उत्तम भोग के लिए भी योग आवश्यक है!!!


१३.१२.२०११, बैंगलुरू आश्रम


दो बातें जीवन में मूलभूत हैं| एक तो भोजन| दूसरा है संभोग| उसी से आप सब पैदा हुए हैं| ये दो मूलभूत चीजें जानवर में भी हैं| परन्तु इस जानवरपन से मुक्त होकर कैसे आप समाज में और ध्यान में जाये? इसके लिए इन दोनों को भारत में, और सिर्फ भारत में इन दोनों को भगवान से जोड़ दिया गया| अपने अंतरतम को छुए, भगवन तो सबसे अंतरतम है, इसलिए भोजन (अन्न) को कहा कहा गया है “अन्न ब्रह्म”| यहाँ कोई भी त्यौहार तरह तरह भोजन के बिना मनाया नहीं जाता| भोजन को ही ब्रह्म और परमात्मा माना गया| भोजन थाली में रखकर पहले उसे प्रणाम करते हैं| पानी ले कर उसका नेवैद्य दिखाते हैं और बड़े भक्तिपूर्वक खाना खाते हैं| खाने के साथ भक्ति आ गयी तो आप ज्यादा नहीं खा सकते| धीरे से खाएँगे, सम्मानपूर्वक खाएँगे, उसे  फेकेंगे नही| भोजन के प्रति अटूट भाव! कुछ का न सको तो लोगों को खाना खिलाये, भंडारा करे, लंगर लगाये| इस तरह धर्म के साथ बहुत गहराई से भोजन जुड़ गया है|

इसी तरह संभोग (सेक्स) को भी धर्म के साथ जोड़ दिया गया, कैसे? शिवलिंग के रूप में| शिवलिंग एक जननेंद्रिय जो इतना पवित्र है| जब उसे आप पवित्र मानते है तो मन उस पर हावी नहीं होना चाहता| शांत हो जाता है, काम-वासना से परे हो जाता है| इसलिए राधा और कृष्ण, शिव और शक्ति आस्तित्व में हैं| कहीं भी किसी भी और देश में ऐसा नहीं है कि पुरुष और प्रकृति दोनों को भगवान मानते हैं| या तो परमात्मा या शैतान| यहाँ भारत में हमने प्रकृति और पुरुष को भगवान माना हैं| शरीर प्रकृति है और आत्मा पुरुष है | आत्मरति - अर्थात, निरंतर  संभोग भीतर हो रहा है|

और यह सम्भोग क्या है? यह शांत रस की, मस्ती की, आनंद की लहर है जिसमे मेहनत, परेशानी या परिश्रम नही हैं| विश्राम में भी इन दोनों तत्वों के साथ गहरी विश्रांति हो तो वहां शिव तत्व भी है और शक्ति भी है|
दोनों मौलिक प्रवृत्तियों – भोजन का और सम्भोग का, दोनों विलीन होकर निराकार चेतना में चैतन्य का तरंग उठने लगती है|

किसी तरह की कोई कमी नही रहती समाधि में  तृप्ती आती है| इसीलिए कहते है समाधि का जो सुख है वह परम सत्य है, सबसे बड़ा सुख है| अतः आत्मरति अपने आप में संभोग, अपने आप में मस्ती, मन अपने में तृप्त होने लगता है| फिर मन बाहर नहीं भटकता|  यहीं भक्ति है! यह कितना सुन्दर है! भक्तिभाव और प्रेम, जैसा आपने देखा होगा राधा-कृष्ण, राम-सीता; और वेदांत में जाएंगे तो प्रकृति-पुरुष, सांस और शरीर, मन और अहंकार, अहंकार और आत्मा, इस तरह से दो को एक में विलीन कर दिया गया|

अपने आस्तित्व का कोई भी कोना दिव्यता से दूर न करे| दिव्यता आपके आस्तित्व के प्रत्येक पहलू से जुड़ी होना चाहिये| यह अति सुन्दर, अति-वैज्ञानिक है| इसे ही ब्रह्मचर्य कहते हैं, ब्रह्मचर्य अर्थात दिव्यता के साथ बढ़ना और उसी में विलीन हो जाना|

एक बार सुनकर यदि यह बात पूरी तरह से समझ न आये तो कोइ बात नही, धीरे धीरे समझ आ जाएगी|एक प्रेमी को न भोजन में रूचि है, न संभोग  में| दूसरी और जिसके भीतर प्रेम नही है, बेचैन है वे ज्यादा खाने लगते हैं| भीतर का खालीपन वे भोजन के द्वारा पूरा करते हैं| ऐसे ही, जो ज्यादा बेचैन रहते हैं वे संभोग में लग जाते है, और भोग जितना भी कर ले तृप्ति नही मिलती है,संतोष नही मिलता, आनंद नही मिलता| फिर आप जानवर से भी गए-बीते हो जाते हैं..

इसलिए, उत्तम भोग के लिए भी योग आवश्यकता है| अच्छा भोजन, अच्छी संगत मिले, इसके लिए अंतरमुखी होकर योग-साधना में उतरें| जीव के लिए इन दो मूलभूत बातों को भगवन के साथ जोड़ दें| उसमें भी वही याद आए| भोजन में भी भगवान याद आए और भोग में भी भगवान याद आए; इसके सिवाए कुछ नही|

आप सम्पूर्ण है, यह समझना होगा हैं| नर और नारी दोनों के गुण आपके भीतर हैं| 'मैं' 'मेरा' से बाहर आएं, यही वेदांत है| अपनी सीमित पहचान से बाहर आना| आप अपने आपको महिला, या पुरुष, या नौजवान, बच्चा, शिक्षित या अशिक्षित जैसे लेबल दे देते है| इन सब को छोड़ देने के बाद जो बचता है, वह है परिष्कृत चेतना| यहाँ तक कैसे पहुंचे? बस कहते चले 'मैं कुछ नही हूँ, मैं कुछ नही हूँ...' और (हंसकर..) ऐसा बोलें  नही, क्योंकि जो कुछ नही है वो बोलेगा कैसे|
जब आप भोजन और भोग को परमात्मा का विषय मानते है तो आपकी आक्रामकता कम हो जाती है और विनम्रता बढ़ जाती है, कृतज्ञता और प्रेम बढ़ता है! यह कितना आकर्षक है|

प्रश्न:(दर्शकों में से किसी ने प्रश्न किया लेकिन वह अश्राव्य था )
श्री श्री रविशंकर: पति-पत्नी के अलावा, एक ही थाली में दो लोग कभी भोजन न करे| यह स्वच्छता के लिए ज़रूरी है| और किसी भी संस्कृति में इसे अच्छा नही माना जाता| क्या हम एक ही ब्रश से दांत साफ करते है? यह समझ लीजिये कि इसका सम्बन्ध डी. एन. ए. से है| डी. एन. ए. लार के माध्यम से स्थानांतरित हो जाता है और (हंसकर) कर्म कुछ नही डी. एन. ए. ही हैं| डी. एन. ए. में एक व्यक्ति के सारे गुण होते है| अतः जब डी. एन. ए. ट्रांसफर होता है तो क्या होता है? उस व्यक्ति के गुण  दूसरे तक पहुँच जाते  है| वैज्ञानिक भाषा में जिसे  डी. एन. ए. कहते है, अध्यात्मिक भाषा में वह 'कर्म' है| और यह एक वास्तविक तथ्य है|

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