१७.१२.२०११, बैंगलुरू आश्रम
प्रश्न: गुरूजी, 'छोड़ देना' कैसे सीखें..?
श्री श्री
रविशंकर: एक गहरी साँस लें, और रोके रखें! अब आपको मालूम हो गया कि किसी बात को कैसे छोड़ देना है|
प्रश्न: गुरूजी, समुद्र की लहरें
ऊपर उठती है फिर नीचे आ जाती है| आपने एक बार कहा था कि मन यदि
गहराई में उतर जाता है तो विलीन हो जाता है| उस गहराई में कैसे उतरें?
श्री श्री रविशंकर: कोई भी कोशिश छोड़ दें| यदि ‘मुझे यह करना है’’ की सोच के साथ मन शांत करने का प्रयास करेंगे तो मन इसी में उलझ जायेगा और ऊपरी स्तर में रह जायेगा| जब आप 'छोड़ देने' में सक्षम हो
जाएँगे तो मन शांत हो जाएगा और
गहराई में चला जाएगा|
प्रश्न: गुरूजी, पिछले दो दिनों
में (टी. आर. एम्. कोर्स के दौरान) मैंने आपसे इतना सारा ज्ञान प्राप्त किया| इसे संजो कर कैसे
रखूं कि जब आवश्यकता हो, इस ज्ञान का उपयोग
कर सकूँ?
श्री श्री रविशंकर: संदेह बिलकुल छोड़ दें, यह आत्म-संदेह है| नर्सरी में हमने सीखा कि २ + २ = ४, एक बार यह सीख
लिया तो यह ज्ञान आपके व्यक्तित्व का हिस्सा हो गया; अब जब भी गिनती की
ज़रूरत पड़ती है यह सहजता से प्रयोग में आ जाता है, हमें मेहनत नहीं करना पड़ती| ज्ञान का
अनुप्रयोग स्वाभाविकता से होना चाहिए| 'व्यक्तियों और परिस्थितियों को स्वीकार करें' या ' वर्तमान क्षण अटल है', ये ज्ञान बिंदु आपको मालूम है, और जब ऐसी
परिस्थिति बनेगी जब इसका प्रयोग होना
चाहिए, तो वे स्वयं ही काम करेंगी, मानो आप 'प्रोग्राम' किये गए हों!
ज्ञान को सुनना
अपने आप की प्रोग्रामिंग होने देने जैसा है, ऐसा प्रोग्राम जो आवश्यकता होने पर
स्वयं काम करता है|
'मुझे किस ज्ञान का/इस
ज्ञान का उपयोग करना है' ऎसी सोच ही संघर्ष
व तनाव ला सकती है| जब ज्ञान सुना जा रहा है तो आपके दिमाग, जो एक सुपर-कम्पूटर है, की प्रोग्रामिंग
हो रही है| निश्चिन्त हो
जाएँ, यह ज्ञान कहीं गुम नहीं हो जाएगा या इसका
प्रयोग करने के लिए आपको बहुत मेहनत नहीं करनी पड़ेगी| यदि आप सिर्फ दस
मिनट प्रतिदिन वापस सुनकर/पढ़कर इसे थोड़ा थोड़ा दोहराते, ताज़ा करते रहेंगे|
इस तरह जब तक आप ज्ञान के सम्पर्क में रहेंगे, सहज, स्वतः एवं तत्काल यह आपके काम आएगा| न दोहराने से आप
यह भूल सकते हैं| हाँ, यदि आप सत्संग या कोर्स में आते
रहेंगे तो कोई न कोई आपको ये सब फिर याद दिला देगा, या आपके अन्दर ये
फिर कौंध जाएगा , ताज़ा हो जाएगा!
प्रश्न: गुरूजी, हमें मालूम है की साधना प्रतिदिन करना चाहिए, परन्तु कभी-कभी यह बहुत उबाऊ हो जाता है| तब क्या करें?
