१४.१२.२०११, बैंगलुरू आश्रम
श्री श्री रविशंकर (मुस्कुराते हुए): तो आज किस विषय पर चर्चा
करें?
सत्संग में उपस्थित लोग: मोहब्बत, कई और गुरु शिष्य
श्री श्री रविशंकर: हाँ, हो गया यह तो, मोहब्बत नहीं है, तो न
गुरु है न शिष्य है मोहब्बत से यह दोनों मिल जाते हैं| मोहब्बत का एक अनूठा रूप और
रंग है गुरु शिष्य| बीच में कोई आ ही
नहीं सकता, न ही ईर्ष्या की कोई सम्भावना है, न ही क्रोध की|
प्रश्न: गुरूजी, उपनिषद क्या है?
श्री श्री रविशंकर: जब गुरु शिष्य के साथ बैठते हैं, वही उपनिषद है|
प्रश्न: गुरूजी, संसार
क्या है?
श्री श्री रविशंकर: संसार जहाँ नहीं होता, वहीँ गुरु शिष्य होते हैं| और संसार को जिसकी ज़रूरत है, वो गुरु शिष्य है|
प्रश्न: गुरूजी, ज्ञान क्या है?
श्री श्री रविशंकर: जब शिष्य गुरु के पास
बैठता है, और जो घटता है, वही ज्ञान है|
प्रश्न: १०८ उपनिषदों में
सबसे अधिक महत्वपूर्ण कौन सा उपनिषद हैं?
श्री श्री रविशंकर: १०८ उपनिषदों में से बहुत
महत्वपूर्ण तो पहले ११ उपनिषद बताये गये हैं| और उसमे जो ‘ईशावास्य उपनिषद’ है, उसमे यही कहते है, कि यह सब दुनिया, यह संसार
ईश्वर से ओत प्रोत हैं और इसका अनुभव करे , मगर द्वेष न करे, घृणा न करे, लोभी
लालची मत बने, यही कहा गया है| और सौ साल तक, काम करते करते, कर्म करते करते खुशी से
जिये|
उपनिषद में यह भी है – ‘मा गृधकस्य स्विद्ध्नम’
आपके मन में दो धारा होती हैं| एक तो लेने का, हड़पने का| दूसरा देने का| तो आप बच्चों को किस संस्कार से बड़ा कर रहे हैं, यह
देखिये| यदि बच्चे लेने में संकोच
करते हैं, तो अच्छा संस्कार है| यदि देने में
संकोच करते हैं (हँसते हुए) तो कुछ गडबड है| मांगने के बजाय संकोच करना उत्तम संस्कार माना जाता
है बल्कि है भी| पर यदि संकोच देने
के लिये है तो समाज की यह दिशा बदलने लायक है, इस दिशा को आपको बदलना पड़ेगा| हर व्यक्ति किसी न किसी से लेने में संकोच करता है,
और वह भी अपने प्रियजन से| अपने प्रियजनों को
देने का ही मन होता है, लेने का कम होता है| ऐसा है कि नहीं? हम सोचते हैं और
क्या दें और हम क्या दें|
बच्चों में यें गुण सहज स्वाभाविक तरह से हैं| इसीलिए यदि बच्चों के हाथ में कोई चीज़ दें, तो वे
सबको देने की चेष्टा भी करते हैं| यदि वे सात्विक
बच्चे हैं तो| यदि राजसिक बच्चे
हैं तो वे देखेंगे कि हाथ में कोई चीज़ है| उसे छीनो, इससे भी छीनो, उससे भी छीनो, झपटो| ऐसा करते हैं|
तो हम तो इसी ढंग से पले हैं कि देना है, देना है,देने का ही होता था, लेने का या मांगने का बड़ा संकोच
होता था|अपने पिता से भी मांगने का
संकोच होता था, कभी माँगा ही नहीं कुछ| (मुस्कुराते हुए) मगर वह तो चरम है|
तो ये संस्कार आपको बच्चों में लाना पड़ेगा, देने का संस्कार| देने में खुशी, लेने में संकोच| क्या ख्याल है आप लोगों का?
