१६.१२.२०११, बैंगलुरू आश्रम
बाकि सब विचार एक तरफ रख दीजिए
और केवल अपने जीवन में देखिये; आपने अपने जीवन में क्या सीखा है? आपके क्या अनुभव
हैं?
वह सब जो आपने सत्य समझा परन्तु
जो बाद में असत्य निकला, वह देखे| कौ नसे अनुभव हैं जिनका उस समय कुछ अर्थ
था परन्तु कुछ समय उपरान्त, वे महत्वहीन थे?
देखे कैसे आपकी धारणाएं केवल
पानी की सतह पर उठते हुये बुलबुले के जैसे थीं| उन में कोई वास्तविकता नहीं
थी, कोई सजगता नहीं थी| आपने निर्णय लिया और सोचा कि यह ऐसे ही है और बाद में
आपने सोचा, “ओह! यह तो मेरी धारणा मात्र थी, पर वास्तव में ऐसा
नहीं है|” इस तरह आपका दृष्टिकोण व्यापक, तीव्र और उच्च हो जाता
हैं|
जो आपकी दृष्टि को व्यापक और
तीव्र करे, वह स्वध्याय हैं| स्व का अर्थ है स्वयं; स्वयं का अध्ययन
करना स्वध्याय हैं| अपने व्यक्तित्व को समझना, उस पर प्रकाश
डालना आवश्यक है| इस अंतर्दर्शन से आप में विकास होता है, और आपका अंतर्मन मुक्त
होता है| इस के बाद सब कुछ समझ आने लगता है कि जीवन में एक ही प्रकाश है, जो मेरे
ही भीतर है| तब आप राह ढूँढ लेते हैं और सत्य का उदय होता है, और जो सारे पवित्र
ग्रंथों में हैं वह सब आप पहचान पाते हैं|
अन्यथा, केवल ग्रंथों के ज्ञान
को रटने और तोते कि भांति दोहराने का कोई अर्थ नहीं है| उस ज्ञान को आप में जागृत होना
है, और इस के लिए स्वध्याय अनिवार्य है|
अपने मन,बुद्धि और जीवन प्रकाश पर
डाले; जीवन के अनुभवों पर प्रकाश डाले| यह करना बहुत
महत्वपूर्ण है|
आप चौंक जायेंगे केवल अपने जीवन
के अनुभवों पर प्रकाश डालने से क्या होगा, यह देख कर| आप कैसे थे, आपकी क्या
धारणाएं थीं, आपकी सोच का कितना छोटा दायरा था और अब वह कितना व्यापक हो गया है|
आपके व्यवहार कैसे थे और अब वे कैसे बदल गए हैं| आपका अपनेपन का भाव कैसा था और अब
कैसे बदल गया है|
प्रश्न: प्रिय
गुरूजी, मैं गुरुओं को नहीं मानता था| परंतु,
जिस प्रकार मैं आपसे मिला, उसने मेरा जीवन बदल दिया है| जिस तरह आप परिस्थितियों
का उत्तर देते हैं वह अद्भुत है,
वैज्ञानिक तर्क के परे है| आप कैसे संसार के करोड़ों लोगों को जवाब देते हैं? आप हम
सब को इतनी अच्छी तरह कैसे जानते हैं? ये मेरा सौभाग्य है कि मैंने आपको पाया|
श्री श्री रविशंकर: अच्छा है| यह प्रश्न नहीं है, आश्चर्य है| मैं भी कभी कभी आश्चर्य करता हूँ|
प्रश्न:
गुरूजी, यदि सेवा, साधना और सत्संग का उद्देश्य इस क्षण में जीना है, तो कभी कभी
हमें वर्तमान में दुखी क्यों होना पड़ता है और अपने आप को समझाना पड़ता है कि यह
दुःख हमें और सशक्त करता है? इस से हम किस स्थिति के लिए तैयार हो रहे हैं?