श्री श्री रविशंकर: अधिकतर व्यायाम और कभी-कभी तो भोजन भी अरुचिकर हो जाते हैं, पर क्योंकि वे हमारे स्वास्थ्य के लिए अच्छे हैं , हम इन्हें छोड़ते
नहीं| साधना को
दिनचर्या का हिस्सा बना लें| कुछ मिनटों के लिए शांत बैठें, भस्त्रिका करें, क्योंकि यह आपके लिए
लाभदायक है|
कभी-कभार एक-दो दिन साधना छूट जाये तो ठीक है, आत्म-दोष की भावना
न उठने दें, परन्तु यदि बार-बार चूँक रहे हैं तो इस पर विचार करें| इसलिए समूह में साधना करना हमेशा उत्तम है| संस्कृत में कहते हैं: ‘एकम तपस्वी, द्वि: अध्यायी', अतः २ या ३ के समूह में साधना करना लाभदायी है| मैंने सुना है कुछ लोग सिर्फ सोहबत (कम्पनी) में ही शराब पीते है, जब गलत काम समूह में हो जाते हैं , तो अच्छे काम तो हो ही जाएँगे|
प्रश्न: गुरूजी, जब भी मैं अपनी
गलत आदत, विचार या
मनःस्थिति को पहचान जाता हूँ, मुझे लगता है कि
मैंने कुछ हासिल कर लिया है परन्तु तुरंत ही अजीब सी चुनौती खड़ी हो जाती है| मैं यह समझ नहीं
पाता|
श्री श्री रविशंकर: सफल हो जाने और असक्षमता के विचारों को आपस में न टकराने दें| कभी-कभी ऐसा होता है| आपने जो सोचा वह
पूरा नहीं हुआ, अर्थात अन्य व्यक्ति का संकल्प आपके संकल्प से जीत गया| नए संकल्प लें और आगे बढ़ जाएँ! संकल्प के कारण कम-से-कम थोड़े समय के लिए आप सही मार्ग पर रहेंगे| उदाहरण के लिए यदि आपने निर्णय किया कि भोजन की मात्रा पर काबू रखेंगे, और एक महीने के अन्दर ही वह टूट
गया तो कम-से-कम उस एक महीने तो आप बचे रहे! ऐसा ना सोचें कि 'अब क्या करें ', ऐसा कहें ' ठीक है, हो गया, कोई बात नहीं’ ‘फिर से संकल्प ले
लिया '|
धूम्रपान, शराब या सेक्स जैसे अहितकर आदतों से बाहर आने में यदि मुश्किल आ रही है तो लगातार संकल्प और कोशिश करते रहें| अच्छे संकल्प दस बार भी टूटें, तो उन पर वापस आ जाना अच्छा है| स्वयं सोचिये, बिना संकल्प के तो
पूरे जीवन आप इस व्यवहार में
लिप्त रहते| आपकी दृढ़ता के
कारण कम-से-कम पंद्रह दिन, एक महीने के लिए तो आप इनसे दूर रहे! फिर संकल्प लें, फिर वापस आ जाएँ!
दृढ़ता से आपकी आत्मिक उन्नति होती है, वह आपको ऊँचा उठाती
है और जीवन की प्रगति को एक दिशा मिलती है| अचानक, एक दिन ऐसा आएगा
कि इन आदतों से बाहर आना एकदम आसान, सहज हो जाएगा; बिलकुल प्राकृतिक रूप से| यह मुक्त होने की अवस्था है, जहाँ छोटे-छोटे कदम ले कर पहुंचा जा सकता है|
प्रश्न: गुरूजी, हम अपना शेष जीवन कैसे बितायें ; अनुयायी के रूप में या भक्त के रूप में, आप क्या चाहते हैं?
श्री श्री रविशंकर: क्या आपको लगता है कि अनुयायी भक्त नहीं होते या भक्त अनुयायी नहीं होते? अच्छा यही होगा कि अपने आप को कोई नाम न दें; प्रसन्न रहें, आनंदित रहें और उच्चतम ज्ञान की
कामना करते रहें| आत्मज्ञान की
प्राप्ति के लिए अपने को केंद्रित रखें| ताकि आपकी प्रगति की दिशा सही रहे| यदि प्यास लगी हो तो बुझाई जा सकती है, लगन लगी ही न हो तो शांत क्या होगी?
प्रश्न: प्रिय गुरूजी, आप जब-जब इस
पृथ्वी पर आएं, क्या मैं आप के
साथ आ सकता हूँ? कृपया आप
जहाँ-जहाँ भी जाएं, मुझे अपने साथ
रखें!
श्री श्री रविशंकर: ठीक है! (लेकिन) मैं लम्बे अंतराल के बाद ही आता हूँ, शायद तुम्हें इस बीच आना पड़े|
प्रश्न: गुरूजी, क्या आश्रम में आनंद की यह अनुभूति बाहर भी बनी रहेगी?
