२५.१२.२०११, जर्मनी
सभी को क्रिसमस और नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनायें|
२०१२ आने मे बस सिर्फ एक सप्ताह शेष है| हर साल की तरह
यह भी अच्छा साल है| प्रलय के बारे
मे मत सोचिये; वह नहीं आएगा| लोग जागेंगे और इस सच्चाई को जानेंगे, और गलत लोगों को
पृष्ठभूमि में जाना होगा| जिन लोगों ने गलत कार्य किये हैं वे पीछे की ओर जायेंगे और जो लोग सही दिशा
में कार्य कर रहे हैं; वे आगे की ओर बढ़ेंगे| मार्च के बाद एक बहुत बड़ा बदलाव आयेगा|
यदि आप इस विश्व को दिल से देखें, यह बहुत अलग है| इस विश्व को दिल के जरिये देखिये तो आपको इसकी
सुंदरता, इतना सारा प्यार, इतनी मासूमियत एवं लोगों के अच्छे इरादों के बारे में पता
चलेगा| यदि आप इसी विश्व को दिमाग से देखें तो हमें ढेर सारी चालाकी, ढेर सारा अविश्वास
और संदेह ही मिलेगा| यह सब तब दिखता है जब हम विश्व को दिमाग से देखेंगे| जब दिल से
देखें, तो यह बहुत छोटी सी दुनिया है| परन्तु
दोनों की ही जरुरत है| परन्तु इतने भोले होकर सिर्फ दिल के शीशे से ही इस दुनिया को
नहीं देखा जा सकता| कभी कभी दिमाग का भी इस्तेमाल करना पड़ता है, दोनों में तालमेल बनाना
होगा| कुछ लोग हैं जो दिमाग में ही फंसे
रहते हैं और कुछ लोग हमेशा भावुकता में| दोनों ही अपूर्ण हैं| योग दिल और दिमाग के
बीच सामंजस्य स्थापित करता है|
आप सभी को यह सोचना है कि आध्यात्म यूरोप में कैसे लायें|
आध्यात्म को यूरोप में लाने के लिए आप को हर संभव प्रयास करने होंगे| मेक्सिको की संसद के १३० सदस्यों ने आर्ट ऑफ लिविंग
का कोर्से किया है| हर तरफ से काफी प्रयास हो रहा है|
प्रश्न: कोर्से करने के बाद लोग फोलो अप में नहीं आते, ऐसे में क्या किया जाये?
श्री श्री रविशंकर : वे कभी न कभी वापस आएंगे| देखिये
आप खाना खा चुके हों तब आप खाने के बारे में नहीं सोचते क्योंकि आप तृप्त रहते हैं|
परन्तु जब आपको भूख लगती है, तब आप फिर खाना ढूंढते हैं|
आर्ट ऑफ लिविंग का बेसिक कोर्से अपने आप में इतना समृद्ध
है कि वह लोगों को संशय में नहीं छोड़ता है, पूरी तरह से तृप्त करता है| तो जब लोग कोर्से
करने के बाद खुशी महसूस करते हैं| यह एक कारण है| दूसरा कारण है कि जब आप लोगों से
आग्रह करते हैं कि उनको प्रतिदिन प्राणायाम और क्रिया रोज करनी है, और मानो कि किसी
ने ये नहीं किया हो तो उसके मन में अपराध की भावना आती है कि उन्होंने यह नहीं किया|
वे यह सोचते हैं कि मैं वापस जाकर लोगों का कैसे सामना करूँगा, कैसे मैं जा कर वह सब
दोहराऊंगा| यह अपराध की भावना लोगों के मन में आती
है| फिर वे अपने आपको यह कहकर समझाते है कि कल से जरूर करूँगा और फिर जाऊँगा| कोर्से करके कोई पछताता नहीं है| वे पछताते हैं
कि यह उन्होंने पहले क्यों नहीं किया| वे इसलिए वापस नहीं आते क्योंकि वे संतुष्ट महसूस
करते हैं| परन्तु कुछ समय बाद वे वापस फोलो अप में आते हैं| १० वर्ष बाद भी वे आते
हैं और कहते हैं कि उन्होंने १० वर्ष पहले कोर्से किया था|
एक यूरोपीय आयोग के अध्यक्ष ने कुछ १५ वर्षों पहले कोर्से
किया था| और जब वे अपने टीचर से मिले तो वे बताते हैं कि वे रोज क्रिया करते हैं| एक
दिन भी वे क्रिया करना नहीं भूलते| उन्होंने कभी एडवांस कोर्से नहीं किया है परन्तु
वे प्रतिदिन क्रिया करते हैं| तो, लोग अपने व्यस्त कार्यक्रम के बावजूद क्रिया करते
हैं|
प्रश्न: आप हमारे पास क्यों आते हैं?