श्री श्री
रविशंकर: कष्ट और आनंद दोनों का इस ग्रह पर अस्तित्व हैं| इस
दुनिया में आने का आपका पहला अनुभव बहुत कष्टदायक था| आप खुशी से अपनी माता के
गर्भ में तैर रहे थे, और अचानक सारा तरल पदार्थ चला गया और आप को एक तंग रास्ते से
गुज़रना पड़ा| यह अत्यंत कठोर था और आपको अत्यंत कठिन समय का सामना करना पड़ा| इसी
लिए, जैसे ही एक शिशु का जन्म होता है, वह अपना शरीर सिकोड़ लेता है मानो उसने बहुत
बड़ा काम किया है और फिर रोने लगता है| यह आपकी दर्द की पहली अनुभूति है|
कष्ट और आनंद दोनों होते रहते
हैं, मेडीटेशन इन मोशन की तरह पर दुःख वैकल्पिक होता है| कष्ट
कभी कभी अपरिहार्य होता है|
दुःख तब होता है जब आप कष्ट से
बचने का प्रयास करते हैं| या जब आपकी धारणा होती है कि यह कष्ट आपको होना ही नहीं
चाहिए था| दुःख का अर्थ है, वर्तमान में अपने अतीत से बंधे रहना| इस लिए दुःख भी
वर्तमान में है क्योंकि आपका मन एक बीते हुए क्षण से जुड़ा हुआ है| कभी कभी यह
अनिवार्य हो सकता है पर ज्ञान के साथ ऐसे समय को कम किया जा सकता है|
इसी लिए महर्षि पतंजलि जी ने कहा
है, “हेयं दुखम अनागतम”; जो दुःख
भविष्य में आ सकता है, उस से बचने के लिए योग है|” यदि आप भोजन
के प्रति सावधान रहते हैं, और आपकी खाने की आदतें अच्छी हैं, तो आपको कभी मधुमेह, रक्तचाप,
दमा, हृदय रोग आदि बीमारियाँ नहीं होती| आपको ये सब समस्याएं क्यों होती हैं? इस
लिए क्योंकि आप कहीं किसी चीज़ के प्रति लापरवाही करते हैं| इसी प्रकार, अगर यदि अपने
संबंधों की तरफ ध्यान नहीं देते, तो आप उनसे जुड़ी समस्याओं में पड़ जाते हैं| कभी
कभी बिना किसी कारण आपको लगता है कि आप दुखी हैं, तो जान लीजिए कि यह आपके अतीत का
कुछ दुःख हैं जिसके बारे में आपको कुछ ज्ञात नहीं है| और यदि आप और गहन ध्यान में
जाते हैं या “इटरनिटी प्रोसेस” करते हैं, तो
यह प्रकट होगा और आप देख पायेंगे कि अतीत का कुछ ऋण है जो अब आप चुका रहे हैं| बस,
उसे पूरा करे और आगे बढ़े|
प्रश्न:
गुरूजी, विवाहित महिलाएं अपने माता पिता और पति के बीच संतुलन कैसे बनाएँ?