कभी किसी से हाथ फैलाकर मांगने की चेष्टा नहीं| पर कुछ लोग ऐसे होते हैं, कि सब कुछ होने पर भी मांगते
रहते हैं| इतना है, पर फिर भी मांगते
रहते हैं| यह बड़ा विचित्र है|
एक बार एक स्वामीजी यहाँ आये थे| उनका तो बहुत बड़ा दंत महाविद्यालय है, क्या क्या सब
है, बहुत बड़ा संस्थान है| उन्होंने कहा “हमको बहुत ज़रूरी है, १५ लाख रुपया
चाहिए,हम आपको दो हफ्ते में लौटा
देंगे”| हमें लगा कि ये मठ के
स्वामीजी हैं, माँग रहें हैं, सच में कोई दिक्कत होगी| हमने कहा दे दो इन्हें हमने दे दिया यह सोचकर कि १५
दिन में लौटा देंगे|
५-६ साल हो गयें , लौटाने की कोई बात ही नहीं| हमने कहा ‘वाह, ऐसी बात है| (हँसते हुए) अब तो नहीं छोड़ेंगे|’ हमने उनसे कहा कि ‘आप ऐसा मांगते कि
मुझे ज़रूरत है, मुझे दान चाहिए’ तो हम दे देते| अब आपने कर्जे का बहाना मार के पैसे ले लिए, तो अब तो
आपको देना पड़ेगा| कर्जा कह कर लिया
है, तो आपको देना पड़ेगा| मैंने ऐसा क्यों
कहा| क्योंकि मैं नहीं चाहता कि
कोई स्वामीजी धोखेबाज़ी करें , वैसे ही दुनिया में इतने कम स्वामी लोग हैं, और इनको
भी सिखाना पड़ेगा| तो हमने अपने
लोगों को कहा कि ‘इनको छोडो मत, रोज़
इनका दरवाज़ा खटखटाओ’ (हँसते हुए) जब तक
नहीं देंगे, छोड़ेंगे नहीं| क्यों छोडें? लाखों रूपया हम गाँव में खर्चा करते हैं| किसी को मकान बनवा के देते हैं| करोड़ो मकान बनवाएं जब बाढ़ आ गयी थी मगर वह बात अलग है| अगर हमें दान देना होगा, तो हम वहां देंगे, लेकिन अगर
कोई बाद में ऐसी गडबड करें, तो उसे पकड़ना| चाहे वो कोई बड़ा आदमी ही क्यों न हो| हमने कहा, (हँसते हुए) कि इनके पीछे लग ही जाये|
पहले हमें सबकी इज्ज़त रखना आना चाहिए, जैसे भी वे हों, उनका
सम्मान रखना| किसी का अपमान
करना अच्छा नहीं है| इसीलिए मैंने बोला
कि इज्ज़त से, सम्मान से उन्हें बोलो, कि आप पैसे दे दीजिए, जैसे लिए हैं, वैसे ही
दीजिए| ऐसे तो हम नहीं होने देंगे| फिर आखिर में हमें खुद ही बात करनी पड़ी, हमने कहा ‘ महाराज जी ऐसा नहीं करेंगे’ हमने सीधा सीधा बात कर ली उनसे| वे बोले कि ‘मैं शर्मिंदा हूँ, मैं वापिस कर दूंगा’| हमने कहा ‘ठीक है, करिये’|
दूसरा आदमी गलती न करे, या करने पर उन्हें मजबूर न करे, ये भी
सात्विक गुण है| यह आपने में होना
चाहिए| और राजसिक व्यक्ति क्या
करेगा? वह बैठा रहेगा, दूसरा आदमी गलती करे, उसके बाद वह बोलेगा ‘देखा| इसने गलती करी| और उस गलती की शिकायत करेगा|
एक संत हुआ करते थे, अगर कोई उनके पास जाकर किसी के बारे में
शिकायत करे, तो उसी को डांट पड़ती थी|वे कहते थे कि ‘तुम अब तक इंतज़ार कर रहे थे, कि वो गलती करे और तुम
मेरे पास आकर शिकायत करो’| इसको मैं कहता हूँ
‘सुपरवाईज़र मेंटालिटी’ (पर्यवेक्षक मनोवृत्ति)| इसका मतलब क्या होता है, कि कोई गलती करे, फिर जाकर
हम अधिकारी को शिकायत करेंगे, ताकि हम अधिकारी की नज़र में अच्छे हो जाएँ| अधिकारी हमें अच्छा मानेगा और जिसने गलती करी, उसको
सज़ा देगा|
तो किसी की गलती पर सवार हो जाना, यह भी आसुरी गुण है, तामसिक
गुण है| कोई गलती करे ही न| इस तरह से उसको पहले समझाना, या उसको बचाना यह
सात्विक गुण है| आप समझ रहें हैं
कि नहीं?