श्री श्री रविशंकर: दीप को प्रज्वलित रखना आपके हाथ
में है| यह थोडा चुनौती भरा हो सकता है| क्या करें? प्रतिदिन इस ज्ञान बोध को पढ़कर
या सुनकर ताज़ा बनाएं रखें| गाड़ी चलाते समय सी. डी. सुन लें, ट्राफिक-जाम में फंस जाएं तो
निरर्थक गानों के बजाए, ज्ञान के दो शब्दों में डूब जाएँ| मैं यह नहीं कह रहा संगीत न सुनें, संगीत भी आवश्यक है, पर ज्ञान और साधना हमेशा प्रसन्न रहने में आपकी मदद करेगी|
प्रश्नः गुरुजी मुझे आपमें दैवत्व दिखता है और महसूस
होता है| तो फिर आप क्यों सामान्य लोगों की तरह पूजा करते
हैं?
श्री श्री रविशंकर: आपने पूजा के बारे में
बिलकुल गलत सोचा है। सिर्फ़ शिव ही शिव की पूजा कर सकतें हैं, यह पूजा का नियम है। तो
पहले आप ईश्वर के अलग अलग नाम आपने शरीर के अलग अलग हिस्सों पर रखतें हैं। आप ईश्वर
का हिस्सा बन जाते हैं और फिर फूल और अन्य चीजें आप ईश्वर को अर्पण करते हैं। देवत्व
को अपने भीतर देखना यही पूजा का असली और सही तरीका है। ईश्वर का आप भी उतना ही हिस्सा
हैं जितना मैं हूँ। आप ये जान लें कि आप में भी भगवत्ता है। भगवान आप में भी उतना ही
है जितना मुझमें हैं। यदि आप ये देख सकते हैं तो अच्छी बात है। आप और मैं अलग नही हैं
एक ही हैं। आपको यह कहना चाहिये कि मैं गुरुजी का हिस्सा हूँ। आत्मग्लानि को छोडकर
आप यह देखिये कि आप गुरु से, भगवान से और इस पूरे ब्रम्हांड से जुड़े हैं।
मुझे पुजा क्यों करनी चाहिए, मुझे उससे क्या लाभ मिलेगा।
नहीं! मैं करता हूँ या नहीं यह महत्वपूर्ण नहीं है। यह तो एक प्रथा है। यदि मैं करता
हूँ तो और लोग भी करेंगे। यह स्व उदाहरण से नेतृत्व करने जैसा है। भगवान श्रीकृष्ण
और श्रीराम ने भी पूजा की और यह परंपरा है। हम हमारे पूर्वजों की तरह अपनी परंपरा का
पालन करते हैं। यदि मैं ही नहीं कर रहा हूँ तो और कोई मेरा अनुकरण क्यों करेगा और मैं
उनको ऐसा करने के लिये कैसे बता सकता हूँ।
मुझे प्राणायाम, क्रिया करने की जरुरत नही है। मुझे
ध्यान करने की या सत्संग मे बैठने की भी जरुरत नहीं हैं। लेकिन यदि मै ध्यान और सत्संग
नहीं करूँ तो औरों को कैसे प्रोत्साहित करुंगा? तो मैं भी ध्यान
करता हूँ| मेरे लिये आंखे खुली या बंद एक ही बात हैं लेकिन फिर
भी मैं करता हूँ।
यही प्रश्न अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से किया था। भगवान
श्रीक्रुष्ण ने कहा कि मेरे लिये कुछ कर्म नही है| मुझे कर्म करके
कुछ हासिल नही होगा, ना ही कर्म ना करने से कोई हानि होगी| लेकिन फिर भी “वर्त एव च कर्माणि”, मैं कर्म करता
रहता हूँ। मैं नहीं करूंगा तो लोग भी अनुकरण नहीं करेंगे। वे मेरे अक्रिय होने का अनुसरण
करेंगे और यह बड़ी आपदा होगी। भगवान ने कहा कि स्व उदाहरण देने के लिये मै सब कर रहा
हूँ। तो तुम भी अपना कर्म करो। अर्जुन ने कहा, ‘मैं नहीं करुंगा’| तब श्रीकृष्ण ने
उत्तर दिया ‘तुम्हें करना होगा’! अर्जुन ने फिर
कहा, ‘अगर कर्म बंधन का कारण है, तो आप मुझे कर्म करने के
लिये क्यों कह रहे हैं?’ ‘आपनें कहा ज्ञान मुक्ति है तो मैं कर्म क्यों
करुँ?’ श्रीकृष्ण ने कहा, ‘मुझे भी कुछ करने