श्री श्री रविशंकर:
सबसे पहले, ऐसा मत सोचे कि दोनों में कोई द्वंद्व है| यदि ऐसा प्रतीत हो भी रहा हो
तो यह न माने कि कोई द्वंद्व है| जब आप सोचते हो कि कोई द्वंद्व है, तभी आप संघर्ष
करते है| यदि दोने के बीच द्वंद्वहैं तो उन्हें अपने कौशल से साथ
में लाये| अपने माता पिता के बारे में अच्छी बातें
अपने पति से कहे और अपने पति के बारे में सब अच्छी बातें अपने माता पिता से कहे|
अक्सर लड़कियां शिकायत करने लगती
है, कभी जाने, कभी अनजाने में, अपने ससुराल या अपने पति के बारे में, और माता पिता
और चिंतित हो जाते हैं| बहुत बार माता पिता मुझसे आ कर कहते हैं, “गुरूजी,
हमारी बेटी बहुत दुखी है”! मैं उनको देखता हूँ और कहता हूँ, “जो भी
आपकी बेटी कहे उसे सौ प्रतिशत सही न माने| वे सिर्फ अपनी
भावनाएं व्यक्त कर रही हैं|”
कभी कभी आप को कोई परेशानियां
होती हैं और आप सब भावनाएं उड़ेल देते हैं, पर वास्तव में वह शायद इतनी बड़ी समस्या नहीं
होती है| लोग बोलना पसंद करते हैं, इस लिए जब वे
बोलना शुरू करते हैं तो आप नहीं जान पाते कि वास्तविकता क्या है| ऐसे में तथ्यों
से आपकी कल्पनाशक्ति ज़्यादा होती है|
कभी कभी आप लोगो की सहानुभूति और
ध्यान पाने के प्रयत्न में शिकायत करते चले जाते हैं| वैसे ही जैसे कई व्यक्ति
अपनी बीमारी को बढ़ा चढ़ा के आपको बताते हैं| अक्सर जो साधक नहीं होते वे ऐसा करते
हैं| जिन लोगों के पास ज्ञान नहीं होता, वे अपने कष्टों को बढ़ा के देखते हैं,
क्योंकि उनको यह सोच कर संतुष्टि मिलती है कि लोग उन पर ध्यान दे रहे हैं| और माता
पिता समस्या को और भी बड़ा समझते हैं जब उनके बच्चे शिकायत करते हैं क्योंकि वे और
ज़्यादा चिंतित होते हैं|
इस लिए मैं उनसे कहता हूँ, “जब
आपकी बेटी शिकायत करे तो उस पर अंशतः ही विश्वास करना| बस उसकी बात का ६०% मानना;
४०% की गुन्जायिश रखना| आपको सत्य का पता चल जाएगा|”
आप को कहानी के दोनों पहलू सुनने
हैं| अपने समधियों से मिलो तो उनसे पूछो, “क्या मेरी बेटी
घर पर ठीक से व्यवहार कर रही है?” वे कुछ नहीं कहेंगे| यदि वे शालीन लोग
हैं तो कहेंगे “नहीं, वह ठीक है”|
इस लिए, जब भी कोई व्यक्ति
शिकायत करे, जो भी शिकायत हो, वे स्वयं भी उसमे १००% विश्वास नहीं करते| सदैव एक
अतिशयोक्ति होती है| कुछ गुंजाइश होती है जो आपको छोडनी चाहिए| और सत्य उस
गुन्जायिश में ही होता है!
प्रश्न: गुरूजी, जिद्दी लोगों के साथ
कैसे बर्ताव करना चाहिए, खास तौर पर जिद्दी बीवी के साथ ?
श्री श्री रविशंकर: यदि आपको पता है, कि वह
जिद्दी है, तो आपकी आधी समस्या हल हो गयी| आपको जो भी चाहिए, उसका उल्टा बोलिए, बस काम हो गया! अब यह
चाल आपको पता चल गयी| यदि वह अप्रत्याशित है, तब मुश्किल होगी| यदि आप उन्हें जानते हैं, और
आपको पता है के वह जिद्दी हैं, और आप जो कहेंगे वे उसका उल्टा ही करेंगी, तो आप
भी उल्टा ही बोलिए और अपना काम करवा लीजिए!
प्रश्न: गुरूजी, जब मैं मौन में होता
हूँ, तो मन में बहुत विचार आते हैं, मन शांत नहीं होता| एक के बाद एक विचार आते
रहते हैं|
क्या
मौन में अक्सर ऐसा होता है, या ऐसा नहीं होना चाहिए? कृपया मार्गदर्शन करें ?
