पूछताछ किये बिना उस का का पालन करते है|
लेकिन अगर आप रूस और स्कैंडिनेवियाई देशों मे जाते है, वहाँ सूर्य दक्षिण में और अधिक तीव्र है, और दक्षिण से सुखद हवा चल रही है, तो यह ठीक है के मुख्य प्रवेश द्वार दक्षिण का सामना करे| यदि आपका दरवाजा है जो दक्षिण में खुले, आपको सूरज सारे वर्ष मिल जाएगा| इसलिए, वास्तु शास्त्र सुधार किये बिना आँख बंद करके लागू करना सही नहीं है| कई लोगों को यह पता नहीं है|वे इस ज्ञान की गहराई में नहीं जाते| वे हैं 'लकीर के फ़कीर‘ - वे जो लिखा है उसकी पूछताछ किये बिना उस का का पालन करते है|
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