की ज़रुरत नहीं है लेकिन फिर भी मैं सब कुछ कर रहा हूँ। तो तुम्हें भी करना चाहिये।‘
पूजा
का अर्थ है दैवीय वातावरण निर्मित
करना और उसमे विश्राम करना। जाप करना महत्वपूर्ण है| उसमें हज़ारों सालों
से चली आ रहीं तरंगे हैं। जैसे स्वरित्र वाद्ययंत्र (ट्यूनिंग फोर्क) में एक तरह की
कंपन वाले तार एक साथ बज उठते हैं उसी तरह जब आप उस मंत्र का जाप करते हैं जो आपकी
हजारों साल पुरानी चेतना में है, तब उसमें भी किसी गहन सतह पर संवेदिक कंपन उठते हैं।
इसलिये जब आप उन मंत्रों को सुनते हैं, तो आपके अंदर कुछ होता है। मैंने ये सिर्फ़ भारत
में ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में देखा है। शुरु में हम ‘ॐ नमः शिवाय’ का जाप करते हैं| उस वक्त वे लोग
जिनका संस्कृत से लगाव नही है या जिन्होंने वे शब्द पहले नहीं सुने, वे भी उसका जाप
करके कहते हैं कि हमारे अंदर कुछ हुआ है। हमारी चेतना बहुत प्राचीन है इसलिये वैदिक
मंत्र हमारी चेतना की गहरी परतों को छूने की शक्ति रखते हैं।
अब आप मुझसे पूछेंगे कि हम जर्मन या फ्रेंच या कन्नड
या उर्दू या तेलगु या आसामी या तमिल में क्यों नहीं गा सकते? आप किसी भी भाषा
में गा सकते हैं। लेकिन इन वैदिक मंत्रों का असर अलग होता है। इसलिये उनको मंत्र कहते
हैं। ‘मनहः त्रायते इति मंत्रः’, जिसके सुनने
से या जाप करने से आप का मन पार हो जाता है उसे मंत्र कहते हैं। ‘ॐ नमः शिवाय’, ‘ॐ नमो नारायणा’, इन महामंत्रों
में आपकी चेतना में बदलाव लाने की शक्ति है। भजन अलग हैं। आप ‘राधे श्याम’ गा सकते हैं। भजन
या दूसरी किसी अन्य भाषा के गाने अलग हैं। लेकिन जब आप ॐ का जाप करते हैं तो उसका आपकी
चेतना पर गहरा असर होता है।
प्रश्नः प्रिय गुरुजी जब मैं दुखी होता हूँ, तो दुख
भरी कवितायें लिखता हूँ| शब्द कहीं से अपने आप
फूंटते हैं। लेकिन जब खुश होता हूँ, तो ऐसा नही कर पाता। क्या आप मुझे बता सकते हैं
ऐसा क्यों है?
श्री श्री रविशंकर: जब आप खुश होते हैं,
तब आपकी चेतना फैलती है और जब दुखी होते हैं तो चेतना एकाग्र होती है। यह कारण हो सकता
है। जब आप आनंदित हैं लेकिन उत्तेजित नहीं हैं, बल्कि शांत और आनंदित हैं, तो सृजनात्मकता
उभरती है। जब आप उत्तेजित होते हैं तब मन में एक कोलाहल होता है और फैलाव भी। जब वह
व्याकुलता कम होती है, तो आनंद उपजता है और सृजनात्मकता आती है।
प्रश्नः हमनें बेसिक कोर्स में सीखा है कि लोगों को
और परिस्तिथियों को जैसे हैं वैसे अपनाएं। जब मैं कार्यालय में अपने वरिष्ठों से रोज़
अपमानित होता हूँ तो उसे किस हद तक स्वीकार करना चाहिए?
श्री श्री रविशंकर: देखिये, आप उन्हें स्वीकार
कर चुके हैं, इसीलिए उस नौकरी में अभी तक बने हुयें हैं| यह एक चुनौती है।
अगर आपको कोई और अच्छी नौकरी मिलती है तो इसे अलविदा कहिये। लेकिन यदि आपको दूसरी अच्छी
नौकरी नहीं मिल रही और आपको परिवार की जिम्मेवारी हैं तो ठीक है, इसी नौकरी को करते
रहिये|
प्रश्नः गुरुजी शुरुआत में भगवान श्रीकृष्ण के प्रति
गोपियों का प्रेम बांधनेवाला और अपेक्षापूर्ण था, लेकिन बाद में वह निरपेक्ष प्रेम
में बदल गया। यह कैसे हुआ?