बहू गलती करे, फिर जाके बेटे से शिकायत करो, यह ठीक नहीं है| बहू गलती करे ही नहीं, पहले ही उसे समझा देना कि ‘ऐसे ऐसे करो, वैसे करो’ यह सात्विक सास है (हंसते हुए)
यदि आपने किसी कि गलती की शिकायत कर भी दी, तो उन्हें आत्म
ग्लानि महसूस नहीं होने देना| कई लोगों को इसी
चीज़ में खुशी मिलती है, कि किसी को आत्म ग्लानि महसूस कराओ| किसी और को आत्म ग्लानि हुयी, तो मतलब उन्हें ऐसा लगा
कि ‘हाँ, मैं तो ठीक हूँ’| पति पत्नी में भी यही होता है|हमने सुना है ऐसा| देखा भी है| वे एक दूसरे को
कहते हैं ‘आत्मग्लानि महसूस करो, देखो
तुमने ऐसा किया,ऐसा किया , और ऐसा किया, मैं ठीक हूँ, तुम गलत हो ’|
तो जिस किसी को भी आप ऐसा एहसास करने देंगे कि ‘तुम गलत हो और मैं ठीक हूँ’| उनसे तुम्हारी दूरी बनने लग जाती है| गुरु कभी ऐसे नहीं करेंगे कि शिष्य को बोले कि ‘तुम गलत हो, तुम गधे हो, तुम नालायक हो’ और ‘मैं ठीक हूँ’| गुरु ऐसा कभी नहीं बोलेंगे| गुरु कहेंगे’बेटा, तुम आओ, तुम मेरा ही एक अंग हो| तुम मुझको ही देखो, इधर उधर न देखो, तभी तुम भी ऐसे ही बनोगे जैसे कि मैं
हूँ’
आदर्श स्थापित करिये, आत्मग्लानि पैदा मत करिये| यह कुशलता है| आत्मग्लानि महसूस न होने देना और आदर्श स्थापित करना, इसे कुशलतापूर्वक
करना, यह गुरु का काम है| जब गुरु और शिष्य
दोनों सात्विक हो तब ये बात होती है| और यदि शिष्य भैंस
के चमड़े के जैसा हों (मुस्कुराते हुए) मोटे चमड़े के हों, बात न समझ में आती हो, इशारे
में भी कुछ पल्ले नहीं पड़ता, बोलने पर भी नहीं सुनते, तब कोई कोई सज्जन करुणावश
गुस्सा करते हैं, डंडा उठाते हैं| पर वो भी सब चलता
है, इसकी कोई गारंटी नहीं है| मैंने देख लिया कई लोगों को कि इस तरह चिल्लम चिल्ली
करके कोई फायदा नहीं हुआ, बल्कि (हँसते हुए) गुरु खुद अपना स्वभाव बदल लेते हैं| शिष्य बदले न बदले, शिष्य का असर गुरु पर पड़ जाता है| गुरु बड़े परेशान रहते हैं हमेशा, क्योंकि चेले का
प्रभाव गुरु पर पड़ गया| तेलगु में कहावत
है ‘संगीत सिखाने वाले गुरु
शिष्य को कहते हैं ‘कि तुझे पाठ पढाते
पढाते मेरी इज्ज़त तो गयी, तू सीखा नहीं, मैं भूला नहीं| कायदे से गुरु को कोई भी विद्या सिखा कर खुद उसे भूल
जाना चाहिए| ऐसा क्यों, क्योंकि जो
नहीं भूलता वो संस्कार बन जाता है| दुसरे जन्म का
बंधन बन जाएगा वो| ‘ज्ञानं बन्धं’ , वह ज्ञान बंधन हो जाएगा| इसीलिए क्या, सब