श्री श्री रविशंकर: आपको यह बताने कि अपने भीतर झांकिये|
आप अभी क्यों आये हैं कोर्से करने? आपको तब आना चाहिए
जब मैं यहाँ नहीं हूँ| क्या आपको पता है कि क्या आपको यहाँ खींच लाता है! यदि आपका दिल कहता है कि आपको जाना चाहिए तो आप
आइये| अन्यथा, तब कीजिये जब मैं यहाँ नहीं हूँ| वास्तव में मौन बेहतर होता है जब मैं
यहाँ नहीं होता, परन्तु शुरू में यह एक अवसर है अपनी चेतना की गहराइयों में जाने का|
ज्यादा से ज्यादा लोग बैठकर ध्यान करते हैं और अपने गहन में जाते हैं| देखिये कोई अंदर
नहीं है, कोई बाहर नहीं है| यदि आप सोचते हैं कि अंदर कुछ है, तो कुछ बाहर भी है| यदि
आप सोचते हैं कि बाहर कुछ है, तो अंदर भी कुछ है| तो वास्तविक खिलना वह है जब कोई अंदर
या बाहर न हो| सब एक सामान है, अंदर और बाहर सामान है|
प्रश्न: (अश्राव्य (
श्री श्री रविशंकर: जैसे कि गहरी नींद में कोई दो नहीं
है| यह भी नहीं कि मैं सो रहा हूँ| वैसे ही ध्यान के गहन में कोई दो नहीं है| शरीर
भी सोफे पर एक तकिये की तरह है| यदि आप सोचते हैं कि दोनों में कोई फर्क नहीं है, तो
यही शरीर व चेतना का अलगाव है| तब आप देखते हैं कि कुछ भी नहीं है| जैसे बर्फ, पानी और भाप| बर्फ ठोस है, पानी तरल
और भाप उससे भी सूक्ष्म है| परन्तु वे सब एक ही तत्त्व से बने हैं| तो, कुछ भी दो नहीं
है| न कोई मैं हूँ और न कोई आप है| हमारा
छोटा सा दिमाग यह बाधा डालता है, यह भेदभाव देता है| तो, विश्राम कीजिये और आप देखेंगे कि सिर्फ एक, एक ही तरंग है|
प्रश्न: कैसे मैं एक शिशु विहार का आरम्भ कर सकता हूँ?
श्री श्री रविशंकर: सिर्फ कुछ बच्चे ले आइये| मैं अपने
आप को हमेशा एक बाल विहार में महसूस करता हूँ| यहाँ आने वाले व्यस्क भी जो यहाँ आते
हैं, बच्चे बन जाते हैं| पुराणों में एक सुन्दर कथा है| ऊपर
तिब्बत में कुमारा-वनम नामक एक बगीचा है और उस बगीचे में इश्वर का वास है| जो कोई भी
उस बगीचे में जाता, वह बच्चा बन जाता था|
इसी तरह कि एक कथा दुसरे ग्रंथ मे है| एक बगीचा था जहां
पुरुष प्रवेश नहीं कर सकते थे| जो भी उस बगीचे में जाता, वह महिला बन जाता| पुरुषों
का प्रवेश वर्जित था| यही वह जगह है जहाँ इश्वर वास करते हैं| ये सभी कहानियां यह संदेश
देती हैं कि आपको दिमाग से अपने दिल पर विश्वास करना चाहिए| बच्चे बहुत निर्दोष होते
हैं और वे जो भी करते हैं वह दिल से करते हैं| वैसे ही महिलाएं ज्यादा भावनात्मक होती
हैं और वे दिल से सोचती हैं, न कि दिमाग से| परंतु मैं कहूँगा कि आप मे दोनों का संतुलन
हो, दिल और दिमाग में|
प्रश्न: बड़ा धमाका जिससे ब्रह्माण्ड की शुरुआत हुई कैसे हुआ?
श्री श्री रविशंकर: कुछ द्रव्य था|
बिना द्रव्य के बड़ा धमाका नहीं हो सकता|
किसका धमाका किससे होगा?
