एक शिष्य को खाली और खोखला होना चाहिये


१२.१२.२०११, बैंगलुरू आश्रम

प्रश्नः जब मैं ध्यान कर रहा था तो मैंने महसूस किया कि मेरा मन विलीन होता जा रहा है। मुझे यह पता नही यह मन आता कहाँ से है?

 श्री श्री रविशंकर: यह मन आपका मित्र और शत्रु भी है। यदि यह आपकी सुनता है तो यह आपका मित्र है और जब यह ईधर उधर भटकता है तो शत्रु है| इस पूरी दुनिया में अपने मन से बडा कोई शत्रु नही है।

प्रश्नः ऐसा कहा जाता है कि महाभारत के युद्ध के बाद भारत का पतन होना शुरु हुआ क्योंकि हमने बहुत सारे प्रतिभावान व्यक्ति उस युद्ध में खो दिये। इस बारे में आपकी राय क्या है ?

श्री श्री रविशंकर: निःसंदेह हर युद्ध में प्रतिभावान व्यक्ति, संसाधन, मनुष्य एवं मूल्य सबका विनाश होता है। लेकिन महाभारत के बाद और प्रतिभाशाली लोग भारत में नहीं हुए यह  कहना गलत है। चाणाक्य, शंकराचार्य, गौड़पदाचार्य, शुका महर्षि और कई महाभारत के बाद भी हुए हैं। तो यह पूर्ण सत्य नहीं बल्कि अर्धसत्य है।

प्रश्नः भगवान श्री कृष्ण ने भगवद गीता में कहा है कि न उनको कोई प्रिय है न अप्रिय है। और वे यह भी कहते हैं कुछ लोग मुझे बहुत प्रिय हैं। कृपया इस द्वंद्व का निवारण कीजिये?

श्री श्री रविशंकर: विरोधाभासी बात करके भ्रम पैदा करना यह भगवान श्रीकृष्ण की विशेषता है। अलग अलग स्थितियों में और अस्तित्व के विभिन्न स्तर पर वे यह बात करते हैं और यह दोनों सही हैं। एक स्तर पर वे कहते हैं जो लोग शांत, दयालु, आनंदी और प्रेमपूर्ण होते हैं वे मुझे प्रिय हैं। इसलिये तुम मुझे प्रिय हो यह सत्य है।
किसी अन्य समय वे कहते हैं मुझे कोई प्रिय या अप्रिय नही है। सब लोग मुझे प्रिय हैं और सबमें मैं अपने आपको देखता हूँ। भगवद गीता जितनी विरोधाभास बातों से परिपूर्ण ग्रंथ है जो आपने कभी पढ़ा नहीं होगा और वह विरोधाभस से परिपूर्ण होने के कारण पूर्णतः सत्य है।

प्रश्नः अलग अलग तरह के ध्यान की क्या विशेषताएं हैं?

श्री श्री रविशंकर: हर तरह के ध्यान का एक ही उद्देश्य है| आपको अपने केंद्र में लाना, उस आतंरिक आनंद और शांति की स्थिति में लाना। आपके इधर उधर भटकते हुए मन को पकड़ के केंद्र मे लाने के लिए मेरे पास कई युक्तियाँ हैं।

प्रश्नः गुरुजी आप बार बार कहते हैं कि आपके पास हमें देनें के लिए बहुत कुछ है लेकिन हमें  उसे ग्रहण करने की क्षमता होनी चाहिए। तो आपके उस सर्वोत्तम शिष्य में क्या गुण होनें चाहिए?

श्री श्री रविशंकर: एक शिष्य को खाली और खोखला होना चाहिये। और साथ में  आप जो भी आप सुनते है या सीखते है उसे भूल मत जाइये । ज्ञान का अध्ययन कीजिये, उसे बार बार पढ़िए। यह मान कर कि आप कुछ जानते ही नहीं हैं। आप कुछ जानते हैं इस बात का गर्व मत होने दीजिए। स्वाभाविक और सरलता के साथ रहिये।

प्रश्नः "अहम ब्रह्मस्मि" यह परम ज्ञान है लेकिन भक्ति में इतना रस है कि आप ईश्वर के साथ एकरूप हों, यह भी भक्ती के रस के आगे फीका लगता है। भक्ति ही अंतिम पड़ाव है या उससे आगे भी कुछ है?