सीखो, और सब भूल जाओ| कब भूलोगे? जब आप
किसी को सिखा देंगे, तब आप भूलने के अधिकारी हो जायेंगे| ज्ञान को साबुन माना गया है, पवित्र करने के लिए
ज्ञान जैसी कोई और चीज़ नहीं है| पर अगर ज्ञान को
ऐसे पकड़ के बैठे रहेंगे, तो वह अज्ञानता में, अंधकार में बदल जाएगा| इसीलिए सीख के भूल जाये| इसीलिए, संगीत यदि हम भूलते नहीं है, हमारे मन में
बैठा रहता है तो जिंदगी भर के लिए, जन्मांतर के लिए वह मुसीबत| खाली हो जाना पड़ेगा|वही मुक्ति है| मगर कब? जब शिष्य
सीख लें तब| (हँसते हुए) नहीं तो वह
विद्या लुप्त हो जायेगी| विद्या सीख कर, उसे
किसी को दे देनी चाहिए| ये ऋण बनता है| और किसी की इज्ज़त, मान सम्मान कैसे होता है कि वे फलानें
के शिष्य हैं| और कोई मूर्ख
शिरोमणि हो, कहे कि ‘मेरा गुरु वह है’,तो लोग कहेंगे कि तेरे गुरु ने क्या सिखाया है तुझे|?’ तो कहावत में क्या
है ‘कि तुझे पाठ पढ़ा के मेरी
इज्ज़त क्यों गयी? क्योंकि लोग
कहेंगे कि ‘ये फलाने के शिष्य हैं, मगर
आता तो कुछ नहीं’|
तो यह बात है| देने में संकोच
नहीं हो| लेने में संकोच हो, तो ऐसा
समझें कि जीवन की धारा एक ऊंचे स्तर पर पहुँच गयी| देने में संकोच है, और लेने में कोई शर्म नहीं है|वह एक थोड़ा नीचे के दर्ज़े का हो गया| लेना तो दूर है, छीनो, झपटो, हड़पो, वे और गए बीते
निकम्मे लोग हैं| मगर इस समाज में
सब तरह के लोग होते हैं, सब तरह की बातें होती हैं| इसीलिए किसी को भी दोषी न समझो| आज की मुख्य बात यह है| आत्मग्लानि नहीं
होने देना मगर आदर्श स्थापित करना| यह बात समझ में आ
रही है न आप सबको? तो आप सब जो शिक्षक हैं, जब लोगों को शिक्षा देते हैं तो उन्हें
ऊपर उठाइये| मगर जो ऐसे हैं उनको
डांटना भी पड़ेगा|
आज दर्शन लाइन में एक महिला मुहँ लटका के खड़ी थीं| हमने कहा कि ‘भई, मुहँ क्यों ऐसे लटका के खड़ी है? डांट लगाया मैंने उनको| तो वे मुस्कुराने लगीं| तो कभी कभी किसी को ऐसे डांटना भी पड़ता है| सब कुछ होने के बावज़ूद भी रोना? और रोते रहिये , बहू के बारे में, बेटे के बारे में,
नाती के बारे में, पोते के बारे में, रोते रहिये| कब तक यह ऐसे करते रहेंगे? चलो उठो| यह संसार ऐसा है, यहाँ पूर्ण सुख तो असंभव है| सुख के साथ कुछ समस्या पीछे आती रहती है, हिम्मत करो,
जागो|| तो जगाने के लिए कभी लाठी
भी लेना पड़ता है| ठीक है न?