एक दूसरे से धमाका करने के लिए कुछ तो होना पड़ेगा| कुछ द्रव्यमान, कोई क्षेत्र, ऊर्जा| ऊर्जा का वह क्षेत्र का न तो सृजन हुआ था और न ही विनाश, वह सिर्फ परिवर्तित हुआ था|
बड़ा धमाका केवल ऊर्जा का परिवर्तन था| मात्र गैस(वाष्प) और क्वांटम ऊर्जा से पर्याप्त ऊर्जा में, बस इतना ही| यही पुराने ज़माने के ऋषियों ने कहा है, और वे इसे ‘अनादि’ जिसका आरंभ नहीं है कहते थे| और ‘अनंत’ जिसका अंत नहीं है| इस सृष्टि की कोई शुरुआत नहीं है और कोई अंत भी नहीं है, जैसे अंतरिक्ष है| अंतरिक्ष की शुरुआत कहाँ है? पृथ्वी कहाँ से शुरू होती है? या तो कहिये कि कोई शुरुआत नहीं है, या मानिये कि हर बिंदु शुरुआत है, और हर बिंदु अंत है| अगर आप कहेंगे कि भूमंडल यहाँ से शुरू हुआ है, तो उसे खत्म भी वहीँ होना होगा, नहीं तो वह गोलाकार नहीं रहेगा|
तो इस तरह कुछ अति बुद्धिवादी विचार थे जो हज़ारों साल पहले प्रकट किये गए थे|
जो जहाँ शुरू होता है, उसे वहीँ अंत होना होगा, और वही गोलाकार है| इसीलिए न तो कोई शुरुआत है, न ही कोई अंत है, अनादि और अनंत! इस सृष्टि का कोई आरंभ नहीं है,
और कोई अंत नहीं है|
प्रश्न: (अश्राव्य)
श्री श्री रविशंकर: एक काँटा ही दूसरे कांटे को निकाल सकता है| देखिये, यह तो वही बात हुई, कि शरीर पर साबुन लगाने की क्या ज़रूरत है, यदि हमें उसे बाद में धो ही देना है? कपड़े धोने के लिए आप क्या करते हैं? आप साबुन लगाते हैं और फिर उसे धो देते हैं| इसी तरह,
आप मुझसे पूछ रहें हैं,
कि यदि बस से उतरना ही है,
तो मैं बस में चढूं क्यों?
लेकिन जिस जगह से आप बस में चढ़े हैं,
और जिस जगह उतरे हैं, वे अलग अलग हैं|
प्रश्न: मन हमेशा नकारात्मक को ही क्यों पकड़ता है, सकारात्मक को क्यों नहीं?
श्री श्री रविशंकर: हाँ,
यह उसका स्वभाव है| आप किसी की दस तारीफें करें और एक अपमान करें,
तो मन उस अपमान को पकड़ के बैठ जाता है| जैसे ही आप इसके प्रति सजग हो जाते हैं,
तो आप में परिवर्तन आ जाता है| जब आप इसके प्रति सजग नहीं होते, तब आप फँस जाते हैं और इसमें बह जाते हैं| लेकिन एक अच्छे वातावरण में, जहाँ उच्च प्राण शक्ति और उच्च ऊर्जा शक्ति है, वहां ऐसा नहीं होता|
गुरु आते हैं,
आपकी प्राण शक्ति बढ़ाने के लिए| प्राण शक्ति और ऊर्जा शक्ति गुरु की भौतिक उपस्थिति में बढ़ जाती हैं| जब प्राण शक्ति ज्यादा होती है,
तब नकारात्मकता कम होकर विलुप्त हो जाती है|
और यदि आप लंबे समय से निरंतर साधना कर रहें हैं,
तब भी नकारात्मकता आपको छू नहीं सकती| आप इतने शक्तिशाली हों जाते हैं,
कि आप जहाँ जाते हैं,
वहां की प्राण शक्ति आप बनाते हैं!