श्री श्री रविशंकर: हाँ, "अहम ब्रह्मस्मि" यह एक संकलपना के स्तर पर फीका लगेगा लेकिन वस्तुतः ऐसा नहीं है। आप एक बार उस स्तिथि में जब पहुँचते है तो उसके बाद सिर्फ भक्ति शेष रहती है। नहीं तो भक्ति आप को उस स्तिथि में अपने आप पहुँचा देती है।

प्रश्नः गुरुजी मेरे बच्चों ने आर्ट एक्सेल का कोर्स किया है, वे रोज क्रिया करते हैं फिर भी घर में चोरी करते हैं, मैं क्या करुँ ?

श्री श्री रविशंकर: क्रिया करने के बाद बच्चे चोरी करना बंद करेंगे ऐसा नहीं है। यह बात अच्छी है कि वे  क्रिया कर रहे हैं, लेकिन आपको यह पता लगाना होगा कि उनको चोरी करने की ईच्छा या उनकी जरुरत क्या है। आप उनको बिठा कर बात कीजिए, उनको यह बताएं कि उनको किसी चीज की जरुरत है तो वे मांग लें, वे  जो मांगेंगे, आप उन्हे देंगे। पालक अपने बच्चों को ही इस तरह बना देते है। वह उन्हें पैसे देते हैं और कहते हैं, यह तुम्हारे पैसे हैं, इसे किसी को मत देना। जब वे पाठशाला खाना लेकर जाते हैं तो आप यह बताते हैं कि यह आपका खाना है, आप ही खाना, किसी दोस्त को मत देना। यह कह कर आप उस बच्चे की उदारता जो उसका स्वभाव है, उसे खत्म कर रहे हैं। जब मैं बच्चा था तो हमारे घर में एक डिब्बे में पैसे रखे होते थे, जब भी हमें जरुरत पड़ती, हम वहाँ से लेकर खर्च करते थे और  शेष उसी डिब्बे में रखते थे। हमें कभी यह नहीं लगा कि यह मेरे पैसे हैं, मैं इसे अपनी जेब में रखूं। इतने सारे लोग घर में रहते थे लेकिन कोई उसमें से ज्यादा पैसे उठाता नहीं था। जितना चाहिये उतने लेकर शेष वापस रखते थे। घर में एक ही पैसे रखने की जगह थी। घर के बच्चों में ऐसे मूल्य बढ़ाने चाहिए। एक डिब्बे में जितने आपने पैसे रखने है उसे रख दीजिए, इस तरह बच्चों में भी भाईचारा बढ़ेगा।

प्रश्नः गुरुजी कुछ लोग कहते हैं कि शादी शुदा औरतों को ललित सहस्त्रनाम का जाप नहीं करना चाहिए। यदि यह  सच हैं तो इस बारे में मार्ग दर्शन कीजिये ?