श्री श्री रविशंकर: विचारों को आने दें| लंबे समय से मन के अंदर जो कुछ भी
था, वह बाहर आ रहा है, इसीलिए उसे आने दें| आपका मन जहाँ जाना चाहता है, उसे जाने दीजिए| यदि मन पूरी दुनिया में घूम
के आना चाहता है, तो उसे ऐसा करने दें| वह अतीत में भी जा सकता है, भविष्य में भी जा सकता है या कुछ
भी और कर सकता है|
आप स्थिर
बैठिये और विचारों को केवल देखिये| उन विचारों के दर्शक बन जाईये| आज तो कोर्स का मात्र पहला ही दिन है| दो-तीन दिन और रुकिए, आप खुद ही फ़र्क
देखेंगे|
प्रश्न: शबरी ने कभी भी यज्ञ नहीं
कियें, न ही वेद पढ़ें| फिर भी वे भगवान से कैसे मिल पाईं?
श्री श्री रविशंकर: प्रेम और भक्ति! शबरी का
मन भगवान की भक्ति में केंद्रित था| भगवान के साथ अपनापन, आत्मीयता और प्रेम यह सब कुछ था| इसीलिए भारतवर्ष में इस तरह की बहुत
सारी कहानियां हैं| भगवान
तक पहुंचने के लिए सिर्फ एक मार्ग नहीं है, बल्कि बहुत सारे तरीके, बहुत सारे मार्ग
हैं| बहुत सारे मार्ग मतलब
ज्ञान या सेवा या प्रेम (भक्ति) ये तीन मार्ग हैं| आप इन में से किसी भी मार्ग से जाएँ, आप एक ही मंजिल
पर पहुचेंगे|
यही बात लोग कई बार नहीं समझ पातें| खास तौर से पश्चिमी देशों में, यह
धारणा नयी है, ये ज्ञान वहां नहीं है|
एक बार ईरान के एक उच्च नेता यहाँ
आयें| वे अयातोल्लाह खोमिनी के
खास थे| यह कोई १५-२० साल पुरानी
बात है, जब हम पुरानी कुटीर में रहते थे |वे बहुत माने हुए इस्लामी विद्वान थे| उनकी उम्र कोई ८३-८४ वर्ष रही होगी| देखिये उनके मन में ऐसी चाह थी, कि
वे इतनी दूर तेहरान से यहाँ आये| किसी
ने उनको बताया, कि यहाँ एक संत हैं, तो वे ज्ञान की तलाश में आये थे| जब वे आये, तो उन्होंने हमसे पूछा ‘कृपया बताएं, कि यदि सत्य केवल एक है, तो वहां
तक पहुचनें के लिए केवल एक ही मार्ग होना चाहिए, इतने सारे मार्ग कैसे हो सकते
हैं? तो यदि एक मार्ग सत्य तक पहुंचाता है, तो बाकी सब मार्ग असत्य होने
चाहिए’ ये उनकी समस्या थी| उन्होंने कहा –‘मैंने बचपन से पढ़ा है, कि यही सत्य
है, तो बाकी सब सत्य कैसे हो सकता है? एक प्रश्न का केवल एक ही सही उत्तर हो सकता
है, केवल एक ही मार्ग इसलिए भगवान तक पहुँचने का केवल एक ही मार्ग हो सकता है| तो सही मार्ग क्या है, कृपया बताएं?’