अगर दिए की लौ बहुत ऊंची होती है,
तो हवा उसे बुझा नहीं सकती| लेकिन अगर छोटी होती है तो हवा उसे बुझा देती है|
आपको ज़रूरत है ‘बुद्ध’, ‘संघ’ और ‘धर्म’ की| सर्वप्रथम आप बुद्ध या परम ज्ञानी के पास जाते हैं, आप उनके साथ बैठते हैं,
ध्यान करते हैं| यह संघ के सामान है,
एक समूह में ध्यान करना,
उससे भी प्राण शक्ति बढ़ जाती है| जब ये दोनों ही उपलब्ध न हों, तब धर्म,
यानि बिलकुल निष्पक्ष हो जाये|
सब कुछ छोड़ दे,
और अपनी ‘आत्मा’, अपने स्वभाव में रहे| यह भी प्राण शक्ति बढ़ाता है|
तीन तरीकें हैं,
और ये तीनों एक से हैं|
प्रश्न: गुरूजी, कभी कभी मैं बहुत श्रद्धा में होता हूँ, और कभी कभी बहुत संशय में| इस पर कैसे काबू पाऊँ?
श्री श्री रविशंकर:
जब सकारात्मक ऊर्जा होती है,
तब श्रद्धा, विश्वास होता हैं| जब नकारात्मक ऊर्जा होती है,
तब संशय होता है| लेकिन,
कोई बात नहीं,
अगर संशय आता है| जीवन इन सबका ही तो खेल और प्रदर्शन है| संदेह आते हैं,
फिर विश्वास आता है| आपको संशय से डरना नहीं चाहिए| मैं तो कहूँगा,
उनका स्वागत करिये|
प्रश्न: (अश्राव्य)
श्री श्री रविशंकर: हाँ,
वे दोनों एक ही हैं| बुद्ध ने कहा ‘सब शून्य है’ और आदि शंकर ने कहा ‘सब पूर्ण है’| बुद्ध ने कहा ‘जीवन दुःख है’ और आदि शंकर ने कहा ‘जीवन आनंद है’| पहले उदाहरण के लिए बुद्ध सही कह रहें हैं| जब तक आप यह नहीं देखेंगे कि सब कुछ दुःख और कष्ट है, तब तक आप अंतर्मुखी नहीं होंगे| तो यह तरीका है| एक बार आप अंतर्मुखी हों गए, तब आपको सब आनंदमय लगता है| आदि शंकर इसी के बारे में कह रहें हैं|
प्रश्न: गुरूजी, क्या हमें आपकी आवाज़ में एक भजन की सी.डी. मिल सकती है?
श्री श्री रविशंकर:
मैं हर चीज़ पर हावी नहीं होना चाहता| यहाँ बहुत सारे महान संगीतज्ञ हैं,
जो इतना अच्छा गाते हैं| मैं चाहता हूँ कि आप उनकी आवाज़ सुनें| मैं तो केवल ‘सोहम’ करता हूँ, और बाकी सबके लिए आप संगीतकारों को सुनें| हाँ,
प्रवचन तो हैं ही| नहीं तो क्या होगा,
कि ‘गुरूजी के भजन’, गुरूजी के प्रवचन’, सब कुछ गुरूजी का!
नहीं! इसीलिए ‘योग’ भी कोई और कराते हैं|
हम सब साथी हैं, हर एक की कोई भूमिका है| मैं सारी भूमिकाएं नहीं लेना चाहता| हालाँकि मैं कोई भी भूमिका निभा सकता हूँ, लेकिन मैं सारे किरदार नहीं निभाना चाहता| फिर आप कहेंगे,
कि ‘गुरूजी आप कितना अच्छा खाना पकाते हैं,
आप रोज़ क्यों नहीं पकाते?’
कभी कभी मैं यहाँ भोजन पकाता हूँ,
लेकिन आपको पता नहीं चलता कि कब!
आपको दिन में किसी एक समय का भोजन मुझसे मिलेगा| भारत में तो अब भोजन पकाना बिलकुल असंभव हों गया है| मैं तो रसोई में घुस भी नहीं सकता,
इतनी भीड़ होती है| आम तौर पर, पुराने दिनों में मैं रसोई में जाता था और कुछ नए नए व्यंजन बनाने के प्रयोग करता था| कम से कम यहाँ ऐसा करने की सुविधा है,
मगर भारत में तो यह असंभव है|
आपको पता है, हम भारत में एक दिन में कितना नमक इस्तेमाल करते हैं?
जब मैं वहां होता हूँ, तो एक समय के भोजन में करीब १५० किलो! जब मैं नहीं होता हूँ, तब एक समय के भोजन में १०० किलो! कभी कभी तो यह ३०० किलो तक पहुँच जाता है, तो आप सोच ही सकते हैं, कि कितना सारा खाना बनता है और कितने सारे लोग आते हैं|© The Art of Living Foundation