प्रश्न – (अश्राव्य)
श्री श्री रविशंकर: अगर आप चोर को कहिये कि
हथकड़ी पहन ले, तो बताइए वह कैसे पहनेगा| (हँसते हुए) हथकड़ी सामने रखकर चोर को बोल रहें हैं ‘पहनो, पहनो’वह कहेगा ‘हम क्यों पहने’समझ में आ गयी बात? चोर बहाना तो बनाएगा ही, खुद हथकड़ी
कैसे पहन लेगा|
जितना भ्रष्टाचार बना रहता है, जितनी गरीबी बनी रहती है,
जितना साक्षरता का अभाव रहता है, उतना ही कुछ लोग अपनी राजनीति चला सकते हैं| उनका लक्ष्य ही यह है, कि लोग निरक्षर बनें रहें| पढ़े लिखे होंगे तो फिर अपना दिमाग लगाएंगे| अनपढ़ बने रहें, अंगूठा छाप रहें तो उतना अच्छा है| इतने साल हो गए हमारा देश आज़ाद हुए, हमने प्रशिक्षण
पर ध्यान ही नहीं दिया, शैक्षणिक व्यवस्था पर ध्यान ही नहीं दिया, बहुत कम ध्यान
दिया|
तो यह बात समझ में आयी न? बच्चों में संकोच की प्रवृत्ति सहज
होती है| हम सब जब छोटे होते हैं,
तो शरमाते हैं| हम भी जब छोटे थे,
तो घर में जब कोई और आता था तो भाग जाते थे| लोगों के सामने कुछ करने में बहुत संकोच होता था| पूजा तो खास तौर से, और लोगों के सामने पूजा करने से
बहुत कुछ होता था मन में| (मुस्कुराते हुए)
कोई देख रहा है, हम तो अपने में, अकेले, चुपचाप बैठ कर पूजा करने में ठीक लगता था| और लोग देखते थे, तो लगता था कि ‘क्यों देख रहें हैं’ जब हम छोटे बच्चे थे तब| सब बच्चों में
संकोच होता है| उस संकोच को सही
दिशा में लगा देना चाहिए| जैसे झूठ बोलने
में संकोच हो| अगर इस आदर्श को
हम चलाएंगे तो बच्चों पर अपने आप इसका असर पड़ जाएगा|
प्रश्न: गुरूजी, आत्मा की
आवाज़ कैसे पहचानें?
श्री श्री रविशंकर: आत्मा की आवाज़ क्या है, आप विश्राम करिये| जो आपके अंदर सच्चाई की बात होती है, उससे आराम रहता है, एकदम सुकून बना
रहता है| आत्मा सुख स्वरुप ही है| सुख स्वरुप आत्मा है| जब भी सुख मिलता है, वह आत्मा से ही मिलता है, संसार से नहीं| हम समझते हैं, ‘इस चीज़ से हमें सुख मिला’, मगर सुख तो आया
अंदर से| जैसे कुत्ता जब हड्डी
चबाता है, तो अंदर मुहँ में घायल हो जाता है| खून निकलता है, मगर उसको लगता है कि यह हड्डी रसेदार है|
भगवान श्री कृष्ण ने गीता में इतना सुन्दर कहा है ‘अनित्यम असुखम लोकं, इमं प्राप्य भजस्वमम’ अर्थात ‘यह संसार अनित्य है
और इसमें सुख नहीं है| इसको हासिल करके,
मेरी तरफ तुम देखना शुरू करो| मुझमे तुम समा
जाओ, मुझको भजो| है न? तभी मन शांत होगा|
प्रश्न: गुरूजी, मानसिक
रोग के लिए कौन सा ध्यान उचित रहेगा?