श्री श्री रविशंकर: यह ज्ञान और बुद्धि के
द्वारा हुआ। जब आप यह जान लेते हैं कि आप खुद को पकड़ के नहीं रख सकतें तो आपको छोड़ना
ही पड़ता है।
प्रश्नः यदि यह जिंदगी एक स्वप्न है तो अपने वास्तविक
स्वरुप को कैसे जान सकते हैं?
श्री श्री रविशंकर: आप अपने वास्तविक स्वरुप
को नहीं जान सकते। आप यह जान सकते हैं कि सब कुछ परिवर्तनशील है। जब आप यह जानते हैं
कि सब कुछ बदल रहा है लेकिन वह जिसे ये बदलाव महसूस हो रहा है वह बदल नहीं रहा है।
एक स्थिर केन्द्र के अभाव में आप बदलाव को नहीं जान पाएंगे| आप कैसे कहते हैं
कि कुछ बदल रहा है। वह स्थिर केन्द्र जानने की चीज नही है, वह खुद ज्ञाता है। यदि आपके
अनुसार हर चीज़ को जाना जा सकता है तो यह सही नही है। जो स्वयं ही संपूर्ण है उसे जानने
लायक चीज मत बनाइये।
प्रश्नः गुरुजी हमारी पृथ्वी, वातावरण और प्रकृति को
क्या हो रहा है, इस पर प्रकाश डालें। खुद को एक बेहतर इंसान बनाने के प्रयत्न के बावजूद
मैं चिंतित रहता हूँ|
श्री श्री रविशंकर: दुखी मत होइये। प्रकृति
बुद्धिमान है। उसने बहुत लोगों में और अधिक पेड़ लगाने की इच्छा जागृत करी है। अपनी
नदियों, तालाबों के प्रति और संवेदनशील रहने की आवश्यकता जागृत की है। लोग आज कल पहले
से ज्यादा प्रकृति के प्रति जागरुक हैं। हम सही दिशा में चल रहे हैं। ‘आर्ट ऑफ लिविंग’ ने ५ करोड ९५ लाख
पेड़ लगाने का संकल्प लिया है। हमारे कार्यकर्ताओं ने बहुत काम किया है। हमें आप जैसे
लोग जो पृथ्वी की पीड़ा को महसूस कर सकते हैं, उनकी आवश्कता है। हम चाहते हैं कि आप
जैसे और नौजवान सामने आ जायें। आप इस देश को या जिस भी देश में आप रहते हैं, उसे अपने
जीवन का एक साल दें। इसे और बेहतर बनाने के लिये केवल एक साल दीजिए। एक साल की छुट्टी
ले लीजिए और इस दौरान अपने बाकी काम और जिम्मेदारियों को अलग रख दीजिए। मैं अपनी जिंदगी
का एक साल इस पृथ्वी और वातावरण को दान देनेवाला हूँ, ऐसा तय कीजिये। दरिद्रता को कम
करने के लिये, मानवीय मुल्यों को बढ़ावा देने के लिये, तनाव और हिंसा से समाज को मुक्त
करने के लिये आप एक साल दीजिए| कम से कम एक साल। यह बड़ा बदलाव लाऐगा।
आज सैकड़ों हज़ारों ‘आर्ट ऑफ लिविंग’ के शिक्षक इसमें
जुड़े हैं, निष्काम भाव से समाज के लिये काम कर रहें हैं। उन्हे किस चीज़ की जरुरत है? सादा खाना और रहने
के लिये सादी जगह। आसान जरुरतें हैं और उन्हें पूरा किया जाता है। इसीलिये यह संगठन
है जो इन बुनियादी जरुरतों को पूरा करता है तो शिक्षकों को कोई और जरुरत नहीं होती
तथा वे दिन रात काम करते हैं। हमारे पास यहाँ कई सारे पूर्णकालीन शिक्षक हैं। उन्होंने
अपना जीवन मानवता को समर्पित किया है, हर एक के चेहरे पर मुस्कान लाने के लिये, लोगों के जीवन
में खुशियां लाने के लिये। यह बात उनको बहुत खुशी देती है। जब आप औरों के जीवन मे खुशियाँ, आनंद फैलाते हैं,
उससे आपको बहुत आतंरिक संतुष्टि मिलती है। हमारे शिक्षकों को यह कार्य करने का जो आनंद
मिलता है, वैसा उन्हें कोई कार्य नहीं दे सकता। यह बहुत अच्छा है।
तो हमें और काम करने की जरुरत है। आप में से जिन लोगों
को भी समाज के लिये कुछ करने की इच्छा है वो हमारें साथ जुड़ जायें, मिल कर हम कुछ बड़ा
करेंगे। अकेले आप कुछ ज्यादा हासिल नहीं कर पाएंगे। एक अकेला व्यक्ति दिल्ली या यमुना
को साफ नहीं कर सकता लेकिन जब हजारों हाथ हर दिन यमुना और दिल्ली को साफ़ करने के लिये
जुड़ जाते हैं तो योजना पूर्ण हो जाती है।
प्रश्नः गुरुजी शुक्रिया, आखिर मेरी बारी आ गयी!