श्री श्री रविशंकर: हमारे देश में लोग कुछ भी कहते रहते हैं। कुछ कहते हैं कि शादी शुदा औंरतो को ललित सहस्त्रनाम का जाप नहीं करना चाहिए, कुछ कहते हैं घर में शिवलिंग नहीं रखना चाहिए। कुछ कहते हैं औरतों को ॐ नमः शिवाय का जाप नहीं करना चाहिये।यह  सब झूठ है। हमारे शास्त्रो में ऐसा कहीं लिखा नहीं है। अच्छी चीजें सभी को पढनी चाहिए। किसी को इस तरह की अंधश्रद्धा में नहीं पढ़ना चाहिए। इन दिनों सच्चा पंडित या पुजारी मिलना बहुत मुश्किल है। कई बार जो पुजारी शादी करवाने आते हैं वो अंत्यविधि के मंत्र पढते हैं और किसी को पता ही नहीं होता कि पंडित जी क्या बोल रहे हैं और कौन सा मंत्र किस लिये है। पुजारी आये, मंत्र पढ़े और काम हो गया। जो संस्कार हो रहा है या जो मंत्रोच्चारण हो रहा है उसमें कोई सच्चाई नहीं है। कई बार आप खुद संस्कार खत्म कराने की जल्दी में होते हैं। आप ही पंडित जी से कहते हैं जल्दी कीजिये। बैठ कर जो मंत्रोच्चारण हो रहा है उसको सुनने में, समझने में आपकी कोई दिलचस्पी नहीं होती है।
एक ईसाई पादरी को जो सम्मान मिलता है वह हमारे देश में पंडितों को नहीं मिल रह है जो उन्हें मिलना चाहिए। हमारे देश में उनको सही शिक्षा भी नहीं मिल रही है। इसलिए हमने पंडितों को शिक्षा देने के लिये वेद विज्ञान महाविद्यापीठ नाम से शाला शुरु की है जिसमें उनको वैदिक धर्म संस्था के अनुसार शादी तथा अन्य विधि सिखाई जाती हैं जिससे  लोग जान सकें कि शादी का सच्चा अर्थ  क्या है। शादी सिर्फ मंगलसूत्र पहनना नहीं है, सप्तपदी यानी शादी है। जब तक सप्तपदी नहीं होती है, तब तक शादी पूर्ण नहीं है, और सप्तपदी का अर्थ जानना बहुत महत्वपूर्ण है। आप में से जो इच्छुक हैं, मैं उनको दो महीने के शिक्षणक्रम के लिये आमंत्रित करता हूँ जिसके उपरांत आप शादी, नामकरण, गृह प्रवेश, व्रतबंधन, अंत्येष्टि जैसे संस्कार करने के लिये पात्र होंगे। जो किसी की मृत्यु के पश्चात संस्कार किये जाते हैं उनका अर्थ बहुत गहन होता है। उस संस्कार में जो काले तिल और पानी चढाते हैं उसका अर्थ है जो मृत आत्मा की कामनाएं शेष हैं और जो उसको बांध रही हैं, वह बहुत ही तुच्छ हैं उन्हे छोड़ कर मुक्त हो जाये| हम उन कामनाओं को पूरा करेंगे। इसलिये उस विधी को तर्पणम कहते हैं। एक पुत्र या पुत्री इस संस्कार को कर सकते हैं। इसलिए दिवंगत को यह बताने के लिये कि सब छोड़ दो और मुक्त हो जाये, और जो अधूरा है उसे हम पूरा करेंगे को तर्पणम करते हैं।
यह सारे संस्कार अत्यंत महत्वपूर्ण हैं लेकिन हम उन्हें भूल गये हैं। लेकिन अब आर्ट ऑफ लिविंग में हम लोगों को शिक्षित करके इन संस्कारों को पुनर्जीवित कर रहे हैं।

प्रश्नः गुरुजी जीवन के हर कदम पर यदि असफलता मिल रही हो और गुरु के पास आने के बाद और बढ़ जाये तो कोई क्या करे, इस स्थिति में कौन से ज्ञान का प्रयोग करें?

श्री श्री रविशंकर: यदि ऐसा हो रहा है तो हर बार जब आपकी योजना असफल हो जाऐ तो आनंदित हो जाये 'आज मेरी  यह योजना  असफल हो गयी' और उसे समर्पित कर दीजिये। यदि आप अपनी असफलता छोड़ नहीं सकते तो आप सफलता कैसे छोड़ सकेंगे| जब आप असफल होते है तो उस असफलता को पकड़ कर क्यों बैठते है, उसे छोड़ कर मुक्त हो जाये। तब आप कह पायेंगे कि मैं मुक्त हूँ। यदि आप सफल हो जाते हो तो आप को एक के बाद एक और योजनायें मिलेंगी लेकिन आप असफल हो तो आप निश्चिंत है। सिर्फ़ इतना जरुर देखे कि कार्य में असफलता के बारे में सोच कर परेशान हो कर आपका ह्रदय ना रुक न जाये।

प्रश्नः गुरुजी किसी प्रियजन की मृत्यु होती होती है और पुनर्जनम हो जाता है, लेकिन हम उसके नाम से तर्पणम देते रहते हैं। उस स्तिथि में हमारा चढावा कहाँ जाता है?

श्री श्री रविशंकर: पुराने जमाने में लोग बहुत ज्ञानी थे, जब उनके सम्बन्धी पुनः जन्म प्राप्त करते थे तो उन्हें पता चल जाता था और वे  चढावा अर्पण करना बंद कर देते थे। लेकिन आपको पता नहीं चलता कि आत्मा का पुनः जन्म हुआ है या नहीं और आप तर्पण करते रहते हैं। आपको अपने पूर्वजों को याद करने में कोई दोष नहीं है, यह अच्छी बात है। संत कबीर दास ने कहा है, नाम जपना क्यों छोड दिया क्रोध न छोड़ा झूठ न छोड़ा सत्य वचन क्यों छोड़ दिए


The Art of living © The Art of Living Foundation