हम केवल मुस्कुराये और उनसे कहा, “ठीक है, आप उत्तर दिशा से यहाँ आये, और आपको किसी ने यह रास्ता दिखाया” उन दिनों में यहाँ कोई बस नहीं चलती थी, यहाँ एकदम
सुनसान था| तो मैंने उनसे पूछा “लोगों ने आपको क्या रास्ता बताया?” और उन्होंने कहा, “लोगों ने कहा कि बनशंकरी से सीधा जाईये और दाहिने मुड़ जाईये”| हमने कहा, “हाँ, यह सही रास्ता है,
सीधा जाकर दाहिने मुड़ जाना ये सही दिशा है| यदि आप कनकपुरा की तरफ से आ रहें होते, तो आपको सीधा आकार
बाएं मुड़ना होता|
तो क्या ये
गलत रास्ता होता?” ये सुनकर, वे चुप रहे| हमने कहा, “कि तेहरान जाने के लिए, हम कहेंगे कि उत्तर पश्चिमी दिशा में जाओ और
ये सही है| मगर जर्मनी से तेहरान
जाने के लिए हम कहेंगे कि दक्षिण-पश्चिमी दिशा में जाओ! ये बिलकुल विपरीत है, मगर
ये भी सही है|
और
पाकिस्तान से हम कहेंगे कि पश्चिम जाओ, वह भी सही है| तो ये सब निर्देश सही हैं या गलत?” वे बोले ‘ये सही हैं’| “यद्यपि सत्य एक मार्ग अनेक
और प्रत्येक
मार्ग सही| वे बोले “सलाम!! आपने मेरी आँखें खोल दीं| मैं यही चाहता था! मुझे ऐसा लग रहा
है जैसे मेरा पुनर्जन्म हुआ है|”
जब किसी साधक के लिए यह प्रश्न बहुत गहन हो
जाता है, वह
इसका उत्तर
ढूँढने के लिए जगह जगह जाता है| हालांकि सत्य एक मार्ग अनेक हैं| यह भारत
की विशेषता है| कबीर
ज्ञान और ध्यान के माध्यम से सत्य तक पहुंचे, शबरी
मात्र प्रेम और लालसा से| शबरी
के अंदर इतनी लालसा थी, कि
उनके मन में अपने प्रभु से मिलने की एक तड़प थी| वह तड़प ही
आपको प्रभु तक पहुंचा देती है| मीरा ने गाकर सत्य को, प्रभु को पाया| शबरी
कभी गातीं तक नहीं थीं, उनके
मन में
केवल तड़प थी| एक ज्ञानी
व्यक्ति भी
भगवान तक पहुँच सकता है, और एक
कर्म योगी भी| यह सभी
अलग अलग मार्ग एक ही सत्य तक पहुचातें हैं, और यह
सभी मार्ग सही हैं|
यदि आप मुझसे पूछेंगे, तो हम कहेंगे कि
इनमे से कोई भी मार्ग चुन लीजिए, बाकी सब उसके साथ आ जायेंगे| यही ‘आर्ट ऑफ लिविंग’ की विशेषता है, जहाँ सब कुछ एक साथ हैं, भावनाएँ, भक्ति, ज्ञान,
खेल और (मुस्कुराते हुये) थोड़ी सी शरारत भी!
प्रश्न: प्रिय गुरूजी, मैं आपको बहुत
बहुत प्रेम करता हूँ| मुझे कुछ साल पहले समाधि का अनुभव हुआ था और उसके बाद कभी वैसा अनुभव नहीं
हुआ| मैं अब यह जानना चाहता
हूँ, किस कारण ऐसा अनुभव होता है, और पुनः इसका अनुभव करने के लिए मैं क्या कर
सकता हूँ?
श्री श्री रविशंकर: केवल विश्राम करिये!