श्री श्री रविशंकर: ओह! मन मे प्रश्न लिये आप इतनी देर इंतजार कर रहे थे? पर क्या
आपने मेरे बाकी उत्तर सुने या नहीं? (उत्तर आया – ‘आधे अधूरे’)
यही होता है जब आप एक प्रश्न
में अटक जाते हैं। क्या पता, मुझे आपके प्रश्न का जवाब मालूम
ही न हो! क्या आप प्रश्न
को छोड़ देने के लिये तैय्यार हैं? (उत्तर आया ‘हाँ’)
तो प्रश्न को छोड़ दो|
प्रश्नः मैं तटस्थ रहना चाहती हूँ। न ही सकारात्मक, न ही नकारात्मक। जब मैं अपने पति से कहती हूँ कि ‘मुझे आपसे कोई शिकायत नहीं है, आप जो चाहे वह कर सकते हैं’ तो ये नकारात्मक प्रतीत होता है। क्या यह सचमुच नकारात्मक है? लेकिन मुझे ऐसा सोच के अच्छा लगता है और राहत मिलती है।
श्री श्री रविशंकर: हाँ, जब आप उन्हे यह कहेंगी कि ‘आप जो चाहे वह कर सकते हैं,
वह आपके लिये कोई मायने नही रखता, और
इसमें आप आनंदित हैं’, तो उन्हें यह लगेगा कि आप उनकी परवाह नहीं करतीं। ‘यह औरत मेरी फ़िक्र नहीं करती’! अगर आपको इससे राहत मिलती है तो यह अच्छा है।
शब्दों में क्या रखा है? आपने कुछ कह दिया,
उन्होंने कुछ कह दिया या फ़िर किसी और ने कुछ और कह दिया, यह तो चलता रहता है। यह सब
छोड़कर चिंता मुक्त हो जाइये। हँसते
रहिये और अपने दिल को साफ रखिये। कई बार न चाहते हुऐ भी मुँह से कुछ शब्द निकल जाते हैं या कई बार दूसरे लोग ऐसा कुछ बोल देते हैं, लेकिन वो कहना कुछ और चाहते हैं। जब कोई माँ अपने बच्चे को कहती है ‘दफा हो जा’ तो उसका वाकई
में ऐसा मतलब नहीं होता। लेकिन फ़िर भी वो कभी कह देती है कि ‘दफा हो जाओ, मुझे तंग मत करो’। तो लोगों के शब्दों को पकड़ के मत बैठिये।
शब्दों के पार देखिए। मै कभी भी इसकी चिंता नही करता कि
‘लोग क्या कह रहे हैं, क्या बात कर रहे हैं’। यह सब एक मनोरंजन है। तो इन बातों को हल्के ढंग से लिया जाना चहिये। समय बहुत मूल्यवान है और जीवन उससे भी अधिक मूल्यवान है। तो हमें अच्छा काम करते रहना चाहिये।
या तो आप काम करिये या ध्यान करिये, आप काम में अपना सौ प्रतिशत लगायें, फिर बैठकर ध्यान कीजिये।
किसी के शब्द अपने दिल से ना लगाईये,
(हँसते हुए) ‘सिवाय मेरे’! ज्ञान के शब्दों को अपने दिल के गहराई में उतारना चहिये न कि दूसरे लोगों के तानों को।© The Art of Living Foundation