श्री श्री रविशंकर: सुदर्शन क्रिया और ध्यान, पंचकोष ध्यान,
सहज ध्यान| सहज ध्यान कीजिये|
देखिये, आप उस प्रश्न को इतने देर से मन में रखे हुए थे, कि ‘किसी तरह यह प्रश्न पूछ लूं’ (हँसते हुए) प्रश्न पूछना भी एक तरह की मजबूरी बन
जाती है| जब तक आप उसे कह नहीं
देते, आप विचलित रहते हैं| सही कहा न? तो जब गुरु के पास आते हैं, तो आप प्रश्न भी छोड़ के
बैठिये| तब आपके मन में जो प्रश्न
है, उसका उत्तर सहज ही आ जायेगा| आपके प्रश्न पूछने
से पहले ही आपको उत्तर मिल जायेगा, हैं कि नहीं? यही उत्तम दर्जे का संवाद है| आपके मन में प्रश्न रहा, या फिर गायब ही हो गया| जो ज्ञान मिलना था मिल गया| और इसके आगे क्या कि ज्ञान की भी परवाह नहीं – खाली बैठें है, इसी में तृप्त| मन वैसे ही खुश हो गया| गोपियों में यही बात थी| जब विदुर गोपियों
को ज्ञान देने गये तो वे बोलीं ‘क्या ज्ञान देते हो? खबर दो, द्वारका से आये हो, वहां सब ठीक है न? बस इतने में ही मैं खुश हूँ| हमको ज्ञान की ज़रूरत नहीं है’| पर यह एक कदम आगे है| अभी आप ये मत सोच लेना, कि हमें ज्ञान की कोई ज़रूरत नहीं है (हँसते हुए)
एक दम पल्ला मत झाड लेना| यह नहीं बनेगा,
ठीक है? ज्ञान का अपना स्थान है,
वह भी ज़रूरी है| कर्म का अपना
स्थान है, वह भी ज़रूरी है| समाज में लगाव भी
चाहिए, उसका भी स्थान है, सबकी कद्र करना चाहिए, उसकी भी ज़रूरत है| यही जीवन जीने की कला है| सब लेकर चलिए सामाजिक कर्त्तव्य, निष्ठा, साधना,
सत्संग, सब|
प्रश्न: गुरूजी, अपने तो सभी तरह के ध्यान हमें दिए हैं, अगर
आप ‘खाली और खोखला’ वाला ध्यान भी दे दें तो
दूध में शक्कर हो जाये|
श्री श्री रविशंकर: हमको दूध बिना चीनी के
अच्छा लगता है| (मुस्कुराते हुए)
बिना चीनी के दूध पियो, ठीक है? एडवांस कोर्स में
बैठो, ‘खाली और खोखला’ ध्यान करो, बहुत है|
प्रश्न: गुरूजी, केरल में ४० लाख लोग मुल्लापेरियार बाँध को
लेकर परेशान हैं| इसी तरह, तमिलनाडु
के लोग भी इसी बाँध से पानी चाहते हैं| भूकंप और तेज बारिश का सोचकर लोग परेशान हैं|
श्री श्री रविशंकर: अभी मुझे उसके बारे में पढ़ने
का ज्यादा वक्त नहीं मिला| मैं उसके बारे में
गहन अध्ययन करना चाहता हूँ| मुल्लापेरियार
बाँध आज का नहीं है, यह तो बरसों पुराना बाँध है| अब अचानक इस मौसम में, इस समय यह बात कैसे आ गयी? क्या यह कोई नयी दरार आ गयी है बाँध में, या फिर यह
काफी समय से हो रही थी? मैं कोई भी टिप्पणी
देने से पहले इसको गहरायी से समझना चाहता हूँ| कभी कभी, ऐसी छोटी बातों को किसी राजनैतिक उद्देश्य से बहुत बढ़ा चढ़ा दिया
जाता है| अगर राजनैतिक उद्देश्यों
को अलग रखकर, सिर्फ लोगों की भलाई के लिए, तमिलनाडु के वैज्ञानिक और केरल के
वैज्ञानिक, केंद्रीय वैज्ञानिकों के साथ बैठकर विचार विमर्श करें कि किस प्रकार
इसका समाधान निकाला जाये, क्या करना चाहिए, अगर कोई चिंता की बात है, ये सब