अनुभव पाने की लालसा न करे| आप ही अनुभवों के पीछे के अनुभवकर्ता
हैं| इसीलिए केवल विश्राम
करिये|
प्रश्न: मैं हमेशा कोई भी नया काम
पूरी ऊर्जा और जोश से शुरू करता हूँ, मगर कुछ समय के बाद उस काम का आकर्षण मेरे
लिए कम हो जाता हैं, और उस काम का कोई निष्कर्ष नहीं निकलता|
श्री श्री रविशंकर: यह एक बहुत आम समस्या है| कोई भी किसी भी काम के लिए जीवन भर
आकर्षित नहीं रह सकता, जब तक कि वे प्रबुद्ध (परम ज्ञानी) न हो! अगर आप प्रबुद्ध
हैं, तो आप वही परिचयात्मक भाषण लाखों बार दे सकते हैं, और हमेशा उत्साही रह सकते
हैं क्योंकि आप उसकी स्मृति से परे हैं, आप वर्तमान क्षण में जी रहें हैं| या आप एक बच्चे की भांति है, जो एक
ही काम को बार बार कर सकते हैं, और उससे बोर नहीं होते| इसीलिए ‘प्रतिबद्धता’ नामक शब्द इस धरती पर आया| कोई काम सिर्फ इसीलिए मत करिये
क्योंकि आपको उसे करने में मज़ा आता है, या वह काम आपको आकर्षित करता है आपको वह
काम इसलिए करना है, क्योंकि आप उसे करने के लिए प्रतिबद्ध हैं| जीवन में हमें दोनों चाहिए
प्रतिबद्धता और आकर्षण| आकर्षण
की वजह से आपको समय समय पर उत्साह मिलता है, लेकिन प्रतिबद्धता की वजह से काम आगे
बढ़ता है| प्रतिबद्धता जीवन को आगे
बढ़ाता है|
प्रश्न: गुरूजी, यह संसार सुंदर कब बनेगा?
श्री श्री रविशंकर: आँखें खोल के
देखिये यह पहले से ही बहुत सुंदर है! यदि आपको लगता है, कि यह उतना
सुंदर
नहीं है, तो इसे सुन्दर बनाने के लिए कुछ काम करिये! यह काम जो हम लोग कर रहें है
ध्यान का, और ज्ञान का, इस संसार को और सुंदर बनायेगा| मेरे नज़रिए में संसार सुंदर है और
प्रत्येक दिन
और सुंदर
हो रहा है! यहाँ पर फूल हैं और कलियाँ हैं, और कलियाँ भी कुछ समय में खिल जायेंगी| आप कुछ काम करिएँ; कुछ ‘कर्म योग’ करिये|
प्रश्न: परोपकार करने से मन को
शान्ति क्यों मिलती है ?
श्री श्री रविशंकर: परोपकार से सकारात्मक
ऊर्जा आती है, और सकारात्मक ऊर्जा हमेशा शान्ति देती है| आप सबको परोपकार (दान) करना चाहिए,
चाहे आपकी आमदनी कितनी भी हो| यदि आपकी आमदनी १००० रुपया भी है, तब भी उसका ३ प्रतिशत अलग रख
दीजिए| उसे धर्म स्तंभ योजना में
लगाएं| आप में से प्रत्येक
ऐसा करे!!
तब आप देखेंगे कि आपको कितना अच्छा लगेगा और कैसे आपकी ऊर्जा में परिवर्तन आ जायेगा|
प्रश्न: मैं ईश्वर के प्रेम में और कैसे खिल सकता हूँ
जबकि मेरी एक प्रेमीका है? क्योंकि प्रेमीका
के
प्रति मेरा प्रेम भगवान के लिए मेरे प्रेम को मंद कर देता है| मुझे लगता है कि मैं १००
प्रतिशत आपकी सेवा नहीं कर रहा हूँ|
श्री श्री रविशंकर:
नहीं, यह एक दूसरे के विपरीत
नहीं हैं, ऐसा मत सोचियें| सूर्य हर खिड़की में से
पूरा चमकता है| मगर (हँसते हुए) इस बात को तब लागू मत करिये, जब आप किसी
और महिला के प्रेम में पड़ जायें| “पता है गुरूजी ने क्या
कहा? सूर्य हर खिड़की में से चमकता है, इसलिए हे प्रिय मैं तुम्हे प्रेम करता हूँ
और मैं उस महिला से भी प्रेम करता हूँ” (हँसते हुए) “नहीं!! कभी मेरा गलत उद्धरण मत करना”© The Art of Living Foundation