अधिकारी मिल के आसानी से इस मसले को हल कर सकते हैं| अगर यह सिर्फ राजनैतिक पार्टियों की चाल है, ताकि लोगों का ध्यान बाकी
मसलों पर से हट जाए जैसे महेंगाई या और कोई कुप्रबंध, तो वह हमें एक बिलकुल अलग
नज़रियें से देखना पड़ेगा| मैं तमिलनाडु और
केरल दोनों के लोगों से यह अपील करूँगा कि इसकी वजह से आपस में किसी भी प्रकार की
हिंसा या बैर न करें| आजकल शबरीमला
यात्रा के कारण बहुत से लोग तमिलनाडु से केरल जाते हैं| और इसी तरह बहुत से लोग किसी और मंदिर जाने के लिए
केरल से तमिलनाडु जाते हैं| ये यात्राएं लोगों
को जोड़ती हैं, इनसे राष्ट्रीय एकीकरण होता है| ऐसे में, तमिलनाडु में किसी मलयाली की दुकान जला देना, या केरल में
तमिलनाडु के वाहनों पर पत्थर फेंकना बिलकुल अस्वीकार्य है| इसीलिए मैं दोनों राज्यों के लोगों से अपील करता हूँ,
कि वे आतंक और अफवाह न फैलाएं| और ऐसी कोई
गतिविधियां या प्रदर्शन न करें जिससे हिंसा बढ़े, और किसी को भी कोई जान-माल कि
हानि न हो| और मैं बुद्धिजीवियों,
भूवैज्ञानिकों और वैज्ञानिकों से विनती करता हूँ कि वे साथ बैठ कर इसका समाधान
ढूँढे| चाहे, नया बाँध बनाएँ,
पुराने बाँध को पक्का करें, जो भी उचित हो करें| बहुत ज्यादा डरने की ज़रूरत नहीं है|
प्रश्न: गुरूजी, ज्ञान क्या है?
श्री श्री रविशंकर: (मुस्कुराते हुए) रात भर
रामायण सुनने के बाद सुबह उठके पूछे कि ‘यह सीता कौन है, और राम और सीता का क्या सम्बन्ध है’| अभी तक आपने क्या सुना? कुछ सुना है कि नहीं? सुन रहे थे न, हम
कुछ बोल रहे थे| जो भी हम बोलते
हैं, अपनी तरफ से तो ज्ञान ही समझते हैं| (हँसते हुए) अज्ञान की बात तो नहीं समझते| अगर आपको ऐसा लगे कि गुरूजी कुछ अज्ञान बोल रहे हैं तो आप कृपा कर मुझे बता
दो| मैं भी आपको शुक्रिया
करूँगा कि अच्छा हुआ, आपने मुझे बता दिया|
नहीं, यह प्रश्न वैसे ठीक प्रश्न है| ज्ञान क्या है? सिर्फ पढ़ी हुई, सुनी हुई, लिखी हुई चीज़ है क्या? या फिर अंतर की चेतना है| हमारी चेतना ही ज्ञान स्वरुप है| यह जानना है, ऐसा आपके मन में आया न, जानना चाहने
वाला ही ज्ञान है| ज्ञाता ही ज्ञान
के स्वरुप हैं| ठीक है न? ये नहीं, जिसके बारें में जानते हैं, वह नहीं बल्कि
जो जानने वाला है, वही ज्ञान स्वरूप है|
प्रश्न: गुरूजी, मुझे बहुत अच्छा लगा आपसे यहाँ मिलकर| यह मेरा दूसरा दिन है आर्ट
ऑफ लिविंग में| मैं पूछना चाहता
हूँ कि मुझे किसी से मोहब्बत हो गयी है, मैं उससे कुछ भी नहीं चाहता हूँ, मगर
सिर्फ यह चाहता हूँ कि वो मेरी भावनाओं को समझे| अगर ऐसा नहीं हो रहा है तो
इस मोहब्बत का क्या मतलब है?
श्री श्री रविशंकर: चलिए एक काम करिये| मोहब्बत के बारे में सोचना छोड़ दीजिए| जो जैसा जब लगता है, वैसे ही है|
प्रश्न: गुरूजी, कर्म क्या है? पुराने कर्मों से मुक्ति कैसे
पा सकते हैं?
श्री श्री: ज्ञान
से मुक्ति मिलती है, कर्म से नहीं| और कर्म का तो अपना अलग नियम
है, चलता रहता है| अच्छे कर्म करो| ठीक है?© The Art of Living Foundation